मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में के ये अंश मुझे अक्सर याद आते हैं:
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
व्यभिचार के बिस्तर के साथ न तो व्यभिचार होता है न वह व्यभिचार करता है लेकिन वह व्यभिचार में सहायक होता है। इनकी संख्या बढ़ रही है।
मुक्तिबोध मराठी माणूस थे। हिन्दी कवि। इधर कल ठाकरे साहब ने तेन्दुलकर को समझाइस दी कि वे मुंबई को सबकी बताकर राजनीति न करें। सचिन कोई राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं। लेकिन उनके सहज बयान पर राजनीति कर गये उनके प्रशंसक।इस पर प्रदीप परिहार ने उनको समझाइश दी:
मुझे नहीं लगता इस बयान से शिवसेना के वोट बैंक में इजाफा में होगा । असल में पिछले सत्ताह एसबीआई भर्ती परीक्षा में केवल मराठीमानुष का मुद्दा उठाकर राज ठाकरे मीडिया में थे ।अब सचिन का अपमान करके बाल ठाकरे मीडिया में बने हुए है । दोनों ही चाचा बतीजे को हमारी सलाह ये है कि अभी भी वक्त है सुधर जाओं । नहीं ंतो मराठी जनता ही तुम दोनों को सबक सिखाएगी ।
हम तो मनोरंजन के लिये सिनेमा देखते हैं यह सब देखना है तो ... पैसे क्यों खर्च करें में दर्शकों की सिनेमा के बारे में समझ की तरफ़ इशारा करते हुये शरद कोकास ने लिखा:
लेकिन इस बीच दर्शकों की एक नई समझ विकसित हुई है और वे बेसिर-पैर की फिल्मों को नकार रहे हैं इनमें न केवल भूत-प्रेत,अपराध, फूहड़ हास्य ,सस्ते रोमांस आदि की फिल्में है बल्कि दर्शक तकनीकी दृष्टि से कमज़ोर फिल्मों को भी नापसन्द कर रहा है । इसके बावज़ूद निर्माता करोड़ों रुपये खर्च कर ऐसी निरर्थक फिल्में बना रहे हैं ।वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे फ़िल्मकार भी हैं :
लेकिन समाज की चिंता करने वाले फिल्मकार इससे निराश नहीं है वे अपनी गाँठ का पैसा लगाकर ऐसी फिल्में बना रहे हैं और बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य या लोकप्रियता की फिक्र किये बगैर अपने काम में लगे हैं ।
13,14,15 नवम्बर को भिलाई में जन संस्कृति मंच द्वारा “ मुक्तिबोध स्मृति फिल्म एवं कला उत्सव “ की रपट विस्तार से देखिये अच्छा लगेगा।
दालों की आपसी बहस ब्लागरों की बहस से भी ऊंचे स्तर की हो गयी और दाल रिपोर्टर शेफ़ाली पाण्डेय ने बिस्तर पकड़ लिया। पूरी खबर विस्तार से !
अर्कजेश लिखते हैं:
गढ्ढे खोदोगे तुम्ही पहले गिरोगे
कोई नागा नहीं है इस नियम में।
दिल में अपने एक तुम सागर बसा लो
फ़ासला धरती-गगन में नहीं है।
तभी तो कहते है पिता एक विशाल बरगद की माफिक होते है .....दुःख ओर मुश्किलों को अपनी बांहों में छिपाए .. ये टिप्पणी है डा.अनुराग आर्य की सुशील छौक्कर की इस पोस्ट पर। इसमें वे अपने पिता के जीवट को याद करते हुये बताते हैं:
अजीब सी हालत हो गई थी हम सब की। खासकर पिताजी की। सारा पैसा पानी में चला गया। पहले ही इतना कर्ज हो चुका था। मैं सोचने लगा अब आगे क्या होगा। अगले दिन हम सब बैठे हुए थे तब मैंने पिताजी से पूछा “अब क्या होगा पापा?” उनका जवाब एक लाईन में आया “अभी हाथ नही गड़े धरती में मेरे” और बाहर निकल गए। आज भी कोई परेशानी आती है तो पिताजी के कहे ये शब्द मुसीबतों से लड़ने का ज़ज़्बा दे जाते है।
समीरलाल आशा पर आकाश के बदले देश को टिकाने का प्रस्ताव पेश कर गये। चार लाईन की कविता सुनाने के लिये भाई लोग चालीस लाइन की भूमिका ठेल जा रहे हैं और आप कुछ नहीं कर पाते सिवाय माडरेशन में वाह-वाह करने के।
अब आये हैं तो सुन ही लीजिये भाई कवि कहता है:
जब भी मांगा हमने तुमसे, हक बतलाना भूल गये
तुम तो थे नादान मुसाफिर, आना जाना भूल गये
जैसा भी तुम कहते आये, हमने जीना सीख लिया
पर तुमसे आशा पानी की, क्यूँ बरसाना भूल गये
आनन्द वर्धन ओझा जी प्रख्यात साहित्यकारों से जुड़े अपने आत्मीय और अनूठे संस्मरण पेश करते हैं। आज देखिये अप्रतिम गद्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी से जुड़ी उनकी यादें। वे लिखते हैं:
बेनीपुरीजी के घर से जाने के बाद मैं अपनी उद्दंडता में उनके हकलाकर और अटक-अटककर बोलने की नक़ल उतारता। अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर परिहास करता। मेरी माताजी के कानों में मेरे अभिनय और परिहास के स्वर पड़ते, तो वह आकर वर्जना दे जातीं; लेकिन जैसे ही वह आंखों से ओझल होतीं, मैं अपनी कारगुजारियों से बाज़ न आता। एक-आध महीने में ही बेनीपुरीजी के बारे में मेरा आकलन इतना परिपक्व हो गया था कि बगल के कमरे में पढ़ने के लिए बलात् बैठाया गया मैं भविष्यवाणियाँ किया करता कि बेनीपुरीजी अमुक प्रश्न का कोई उत्तर न देंगे; अमुक का इतने क्षणों के बाद यह उत्तर देंगे और जब शब्दों के थोड़े अन्तर से उनके मुख से वही उत्तर निकलता, तो हमारी हँसी रोके न रुकती।
मास्टर साहब जानकारी देते हैं--बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाने की डगर पर चलना उत्तर-प्रदेश के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण मास्साब आप ई बताइये कौन काम चुनौती पूर्ण नहीं होता। कुछ करना अपने आप में चुनौती पूर्ण काम है क्योंकि वह न्यूटन के जड़त्व के नियम का प्रतिरोध करता है।
इस बीच मास्साब ने एक चुनौती पूर्ण काम कर दिया और विवेक निराला जी का ब्लाग बनवा दिया। आप देखिये विवेक क्या कहते हैं अपनी ओपनिंग पोस्ट में:
क्या हमारे कंसर्न से ही किसान गायब है? विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड तक किसानों की आत्महत्याएं क्या हमें आंदोलित नहीं करतीं? मुक्त बाज़ार से लेकर दलित और स्त्री विमर्श करने वाले हमलोग क्या सचमुच आत्मरति के शिकार हैं? जबकि मुक्त बाज़ार के मसीहा खाद्यान्न का कोई विकल्प नहीं ढूंढ सके हैं ऐसे में सचमुच सृजन करने वाले किसान के पक्ष में न बोलना हमारे समय में गद्दारी नहीं? सुधा के शब्द उधार लेकर कहें तो क्या ये साइलेंस ऑफ़ वायलेंस नहीं?
मनोज जी पेश करते हैं हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा --दास न छाड़े चाकरी... देखिये काम में लगने केपहले एक सरकारी कर्मचारी क्या-क्या करता है:
आफिस के रास्ते पड़ने वाले लगभग आधा दर्जन मन्दिरों की चौखट पर माथा टेकते आफिस कब आ गया उसे ध्यान ही न रहा। उसने झट से अपनी साइकिल स्टैण्ड में लगाई और गंगा जी को प्रणाम किया। आफिस की कुर्सी पर बैठने से पहले उसने मेज पर शीशे के नीचे लगी देवी-देवताओं की तमाम फोटुओं को सादर चरण स्पर्श किया और काम में लग गया।
गौतम राजरिशी की अभी तक आप गजलों से बोर करते रहे। अरे ये हम नहीं वे खुद कह रहे हैं भाई।
मिथिलावासियों को वैसे भी गप्प-सरक्का का व्यसन होता है। मैं मैथिल हूँ और अचानक से ये मैथिल होना मेरे ब्लौगर होने को धिक्कारने लगा कि कैसा मैथिल हूँ कि अभी तक बस अपने लिखे ग़ज़लों से बोर करता रहा हूँ आपसब को।.
इस अपराध बोध कि दूर करने के लिये वे तान्या की मम्मी की आवाज में मैथिली कवि विद्यापति का गीत -
हे हर, हमहु पैहरब गहना अब आपको तान्या, तान्या की मम्मी के बारे में जानने का मन हो तो वहीं जाइये सुनिये/पढिये और सराहिये।
एक लाईना
- क्या जेल फ्लाप हो सकती है?: हां ,बशर्ते वो सिनेमा हो।:
- छोटी सी मुस्कान भिडू:ये लफड़ा वरदान भिडू
- देश का बदला हुवा वातावरण है:जम्हुआते हुये हो रहा जागरण है
- क्यूं टूट गये? :जरा सी बात पर फ़ूट गये?
- मुआवज़े में भेदभाव - देने वाला सेकुलर, विरोध करने वाला साम्प्रदायिक (एक माइक्रो पोस्ट) :मुआवजे के साथ मुफ़्त में
- क्या फ़िर से ??? : वही दास्ताने इश्क दोहरायी जायेगी?
- आजकल ज़रा बीमार हूँ : और यह खबर सुनते ही दालों के भाव बढ़ गये
- कबाडी और साहित्यकार ! : दोनों एक ही ग्रुप में धर दिये गये
- हिंदी को गाय और ब्राह्मण की तरह पवित्र मत बनाईये :पवित्रता में बरक्कत नहीं आजकल
- होशियारी दिखाने के चक्कर में हम अपना ही कबाड़ा कर जाते हैं : इसके बाद फ़िर कोई होशियारी दिखाते हैं
- बसंत का गीत : जाड़े में गा दिया
- किस मुगालते में है बाल ठाकरे ? :किसी मुगालते में नहीं बुजुर्गियत के पाले में हैं बावरे!
मेरी पसंद
जुए के तले ही सही
जो चले
वे ही आगे बढ़े
जिनकी गर्दन पर भार होता है
उनके ह्रदय में ही क्षोभ होता है
कैद होते हैं जिनके अरमान
वे ही देखते हैं मुक्ति के स्वप्न
जो स्वप्न देखते हैं
वे ही लड़ते हैं
जो लड़ते हैं
वे ही आगे बढ़ते हैं
जो खूँटों से बँधे रहे
बँधे के बँधे रह गये
जो अपनी जगह अड़े रहे
अड़े के अड़े रह गये।
शिवराम
परणाम अनुप, जी शानदार और जानदार चर्चा के लिए आभार
जवाब देंहटाएंशानदार और जानदार चर्चा...
जवाब देंहटाएंउम्दा रही चर्चा..क्या करूँ..सोचता हूँ कुछ और लिखूंगा पर नीचे एक लाईना आता है तो सब भूल जाता है...
जवाब देंहटाएंविवेक निराला जी भी आ गये इधर । अच्छा है ।
जवाब देंहटाएंएक लाइना और आपकी पसन्द लाजवाब हैं । आभार ।
फुरसतिया "अनूप शुक्ल" तो चर्चा में माहिर हैं।
जवाब देंहटाएंयह हम नही कहते! जग जाहिर है!!
वाह ! निराली चर्चा, बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंवाह वाह सर जी, क्या ख़ूब चर्चा की है।
जवाब देंहटाएंबडिया शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबेमौसम बरसात हो रही है और फ़ुरसत से फ़ुरसतिया चर्चा पढने का मज़ा दोगुना कर रही है।
जवाब देंहटाएंचर्चा पसन्द आया, शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंआज बड़े दिनों बाद शुक्ल जी की "मेरी पसंद" दिखी है चर्चा में...शिवराम जी की इस लाजवाब कविता के लिये शुक्रिया, देव और मेरी पोस्ट-चर्चा के लिये भी!
जवाब देंहटाएंनीरज जी की ग़ज़ल के मिस्रे पे जोड़ा हुआ एक लाइना ठहाका लगवा गया जोर का...
सुकुल जी अच्छी चर्चा किहेव |
जवाब देंहटाएंमाथि के माखन निकाल देहेव |
नीक लाग ...
आभार ... ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सँतुलित रही आज की चर्चा !
फिर भी मन में उठ रहा है, सादर एक सवाल.. ..
बरास्ते ब्लॉग-पोस्ट ही सही चर्चा में श्री मुक्तिबोध को दोहराते रहना क्या, मीडिया की तर्ज़ पर ’ हॉट टॉपिक ’ को पकड़ लेने जैसा नहीं है ?
मराठी मानुष को प्रादेशिकता के स्तर से ऊपर उठ केवल रचनाकार की हैसियत से ही देखा जाना चाहिये । उसकी रचनायें ही उसका समर्पण और उसकी पहचान है ।
उम्दा चर्चा !
जवाब देंहटाएं"जो स्वप्न देखते हैं
जवाब देंहटाएंवे ही लड़ते हैं
जो लड़ते हैं
वे ही आगे बढ़ते हैं"
अब समझ में आया ब्लागर-लडाई का राज़ :)
शेफ़ाली पाण्ड्या शीघ्र स्वास्थलाभ करें॥
शानदार चर्चा. "पास-पडोस" और "मुक्ताकाश" को चर्चा में देख कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंएक ही विषय को अलग अलग नजरिये से देखने का प्रयास .....यहाँ देखे ....पहली पोस्ट कबाडखाना से
जवाब देंहटाएंओर दूसरी पोस्ट महेश
जी की
तीसरी पोस्ट जिसे पाठको के लिए सिफारिश करना चाहूँगा ...वो है विधु जी की ये पोस्ट
ओर चौथी पोस्ट संजय जी की जो अभी लिखी गयी है आज ......
इसके अलावा महेन की दूसरा प्यार की सिफारिश भी करना चाहूँगा ...
Saras sundar charcha....Aabhar !!!
जवाब देंहटाएं"होशियारी दिखाने के चक्कर में हम अपना ही कबाड़ा कर जाते हैं : इसके बाद फ़िर कोई होशियारी दिखाते हैं"
जवाब देंहटाएं"किस मुगालते में है बाल ठाकरे ? :किसी मुगालते में नहीं बुजुर्गियत के पाले में हैं बावरे!"
सधन्यवाद , मेरी गजल की पंक्तियां इस तरह हैं :
गड्ढे खोदोगे तुम्ही पहले गिरोगे
कोई नागा इस नियम में है नहीं
दिल में अपने एक सागर तुम बसा लो
फासला धरती गगन में है नहीं
मेरी पसंद की कविता पसंद आई और कुछ चिटठों को पहली बार देखकर अच्छा लगा ।
यही है अनूप शुक्लीय चर्चा..
जवाब देंहटाएंबसंत का गीत : जाड़े में गा दिया
ये वाली लाइन को तो सौ नंबर..
अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
जय हो!!
जवाब देंहटाएंसूचनामय चर्चा के लिए धन्यवाद के सिवा क्या कहूं?
जल्दी ही एक और ब्लॉगर बनाने वाला हूँ!!!
बढिया रही चर्चा....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा....चार लाईन इसी तरह पढ़वाना पड़ता है आजकल!! :)
जवाब देंहटाएंजाने क्यो चर्चा अनूपमय होने से रह गई,
जवाब देंहटाएं:)