मराठी भाई लोग उत्तर प्रदेश वालों की हर जगह लगता है ऐसी कम तैसी करने पर आमादा हैं। सचिन भाई साहब को बाला साहब कुछ कहे-सुने तो सचिन उहां तो कुछ नहीं बोले। बोले भी तो होंगे तो हमें सुनाई नहीं दिया। लेकिन कानपुर में कल ग्रीन पार्क में उनके एक फ़ैन की बेइज्जती खराब कर दी तो सचिन भाई साहब तमतमा गये। फ़ैन का नाम है सुधीर कुमार निगम। उनको ब्लास्टर साहब एक ठो शंख दिये हैं जिसे वे हर मैदान में बजाते रहते हैं। कानपुर में पुलिस ने उनको दौड़ा लिया और शंख बजाने वाले का बाजा बजा दिया। इससे सचिन खफ़ा हो गये और देखिये अखबार कहता है-- “भारतीय टीम की हौसला आफ़जाई करने वाले सुधीर कुमार निगम की पुलिस के हाथों बेइज्जती सचिन को नागवार गुजरी। सचिन को इसकी भनक लग जाने पर प्रशासन के हाथ-पैर फ़ूल गये। जानकारी मिलते ही आईजी व डीआईजी सक्रिय हुये और न केवल सुधीर को तिरंग व शंख वापस दिलाया बल्कि ससम्मान उन्हें स्टेडियम के भीतर ले जाया गया। आईजी ने मामले की जांच बैठी दी है। सचिन के माफ़ करने पर प्रशासन ने राहत की सांस ली है।” सचिन असल में कानपुरियों को हड़काने का बहाना खोज रहे थे। मुंबई में ठाकरे उनको गावस्कर जी से तुलना करके चिढ़ाये तो सचिन भरे तो बैठे ही होंगे। कानपुर में मौका मिलते ही (गावस्कर के ससुरालियों) कानपुरियों को हड़का दिया। हिसाब बराबर हो गया। इसे कहते हैं धोबी से जीते न पावै गदहा के कान उमेठे। मजे की बात पुलिस वालों के हाथ-पांव एक दिन पहले इस बात पर फ़ूले थे कि एक आदमी पिच तक पहुंच गया। अगले दिन उसके हाथ इस बात पर फ़ूल गये कि एक फ़ैन को मैदान पर नहीं जाने दिया। आफ़त है पुलिस की। घुसने पर भी हाथ पैर फ़ूले। न घुसने पर भी। पुलिस के हाथ-पैर रोज ब रोज फ़ूलते जाते हैं। इसीलिये लगता है वह अपराधियों को दौड़ा नहीं पाती। बहरहाल बड़े लोगों की बड़ी बातें। हम चर्चा का काम करते हैं। न किये तो कोई इसी बात पर तमतमा सकता है और हमारे हाथ-पांव फ़ुला सकता है। समसामयिक घटनाओं पर ब्लाग जगत में कुछ बेहतरीन प्रतिक्रियायें होती हैं। कभी-कभी उतनी सटीक प्रतिक्रियायें अखबार और टेलिविजन पर भी नहीं दिखतीं। ऐसी ही एक प्रतिक्रिया संजय बेंगाणी की थी जब उन्होंने हिन्दी पर शपथ लेने पर हुई मारपीट को हिंदी विरोध और मराठी अस्मिता की लड़ाई के बजाय दो गुण्डों की आपसी राजनीतिक लड़ाई बताया। कुछ ऐसा ही मुझे विनीत की रपट देखकर लगा जब उन्होंने IBN7 पर शिवसैनिकों के हमले की निन्दा करते हुये अपनी बात कही----IBN7 पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं है! इस तरह के लेख देखकर ब्लाग जगत की परिपक्वता और समझ का अंदाजा लगताहै। | मैं जिस तरह हिन्दु धर्म के लिए लंपट भगवाधारियों के साथ खड़ा नहीं हो सकता है वैसे ही हिन्दी के लिए आजमी और मराठी के लिए राज के साथ खड़ा नहीं हो सकता. दोनो भाषाओं को ही इन जैसे लोगों की जरूरत नहीं है. संजय बेंगाणी इसी क्रम में देखिये अनूप सेठी जी का लेख--भाषा को हमने जीवन में जगह नहीं दी देश की सत्तर फीसदी आबादी को जब पीने को पानी नहीं है, बच्चों के हाथों में स्लेट नहीं है, स्त्रियों की आंखों में सपने नहीं है – टेलीविजन पर कीनले है, विसलरी है, पॉकेमॉन है, बार्बी है, मानव रचना यूनिवर्सिटी है, लक्मे है, झुर्रियों को हटाने के लिए पॉन्डस है। एक धब्बेदार, बदबूदार और लाचार लोकतंत्र टेलीविज़न पर आते ही चमकीला हो उठता है। पिक्चर ट्यूब से गुज़रते ही देश का सारा मटमैलापन साफ हो जाता है। सवाल यहां बनते हैं कि टेलीविज़न के दम पर जो आइस संस्कृति (information, entertainment, consumerism) एक ठंडी संस्कृति के बतौर पनप रही है, क्या उसी लोकतंत्र पर हमला हो रहा है और उसी को बचाये जाने की बात की जा रही है? |
चंदू भैया कम क्या ब्लाग के हिसाब से बहुत कम लिखते हैं। कल जब लिखे तो भाषा विमर्श नुमा कर गये। चेतन भगत के हवाले से चंद्रभूषण जी कहते हैं:चर्चित उपन्यासकार चेतन भगत ने भारत में अंग्रेजी अपनाने वालों की दो किस्में बताई हैं। एक ई-1, यानी वे, जिनके मां-बाप अंग्रेजी बोलते रहे हैं, जिनका बोलने का लहजा अंग्रेजों जैसा हो गया है और जो सोचते भी अंग्रेजी में हैं। दूसरे ई-2, यानी वे, जिन्होंने निजी कोशिशों से अंग्रेजी सीखी है और जिनका अंग्रेजी बोलना या लिखना हमेशा अनुवाद जैसा अटकता हुआ होता है। भगत का कहना है कि वे अपने पाठक ई-1 के बजाय ई-2 में खोजते हैं, और भारत में अंग्रेजी का भविष्य भी इसी वर्ग पर निर्भर करता है। हिंदी, अंग्रेजी के कई क्रमचय-संचय बताने के बाद वे अपने परिवार के भाषाई ताने-बाने की जानकारी देते हैं:किसी धौंस, अनुशासन या मजबूरी के तहत नहीं, सहज जीवनचर्या के तहत अंग्रेजी अपना कर उसी में सोचने-समझने और मजे करने वाली कोई पीढ़ी मेरे परिवार में अब तक नहीं आई है। अमेरिका, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में रह रहे सबसे नई पीढ़ी के छह-सात लड़के, लड़कियां और बहुएं अंग्रेजी में लिखते-पढ़ते जरूर हैं, लेकिन इसके लिए मेरे चाचा और उनके बेटे-बेटियों की तरह कई साल तक सचेत ढंग से हिंदी से कटकर अंग्रेज बनने की जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ी। वे इंजीनियर, डॉक्टर या सीए होकर ग्लोबल हुए हैं, अंग्रेज होकर नहीं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का दखल उनकी जिंदगी में कहां शुरू होता है और कहां पहुंच कर खत्म हो जाता है। |
हावर्ड फ़्रास्ट का उपन्यास स्पार्टाकस में रोम के गुलामों के विद्रोह की कहानी है। कम्युनिष्ट विचारधारा के मानने वालों के बीच बेहद लोकप्रिय इस उपन्यास का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद अदि विद्रोही के नाम से अमृतराय ने किया है। इस अनुवाद को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। शरद कोकास जी इस स्पार्टाकस की कहानी सुनाते हैं आज की अपनी पोस्ट में। वे गुलामों के जीवन के बारे में जानकारी देते हुये लिखते हैं: फिर सुबह होगी नगाड़े की आवाज़ के साथ ..सबको ज़ंजीरों में बान्धकर ले जाया जायेगा ।वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखेंगे ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोचेंगे और फिर उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं । पसीने से तरबतर गुलाम जो महीनों से नहाये नहीं हैं ,चार घंटे बिना रुके काम करेंगे ,हाथ रोकते ही उन्हे कोड़ों से पीटा जायेगा .. इस तरह चार घंटे तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा , उन्हे खाना और पानी दिया जायेगा , जो गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पिये तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...। अजित वडनेरकर ने इस पोस्ट पर टिपियाते हुये लिखा: दुखद यह है कि श्रम को भी बर्बरता का गुण समझा जाता रहा है। श्रम प्रबंधन को संस्कृति का नाम दिया गया। चाहे श्रमप्रबंधन के तरीके अमानुषिक ही क्यों न रहे हों। सलाम है उन मूक-मानवों को जिनके पसीने की बूंदें, हथोड़ी की धमक और बेडियों की कड़कड़ाहट आज एक से एक खूबसूरत स्मारकों में तब्दील हो चुकी है। बर्बरता का दूसरा रूप यह है कि इन स्मारकों पर निर्माणकर्ता के तौर पर उन्हीं साम्रज्यवादियों के नाम अंकित हैं जबकि आज लोकतांत्रिक शासन लगभग सब कहीं है। |
समीरलाल ने तय किया है कि वे अब कुछ दिन कनाड़ा के मौसम बने रहेंगे। ठंडे उदास। उस पर भी ठ्सका ये कि सवाल पूछकर उदासी --- मायूस होना अच्छा लगता है क्या? मतलब कि मैं पीता नहीं पिलाई गयी है वाले अंदाज में कहते हैं कि हम कोई अपने मन से उदास थोड़ी हैं। वाह भाई!अरविन्द मिश्र इनकी इस पोस्ट पर फ़र्माते हैं----यह आत्म प्रवंचना ,आत्मालाप क्यूं इन दिनों प्रायः -सब कुछ ठीक ठाक तो हैं ना ? वहीं अभिषेक ओझा कहते हैं: आज बहुत दिनों के बाद फिर अपने दिल की बात मिली. मायूस और मिस करने वाली बात ! जब टेम्पो, चलाने वाले की गाली और उसमें बजने वाले १०रुपये वाले कैसेट के गाने तक इंसान मिस करता है तो क्या कहूं. वो सब जिसे कभी गाली दिया करते थे आज मिस करते हैं ! बताइए तो. |
जिस कनाडा में समीरलाल उदासी का पल्लू थामे हैं उस धरती पर मानसी फ़ूल जैसे बच्चों के बीच खिलती हुई सी कहानियां लिख रही हैं! बच्चों के किस्से सुनाते हुये वे लिखती हैं:मुझे हँसी आई, और मैंने कहा, "व्हाट इज़ इट हनी? " तो उस बच्ची ने अपनी किताब दिखाई, परी कथा थम्बलीना की कहानी में, आखिरी पन्ने पर राजकुमार और राजकुमारी पास-पास खड़े थे। वो कहने लगी, "दे आर किसिंग" । मैंने कहा, :" नो दे आर नाट..., दे आर स्टैंडिंग"। बच्ची ने थोड़े ध्यान से उस तस्वीर को फिर देखा और मुझे समझाते हुए कहा," येस, बट दे आर गोंइंग टु किस आफ़्टर" - (बस मन में यही कह पाई- जी अच्छा दादी अम्मा) आप देखिये तो सही कित्ते तो फ़ूल खिले हैं इस खूबसूरत पोस्ट में। समीरलाल को भी कुछ दिन खाता-बही छोड़कर बच्चों के बीच रहना चाहिये। न खाता न बही, जो बच्चे कहें वो सही। |
बच्चे दुनिया की तमाम चीजों को अपने नजरिये से देखते हैं। सैकड़ों सालों से चले आ रहे मिथकों पर सवाल उठाते हैं। गांधारी अपने पति जैसा बनने के बजाय अपने बच्चों को अच्छी तरह पालती-पोसती तो शायद ज्यादा अच्छा रहता। राम सीता के ऊपर लांछन लगने पर उनको त्यागने के बजाय लांछन लगाने वाले से पूछताछ करते/समझाइस या दंडित करते तो बेहतर होता। ये सब बातें बच्चे सुझाते हैं। सुधा सावंत के लेख को प्रस्तुत किया है कविता वाचक्नवी जी ने। देखिये- समस्या का समाधान बच्चों का दृष्टिकोण! इस पोस्ट पर ! |
जन्मदिन मुबारक
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एक लाईना
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और अंत में: फ़िलहाल इतना ही। आपको आजका दिन मुबारक हो। मौज मजे से रहें। बाकी जो होगा देखा जायेगा।
बहुत सुन्दर अनूप जी, चुटकिया बहुत प्यारी मार लेते हो, बधाई !
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा।नीलिमा जी और पंकज भाई को यंही जन्म दिन की बधाई दे देते हैं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनूप जी !यूँ एक साल और बूढे हो गए आज का दिन यह याद दिलाता है :)
जवाब देंहटाएंनीलिमा और पंकज को जन्मदिन की ढेर सारी बधाईयां। खूब सक्रिय हों और लिखते-गुनते रहें। भाषा के सवाल पर अनूप सेठी के विचार को औऱ गहरे जाकर समझने की जरुरत है। अनूपजी ने जिस तरह की चिठ्ठाचर्चा पेश की है उससे एक तरह का मसौदा तैयार होता जान पड़ता है कि अगर कायदे से ब्लॉगिंग की जाए तो सरोकार की गुंजाईश बहुत अधिक है। जो कि बाजार और मुनाफे के दबाब में टेलीविजन,प्रिंट मीडिया से धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं।.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा की है शुक्ल जी!
जवाब देंहटाएंनीलिमा और पंकज के साथ
बहिन निर्मला कपिला,पंकज बेंगाणी को भी
जन्म-दिन की बधाई देता हूँ!
जवाब देंहटाएंबतर्ज़ ’ हम झेल चुके सनम... .. कस्सम तेरी खसम ’
शायद दिल देने का या दिल दिये रहने का तकाज़ा रहा होगा
तभी तो हम भी झेल गये आज की यह गड्ड-मड्ड चर्चा !
बहुत कुछ समेंटे लाजवाब रही चर्चा ।
जवाब देंहटाएंजानदार शानदार चर्चा-आभार, बधाई,
जवाब देंहटाएंनीलिमा जी और पंकज जी को जन्मदिन की ढेर सारी बधाईयां।
जवाब देंहटाएंसलीके से की गई समीक्षात्मक चर्चा । जिस पोस्ट को उद्धृत किया जा रहा है, उसकी सामग्री को उद्धरण चिन्ह में में रखें तो अच्छा रहेगा । जिससे चर्चाकार की बात और जिसकी चर्चा की जा रही है उसकी बात अलग अलग दिखे ।
जवाब देंहटाएंनीलमा जी , पंकज जी - जन्म दिन मुबारक ।
अच्छी और सार्थक च्रर्चा।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचर्चा है चलती रहनी चाहिए।
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क्या है कोई पहेली को बूझने वाला?
पढ़े-लिखे भी होते हैं अंधविश्वास का शिकार।
आज की चर्चा बहुत साहियकाना रही। पुलिस के हाथ पैर फूल गए हैं तो उन्हें सुबह सवेरे हरी दूब में चलना चाहिए:)
जवाब देंहटाएंनिर्मलाजी, नीलिमाजी और पंकज जी को जन्मदिन की ढेर सारी बधाइयां॥
नीलिमा जी, निर्मला जी, शांति सेठ मास्साब पंकज बैंगाणी को जन्म दिन की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ.
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अब जा रहे हैं पार्क में बच्चों के साथ खेलने. दफ्तर कल जायेंगे..हा हा!! आज तो दिन भर खेलने के बाद नई पोस्ट लिखी जायेगी. :)
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एक लाईना मस्त!!
धन्यवाद अनूप , हॉवर्ड फ़ास्ट की आदिविद्रोही को इस तरह याद करने के लिये .. मै अगली पोस्ट में इस पर आ ही रहा था । यह पुस्तक पढते हुए रोंगटे खड़े हो जाते है और "ग्लेडियेटर्स के एम्फीथियेटर मे रेत पर खून की बून्द चुगती चिड़िया देख कर कविता खुद ब खुद निकलती है ।
जवाब देंहटाएंनीलिमा जी और पंकज को जन्मदिन मुबारक - शरद कोकास
आदिविद्रोही किताब हमें २००६ में अनूप जी ने ही कानपुर में भेंट की थी... :)
जवाब देंहटाएंअनुपम कृति है "आदिविद्रोही". साधुवाद आपको और शरद जी को. नीलिमा, कपिला जी और पंकज जी को बहुत-बहुत शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंनीलिमा जी और पंकज जी को जन्मदिन मुबारक!!!
जवाब देंहटाएंस्टाइलिश चर्चा के लिए बधाई!!
बाकी जिन मुद्दों को संजय बेंगाणी और विनीत ने उठाया है वही सही दिशा होनी चाहिए उन मुद्दों के प्रति ! बाकी तो सब माया है !!!!
संजय बेंगाणी की बात से सहमत हूं बल्कि मैं तो कभी कभी ये भी सोचता हूं कि क्या हमें भाषाओं की ज़ररूत है भी ? इससे तो हम गूंगे ही कहीं भले होते. और तो और ...भाषाओं के बूते देश को अलग अलग राज्यों में विभाजित कर बैठे हुए इन दोगले दुमुंहों की बिसात भी कुछ होती क्या !
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