गुरुवार, जून 04, 2009

जैसी बची है वैसी बचा लो रे दुनियाँ...अकर्मण्यता के दर्शन के सहारे

जैसी बची है वैसी बचा लो रे दुनियाँ.

कुश ने लिखा है. बता रहे थे फिलिम गुलाल का 'गान' है.

ये दुनियाँ बचाने का मामला कुछ-कुछ झड़ते हुए बाल बचाने जैसा है. होता यह है कि आदमी को जब पहली बार एहसास होता है कि उसके बाल झड़ रहे हैं तो वह यह सोचते हुए संतोष कर लेता है कि; "कोई बात नहीं. जो गए सो गए. अब जितने बचे हैं, अगर उतने टिक जाएँ तो भी कुछ बुरा नहीं."

लेकिन झड़ता हुआ बाल यह बात कैसे सुनेगा? पॉँच साल बाद आदमी जब फिर से देखता है उस समय भी यही कहते हुए संतोष कर लेता है कि; "कोई बात नहीं. अभी भी जितने बचे हैं, उतने भी अगर टिके रह जाएँ तो भी बढ़िया है."

कई किश्तों में इस तरह से देखने और संतोष करने के बाद आदमी गंजत्व को प्राप्त हो लेता है. तब यह सोचता है कि; "इसे तो उड़ना ही था. उड़ गया."

दुनियाँ बचाने का मामला भी कुछ-कुछ ऐसा ही है. एक न एक दिन हम सरेंडर कर देंगे. यह कहते हुए; " इसे तो बचना था नहीं. कुछ भी कर लेते, होना यही था."

हाँ, जब तक सरेंडर का मुहूरत नहीं आता, गाना-वाना गाकर संतोष कर रहे हैं.

कुश लिखते हैं;

"दिसम्बर का महिना. मैं अपने दोस्त के पिताजी की डेथ के बाद उससे मिलने गया,...डेथ के सात दिन बाद पहुंचा...घर पर कुछ काम चल रहा था...दीवार बनाई जा रही थी...दुबई से छोटे वाले चाचाजी आये हैं अगले सप्ताह उनकी फ्लाईट है...इसलिए काम जल्दी हो रहा है...स्टार वन पर एक प्रोग्राम आ रहा है.."दिल मिल गए."
इस तरह के और न जाने कितने सीन हैं, जो कुश ने दिखाए हैं."

इन सारे सीन के जवाब में कहीं से आवाज़ आती है, "बी प्रैक्टिकल"

आप यह पोस्ट ज़रूर पढिये. दुनियाँ को बचाने का आह्वान किया तो जा ही सकता है. आखिर सरेंडर का मुहूरत अभी तक नहीं आया है.

लेकिन "बी प्रैक्टिकल" वाली थ्योरी श्रवण कुमार के जमाने में नहीं थी.

कहते हैं श्रवण कुमार बहुत आज्ञाकारी थे. माता-पिता को कंधे पर लादे बहुत घूमे थे. तीर्थ यात्रा वगैरह करवा डाला था. इतना करने से उनका नाम अमर हो गया. आज भी कर्तव्यनिष्ठ संतान की बात होती है तो श्रवण कुमार बाबू का नाम सबसे पहले आता है.

लेकिन घुघूती जी पूछ रही हैं

हममें से कितने श्रवण कुमार के माता-पिता बनना चाहेंगे?
सवाल करते हुए घूघूती जी लिखती है;

"मैं तो कदापि नहीं। सोचिए आप स्वस्थ या अस्वस्थ हैं, दृष्टि वाले हैं या दृष्टिहीन, गरीब या अमीर, कुछ भी क्यों न हों, क्या आप चाहेंगे कि आपका लाडला या लाडली(बराबरी का जमाना है तो ढोने का अधिकार भी चाहिए ही चाहिए!) आपको कंधे पर लादे यहाँ से वहाँ घूमे? वह तो महापुरुष,त्यागी,पुण्यात्मा हो सकता है किन्तु आप? आप तो महा स्वार्थी,निष्ठुर व अधम ही होंगे। कोई कैसे व क्यों अपनी संतान के कंधों पर बैठकर संसार घूम सकता है, चाहे वह तीर्थयात्रा का ही पुण्य काम हो। लक्ष्य से भी अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य पाने का साधन,उसको पाने के लिए अपनाया रास्ता व उस रास्ते को आपने कैसे पार किया, होता है। क्या इन सभी मापदंडों पर श्रवण कुमार के माता पिता खरे उतरे थे?"

जिन मापदंडों की बात उन्होंने की है, उनपर तो श्रवण बाबू के माता-पिता बिलकुल खरे नहीं उतरे थे. मैं कहता हूँ, भाई ये भी कोई बात है?

लेकिन मुझे तो यह लगता है कि आज की दुनियाँ में अभी भी ऐसा हो रहा है. न जाने कितने अंधे टाइप लोग (मेरा आशय माता-पिता से नहीं है) अभी भी श्रवण कुमार को खोज लेते हैं. बैठ जाते हैं उनके कंधे पर. श्रवण कुमार बाबू उन्हें ढोते रहते हैं. उनका जीवन इन अंधों को ढोने में निकल जाता है.

वैसे लोग कह रहे हैं कि नई कबिनेट में कई युवा चेहरे आये हैं. देखते हैं, ये युवा क्या कर पाते हैं? कंधे खोजकर उनपर चढ़ने वाले अंधों को ढोते हैं, या उन्हें उठाकर पटक देते हैं? अभी भी न जाने कितने अंधे टाइप लोग श्रवण
कुमार को खोज रहे हैं.

घुघूती जी आगे लिखती हैं;

"मैं आज तक समझ नहीं पाई कि जिन युगों की हम दुहाई देते हैं उन्हीं युगों में यदि राम सा आज्ञाकारी पुत्र था तो दशरथ सा बिना सोचे समझे वरदान देने वाला पिता भी और कैकई सी माँ भी। ययाति सा अपने पुत्र से यौवन माँगकर और अधिक समय तक भोग विलास की कामना करने वाला पिता भी। अब इस पिता के व्यवहार को आप कैसे उचित ठहराएँगे? यदि भीष्म पितामह सी संतान थी तो अपने बेटे के त्याग को अपना अधिकार समझ जीवन के सुख भोगने वाला उसका पिता भी था।"

हर दुहाई सही हो, कोई ज़रूरी नहीं. चाहे जिस युग की दी जाए.

आप यह पोस्ट ज़रूर पढिये.

भावना जी ने दिल्ली में हाल के वर्षों में आयी पानी की किल्लत के बारे में लिखा है. वे लिखती हैं;

"देश की राजधानी दिल्ली में पेयजल की समस्या गहराती जा रही है है। कभी ३०-३५ फीट की गहराई पर मिलने वाले पानी का भूजल स्तर ३०० फीट तक पहुँच गया है. इस समस्या के मूल में हमारी रोज़मर्रा के कामों के लिए जरुरत से ज्यादा पानी की बर्बाद करने वाली लापरवाह आदतें तो शामिल है ही साथ ही प्रशासन की जल प्रबंधन और जलस्रोतों की रखरखाव सम्बन्धी नीतियों को भलीभांति लागू करने में बरती जा रही कोताही भी बराबर की हिस्सेदार है."

रहीम जी ने शायद इन्ही दिनों को ध्यान में रखकर लिखा होगा कि; "रहिमन पानी राखिये..."

भावना इस समस्या के ऊपर बनाई गई एक डाक्यूमेंटरी और एक लघु फिल्म की बात करती हैं. उनकी यह पोस्ट जानकारी पूर्ण है.

नई लोकसभा बन गई. नई सरकार भी बन गई. मीरा कुमार को लोकसभा का स्पीकर बनाया गया. अच्छी बात है. लेकिन उनकी काबिलियत की बातें नहीं हो रही हैं. वे पढी-लिखी हैं. पांच बार लोकसभा के लिए चुनी गयी हैं. ये सारी बातों को दरकिनार कर इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि वे दलित हैं.

सत्येन्द्र जी ने इसपर पोस्ट लिखी. वे लिखते हैं;

"अब मीरा को इतनी बार दलित कहा जा रहा है कि वे इस एहसान से दब जाएंगी कि ऐसा लगता है कि बगैर किसी योग्यता के दलित होने के चलते ही उन्हें यह पद मिल गया है। हालांकि उनका पिछला इतिहास देखा जाए तो हर मौके पर उन्होंने अपनी योग्यता साबित की है."

सत्येन्द्र जी की पोस्ट पढिये. अपने विचार भी रखिये.

सफ़ेद हाथी केवल राजनीति में नहीं होते. हिंदी में भी होते हैं. ये हाथी कैसे होते हैं, इसे जानने के लिए धीरेन्द्र जी की यह पोस्ट पढिये. वे लिखते हैं;

"राजभाषा अधिकारियों को निशाने पर ऱखना एक फैशन बन चुका है। जब जी में आता है कोई ना कोई विचित्र विशेषणों का प्रयोग करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर उन्मादी छींटें उड़ा जाता है । इसी क्रम में एक नया लेख नवभारत टाइम्स, मुंबई संस्करण में दिनांक 29 मई 2009 को प्रकाशित हुआ। लेखक का नाम था – उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार। हिंदी साहित्यकार शब्द का नाम के साथ प्रयोग से मेरा पहली बार सामना हुआ। लेख का शीर्षक था – "हिंदी के इन सफेद हाथियों का क्या करें।" इस लेख में कई बेतुके सवाल उठाए गए हैं जिनका उत्तर देना मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ इसलिए श्री उदय प्रकाश के इस लेख का क्रमवार परिच्छेद चयन कर मैं उत्तर दे रहा हूँ.."


धीरेन्द्र जी के उत्तर उनकी पोस्ट में पढिये.

दर्शन हमारे जीवन में है. हर बात, हर चीज में दर्शन ढूंढ लेना हम खूब जानते हैं. और कुछ नहीं मिलता तो मंदिर का दर्शन है ही.

लेकिन अकर्मण्यता का दर्शन!

आज नीरज बधवार जी ने अपनी पोस्ट में लिखा है;

"काम करने से अनुभव आता है। अनुभव से इंसान सीखता है। सीखने पर जानकार हो जाता है। ये एहसास कि मैं जानता हूं, अहंकार को जन्म देता है। अहंकार तमाम पापों की जड़ है। मतलब, पाप से बचना है तो कर्म से बचो। इसीलिए भारतीय कर्म में जीवन की गति नहीं, दुर्गति देखते हैं और हर काम को तब तक टालते हैं जब तक वो टल सकता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। यही वजह है कि हमारे यहां कर्म व्यर्थ माना गया है, समय लोचशील और जीवन मिथ्या।"

शानदार पोस्ट है. ज़रूर पढें

आज की चिट्ठाचर्चा में एक लाईना भी हैं. मैंने नहीं लिखीं. अनूप जी ने लिखी हैं. चेन्नई से. आप कह सकते हैं कि गठबंधन चर्चा है आज की.

पेश हैं एक लाईना.


पाकिस्तान
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  18. हम सभी के बीच दो क्रियाएं चलती हैं...: दोनों एक दाम


और क्या कहूं? बस यही कि दोपहर तक भी चिट्ठाचर्चा नहीं कर पाया. आज पांच घंटे से भी ज्यादा समय तक बिजली नहीं थी. हमारा राज्य दूसरे राज्यों को बिजली सप्लाई देने के लिए कमर कसे बैठा था. अब कमर ढीली हो चुकी है. इतनी बिजली भी नहीं थी कि चिट्ठाचर्चा समय पर की जा सके.

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16 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतर चिट्ठा चर्चा । एकलाइना भी जम गयी । गठबन्धन चर्चा का आइडिया भी ठीक-ठाक है ।

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  2. अत्यंत सुंदर चर्चा.

    रामराम.

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  3. chakachak charcha...ham to ek laaina dekh ke khush ho gaye :) ye bandhan kayam rahe

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. जब जब बिजली आये, चर्चा करते चलो. :)

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  6. कड़की में भी जोरदार लिंक दियेला है, मैन !
    घूघूती जी जैसे विचार मेरे मन में भी उठा करते हैं
    ऎसे विचार व्यँग्य ही सही, अपवाद नहीं हैं, जरा इन्हीं को देखिये ..

    " किसी ने ऐसी शंका नही की.और युगों तक यह बात मानी जायेगी कि कृष्ण ने मेरे दो मुट्ठी चावल खाकर मुझे दो लोक दे दिए,पर मैंने बाद में उन्हें लौटा दिया,पर आज में सत्य बात लिख देना चाहता हूँ. जिससे’निरवधि काल और विपुला पृथ्वी’में कोई कभी इन पृष्ठों के आधार पर विश्व से बता सकेगा कि मुट्ठी चावल और दो लोक वाली बात झूठ ही,सुदामा ने कृष्ण से दान नही लिया, उसने परस्पर सुभीते के लिए सौदा कया था.

    मैं जब द्वारिका के लिए चला,तब मेरी ब्रह्माणी ने पडोसिन से एक पाव चावल उधार लेकर मरे गमछे से बाँध दिए. वह जानती थी कि राजपुरुष बिना भेट लिए किसी का कोई काम नही करते . मेरे घर मैं एक पाव चावल भी न हो, ऐसी बात नही थी, पर ब्राह्मणी जानती थी कि राजपुरुष उधारी या चोरी के माल से बहुत प्रसन्न होते है.

    कृष्ण ने मुझे स्नेह से पास बिठाया और मेरी कांख से दबे गमछे को खींचा, उलट-पलट कर देखा,उसमे चावल का एक दाना भी नही था. कृष्ण ने मेरी ओर बड़ी अचरज और खिंझ से देखा और कहा, ”कहा गए चावल ?तुमने फिर कपट किया. मैंने अपनी दिव्य-दृष्टि से देख लिया था कि भाभी ने मेरे लिए गमछे में चावल बांध दिए थे.”
    मेरा मन हुआ कि कह दूं कि हे मेरे राजमित्र, जिस दृष्टि से तुम मित्रो कि पत्नियों को पति के गमछे में चावल बांधते देखते रहते हो, उससे लोगो की गरीबी और भुखमरी क्यों नही देखते."

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  7. "आपको कंधे पर लादे यहाँ से वहाँ घूमे?"
    अजी नहीं! ऐसा श्रवण कुमार हो जो कार या हेलीकापटर में घुमाएं:)

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  8. बढ़िया...चर्चा!
    दिलचस्प एक लाईना-दिनों बाद

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  9. बहुत बढिया चर्चा रही। जो छूट गया था उसे भी पढ आई।
    घुघूती बासूती

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  10. कुश और घुघूती जी की पोस्ट बहुत पसंद आई थी और ये लाइन: 'बबुआ डॉलर भेज रहा है : बप्पा झालर लगवा रहे हैं' :)

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  11. बहुत दिलचस्प चर्चा, पठनीय एवं रोचक शैली.

    एकलाईने इतने जबर्दस्त हैं कि इस लाईन में अनूप शुक्ल की मोनोपोली टूटने का डर है.

    फिलहाल बिजली की समस्या कोच्चि में कम है!!

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  12. @ डॉक्टर अमर कुमार

    सर, आपने जो लिंक दिया है, वहां जाकर अच्छा नहीं लगा. परसाई जी का इतना प्रसिद्द लेख राज यादव जी ने टाइप कर मारा है अपने ब्लॉग पर. और उसे अपना सपना बता रहे हैं. लेखक के रूप में कहीं भी परसाई जी का नाम दिखाई नहीं दिया मुझे.

    अगर किसी पाठक को दिखाई दिया हो तो मुझे करेक्ट करें.

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  13. चर्चा फेंटास्टिक.. हमारी हुई न इसलिए..

    @डा साहब
    क्या कर रहे है जी..

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