अकसर राकेश जी को शिकायत रहती है कि उन्हें चिट्ठाचर्चा लिखने को चिट्ठे नहीं मिलते. चलिए, इस दफ़ा तमाम चिट्ठों को राकेश जी की काव्यात्मक चर्चा के लिए छोड़ देते हैं और दूसरी कुछ जरूरी चर्चा करते हैं.
कुछ साथी इस बात से असहज हो जाते हैं कि उनके चिट्ठे की चर्चा चिट्ठाचर्चा में क्यों नहीं हुई या क्यों नहीं होती. मेरे विचार में जब कोई चिट्ठाचर्चा लिखा जाता है - चिट्ठाचर्चाकार के मन में किसी चिट्ठाकार या चिट्ठापोस्ट के प्रति पहले से कोई कॉम्प्लैक्स नहीं होता. कोई चिट्ठा, चिट्ठाचर्चा में छूट जाता है, या चलिए, माना कि चर्चा में नहीं लिया जाता तो इसमें यह कतई नहीं मानना चाहिए कि उस चिट्ठे की सामग्री में कोई कमियाँ हैं. या उस चिट्ठाकार से कोई अदावत है या ऐसा ही कुछ. चिट्ठाचर्चाकार अकसर नारद, हिन्दीब्लॉग.कॉम तथा हिन्दीब्लॉग-पॉडकास्ट-ब्लॉगस्पॉट.कॉम पर निर्भर रहते हैं. यदि किसी तकनीकी वजह से इसमें वे दिखाई नहीं देते हैं तो उनकी चर्चा तो छूट ही जाती है. विशेष परिस्थितियों में एकाध बार को छोड़कर मैंने स्वयं अपने चिट्ठे को शामिल नहीं किया है - शायद चर्चा के खांचे में नहीं बैठ सकने के कारण.
हर चिट्ठाकार अपने चिट्ठापोस्ट में अपना सबकुछ लगाकर सर्वोत्तम लिखता है. यकीन मानिये, आपका लिखा किसी दूसरे के लिखे से किसी लिहाज से कमतर नहीं होता. हर चिट्ठा अपने आप में परिपूर्ण होता है. और हम सब चिट्ठाकारों का प्रयास यह रहता है कि सभी चिट्ठे चर्चा में शामिल हों. परंतु , फिर, ऐसा अकसर नहीं हो पाता. हम सभी मल्टीटास्किंग के जमाने में जी रहे हैं और कभी कभी समय का ज्यादा दबाव रहता है. ऊपर से यह भी बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जब तक दर्जन दो दर्जन चिट्ठे प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं, तब तो हर-एक चिट्ठे की चर्चा, मान लीजिए कि संभव है, परंतु जब इनकी संख्या बढ़ेगी, जैसा कि हम देख ही रहे हैं, तो यह संभव भी नहीं होगा और व्यवहारिक भी नहीं होगा. अगर सारे चिट्ठे चर्चा में ले लिए जाएंगे तो फिर चिट्ठाचर्चा वृहत, विशाल, बोझिल और एकरस हो जाएगा. उम्मीद है, चिट्ठाकार इस व्यवहारिकता को समझेंगे.
यह मानकर चलें कि आपने जो चिट्ठा अपने चिट्ठास्थल पर आज लिखा है, वह आज भी पढ़ा जाएगा, कल भी और सैकड़ों वर्षों बाद भी (यदि आपने स्वयं इसे नहीं मिटाया). आपके पोस्ट को ढूंढा जाकर, खोजा जाकर भी पढ़ा जाएगा. आपका चिट्ठा अजर-अमर होता है. आप चिट्ठा पोस्ट लिखकर एक इतिहास लिख रहे होते हैं. तो इन छोटी-छोटी बातों को बिसूर कर अपना चिट्ठा लेखन जारी रखें और जमकर जारी रखें. आपके प्रशंसक नारद या चिट्ठाचर्चा के जरिए नहीं, बल्कि सीधे आपके चिट्ठा स्थल पर आकर आपके चिट्ठे पढ़ेंगे.
इन्हीं कामनाओं के साथ,
आज की टिप्पणी - श्रीश ने अपने चिट्ठे में विस्तार से पूछा है कि हिन्दी चिट्ठाकार अपने चिट्ठों के नाम हिन्दी में क्यों नहीं रखते? नाम में क्या रक्खा है? परंतु जब बात हिन्दी की हो रही है, तब तो सवाल वाजिब है, और वाकई वाजिब है. हर एक को अपने हिन्दी चिट्ठे का नाम हिन्दी में ही रखना चाहिए. मेरे चिट्ठे का नाम भी अंग्रेज़ी में है. मैंने टिप्पणी स्वरूप अपना जवाब वहां पर कुछ यूँ दर्ज करवाया है-
"... यद्यपि प्रथम चिट्ठाकार आलोक भाई थे लेकिन हिन्दी कम्प्यूटिंग से जुड़े वरिष्ठतम व्यक्ति रवि जी ही हैं। उन्होंने यदि शीर्षक इंग्लिश में रखा है तो इसका कुछ खास कारण अवश्य ही होगा।..."
आपने सही प्रश्न पूछा है. एक दफ़ा कुछ इसीतरह की बात सुरेंद्र मोहन पाठक से पूछी गई थी तो उन्होंने उत्तर दिया था- यह उस (सूअर के बाल वाले) कम्बल की तरह है जो मुझे पता है कि भयंकर रूप से गड़ रहा है, परंतु मैं उसे उतार कर नहीं फेंक सकता चूंकि फिर मुझे ठंड लगने लगती है. यानी कि न निगलते बने न उगलते जैसी स्थिति.
परंतु यहाँ कारण भी दर्शाना होगा. आलोक का पहला ब्लाग था नौदोग्यारह. उन्होंने इसका नाम रखा था 9-2-11. संभवतः उनके सामने भी ब्लॉगर में हिन्दी में नाम रखने में असुविधा रही हो. तो जब मैंने हिन्दी में ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया तो ब्लॉगर के कई टैम्प्लेट में (हेडर में) हिन्दी प्रदर्शन की सही सुविधा नहीं थी. मेरे बार बार कोशिश करने के बाद भी उसमें हिन्दी शीर्षक नहीं बना (मुझे उसकी ज्यादा जानकारी भी नहीं थी तब, और हम सब सीख रहे थे) कुल मिलाकर हिन्दी में दर्जन भर ब्लॉग थे. तब उस समय हिन्दी ब्लॉग को नजर में लाने के लिए मैंने यह नाम - रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग रखा था - ताकि लोगों को मालूम हो कि हिन्दी में भी ब्लॉग लिखे जा सकते हैं. ब्लॉग लिखने से सालों पहले जिओसिटीस पर मेरा हिन्दी में पृष्ठ था (अब भी है) - पहले पीडीएफ़ में और बाद में यूनिकोड में. तब तो मेरा अंग्रेज़ी का ब्लॉग भी नहीं था. उसमें भी सारा शीर्षक इत्यादि अंग्रेज़ी में ही है.
बाद में भाई ई-स्वामी जी की कृपा से सालेक भर छींटे और बौछारें में भी रहे, परंतु मेरे व्यावसायिक रुझान के चलते मैं फिर ब्लॉगर के अपने वर्तमान चिट्ठे पर वापस आया. तब मैं फिर से शुरूआत कर सकता था, और शायद छींटे और बौछारें नाम से ही, परंतु उसी समय मुझे माइक्रोसॉफ़्ट का हिन्दी पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई (जो कि आज तक नहीं मिली, सिर्फ घोषणा ही साबित हुई और शायद किसी को भी नहीं मिली) तो मैंने उस नाम को रहने दिया.
और जब एक बार नाम चल चुका है तो उसे बदलने में क्या तुक? नाम में क्या रखा है?
बाद में मैंने कई लोगों को समझाया कि ऐसे नाम मत रखो भाई नहीं तो बाद में बदलने में मुश्किल पड़ती है.
उम्मीद है बात कुछ साफ हुई होगी. अन्यथा मैं बाहर भी और घर में भी इस बात के लिए गाली खाता हूँ कि मैं कहना कुछ चाहता हूँ, कह कुछ देता हूँ, और सोचता हूँ कि मैंने तो साफ बात कही है, तो लोगों ने दूसरा अर्थ क्यों ले लिया!
आज का चित्र - रौशनी बटोरता आसमान - अपने मोहल्ले से
इसका एक फायदा यह है कि जब भी कोई Hindi Blog सर्च करता है तो सबसे पहले आपका ब्लाग ही नजर आता है गुगल पर।
जवाब देंहटाएंयह एक बड़ी बात है।
बाकी यह उदाहरण आपने ठीक दिया कि एक बार जो पहचान बन जाती है तो उसे बदलना कठिन होता है।
शुरु के दिनों में यह सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी इतनी आगे निकल आयेगी इंटेरनेट पर और चिट्ठे इतने लोकप्रिय हो जायेंगे।
'यह मानकर चलें कि आपने जो चिट्ठा अपने चिट्ठास्थल पर आज लिखा है, वह आज भी पढ़ा जाएगा, कल भी और सैकड़ों वर्षों बाद भी (यदि आपने स्वयं इसे नहीं मिटाया). आपके पोस्ट को ढूंढा जाकर, खोजा जाकर भी पढ़ा जाएगा. आपका चिट्ठा अजर-अमर होता है. '
जवाब देंहटाएंमुझे यह ब्लागों के निर्माणाधीन इतिहास का महत्वपूर्ण उद्धरण जान पड़ता है। हिंदी ब्लाग शोधार्थी नीलिमा कृपया ध्यान दें
जगदीश जी,
जवाब देंहटाएंहाँ, शुरूआती रूप में यह शीर्षक रखने का एक कारण था. (नहीं तो मैं टेढ़े मेढ़े रास्ते भी रख सकता था :)) क्योंकि लोग तब हिन्दी ब्लॉग के बारे में ज्यादा जानते भी नहीं थे. अब तो हिन्दी में भी सर्च हो सकता है.
रहा सवाल गूगल के पहले पेज पर आने के लिए, तो आप गूगल को बहुत दिन तक बेवकूफ़ नहीं बना सकते. सर्च में वह उसी को आगे करेगा जिसमें उचित सामग्री होगी.
मसिजीवी जी,
जी हाँ, यह तो है ही, और हम मसिजीवी का लिखा नारद के सहारे नहीं, उसे अलग से सब्सक्राइब कर पढ़ते हैं!
थोड़ा सावधान होना जरुरी है क्योंकि सभी बंधुओं की
जवाब देंहटाएंइच्छा होती है कि उनकी चिट्ठा चर्चा हो मेरा भी नाम ज्यादातर छूट जाता है…।
एक और बात कहना चाहता हूँ मात्र चिट्ठों का नाम लेने से उसपर चर्चा नहीं होती है…अगर थोड़ी समालोचनात्मक विश्लेषण हो तो चर्चा का सही उद्देश्य पूरा हो जाएगा…धन्यवाद>
"यह मानकर चलें कि आपने जो चिट्ठा अपने चिट्ठास्थल पर आज लिखा है, वह आज भी पढ़ा जाएगा, कल भी और सैकड़ों वर्षों बाद भी (यदि आपने स्वयं इसे नहीं मिटाया). आपके पोस्ट को ढूंढा जाकर, खोजा जाकर भी पढ़ा जाएगा. आपका चिट्ठा अजर-अमर होता है. आप चिट्ठा पोस्ट लिखकर एक इतिहास लिख रहे होते हैं."
जवाब देंहटाएंजी मैं आपसे सहमत हूँ। मैंने कई पुराने चिट्ठों को पूरा A to Z पढ़ डाला जिनमें अक्षरग्राम, मेरा पन्ना तथा आपका ब्लॉग आदि शामिल हैं। सबूत रुप में वहाँ आपको मेरी टिप्पणियाँ मिलेंगी।
"रहा सवाल गूगल के पहले पेज पर आने के लिए, तो आप गूगल को बहुत दिन तक बेवकूफ़ नहीं बना सकते. सर्च में वह उसी को आगे करेगा जिसमें उचित सामग्री होगी."
हाँ इस से तो मैं भी सहमत हूँ। अब मेरा नाम इतना Unique है पर फिर भी कई बार गूगल पर पहले नंबर से हट जाता है।
रवि रतलामीजी ने सही लिखा कि तमाम दबाव होते हैं चर्चाकारों के। अब जैसे गत शनिवार को देबाशीष को चर्चा करनी थी लेकिन वे नहीं कर पाये। शायद इंडीब्लागीश में लगना पड़ा। जीतेन्द्र को भी शाम हो गयी और वे रात को चर्चा पोस्ट कर पाये। पिछ्ले बार मैं रात दो बजे तक चर्चा लिखी लेकिन पोस्ट करते समय सब डिलीट हो गया। फिर उस दिन जिद थी कि करना ही है तब फिर सबेरे जल्दी उठ कर लिखा। अब इस बीच कुछ और आ गये होंगे तो वे छूट गये। इस मामले में मेरे ख्याल से ऐसा किया जा सकता है कि जो अच्छी पोस्टें छूट जायें उनको समय गुजर जाने के बाद भी उन पर चर्चा कर ली जाये। डिवाइन इंडिया की बात से मैं सहमत हूं। मेरा मानना है चर्चा में कभी-कभी एक दम नये अंदाज में चर्चा करने के प्रयास में हम लोग ब्लाग की चर्चा को गौड़ बना देते हैं और हमारा 'इस्टाइल' छा जाता है।
जवाब देंहटाएंएक शिकायत मैं भी कर लूँ, छूट गया मेरा चिट्ठा भी
जवाब देंहटाएंएक नई शुरुआत भले ही ,उस चिट्ठे पर मैने की थी
अब ये करम किया नारद ने,या फिर चर्चाकार व्यस्त था
वैसे जो कुछ लिखा आपने, बात पते की ही केवल की
श्रीश भाई की तरह ही हम भी सबकी पुरानी पोस्ट खुब पढ़े हैं मगर सबूत के तौर पर टिप्पणियां नहीं छोड़े, सॉरी!! :)
जवाब देंहटाएंबाकि रवि भाई की बात एकदम उचित है.
सोलह आने सही कहा.
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