रविवार, फ़रवरी 25, 2007

मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी


गुलाब


ये लेव आज फिर इतवार आ गया। आज की चर्चा हमें करनी थी। हम गये थे कल बाहर। बाहर बोले तो लखीमपुर-खीरी। लौटे तब तक तीन बज गये थे। ये मुये इतवार का सबेरा जितना खुशनुमा लगता है, दोपहर के बाद का इतवार उतना ही दिलजला लगता है। रास्ते से आशीष को फोनियाया तो पता चला कि बच्चा चेन्नई से मुम्बई की उड़ान पकड़ने के लिये अपने को तैयार कर रहा था। बहरहाल,हम लखीमपुर से लखनऊ होते हुये वापस कम्पू आये और नहा-धोकर राजा-बाबू बनकर बैठ गये सारे चिट्ठे बांचने के लिये। अब बांच रहे हैं और लिख रहे हैं और आप भी मन लगा के बांचिये।


कल हम रात को लखीमपुर में एक बारात का इंतजार इंतजार करते हुये समाज-चर्चा कर रहे थे तो हमारे कुछ दोस्त प्रदेश के बारे में हमारी जानकारी बढ़ा रहे थे। बता रहे थे फलां नेता की रखैल का नाम ये है, फलां का खाता उनके यहां खुला है। फलाने का एनकाउंटर ऐसे कराया ढिमाके को ऐसे टपका दिया गया। हम सन्न होते हुये पूछे कि भैये जब तुमको पता है तो नेता विरोधी दल ,पत्रकारों को भी पता होगा। लोग इसके बारे में हल्ला काहे नहीं नहीं मचाते! हमारे काबिल दोस्त में हमारे बचकाने सवाल पर मुस्कियाते हुये बताया- कौन हल्ला मचाये सबका तो यही हिसाब है। रही पत्रकार वाली बात तो भैये मरने से सब डरते हैं।

बहरहाल, कितना सच है यह बात कह नहीं सकते लेकिन प्रेमेंन्द्र कुछ ऐसा ही लिखते हैं कि उ.प्र. की राजनीतिक हालत बहुत खराब है।

इरफ़ान पर हुयी बहस आगे जारी रही। लोग अपना-अपना सच बयान कर रहे हैं। अपने परिवेश की सोच का जिक्र करते हुये मनीषा पांडेय ने लिखा- मौसी हम मुसल्लों की वाट लगा देंगे| इसके जवाब में धुरविरोधी जी ने लिखा -
ये सब कैसे सुन लेती हो ? अगर हमारे घर या पास पडोस में अगर ये कोई बोले तो सुनने बाला उसके गाल पर चांटा जड देगा. मेरा बाप अगर मुझे एसा बोलते सुने तो मुझे गोला लाठी लगाकर रातभर को टट्टर पर डाल देगा.

धुरविरोधी की यह पोस्ट सागर को बहुत पसंद आयी। धुरविरोधी अपनी पोस्ट के माध्यम से आवाहन करते हैं-
इस मोहल्ले से बाहर निकलो और देखो दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितना उस मोहल्ले से तुम्हें दिखायी देती है.हमारे साथ आओ, हम नफ़रत फ़ैलाने वालों की वाट लगा देंगे.

रवीशकुमार ने सद्भावना होनी चाहिए। मगर उसके बनने के रास्ते में जो रुकावटें हैं, उसकी पहचान हो तो क्या गलत? कहते हुये अपने बचपन के दोस्त रोशन अफ़रोज की कहानी बतायी तो धुर विरोधी ने लिखा-
अरे यार, कभी तो अच्छी बात करो, शादी शुदा हो ना? भाभी जी कहतीं होगीं कि चौबीस घन्टे की ड्यूटी करते रहते हो, कभी उनके साथ जाओ. अगर कुंवारे हो तो किसी से प्यार कर के देखो. इस जहर को थूक दो मेरे भाई. फ़िर देखो ये दुनिया कितनी भली लगेगी.
आज की अपनी दो पोस्टों से धुरविरोधी ने दिल खुश कर दिया और कोई तो बोला -आप तो धुर समर्थक निकले!

नारद का हिट मीटर जहां सागर को लुभाता है वहीं रविरतलामी को डराता है। लेकिन रवि भाई आपने ही योगेश समदर्शी कीगजल पेश की है न! उसी की लाइने आपके लिये:-
आज आंसू बह रहे है देख जिनकी आंख में
वक्त की तहजीब है उनको हंसी भी आएगी

परसों हम पूनमजी बतियाये तो यह अनुरोध भी उछाल दिये कि कुछ लेख-वेख भी हुआ करे तो कित्ता अच्छा हो! हमें अपने जीतू की तबियत की फिकर है। बेचारे का रक्तचाप एक कविता पढ़कर पांच प्वाइंट उचक जाता है। हमें नहीं पता था कि हमारे अनुरोध की इतनी कद्र की जायेगी कि पूनमजी अगले दिन ही कविता छोड़कर लेख लिख देंगी। लेकिन उन्होंने लेख में अपनी रचना प्रक्रिया के साथ आगे के वायदे भी कर डाले-
कविता का क्या है.कुछ दिल ने मह्सूस किया,बच्चों का टिफिन पैक करते कुछ पंक्तियां भी पैक हो गईं , आफिस पहुँचे ,दो कामों के बीच टाइप किया,और तीसरा कोइ काम करते करते पोस्ट कर दिया. बाकी का काम नारद्जी के जिम्मे .जिसको पढना पढे,और जिसको नहीं पढना वो आगे बढ जाये,पर एक नज़र डालने के बाद! लेख का क्या किया जाए.टिफिन जल्दी पैक हो जाता है और तब तक लेख की आत्मा तक पास नहीं फटकती.अब सोचा है कि कुछ रास्ता तो निकालना होगा . तो अब अभियान -गद्य चालू हो गया है.

पांच सवालों के तीरों से लोग घायल होते जा रहे हैं। आज के शिकार लोगों में सागर,
नीलिमा,नितिन व्यास । नीलिमा के एक अंतरंग सवाल
वैसे कभी अवसर मिला तो जानना चाहूंगी कि जीतू, अनूप, रवि रतलामी आदि को कैसा लगता है जब उन्‍हें एक दिन अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में आप्रासं‍गिक हो जाने का खतरा दिखाई देता होगा
पर जीतेंद्र सेटिया गये और लरजते हुये से उवाचे-
अप्रासंगिक? (इस शब्द पर मुस्काराने को जी करता है)वैसे आलोक, रवि, देबू, जीतू, फुरसतिया एक सोच है, व्यक्ति नही। और सोच कभी नही मरती। हमने हिन्दी चिट्ठाकारी के लिए जो योगदान करना था वो किया,इमानदारी से किया और जितना हो सकेगा करेंगे। लेकिन भविष्य तो युवा कंधो पर ही होगा ना। उनको आगे लाने के लिए भी हमने पूरे पूरे प्रयत्न किए। उदाहरण देना नही चाहता था, लेकिन आपने कहा है तो सुनिए, इस बार के इन्डीब्लॉगीज के चुनाव मे मैने या किसी वरिष्ठ चिट्ठाकार ने चुनाव प्रचार नही किया। ये नए चिट्ठाकारों को आगे लाने के प्रयास ही था।
हम रहे या ना रहें, हिन्दी चिट्ठाकारी रहेगी, हमारी सोच जिन्दा रहेगी, हमेशा।

बकिया तो सब ठीक जीतू ये युवा कंधे की बात करके क्या तुम अपने बुढौ़ती की घोषणा कर रहे हो? अरे अभी तो बचपना तुम्हारे ऊपर रोज लाइन मारता है। अभी काहे बदे अनिल कुम्बले बन रहे हो :) अरे हमसे भी पूछा गया था यह सवाल सो अपना जवाब हम वहीं लिख दिये। आप देख लीजिये नीलिमाजी, जवाब ठीक है न! :)

गुलाब

अविनाश अंग्रेजी की लेखिका रूपा बाजवा के ३१ साल की उमर में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने को हिंदी कवि ज्ञानेन्द्रपति और उर्दू लेखक मख़मूर सईदी के ५० साल की उमर में इसी इनाम से नवाजे जाने की तुलना करते-करते मैथिली के वयोवृद्ध लेखक चंद्रनाथ मिश्र अमर से होकर अपने दादाजी को याद करते हुये कहते हैं
हिंदी के कितने ही लेखक अभी रूपा बाजवा की उम्र में हैं और वे दरियागंज से लेकर मंडी हाउस में सर उठाये घूमते रहते हैं, लेकिन कलमकारी के नाम पर हंस और कथादेश में कविता-कहानी छप जाने से आगे उनका उत्‍साह जवाब दे देता है. ज्‍यादा से ज्‍यादा इस काबिलियत का इस्‍तेमाल अख़बारों या व्‍यावसायिक तरीक़े से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं में नौकरी हासिल करने तक ये उत्‍साह बना रहता है. और जब तक ऐसी नौकरियां नहीं मिलती हैं घरों से पैसे आते हैं, फ्रीलांसिंग चलती है और कभी कभार एक अदद साहित्‍य अकादमी की लाइब्रेरी में वे पाये जाते हैं.
क्या अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी लेखकों की बहुतायत उनके कम उमर में इनाम पाने का कारण है?

तकनीकी तहलकों में नितिन फोटोशाप के बारे में बात करते हैं तो भोलाराम मीणा अपने ब्लाग की कीमत आंकने की कसौटी बताते हैं जिस पर मसिजीवी अपने ब्लाग को कसते हैं और बताते हैं कि ब्लाग मंडी में उनका भाव फर्जी है। देबू के पुस्तक चिंन्ह स्वादिष्ट कैसे होते हैं किसी ने खायें हों तो बताये। नितिन व्यास डिजाईनरों की दुविधा बयान करते हैं। उधर हरिराम को यही नहीं समझ आया कि कंप्यूटर पुल्लिंग है या स्त्रीलिंग! यहीं मौका है कि आप झट से जान लें कि सोमेश से लड़कीकहती क्या है!

पद्म्नाथ मिश्र अपनी लेखनी वियोग की कथा कह रहे हैं तो जीकेअवधियाजीरामकथा! इसीबीच बात पते की में एनडीटीवी के पत्रकार प्रियदर्शन समाज की बदलती हुयी सोच और खेलों में सट्टेबाजी के ताने-बाने का जिक्र करते हुये कहते हैं:-
ये वो क्रिकेट है जो पैसे की मदद से खेला जाता है। जिसमें कभी दुनिया का सबसे शानदार माना जाने वाला हैंसी क्रोनिए जैसा कप्तान फंस चुका है और एक दौर में भारत का सबसे कामयाब कप्तान रहा अजहरुद्दीन भी। लेकिन ये सिर्फ खिलाड़ियों का मामला नहीं है, चमक-दमक और शोहरत से घिरी एक पूरी जमात का मामला भी है, जिससे रातों-रात हासिल हुई अपनी अमीरी संभाली नहीं जा रही। इसमें फिल्मी सितारे हैं, बार डांसर हैं, इन सबके करीब रहने वाले वैसे बिगड़े हुए लोग हैं जिन्होंने सट्टेबाजी को धंधा बना रखा है। इन सबके ऊपर अंडरवर्ल्ड है जो कभी मैच फिक्स करवाता है और नाराज होने पर किसी खिलाड़ी के लिए सुपारी देने से भी नहीं हिचकता।

अभय तिवारी आपको सट्टे के संसार से नींद की दुनिया में ले जाते हैं अफलातून साने गुरु का समग्र साहित्य हिंदी में पढ़ाते हैं।

तुषार जोशी हमारे चर्चाकार हैं। पता नहीं क्यों वे मराठी चिट्ठों की चर्चा स्थगित किये हुये हैं? बहरहाल,वे समीरखरे की कविता काभावानुवाद पेश करते हैं:-
कितना प्यारा, कितना सुंदर
ऐसा अपना दूर ही रहना
मेरे लिये तुम बाद में मेरे
उसी जगह फिर आकर जाना


एक और कविता में संदीप खरे लिखते हैं:-
शोख इन गालों पे देखो छुप के आती लालियाँ
छुपके छुपके जब से मुझको तुम लगे हो देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

कितनी कोमल फूल मेरे उम्र तेरी है अभी
रंग हो गए बोझ लगती पंखुडीयाँ है कापने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने



कविता में जहां एक तरफ़ रंजू का दर्द है:-
बदल गये वो भी हवाओ, की रुख़ की तरह
कुछ तो अपने जाने की ख़बर हमको दी होती
वहीं रवीशकुमार जानकारी देते हैं:
इस बीच अभी अभी खबर मिली है
पत्थरों में विसर्जित गांधी को अब
पुरातत्व विभाग के हवाले कर दिया गया है
और गुजरात नरेंद्र मोदी को दे दिया गया है

उधर मान्या लिखती हैं-
अजनबी,नामालूम सा
दिल से गुजर गया कोई
किसी को मन ने चाहा मानो भी ऐसा
मानो कुछ चाहा ही नहीं
हां कुछ हुआ ऐसा कि कुछ हुआ ही नहीं!

अब हम अजनबी, मालूम, न मालूम के बारे में तो कुछ नहीं कहेंगे लेकिन एक बात यह है कि मान्या के चिट्ठे से कापी-पेस्ट नहीं होता सो मालूम हो!

बनारसी पांडे़ अभिषेक से सुनिये अगले शेरों की किस्त:-
ना हमने बेरुखी देखी न हमने दुश्मनी देखी
तेरे हर एक सितम मे हमने कितनी सादगी देखी

अभिनव पेश करते हैं सुरेन्द्र चतुर्वेदी की कविता पंक्तियां:-
मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी,
ये हवन ऐसा कि जिसमें उंगलियाँ जल जाएँगी,
उसके बस्ते में रखी जो मैंनें मज़हब की किताब,
वो ये बोला, "अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी"।

आप लोकमंच पर भी कविता देखें, एक किसान की तारीफ़ करें कि वह अपने बीज से अपनी फसल उगाने का प्रयास कर रहा है, बाजरवाले का लेख देखें और चलते-चलते रवीश कुमार का कस्बे में किया हुआ यह वायदा देखें-
चुनावों के मौसम में झूठे वादों की बरसात है।
फर्क सिर्फ इतना है कि कोई भींगता नहीं।

तो साथियों यह रही हमारी चिट्ठाचर्चा २४ फरवरी के चिट्ठों की।आप बताइये कैसी लगी। हम देर से आये यह तो सबको पता है लेकिन दुरुस्त आये कि यह भी बताया तो जाये। आगे की चर्चा कल करेंगे रवि रतलामी।



आज की टिप्पणी


मनीषा ने इस बहस को बढ़ाया है। आखिर मौजूदा हाल में धर्मनिरपेक्ष होने से पहले हम अपने भीतर सांप्रदायिकता के तत्व पालते ही तो रहे हैं। उसका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के सामाजिक सैंपल लेते वक्त हम लड़कियों के अनुभवों को कम ही शामिल करते हैं। करते भी है तो महिला क्रिकेट टीम की तरह। मनीषा के संस्मरणों में अपना भी एक संस्मरण जोड़ रहा हूं

क्रिकेट ने मुझे कुछ समय के लिए खास किस्म के राष्ट्रवादी कुंठा में डाल दिया था। जब रेडियो से कमेंटरी सुनकर क्रिकेट के रोमांच को अपने भीतर उकसा रहा था। तभी अफवाहें भी रोमांच के साथ धारणा बना रही थीं। जब भी भारत हारता पटना के गांधी मैदान में खेलते वक्त यह समाचार मिल जाता था। घर लौटते वक्त सब यही बातें करते कि सब्ज़ीबाग जो मुस्लिम बहुल इलाका है वहां पटाखे छूट रहे होंगे। भारत हारता है तो मुसलमान खुश होता है। बहुत जी करता था कि कभी भारत के हारते ही सब्ज़ीबाग़ पहुंच जाऊं और खुद अपनी आंखों से देख लूं कि वाकई में पटाखे छूट रहे हैं या नहीं। एक बार पिताजी ने दर्जी के यहां से अपनी कमीज लाने के लिए सब्जीबाग ही भेज दिया। मुस्लिम दर्जी की दुकान में सरफराज़ नवाज़ और इमरान ख़ान की तस्वीर देख कर मेरे हाथ कांप गए। लगा कि मैं पाकिस्तान आ गया हूं। दोस्तों ने ठीक कहा है। यहां ज़रुर पटाखे छूटते होंगे। बहुत देर तक सोचता रहा। घर आकर भी सोचा हम जब दीवाली मनाते हैं तब तो मुसलमान पटाखे नहीं छोड़ते फिर पाकिस्तान की जीत पर क्यों छोड़ते होंगे? क्या उनके मज़हब में गुनाह नहीं होगा। खैर रात को बिस्तर पर अपनी एक कापी निकाल ली। तब मैं पत्रिकाओं से क्रिकेट खिलाड़ियों की तस्वीरें काट कर चिपकाता था। दीवारों पर चिपकाने का चलन शुरु नहीं हुआ था। मैं उन तस्वीरों को देख सन्न रह गया। डर गया कि अगर दोस्तों ने देख लिया तो क्या कहेंगे। पहली तस्वीर इमरान ख़ान की थी। और दूसरी ज़हीर अब्बास की। मुझे दोनों खिलाड़ी बहुत अच्छे लगते थे। कपिल देव की भी तस्वीर थी लेकिन रिचर्ड हेडली के बाद। मैं बहुत दिनों तक डरा रहा कि कहीं कोई मेरे भी देशप्रेम पर सवाल न उठा दे। अब वह डर खत्म हो गया है। इमरान खान और अकरम हमारे देश के अखबारों में कालम लिखते हैं। टीवी में आकर राय देते हैं। अच्छा लगता है।
रवीश कुमार मोहल्ले की पोस्ट पर

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5 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह!
    तुम लिख दिए, हम तो सोचे तो आज भी हमें ही लिखना पड़ेगा। सही है, तुमने रविवार की परम्परा निभा दी (लेट लिखने की), हीही...

    अच्छी चर्चा किए हो। सही है, लगे रहो गुलफाम।

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  2. बहुत अच्छी चर्चा!! आप इतना लिखने की उर्जा कैसे पाते हैं

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  3. बढ़िया कवरेज है, महाराज!! हम तो सोच रहे थे कि आज की चर्चा गई पानी में, फिर आप आ ही गये :) ...

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  4. इतना लिखा तो ठीक पर सोचता हूं कि इतना लिखने के लिये कितना पढना पडा होगा. मैं चिट्ट्ठों की दुनिया मएअ नया हूं. अभी सीख रहा हूं. आपने मेरी गजल की दो पंकितयां भी उद्धरित की इसके लिये धन्यवाद. उत्तम लेखन के लिये बधाई.

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  5. अच्‍छे से सलटा लिया सभी को। आपके इस सलटाउ कौशल के दीवाने हैं हम।

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