रविवार, फ़रवरी 11, 2007

विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है


निरंतर


आज शनिवार है! आज की चर्चा देबाशीष के जिम्मे रहती है। लेकिन देबू कल रात तीन बजे तक निरन्तर के प्रकाशन का काम करते और आज उसे सजाने-संवारने में लग गये। इसके बाद वो इंडीब्लागीस का काम करेंगे इसलिये आज की चर्चा फिर हमारे जिम्में!

पहले तो बात निरन्तर से ही। बड़े इंतजार के बाद निरन्तर का नया अंक प्रकाशित हुआ।ऊपर जो आप देख रहे हैं वह निरन्तर का मुखप्रष्ठ है। आप इसे देखें अच्छाइयां सराहें और आगे इसकी बेहतरी के लिये सुझाव दें। इस अंक में अन्य तमाम आकर्षणों के अलावा हमारे चिट्ठाचर्चाकार समीरलालजी का परिचय भी है।

आज एन.डी.टी.वी. के गुडमार्निंग इंडिया में नारद, याहू के हिंदी पेज, ई-पत्रिकाऒं का जिक्र हुआ। एक-दो मिनट की इस प्रस्तुति में श्रीश पंडित की फोटो वाला भी कोई पन्ना था। परिचय भी है। आशा है कि 'नेमड्रापिंग' के अन्दाज से शुरू हुये रवीश कुमार के इस प्रयास को मीडिया माध्यमों में आगे और विस्तार से जगह मिलेगी।

प्रख्यात नेट पत्रिका अभिव्यक्ति का ९ फरवरी का अंक देखिये। इसमें वेलेंटाइन दिवस की छाया है और इस अवसर पर मेरा लेख वनन में बागन में बगरयो बसन्त है देखिये। इसके पहले वाले अंक में रवि रतलामी का मर्फी के नियमों की जानकारी देने वाला लेख भी देखना न भूलिये।

अब इतनी इधर-उधर की हांकने के बाद आइये आपको ले चलते हैं चिट्ठों की दुनिया में। लेकिन पहले एक और बात कर लें। दो दिन पहले अनुराग श्रीवास्तव उर्फ गूगल गपोड़ी जो कि अक्सर मजेदार पानी के बतासे खिलाते रहते हैं, ने मुझे मेल लिखकर कुछ सुझाव दिये। उनमें से एक है कि चिट्ठाचर्चा में चर्चा के दिन के सारे चिट्ठों की सूची देकर फिर उनमें से चुनिंदा पोस्टों की चर्चा करके इस शिकायत का निदान किया जा सकता है कि हमारे चिट्ठे की चर्चा नहीं हो पायी। सुझाव काबिले गौर है और काबिले अमल भी। लिहाजा हम आज ही से इस पर अमल शुरू कर रहे हैं।

आज हम ९ फरवरी को प्रकाशित चिट्ठों को अपनी चर्चा में शामिल करेंगे। ९ फरवरी को लिखी गयीं सारी पोस्टों की सूचीयहां पर है। वैसे आपको बता दें कि किसी खास दिन पोस्ट हुये चिट्ठों को देखने की सुविधा नारद में है। आप उस खास तारीख पर क्लिक करें और आपको उस तारीख में पोस्ट किये सारे ब्लाग मिल जायेंगे!

तो बात की शुरुआत याहू से ही। संजय बेंगाणी ने बताया कि किस तरह याहू चिट्ठाकारों की पूरी की पूरी पोस्ट बिना सूचना और अनुमति के अपनी साइट पर सजा रहा है। उन्होंने जहां याहू से सजग रहने की सलाह दी वहीं धुरविरोधी ने याहू के इरादों का खुलासा करते हुये बताया कि:-
इनका(याहू का) मकसद ब्लागरों का भला करना नहीं है. सिर्फ पैसे कमाना है. आप ब्लाग लिखेंगे, वो आपका ब्लाग चुरायेंगे, फिर उसका वेबपेज बना के उसपे अपने एड दिखा के नोट छापेंगे. आपको क्रेडिट की पूंछ भी नहीं मिलेगी.
इसके आगे उन्होंने ब्लागर्स और याहू में ३६ के आंकड़े का खुलासा करते हुये बताया:-
अगर आप स्वतंत्र विचारों के ब्लागर हैं और विचारों की अभिव्यक्ति पर विश्वास रखते हैं तो आप याहू के दोस्त नहीं हो सकते. याहू आपके स्वतंत्र विचारों को जगह नहीं देगा. उनके न्यूज़ के पन्नों पर सिर्फ आफ़िशियल न्यूज़ एजेन्सियों की खबरें आयेंगी. हां कभी उन्हें आपकी कोइ पोस्ट अच्छी लगी तो वो बिंदास चुरा लेंगे.



नीलिमा ने आज जहां अपनी पोस्ट में अपूर्व कुलश्रेष्ठ के लेख के माध्यम से ब्लाग के बारे में बताने का प्रयास किया वहीं ई-पंडितजीने अपनी पोस्ट टाइटिल हिंदी में और पर्मालिंक अंग्रेजी में रखने का जुगाड़ बताया।इसके अलावा उन्होंने एम.एस.एन. मेसेंजर के हिंदी में भी उपलब्ध होने और जीमेल पाने के लिये निमंत्रण की आवश्यकता समाप्त होने के बारे में भी जानकारी दी।आप चलते-चलते जीतेन्दर की जुगाड़ी लिंक देख लें।

विरोध करना सबसे आसान होता है यह कहना है घुघुती बासाती का। यह विचार उन्होंने तरुण की पोस्ट हम तो विरोध करेगा पर जाहिर किया है। तरुण ने देबाशीष द्वारा संचालित इंडीब्लागीस पुरस्कारों पर नामांकन प्रक्रिया पर उठे सवालों के बारे में अपना मत जाहिर किया।

सुनील दीपक
सुनील दीपक अपनी रुकावटों की बात करते-करते समाज से जुड़ते गये और विकलांगों की समस्या पर चिंतन करने करने लगे। विकलांगों के लिये काम करने वाली कुछ संस्थाऒं के मत का जिक्र करते हुये उन्होंने बताया:-
विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.


मनीषा हिंदी फिल्मों की अक्सर होने वाली घटनाओंका जिक्र करती हैं जिसमें श्रीश,जीतेंद्र और सागर अपने पुछ्ल्ले जोड़ने से बाज नहीं आते! एक सीन के बारे में मनीषा बताती हैं:-

दो हीरो वाली फिल्मों में, दोनों हीरों में एक बार गलतफहमी तथा लड़ाई अवश्य होगी, यह लड़ाई हमेशा बराबरी पर छूटती है। अगर चाकू का इस्तेमाल इस लड़ाई में हो रहा है तो पहले एक हीरो की आंख या गर्दन तक चाकू जायेगा, फिर दूसरे हीरो की आंख और गर्दन तक।


जब मनीषा बड़े पर्दे से संबंधित यह लेख तैयार कर रही थीं उससे पहले ही सागर चंद नाहर छोटे पर्दे के सारे सीरियल देख कर अपना अध्ययन पेश कर चुके थे- हमारे धारावाहिक। प्रचलित टीवी धारावाहिकों को देखकर उन्होंने अपना अध्ययन पेश किया। घर-घर की कहानी बताते हुये वे लिखते हैं:-
ज्यादातर लोग करोड़पति या अरबपति होते हैं पर उन्हें उनके परिवार की कोई बहू सबको बेवकूफ़ बनाकर उनकी संपति और घर पर कब्जा कर लेती है और सब सदस्यों को सड़क पर रहने को मजबूर होना पड़ेगा। और उन बेवकूफों को इतना भी पता नहीं चलता कि उनके खाते से एक ही चैक से २००-४०० या ५०० करोड़ रुपया निकाल लिया गया है।



कलम के सिपाही प्रियरंजन जब लिखते हैं बेहतरीन/बिंदास व्यंग्य लिखते हैं। आज उन्होंने बिहार के भूतपूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्रियॊं पर 'कलमें-इनायत' करते हुयेलिखा:-
दुनिया तब हंसेगी कि देखो विश्व के सबसे बड़े औरो मजबूत लोकतांतरिक देश में ऐसनो राज्य है, जिसकी एक पीढ़ी खप गई, लेकिन उसको ढंग का मुख्य मंतरी नहीं मिला। तब हार्वर्ड जैसन विदेशी विश्वविद्यालय सब इसको अपना केस स्टडियो बना सकता है। स्टडी का विषय कुछ ऐसन हो सकता है-- बूझो तो जानूं : जिस व्यवस्था में पांच साल पर निकम्मी सरकार को पलटने का प्रावधान हो, वहां एक राज्य को दशकों तक बढि़या मुख्य मंतरी कैसे नहीं मिला? वैसे, आप ई कह सकते हैं कि इससे जगहंसाई होगी, लेकिन फायदा तभियो होगा-- का है कि ढोल की पोल तो खुलेगी।




मूलत: कर्नाटक से संबंधित और फिलहाल पांडिचेरी में रहने वाली स्वर्णज्योति के काव्य संग्रह कापांडिचेरी और मैसूर में लाकार्पण हुआ।साथ का चित्र लोकार्पण के अवसर का है। इसमें कन्नड के प्रसिद्ध चलन चित्र नायक, परिवेशवादी, साहित्यकार श्री सुरेश हेब्बलिकर के द्वारा कृति विमोचन, साथ में कर्नाटक राज्य स्रकार में (सेवानिवॄत) मुख्य अरण्य अधिकारी तथा रचनाकार जो कि स्वर्णज्योतिजी के बडे बाबूजी भी हैं , श्री कृष्ण स्वामी जी , और मध्यप्रदेश में सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता (सेवानिवृत) स्वर्णज्योतिजी के बाबूजी श्री ए. नागराज राव और स्वर्णज्योतिजी हैं। स्वर्णज्योति जी को इसके लिये बधाई!

अविनाश द्वारा संचालित ब्लाग मोहल्ला हिंदी ब्लाग जगत का खास पठनीय ब्लाग बनता जा रहा है। इसके माध्यम से अविनाश अपने मीडिया से जुड़े साथियों के विचारों और सोच से हमें परिचित कराते रहते हैं। आज वे अपनी मित्र,हिंदी की युवा पत्रकार मनीषा के विचार सामने रख रहे हैं। मनीषा लिखती हैं:-
फिलहाल कुछ सामंती रूप में ही सही, लेकिन यह अपेक्षा हर स्‍त्री की होती है कि उसका पति उसे बहुत प्‍यार करे और फूलों की तरह सजाकर-संभालकर रखे। प्‍यार करना ही काफी नहीं है। प्‍यार को जताना भी जरूरी है, हर तरह से। हम सिमोन और ओरियाना को पढ़ते हैं तो क्‍या हुआ, उससे हम खुद भी तो वो नहीं हो जाते। हम पटना और इलाहाबाद की साधारण लड़कियां हैं, बस अपने परिवार की और लड़कियों से थोड़ा बेहतर जीवन जी रहे हैं। नारीवाद पर चार किताबें घोंट लिए हैं, हाथ में चार पैसा रहता है, जिसे अपनी मर्जी से खर्च करते हैं। हम सिमोन और ओरियाना नहीं हो सकते, क्‍योंकि हम फ्रांस और इटली में नहीं है। पितृसत्‍ता, देह के बंधन, आर्थिक असुरक्षा हमें हलक तक चांपे हुए है। बचकर कहां जाएंगे भला। गलतफहमियां पालने से फायदा।


अब यह अविनाशजी बतायें कि ये मनीषाजी वही हैं जिनका जिक्र ओमजी ने अपनी टिप्पणी में किया है!

मीडियायुग के सूचक जी ग्लोबल वार्मिंग के बारे में मीडिया की उदासीनता का जिक्र करते हुये जानकारी देते हैं:-
ग्लोबल वार्मिंग के लिए नब्बे फीसदी गतिविधियां मानवीय है। ये खतरनाक खुलासा है। जिसके नतीजे आने वाले सालों में हमें आपको देखने है। धरती के गर्म होने से केवल पर्यावरण ही नहीं बदलेगा, जिंदगी भी बदल जाएगी। हर साल एक लाख साठ हजार लोग ग्लोबल वार्मिंग से मर जाते है। और २०२० तक ये आंकड़ा दोगुना हो जाएगा। समुद्रों के स्तर बढ़ जाएंगे और समु्द्र तटीय शहरों के डूब जाने के खतरे लहराएंगे।


अफलातूनजी ने प्रख्यात समाजवादी चिंतक स्व. किशन पटनायक के लेख के माध्यम से तीन तरह के जगतीकरण की जानकारी दी। इस पठनीय लेख में चौथे तरह के जगतीकरण की संभावनाऒं पर भी विचार किया गया जब सारे विकासशील देश एकजुट होकर विकसित देशों पर निर्भरता खतम करके अपनी राह खुद तलाशेंगे!

जगतीकरण के बाद आइये फिर चलें कामदेव की शरण में जहां जीके अवधिया जी शंकरजी द्वारा कामदेव को अनंग बना देने की कथा बताते हैं!साथ ही आप महाभारत में अर्जुन के विषाद योग के बारे में पढ़ना न भूलिये। उधर क्षितिज समलैंगिकों के वर्चुअल संपर्क के चक्कर में वास्तविक सम्पर्क बनाने में कमजोर होते जाने की समस्या की जानकारी दे रहे हैं! वहीं घुघूती बासूती अपने अकेलेपन का जिक्र करते हुये कहती हैं:-
तुम बिन
आज हम अकेले हैं इतने
सबसे दूर निकल आये हैं कितने
जो तुम थाम लो पल भर को
थकी साँसों को सहारा मिले तेरी साँसो का
थकी बाँहों को मिले सहारा तेरी बाँहों का
तू बुला ले मुझे समीप इतने
तेरी खुशबू के पहन लूँ मैं गहने।



रवि रतलामी से हमने सीरियसली पूछा कि भैया ये कार्पेल टनल सिंड्रोम कौंची होता है? वे पूछो खेत की तो बतायेंगे खलिहान की वाले अंदाज़ में ब्लागिंग एथिक्स के बारे में बताने लगे:-
इस बीमारी के एक अन्य किस्म के स्ट्रेन में चिट्ठाकार अपने चिट्ठापोस्ट में कुछ नया, कुछ ताज़ा, कुछ भड़काऊ, कुछ उकसाऊ किस्म का लिखता है क्योंकि उसके सीधे साधे लिखे को कोई तवज्जो नहीं देता होता है. फिर तो एक और अन्य किस्म के रिवर्स कार्पेल टनल सिंड्रोम के स्ट्रेन से पीड़ित तमाम दूसरे चिट्ठाकार अपनी मारक टिप्पणियों से अपना इलाज करते हैं. प्रकट में तो प्रतीत होता है कि वे चिट्ठाकार के चिट्ठापोस्ट के चीथड़े उड़ा रहे हैं, परंतु वे दरअसल अपना स्वयं का झाड़-फूंक टाइप इलाज कर रहे होते हैं.

मान्या अपनी कविता में अपने कुछ गमों से रूबरू होती हैं:-
मुझे अफसोस नहीं इसका..
कि मैं राह हूं केवल...
किसी की मंजिल नहीं...
गम है तो बस इतना कि...
भूल जाते हैं राहें लोग...

अगर आज की सबसे बेहतरीन पोस्ट के पूछा जाये तो मेरे ख्याल में वह लखनऊ वासी अब अमेरिका निवासी अतुल श्रीवास्तव की नगाड़ा-ए-फ्रीडम होगी!
अपने इस व्यंग्य लेख में अतुल ने बड़े सलीके और इज्जत के साथ अमेरिका और भारत के लोकतंत्र की बखिया उधेड़ी है!
दोनों देशों के स्वतंत्रता के नगाड़े की व्यंग्यात्मक तुलना करते हुये अतुल कहते हैं:-
भारतीय नगाड़े ने तो इतनी ‘फ्रीडम’ दे रखी है कि हम लोग मनोरंजन के लिये कुछ भी तोड़ और जला सकते हैं. और तो और अगर और मजा लेना है तो किसी दूसरे समुदाय के लोगों को पकड़ कर लतिया भी सकते हैं. बात करते हो ‘फ्रीडम’ की. यू.एस.ए. में तो हर किसी की ‘फ्रीडम’ को दुनिया जहान के नियमों से बाँध कर रखा हुआ है. न तो मैं सड़क के उल्टी ओर कार चला सकता हूँ. मन हो भी तो कंटिया डाल कर बिजली चोरी नहीं कर सकता हूँ. कितना मन करता है कि गेरू से दीवारों पर लिख डालूँ – “गली गली में शोर है, बुश झूठा और चोर है.” या “आई. टी. समस्या? मिल तो लें टाटा और विप्रो से.” या फिर “गदहे पर मुहर लगायें, डेमोक्रेट्स की सरकार बनायें” – पर ये सब करने की फ्रीडम कहाँ है अमरीका में? अरे क्रिसमस के अलावा किसी और धर्म के त्योहारों की छुट्टी होती है यहाँ?. कटु सत्य तो ये है कि अमरीका एक इसाई देश है. और, मानो या न मानो ईराक की लड़ाई के समय यहाँ के समाचार पत्रों को भी असलियत छापने की कोई फ्रीडम श्रीडम या हिम्मत नहीं थी. असलियत छपने वालों और कहने वालों को तुम्हारे जैसे लोग गद्दार कह कर पुकारने लगे – ये तो वही बात हुई कि तुमको हर चीज़ कहने और करने की फ्रीडम है अगर वो मुझको पसंद आये. अब मेरे सामने कभी अपना ये ‘फ्रीडम’ वाला नगाड़ा मत पीटना वरना मैं दस गुना ज्यादा डेसिबल वाला इंडियन नगाड़ा पीटने लग जाऊँगा – समझे?


किताबों का शोकगीत लिखकर किताबों के प्रति अपने लगाव को जाहिर करने वाले प्रमोद सिंह आज तुर्की के प्रख्यात लेखक
ओरहान पामुक की छ्ठी किताब इस्तांबुल के बारे में बताते हैं!संस्मरणात्मक शैली में लिखी इस किताब में एक शहर की यादों के बहाने ओरहान के एक उच्‍च-मध्‍यवर्गीय परिवार के उनके अपने बचपन, कैशोर्य का वृतांत है. उनके अंतर्लोक व गिर्द की विचार-यात्रायें हैं.
मनीष दिल में बसाने को (किसको) अपनी गलती मानते हुये लिखते हैं:-
कसते हैं फिक़रे ज़माने वाले
जो हँसते हैं, यार मेरी बेहोशगी पर
जो भटकता हूँ बेहिस दिल लेकर
तुम्हारे शहर में,
गलती तुम्हारी नहीं है
मैंने ही तुम्हें दिल में बसाया था।


रचना बजाज आज अपनी कविता में अपने खूबसूरत सपने से दुबारा मुलाकात करती हैं!पहले वे बीते समय का जिक्र करती हैं:-
एक दिन देखा था एक सपना,
मेरे जैसा, मेरा अपना
हम दोनों थे साथ मे रहते,
कुछ सुनते, कुछ अपनी कहते
दुख ना कुछ थे, बस थीं खुशियाँ,
ऐसी न्यारी थी वो दुनिया!


इसके बाद सपने के बिछुड़ने-बिसर जाने के बाद फिर से मुलाकात की बात बताती हैं:-
मेरी प्यारी अलमारी से,
चुपके-चुपके झाँक रहा था!
वहीं बैठ वो बडे मजे से,
मुझको अपलक ताँक रहा था!!
फिर उसने अपना मुँह खोला,
धीरे से हँस कर यूँ बोला
‘मुझे पता था तुम आओगी,
मुझको भूल नही पाओगी’!


इस कविता के बाद आप लोकमंच पर भारत में आतंकवादी आक्रमणों की पृष्ठभूमि मेंअमिताभ त्रिपाठी द्वारा लिखे लेख को पढें!साथ की मनीषा का लेख भी देखें पिलाऒ मगर प्यार से! मनीषाजी अगर अन्यथा न लें तो उनसे अनुरोध है कि वे अपने ब्लाग पर लिखे लेख के स्रोत की जानकारी या लिंक भी दे दिया करें!

दिव्याभ ने अपनी कविता में कविता में अपने बेहतरीन भाव व्यक्त किये:-
सब कुछ बंधा-बंधा सा था
सब कुछ सधा-सधा सा था
फिर कैसी विपदा है आन पड़ी
पिंजरे के पीछे कैसी होगी अभिलाषा मेरी,

मान्या ने इस कविता पर अपनी टिप्पणी में कैफ़ी आजमी की प्रसिद्ध नज्म ,'उठ मेरी जान तुझे चलना होगा' से कवि का हौसला बढा़ने का प्रयास किया!
सिनेमा में आप जानिये जाने-माने कवि, पुरातत्‍वविद् कला इतिहासकार और फिल्मकार बेरनार्दो बेर्तोलुची की बदमाशियों के बारे में!साथ ही राजसमुन्द की बेवसाइट पर लिंक के जुगाड़ के बारे में भी!

आज चिट्ठाचर्चा में फिलहाल इतना ही। जो चिट्ठे छूट गये उनके लिंक खुल नहीं रहे थे! कुछ की फोटो मैं और लगाना चाहता था लेकिन लगी नहीं! मान्या और दिव्याभ के चिट्ठों से कापी-पेस्ट नहीं हो पाया सो टाइप करनी पड़ी उनकी कविता पंक्तियां! जल्द ही आशीष चिट्ठाचर्चा पर गाहे-बगाहे चर्चा करते पाये जायेंगे! अविनाशजी से भी अनुरोध है कि वे टिप्पणी के ऊपर के हिस्से से जुड़ें और कभी-कभी चर्चा करने का काम स्वीकारें। अविनाशजी से इस लिये भी अनुरोध है ताकि उनकी ही पहल पर सही चिट्ठा जगत में समीक्षा की शुरुआत हो सके!
कल की चर्चा जीतेंद्र चौधरी के जिम्मे है! आप अपने विचार लिखें इस चर्चा के बारे में! क्या सुधार किये जा सकते हैं इसमें!निस्संकोच बतायें!

आज की टिप्पणी:


1.दूधारी तलवार वाला व्यंग्य ! एक साथ विश्व के दोनो सबसे बडे लोकतंत्रो को धो दिया आपने !

वैसे हमारी भी एक बार एक अमरीकन महिला(करेला उपर से नीम चढा) से बहस हो गयी थी। उसका कहना था "जब सभी अमरीका से नफरत करते है तो भी वे अमरीका क्यों आना चाहते है !"
हमारा जवाब था "ये आपको सोचना चाहिये क्यों सभी आपसे नफरत करते है ? ये आपको सोचना चाहिये कि क्यों एक अमरीकी दूनिया के किसी भी कोने मे सुरक्षित नही है ?"

आशीष- अतुल श्रीवास्तव की पोस्ट नगाड़ा -ए-फ्रीडम में

२.बहुत अच्‍छा ख़त, उससे अच्‍छा ये विचार कि इसे सार्वजनिक किया जाय... और सबसे अच्‍छा वो आपसी प्रेम, जिसमें इतनी सहज अभिव्‍यक्ति संभव हो। मोहल्‍ला छोड़ कर सोसाइटीज़ के बहुमंज़ि‍ले मकानों में रहने वाले लोग घर में बैठ कर साइक्‍लोपीडिया पढ़ कर दुनिया का हाल जान रहे हैं। पर नीचे वाले फ्लैट में कितने दिन से कौन रहता है, क्‍या करता है, कब आता है, कब जाता है जैसे सवालों के फेर में नहीं पड़ते। पुलिस हमें बताती है कि बगल वाली कोठी के पिछवाड़े से 15 दिन तक लगातार मानव कंकाल मिल रहे हैं।

स्‍त्री की सामंतवादिता, रिश्‍तों की पकड़ और आधुनिकता के झंझट मोहल्‍ले ख़त्‍म कर रहे हैं। पहले गांव ख़त्‍म हुए, अब नगर भी मिटाये जा रहे हैं। हम हिंदुस्‍तान में रहते हुए भी नहीं रह पाएंगे। हमें जबरन हिंदुस्‍तानी अमेरिका में रहना होगा। वैसा ही सोचना, बोलना और कहना होगा। हमारे गांव में एक बाबा थे। पढ़े-लिखे भी अंग्रेज़ी ज़माने के थे जनाब। स्‍कूल में हेड मास्‍टर हो गये थे। उनके एक बेटे सिविल कोर्ट में जज हुए। जब मास्‍टर साहब रिटायर होने लगे तो आख़ि‍री दिन बेटे ने ज़ि‍द की कि पिता जी अंतिम बार कार्यालय जाते समय शर्ट-पैंट पहन के जाइए। पहले तो मास्‍टर जी माने नहीं, फिर बेटे के कहने पर पहनी तो मोहल्‍ले से अंधेरे में ही निकल गये। वापसी में गांव से बाहर ही कपड़े बदले, फिर गांव मोहल्‍ले में घुसे। आज धोती कुर्ता पहनने में हमें इससे भी गयी गुज़री वाली शर्म आती है। मोहल्‍ला देख कर मन भावों से भर गया। सोचा आपके मोहल्‍ले में भी गुल्‍ली डंडा खेल कर देखूं।
योगेश समदर्शी मोहल्ले में पोस्ट किये गये अविनाश को लिखे मनीषा के खत पर

३.अविनाश जी ने मोहल्ला के बारे में कहा था। देखा तो मनिषा जी कि चिट्ठी सबसे पहले नजर आयी। आशा है कि मेरा टिप्पणी करना मनिषा जी को बुरा नहीं लगेगा। आज स्त्रियों को खास कर प्रगतीशील स्त्रियों(क्योंकि वह समझ पायेंगी) को यह तय करना होगा कि पति से प्रेम या पति की गुलमी में क्या क्या अंतर है। फिर उन्हें तदनुसार अपने फैसलें लेने होंगे। यह बात तो सच है कि इंसान अपने जीवनसाथी से प्रेम चाहता है। अब यदि उस प्रेम को एक स्त्री पति के लिए खाना बनाने और उसकी बनियान धोकर सुखा देने में देखती है, और फिर बस इतने से सुखी हो लेती हैं कि वो ऑफिस से लौटकर बांहों में भींचकर एक बार चूम ले, खाना खाकर दुपट्टे में अपना मुंह पोंछ ले, सप्‍ताह के आखिरी दिन कहीं घुमाने ले जाए। तो यह उस स्त्री के प्रेम का यह तरीका हो सकता है परंतु यदि वह अपनी सुरक्षा और सामंतवादी समाज़ मे जगह बनाये रखने के लिये ये करती है तो यह गलत है। उन्हें लडना ही होगा। संघर्ष ही उनके स्वतंत्रता का एकमात्र विकल्प है। और तब ही सच में वह प्रगतिशील भी होंगी। कहीं कुछ गलत कह गया होऊं तो क्षमा करें।
देबाशीष
मोहल्ले में पोस्ट किये गये अविनाश को लिखे मनीषा के खत पर


आज की फोटो:

आज की फोटो सुनील दीपकजी के छायाचित्रकार से

नीलिमा

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11 टिप्‍पणियां:

  1. अरे भाई, बड़ी लम्बी और विस्तारित चर्चा कर गये. बहुत बढ़िया फ्लो बना रहा, बधाई.

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  2. चर्चा की साज सज्जा बहुत अच्छी की है :)
    चिट्ठों की चर्चा भी बहुत विस्तार के साथ रुचिपूर्ण तरीके से की है।
    आप चर्चा करते हैं तो छोटी से छोटी और मामूली से मामूली पोस्ट को भी पूरा महत्व देते हैं, जब भी आप चर्चा करते हैं तो मन कहता है कि काश कल मैंने भी कॊइ पोस्ट लिखी होती जिसकी चर्चा आप करते ।
    कई अच्छे चिट्ठे जो हमसे पढ़ने से छूट जाते हैं, आपकी समीक्षा उन चिट्ठों को पढ़ने के लिये मजबूर कर देती है। यहीं चिट्ठा चर्चा का उद्देश्य सफल हो जाता है।
    आपको बधाई।

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  3. आपको सलाम करता हूँ, कितनी विस्तृत व साज-सज्जापूर्ण चर्चा की है.
    बहुत खुब.

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  4. अनूप की चिट्ठाचर्चा-विस्तृत और समग्र ।
    इनकी 'चर्चा' मे अपनी चर्चा पढ़ने के लिए,सब व्यग्र ।

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  5. बढ़िया चर्चा:)

    एक स्पष्टिकरण, उपर उल्लिखित टिप्पणीकर्ता देवाशीष हैं, देबाशीष नहीं, (यानि की मैं तो कतई नहीं)।

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  6. वाह, निखरती जा रही है चर्चा। समीक्षा के तत्व भी दिख रहे हैं।

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  7. This time also, u play best inning bcoz some inner fault i can't type in hindi soorry for that but u r doing a fine job Thnx...

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  8. वाह खूब प्रवाहमय चर्चा थी। चिट्ठों के साथ-साथ टिप्पणियों का जिक्र करके चर्चा और भी प्रासंगिक हो गई। इससे टिप्पणीकारों को प्रोत्साहन भी मिलेगा तथा वे बेहतर टिप्पणियाँ भी लिखेंगे।

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  9. सभी साथियों का चर्चा पसंद करने के लिये शुक्रिया! वैसे शुक्रिया तो मुझे देबाशीष का अदा करना चाहिये क्योंकि कल वे ऐन समय पर अचानक व्यस्त हो गये! और ये दूसरे देवाशीष जी कोई डरपोक टिप्पणीकार हैं जो फर्जी ब्लाग बना कर टिपियाते हैं। जगदीश भाई, आप चिंता न करो कभी आपकी सारी पोस्ट का एक्सक्लूसिव कवरेज हो जायेगा! बस आप लिखते रहो!

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  10. उत्तम चर्चा, काफी मेहनत से की गयी चर्चा।

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  11. अनूप जी धन्यवाद, आपने मेरे चिट्ठे को भी स्थान दिया । सब चिट्ठों के विषय में इतने विस्तार से बताने के लिए धन्यवाद ।
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti.blogspot.com

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