कारपोरेट की दुनिया जब किसी सार्वजनिक महत्व के काम में हाथ लगाती है तो संशय उत्पन्न होना स्वाभाविक है। दुष्यंत की पंक्ति 'चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए' याद आती है। हिन्दी की दुनिया वैसे भी संशयजीवी है इसलिए पहले पहल एयरसेल के बाघ बचाओ अभियान पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता था पर बाघ बचाने में तो उनका हमारा सबका स्वार्थ है... वो बचेंगे तो हम भी। इसलिए चिट्ठाचर्चा 1411 बचें हैं अत: बाघ बचाएं अभियान का समर्थन करती है। इस अभियान में जागरूकता फैलाने का बीड़ा आम लोगों ने उठाया है..हम शहरी जो दरअसल इस सारे पारिस्थितिकीय विनाश के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं पर हमारे हाथ एकदम झक्कास साफ सुथरे दिखाई देते हैं, हम अधिक न भी कर पाऍं तो माहौल बनाने में अपना योगदान तो दे ही सकते हैं। जब सारे बाघ खत्म हो जाएंगे तो कम से कम आब्युचरी की पोस्टें लिखने से अच्छा है कि अभी बाघ बचाने की पोस्टें लिखी जाएं ताकि इस बेहद खूबसूरत जानवर को बचाने में हम अपना योगदान दे सकें। पर क्या करें हिन्दी ब्लॉगजगत को और इतने काम हैं.. खुद ही इतने शिकार करने-होने के काम हैं कि बाघ.. उनका क्या है अभी तो 1411 बचे हैं... देखेंगे..देख लेंगे।
खैर चर्चा के लिए सोच रखा था कि बाघ पर आई पोस्टें ही शामिल की जाएंगी। सबसे प्रशंसनीय जाहिर है चिट्ठाजगत की प्रतियोगिता पोस्ट है जो प्रोत्साहित करती है-
एक ज़माना था जब लोग बाघ से बचते थे, और आज का ज़माना है जब लोग बाघ को बचाते हैं।
क्या से क्या हो गया, और क्यों, आपका क्या सोचना है?
भाग लीजिए चिट्ठाजगत.इन द्वारा प्रायोजित एक और लेखन प्रतियोगिता, इसमें आप अपने निबंध, कविताएँ, व्यंग्य, कार्टून, तस्वीरें और वीडियो अपने चिट्ठे पर चढ़ा कर, शीर्षक में १४११ (या 1411) लिख दें।
मजे की बात है कि एक डाक्टर साहब का अब भी सवाल है-
बाघ जैसे खूंखार जानवर को बचाने का क्या फ़ायदा ?? ये क्यों पुण्य कार्य है??---कोई बतायेगा!
वेसे तो जबाव देने वालों ने दे ही दिया है पर हम कहना चाहते हैं कि कितना भी खूंखार क्यों न हो कोई भी जानवर इंसान सा खूंखार तो नहीं ही होगा, उस तक को बचाने की कोशिश की जाती है।
पवन ने इस संदर्भ में एक बाजिव सवाल उठाया है कि अगर हम बाघ नहीं बचाएंगे तो अगली पीढ़ी के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पलायन है उन्हें क्या बताएंगे-
अब मुझे भी दुःख होता हैं की पिछले कुछ दशको में जो इनकी संख्या में इतनी गिरावट आई हैं की हमारी आने वाली नयी पीड़ी को हमें इनके बारे में बताने के लिए उन्हें किसी संग्राहलय में ले जाना पड़ेगा जहाँ पर इनकी भी हड्डियों का एक ढाचा या इनका पुतला बना होगा ठीक वैसे ही जैसे हमें अभी डायनासोरो के बने होते हैं.
संदीप ने वेबदुनिया के अपने ब्लॉग में बाघों के पक्ष में एक तथ्यात्मक आलेख दिया है जो टाईगर ईयर में इनके बचाव पर बल देता है-
चीन में इस साल टाइगर वर्ष मनाया जा रहा है और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस कारण से इस वर्ष बाघ के अंगों की माँग में जबरदस्त इजाफा हुआ है। एक रिपोर्ट के अनुसार मध्य एशिया और चीन में बाघ के लिंग की कीमत 80 हजार डॉलर प्रति 10 ग्राम है, बाघ की खाल 10 हजार से लेकर 1 लाख डॉलर तक, बाघ की हड्डियाँ 9000 डॉलर प्रति किलो तक बिक जाती हैं। ह्रदय और अन्य आंतरिक अंगों की कीमत भी हजारों-लाखों में है। इसके बावजूद खरीदारों की कोई कमी नहीं है।
उमेशपंत ने अपनी बात कविता में कही है-
कुछ खाली सा कर देती है उसकी मौत भी
और उस खालीपन में भरने लगती है
एक खास किस्म की उदासी।
उस रोज किसी ने नहीं कहा था
कि घट रही है उनकी तादात
पर आज जबकि बाघ की जीवन यात्रा
छूं रही है अपना अन्तिम पड़ाव
तेा आ रहा है समझ
विनय जोशी की अलंकृत पोस्ट भी आपका आह्वान कर रही है-
खरी खरी में संदीप भी पुन: आगह करते हैं कि बच्चों की ही खातिर सही पर बाघ बचाना आवश्यक है-
हम अपनी आने वाली नस्ल के लिए क्या छोड़ेगे, पन्नो पर बाघों के चित्र, विकिपीडिया पर उसकी जानकारी , कहानियो में शेर की बहदुरी के किस्से , शेर मार जायेगा लेकिन घास नहीं खायेगा जैसी कहावते, ज्यादा से उदार हुआ और मांग बड़ी तो कमाई के लिए एक अध् फिल्म बनादेगे .या फिर रास्ट्रीय चिन्ह के रूप में चार मुह वाला शेर छोड़ेगे . लेकिन जब आने वाली नस्ल में से ही कोई सिरफिरा हमारा रास्ट्रीय पशु बाघ को देखने कि जिद कर बैठा तो सोच लो क्या दिखाओगे ..... क्या समझोगे....... क्या कहोगे.........
संजीव ने ब्लॉगजगत से आग्रह किया है कि प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए बाघ बचाओ का प्रतीक चिन्ह अपने ब्लॉग पर लगाऍं-
शान ने भी कविता की पंक्तियों में उस शर्मिंदगी को व्यक्त किया है जिसमें पूरी मानवता साझा है-
लेकिन न जाने किसकी इनको नज़र लग गई
एक दिन एक बड़े हैवान ने देख लिया
जिसे इंसान कहते हैं उस शैतान ने देख लिया
घर उजाडना शुरू कर दिया
कुनबे को खत्म करना शुरू कर दिया
एक एक को मारना शुरू कर दिया
इनको मार कर वाह वाही लूटी
आलीशान बंगलो में लटका कर शान समझी
आगे की नस्लो को क्या बताएगे ये बात न समझी
अभी भी वक्त है
संभल जाना चाहिए
1411 सिर्फ बचे है
इन्हे संभालना चाहिए
सागर की कविता भी इस संदर्भ में अहम है -
आने वाले दिनों में हम
अपनी महत्वाकांक्षा की
तरकश में
कुछ और विष बुझे तीरों से साथ
नयी नस्लों की शिकार पर निकलेंगे
संजय ने एक बेहद शानदार अंदाज में पोतों का मासूम सवाल सामने रखा है कि क्या एक बचाकर नही रख सकते थे-
कभी शेर को बहादुरी का प्रतीक बना दिया गया. यह बात और है कि शेर अपनी बहादुरी दिखाने के लिए किसी को नहीं मारता, मगर इनसान के लिए ऐसा नहीं है. शेरदिल इंसान शेर-बहादुर कहलाने और खुद को शेर से ज्यादा बहादुर साबित करने के लिए कातरों की भाँति छिप कर शेर को मारता रहा. मृत शेर पर पाँव रख मूँछों को ताव देता रहा. बेचारा बाघ, शिकायत भी न कर सका कि किसने कहा था मुझे बहादुर कहने को. मैं तो कायर-कमजोर ही भला था
आप भी इस अभियान में शामिल हो सकते हैं, अपने ब्लॉग पर लिखिए, आर्कुट, फेसबुक, ट्विटर हर 2.0 माध्यम का इस्तेमाल करें और इस सरोकार में शामिल हों। आप लिखने के लिए इन लिंक्स से सहायता ले सकते हैं-
http://saveourtigers.com/blog/
http://projecttiger.nic.in/
http://www.youtube.com/saveourtigers
http://www.facebook.com/pages/Stripey-the-Cub/316470889745?ref=ts
http://twitter.com/saveourtigers
http://www.wwfindia.org/
इसी सिलसिले में सागर की ये कविता भी काबिले-गौर है:-
जवाब देंहटाएंhttp://kalam-e-saagar.blogspot.com/2010/02/5_15.html
शुक्रिया गौतमजी, यथास्थान उल्लेख कर दिया है
जवाब देंहटाएंइस विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंचर्चा का विषय चयन उम्दा है.. इसी क्रम में सागर की कविता को मैं भी अप टू मार्क है
जवाब देंहटाएंhttp://saveourtigers.com/blog/?p=1&cpage=48#comments
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग का पता मेरे ब्लॉग पर मेरी दोस्त पूजा उपाध्याय ने दिया था... और मैंने वहां लिखा ---
"मुझे यहाँ का पता मेरी दोस्त ने दिया… जाहिर है संभवतः वो भी इस मुहिम में शामिल होंगी… हालाँकि मेट्रो stations पर इसकी चेतना के बैनर देखे थे… कदम सराहनीय है इसमें कोई शक नहीं किन्तु यह सिर्फ दिखावे के लिए ना हो… पता नहीं क्यों इस तरह के मुहिम में मैं पहली बार शामिल हो रहा हूँ… वैसे इस प्रकार के कई कदम अन्य विषयों पर पहले भी लिए गए हैं लेकिन वो SMS और अन्य सारे नाटकों तक ही सीमित रहा हो सबने अपने सिर्फ दुकान चलाये… मैंने एक ऊल-जुलूल कविता लिख कर एक रिवर्स प्रयास किया है … शुक्र है कुछ जूनून और शौख (पागलपन भरा) मध्ध्यम वर्ग एवं निम्न मध्यम वर्ग पूरे नहीं कर सकते… अतः यह वर्ग चेत सकता है शिकार सम्बन्धी किसी प्रकार की ग्लानि का शिकार नहीं हो सकता.
एक बार फिर, ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ,
जय हो."
लेकिन अब एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि " ब्लॉग पर भी इतने सारे प्रयास देखना सुखद है और यह चिठ्ठाचर्चा बेहतर दिशा में जा रही है, हमें इसके सहारे कई और बेहतरीन लेख और कविता का पता चला... शुक्रिया...
यह पोस्ट सर्वजन हिताय है.... हम अगर किसी तरह इस शुभ कार्य मे शामिल हो सकते तो अच्छा लगता। अभी तो सिर्फ ये कह सकते हैं कि हमारा समर्थन हैं और इन्हे समाप्त करने वालो से घोर विरोध.....!
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत चर्चा
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने. स्थिति बहुत अधिक शोचनीय है और इसका ज़िम्मेदार इन्सान ही है. मैं तब बहुत चौंक गयी थी, जब एक दिन टी.वी. पर बाघ की दावत का समाचार सुना था. हम अधिक से अधिक जागरुकता फैलाकर ही इसका सामना कर सकते हैं.
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रयास का समर्थन करती चर्चा ! बेहतरीन । आभार ।
जवाब देंहटाएंइस अभियान पर मेरे पोस्ट के टिप्पणी स्वरूप बाघो पर बरसो से काम कर रहे सत्येन्द्र तिवारी जी ने मुझे मेल से जो लिखा उसे मै यहा उल्लिखित करना उचित समझते हुए प्रस्तुत कर रहा हू. उन्होने इस पर चिंतनीय बाते की है. यथा -
जवाब देंहटाएं"मेरे भी कुछ मित्रों का यहीं मानना हे की यह पढ़े लिखे लोगो में जागरूकता पैदा करेगा. तो भैय्या क्या पढ़े लिखे लोग अभी तक बेबकूफ ही थे?
.... वह देश जहाँ पर की ५0- ६० करोड जनता खाना बनाने के लिए जलाऊ लकड़ी का उपयोग करती हो उस देश में किसी भी प्रकार के संरक्षण की बात कैसे की जा सकती हे. जब सवाल आता है एक पेड़ को काटने या बचाने का की इसे काट कर चुल्हा जलाया जावे या इसे पर्यावरण के लिए छोड़ दिया जावे तो निर्णय हमेशा चूल्हे के पक्ष में होता हे. क्या हम उतनी लकड़ी रोज उगा पाते है जितनी की हम रोज जला देते हे? उत्पादन और आवश्यकता का अंतर इतना बड़ा है कि यह सब बाते जमीनी स्तर पर बेमानी सी है. क्या जलाऊ लकड़ी का कोई विकल्प है जो की अगले ५ वर्षो में जलाऊ लकड़ी की उपयोगिता को कम कर दे? यदि इस प्रश्न का हमारे पास कोई जवाब नहीं है तो बाकी की सारी बातें करना व्यर्थ हे. यह सत्ये है और इस लड़ाई को जीतने के लिए इस सत्य को झुठलाना पडेगा.
क्षमा सहित.
सत्येन्द्र तिवारी
http://tigerdiaries.blogspot.com
यह विषय केन्द्रित चर्चा बहुत अच्छी लगी । मुझे केदार नाथ सिंह की कविता बाघ याद आ रही है....
जवाब देंहटाएंउन्हे डर है एक दिन
नष्ट हो जायेंगे बाघ
कि एक दिन ऐसा आयेगा
जब कोई दिन नहीं होगा
और पृथ्वी के सारे बाघ
धरे रह जायेंगे
बच्चों की किताबों में
एक जरूरी चर्चा ! बाघ पर लिखने के लिए महत्वपूर्ण कडियों के साथ ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगी यह चर्चा..
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत या मीडिया लिखकर कैसे टाइगर बचा लेगा ...अब तक अपने भेजे में नहीं चढ़ा है ? ....आखिर क्या उन सवालों और सरोकारों पर हम गौर करने को तैयार हैं जिनके कारण आज यह स्थिति आयी है | केवल चेतना और जन-जागरण से कुछ नहीं होने वाला ! हम देख चुके हैं पुराने हश्र !
जवाब देंहटाएंबकिया मास्साब की चर्चा के क्या कहने ? नए विषय नए तरीके से हर बार !
bahut hi pyari charcha... sarthak aur focussed..
जवाब देंहटाएंजी हाँ मैं सबसे सहमत हूँ परन्तु ..क्या इन सब से कोई फायदा होगा .......ब्लॉग लिखने निबंध लिखने टिप्पड़ी करने से बाघ को क्या मिलेगा ?
जवाब देंहटाएंये तो बस पैसे कमाने के नए तरीके हैं .............aircell ने पैसे कमाने के लिए कुछ शुरू किया और बाई लोग फैशन देख कर पीछे लागलिये ...........इस अभियान में कितना कागज खर्च होगा ..उसके लिए कितने पेड़ काटेंगे .......और बाघ का घर ख़तम होगा .तो एब बार सोच के तो देखिये की ये आईडिया या ऐर्सेल .क्या ये सच में कुछ करना चाहती हैं या नया फैशन प्रारंभ करके पैसे कमाना चाहती हैं ...और हम सम पागलों की तरह बिना अपना दिमाग लगाए उनके पीछे भाग रहेहैं ?????