आंकड़े भी अजीब चीज़ है ना खामखाँ के आपका बढ़ते बहम तो ब्रेक लगा देते है .जरा गौर फरमाए ......पुरुष साक्षरता दर ७३%,स्त्री साक्षरता दर ४८%.....हर एक हज़ार जन्म पर ५७ शिशु पैदा होते ही मर जाते है ओर० से ५ साल की उम्र के ४६ % शिशु कुपोषित है .ह्युमन डिव्लोप मेंट में भारत का स्थान १३४ है .१८२ देशो में ...... ये सरकारी आंकड़े है ....असलियत ओर बदतर है .. ओर देश कहाँ जा रहा है ...नहीं घबराने की बात नहीं कुछ ओर आंकड़े है जरा इन पर गौर फरमाये........ लोकसभा में पिछले साल के १५६ की तुलना में इस बार ३१५ करोडपति है ....जिसमे से २० % की घोषित आय ५ करोड़ से ज्यादा है .......आंकड़े ये भी बताते है के २००४ में लोकसभा इलेक्शन लड़ने वाले ३०४ संसद जिनकी कुल घोषित आय उस वक़्त तकरीबन १.९२ करोड़ थी....साल २००९ में ४.८ करोड़ तक छलांग लगा गयी...यानि १५० प्रतिशत. ज्यादा . ..ओर हां .ये उनकी घोषित आय है ........ आपने कभी मिड डे माल वाला खाना चखा है ......खैर छोडिये.... यानी १४११ के अलावा ओर भी आंकड़े है जिन पर साथ साथ गौर फरमाने जैसा है ये आंकड़े किसी सरकारी किताब से नहीं लिए गए है ."टाइम्स ऑफ़ इंडिया "के किसी पुराने एडिशन के पन्ने से उठाये गए है कैलाश वाजपेयी जी भी एक कविता है ....के ओ मेरे मरे हुए देश /आंसू आ जाते है /ये सोचकर/ के तेरी लाश भी नहीं पहचानी जायेगी .....पर आप एक दूसरी कविता के गुस्से को पकड़ने कीकोशिश करिए इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश जितना अभी है कभी ज़रूरी नहीं था विकास जितने अभी हैं कभी उतने भयावह नहीं थे जंगल जितने अभी हैं कभी इतने दुर्गम नहीं थे पहाड़ कभी इतना ज़रूरी नहीं था गिरिजनों का कायाकल्प इन दिनों देशभक्ति का अर्थ चुप्पी है और सेल्समैनी मुस्कराहट कुछ भी असंगत नहीं चाहते वे इस आपातकाल में! पूरी कविता पढने के वास्ते यहाँ "क्लिक" कीजिये ... सुबह सुबह ऐसे आंकड़े ओर ऐसी कविता किसी आर्ट सिनेमा सा अहसास कराते है ना....सो आज का चर्चा का एक बड़ा हिस्सा कुछ कवियों को ...जिनसे आप इत्तेफाक भी रख सकते है .नहीं भी... मिडिल स्कूल ऊँची छत नीचे झुके सत्तर सिर तीस बाई तीस के कमरे में शहतीरें अँग्रेज़ी ज़माने की कुछ सालों में टूट गिरेंगीं सालों लिखे खत सरकारी अनुदानों की फाइलें बनेंगीं जन्म लेते ही ये बच्चे उन खातों में दर्ज हो गए जिनमें इन जर्जर दीवारों जैसे दरारों भरे सपने हैं कोने में बैठी चार लड़कियाँ बीच बीच हमारी ओर देख लजाती हँस रही हैं उनके सपनों को मैं अँधेरे में नहीं जाने दूँगा यहाँ से निकलने की पक्की सड़कें मैं बना रहा हूँ ऊबड़-खाबड़ ब्लैक बोर्ड पर चाक घिसते शिक्षक सा पागल हूँ मैं ऐसा ही समझ लो मेरी कविता में इन बच्चों के हाथ झण्डे होंगे आज भी जलती मशालें मैं उन्हें दूँगा हाँ, खुला आसमान मैं उन्हें दूँगा. ये लाल्टू की कविताये है .....पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये |
काश! तुम होते गर्म चाय से लबालब कप हर लम्हा निकलती तुम्हारे अरमानों की भाप... दिल होता मिठास से भरा काश! मैं होती तुम्हारी आंख पर चढ़ा चश्मा.. सोचो, वो भाप बार-बार धुंधला देती तुम्हारी नज़र काश! मैं होती रुमाल... और तुम पोंछते उससे आंख... हौले-से ठहर जाती पलक के पास कहीं झुंझलाते तुम... काश, होती जीभ मैं तुम्हारी गोल होकर फूंक देती...आंख में...। काश, पूरी कविता पढने के वास्ते यहाँ "क्लिक" कीजिये ... | उन दिनों के लिए जब अवसाद घेरे और मन का अँधेरा करवटें लेने लगे रोक लो इन हवाओं को कश बना कर, दो पल; उलझी हुई आँत के गलियों में सिगरेट के धुंए के जैसे क्योंकि, बांकी है अभी जेठ की दुपहरी में दिन-दहाड़े शहर में खो जाने का डर औ’ आधी रात में छत से शहंशाह होने का गुमान होना इच्छा एक ऐसी स्वस्थ सुबह मैं जागूं/ जब सब कुछ याद रह जाय/ और /बहुत कुछ भूल जाय जो फ़ालतू है |
कई बार किसी गाने का कोई ट्रैक दिमाग में अटक जाता है और ज़ुबान पर चढ़ जाता है। वो "मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा भी हो सकता है" "पिया तू अब तो आ जा" टाइप्स भी। पता चलता है दो-दो दिन तक दिमाग़ उसी ट्रैक को बजाता रहता है,बार-बार फटकारते हुए भी आप उसे गुनगुनाने को विवश हो जाते हैं। कोई नई धुन पकड़ने की कोशिश भी नाकामयाब हो जाती है। दिमाग को साफ करनेवाला हेड-क्लीनर अभी ईजाद नहीं किया गया शायद। स्प्रे किया, अंदर से एक मैसेज आये अपनी नाक पकड़कर पहले बायें कान की ओर घुमायें फिर दायें कान की ओर, लीजिये आपका दिमाग हो गया साफ। बॉलीवुड का कोई धांसू गीत(चाहे कितना सड़ेला ही क्यों न हो) तो नहीं, जनाब ग़ालिब साहब का ये शेर भेजे में अटका हुआ है..... इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब वहशत का अभी रंग दिल में रह गई जो ज़ौक-ए-ख्वारी हाय-हाय | मिशालों की जरूरत, किस्सों की खुराक और अपने अपराधों को श्लील दर्ज करने के लिये सभ्यता ने तुक्के पर ही भेड़िये को बतौर खलपात्र चुना इंसान की रुहानी भूख के लिये घृणित किस्सों का किरदार बना भेड़िया, जान ना पाया अपना अपराध, जबकि यह बताने में नही है किसी क्षमा की दरकार कि शिकार कौन नही करता |
और अगर व्यक्त होना अश्लीलता है, तो ये समय है अंतरात्मा के नग्न होने का, यदि विरोध युद्ध है, तो ठीक इस समय... पर कुतर दिए जाने चाहिए पवित्र से पवित्र समर्थन के,नपुंसकों द्वारा, सहमति के नाम पे किये गए, सामूहिक बलात्कार, और... बिल्लियों और गीदड़ों की, पृष्ठ भूमि पर खड़ा, पुरुष रहित समाजशास्त्र, यदि शब्दों से और अभिव्यक्ति से कम 'गालियाँ' हैं तो... कवि तू दोषी है, अपराध के लिए, दंड वो देंगे... जिनके प्रति सरोकार था तेरा. ओर दर्शन की दूसरी कविता जिसे वे "एंटी क्लाइमेक्स" कहते है ..... एक्युरियम कांच का था. इसलिए मछलियाँ देखतीं भी थीं, और दिखतीं भी थीं. ...और मछलिया जवान हो रहीं थीं.. मछलियाँ हाथ से फिसल जाती हैं अक्सर. | किंकर्तव्यविमूढ़- कभी फुटपाथ पर बीड़ी जलाते हुए या कभी यूँ संकल्पों के नाईट बल्ब में सिरहाने पर मुंह रख सोकर क्या कोई सुलह है पगडण्डी पर शिकायतें पड़ी मिलती हैं माँ की आवाज़ "आज उधार ही पिसवाओ गेंहू" द्वन्द शुरू से है कभी नमक पर कभी मिटटी पर कहाँ छोड़ेंगे ये रास्ते जबकि कुर्ते में रखी चिल्लर ख़तम हुई जाती है क्या कहीं सुलह है। ओर निशांत की दूसरी कविता कुछ यूं शुरू होती है ... “यथार्थ यह नहीं कि सम्भोग और झूठ का पछतावा एक सा होता है सिगरेट और सिगार के मध्य अवैचारिक मीमांसा ही संस्कृति है” |
ऐसा भी नहीं है कि यह सब नयी पीढी ने किया जिसने पत्रकारिता के संघर्ष को ना देखा-समझा हो। बल्कि प्रिंट पत्रकारिता से न्यूज चैनलों में आये वह पत्रकार ही इंटरप्यूनर की तर्ज पर उबरे और अपने सामने ध्वस्त होती राजनीति या कहें सिनेमायी राजनीति का उदाहरण रख नतमस्तक हो गये। जिस तरह सिनेमायी धंधे के लिये देश भर में महंगे सिनेमाघर बने और इन सिनेमाघरो में टिकट कटा कर सिनेमा देखने वालो की मानसिकता की तर्ज पर ही फिल्म निर्माण हो रहा है तो राजनीतिक सत्ता ने भी वैसी ही नीतियों को अपनाया, जिससे पैसे की उगाही बाजार से की जा सके। यानी मलटीप्लैक्स ने सिनेमा के धंधे का नया कारपोरेट-करण किया तो विकास नीति ने पूंजी उगाही और कमीशन को ही अर्थव्यवस्था का मापदंड बना दिया। और मीडिया ने सिल्वक स्क्रीन की आंखो से ही देश की हालत का बखान शुरु किया। खुदकुशी करते किसानो की रिपोर्टिंग फिल्म दो बीघा जमीन से लेकर मदर इंडिया के सीन में सिमटी। 2020 के इंडिया को दुबई की सबसे ऊंची इमारत दिखाकर सपने बेचे गये। नीतियों पर निगरानी की जगह मीडिया की भागेदारी ने सरकार को यही सिखाया कि लोग यही चाहते हैं, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे टीआरपी के लिये न्यूज चैनल सिनेमायी फूहडता दिखाकर कहते है कि दर्शक तो यही देखना चाहते हैं। | हम बेसुरे दिनों में आसमान की ओर चेहरा कर तोड़ते हैं शीशे। इस तरह हमने आईनों को सिखाया है थोड़ा तमीज़दार और सुन्दर होना। आकाश किसी बासी दिन में मुझसे शरण माँगता है। मुझे थोड़ा गर्व होता है, आती है बहुत सारी गुब्बारे सी नींद। जब मुझे बुखार हुआ तब मैं जन्म लेना चाहता था। |
एक उखड़े हुए सूखे पेड़ का तना है कभी मैं उस तने पर होता हूं कभी उसकी जड़ के करीब पेड़ की टहनियां गहरे पानी में हैं किनारा जिसका दूर है पीछे जैसे कुछ है ही नहीं उस पार ही मुझे जाना है टहनियों के सिरे पकड़कर उतरूं तो भी पानी में ही पहुंचूंगा किनारे के शायद कुछ करीब फिर भी पानी में अंधियारे से घिरा यह जंडइल बरगद शायद गांव की काली माई है इसके नीचे शादी की बात हो रही है मेरी अपनी शादी की बात जिसके श्रोताओं में मैं भी शामिल हूं यह जानता हुआ कि अभी क्या होने वाला है सफेद थकी अंबेसडर बहुत तेज आती है रास्ते में उसके बिना जगत का चौड़ा कुआं और यह पागल उम्मीद कि एक जोर में उसके पार निकल जाएगी फिर गर्जना भरी एक उछाल अंबेसडर के अगले पहिए कुएं के पार फिर पिछले और फिर एक-एक कर अगले कराहती खरोंचती आवाजों के साथ धीरे-धीरे कुएं में जाते हुए हिंसक बुलबुले फूटते हुए ऊपर आ-आकर फिर इन्सानी आवाजों का इंतजार जो नहीं आतीं नहीं आतीं |
ओर आखिर में ....."सबद" से शमशेर की डायरी के पन्ने से ...... बादल गरजा, मुँह पर तौलिया या रूमाल रख कर ; ताकि लोगों को बुरा न मालूम हो। शरीफ़ बादल। बारिश ने ज़ोर ज़रा-सा - बस, ज़रा - और बढ़ा दिया। जैसे भाषण देने वाला एक खास पॉइंट पर पहुँच कर मौज में आकर करता है। जैसे बारिश ने अच्छी-सी चाय पी ली हो और अब देर तक जागने के लिए तैयार हो। शाम सेंदुर या गेरू या टेसू के रंग से धुली हुई शाम यानि शाम के बादल। बादलों का एक लंबा ढाल। हलकी ढलुवां हंसती हुई पहाड़ी - और हँसता हुआ खुश-खुश कुछ गहरा-सा ऊदा नीला आसमान। नभ की सीपी जो रात्रि की कालिमा में पड़ी थी, धीरे-धीरे ऊषा की कोमल लहरों में धुलती और निखरती जा रही है। तसवीर अपनी ग़लत तो नहीं। शायद कि ग़लत है। मैं कोई बेहद शरीफ़, बेहद सच्चा, अच्छा इन्सान तो नहीं। न ईश्वर को ही उस तौर से मानता हूँ , मगर मध्यम वर्ग का ईश्वर मेरा भी है, भारत के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का ईश्वर : वही शायद कहीं मेरी-तुम्हारी सीमाएं करीबतरीन करता है। अगर्चे वह एक खामोशी, एक प्रार्थना का सुकून है जो चुपचाप मुझे वहाँ बाँध-सा देता है। अगर्चे कोई चीज़ बज़ाहिर मुझे बांधती नहीं : सिवाय शायद कला की सच्चाई के। ज़िंदगी को मैं शायद उसी के सहारे, उसी की परतों में टटोलता, समझता, झेलता चला आ रहा हूँ। ज्यों-त्यों। बहरकैफ़। |
IRFAN | IRFAN |
nice
जवाब देंहटाएंSir
जवाब देंहटाएंAti uttam charcha
एक ऐसी स्वस्थ सुबह मैं जागूं/
जवाब देंहटाएंजब सब कुछ याद रह जाय/
और /बहुत कुछ भूल जाय
जो फ़ालतू है...
आज की चर्चा ने सुबह खुशनुमा बनाई.
आंकड़ों वाली चर्चा...
जवाब देंहटाएंचर्चा में आजकल खूब प्रयोग हो रहे हैं...
अर्थपूर्ण प्रविष्टियों की चर्चा । आभार ।
जवाब देंहटाएंनिशांत (ताहम ) हमें शर्मिंदा कर देने जितना ज्ञान रखते हैं ... हिंदी, उर्दू और तमिल साहित्य का प्रेमी, उनका बस एक लेख ही जादू जैसा असर करता है... उसे नुक्ताचीनी करने की आदत है... ठोक बजा कर पढता है और तब कमेन्ट करता है... वो ब्लॉगर नहीं है आपकी सोच को झंकृत करने वाला 'सोच' है ...
जवाब देंहटाएंअशोक कुमार पांडे की कविता बहुत सारे अर्थपूर्ण बात कहती है... शुक्र है ब्लॉग पर सबद जैसा ब्लॉग भी जो किसी दिन किताब घर रह गया हो तो आपको मलाल नहीं होना चाहिए... सबद उस वक़्त एक पसंदीदा लाइब्ररी जैसी लगती है... यह एकांत में बैठ कर पढने वाला ब्लॉग है...
नया ज्ञानोदय अबकी मीडिया विशेषांक बनकर आया है... पुण्य प्रसून वाजपई का मानना है हर चीज़ के पीछे एक वजेह होती है... जबकि भारत जैसे देश में कई चीजें अकारण भी हो जाती है बहरहाल ...
पिछले दिनों उन्होंने अपने ब्लॉग पर नक्सलवाद पर खूब लिखा है...
दर्पण ने लिखने में छलांग सी लगायी है... उसका घोडा कैसे दौड़ता है से लेकर आम आदमी और फिर अब यह कविता बस इर्ष्या पैदा करता है... हर ५ मिनट के अंतराल पर सिगरेट पीने वाला यह लड़का पता नहीं क्या कहने के लिए अभी जिंदा है ...
मुझ जैसा लड़का जो बीमार की तरह पढता है उसके लिए निस्संदेह एक सलामी देने लायक चर्चा ... कई नयी चीजें निकल कर लाये हैं... यह ऐसे लिंक रुपी खुराक है जो दिन भर आपको तारो ताज़ा बनाये रखती है...
ब्लॉग पर "अनुनाद" और "नयी बात" भी ऐसे उच्च स्तर की कवितायेँ उपलब्ध कराती हैं जो पढ़कर गौरवान्वित होता हूँ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया डॉ. अनुराग...........
जवाब देंहटाएंअति-उत्तम..क्योंकि
बतर्ज़ पग्गड़ सिंह
आज कि चर्चा दे रही एक ऐसी स्वस्थ सुबह
अपना सब कुछ याद आ रहा
और बहुत कुछ भूल गया
जो यहाँ फ़ालतू है
सचमुच यह एक स्वस्थ चर्चा है ।
अच्छा संकलन है आज .........
जवाब देंहटाएंवाह.....लाजवाब... लाजवाब ....लाजवाब !!!!
जवाब देंहटाएंye hui charcha !
जवाब देंहटाएंbahut khub kuch bahut sunder links aaj padhey aap ki badolat
जवाब देंहटाएंkai achche link mile.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रही चर्चा.
जवाब देंहटाएंलाल्टू और मनमोहन की कविताएं तो संबंधित ब्लॉग पर जाकर पढ़ आई थी। और कविताएं भी पढ़ने को मिल गईं।
जवाब देंहटाएंअनुराग जी को क्रान्तिकारी चर्चा के लिये बधाई..(आजकल सब एक दूसरे को बधाई दे रहे है..)
जवाब देंहटाएंon a serious note..सागर साहब के हम कायल है वो कहते है न कि सीक्रेट अड्मायरर..इतने दिनो से छुप छुप के पढते रहे, कल पहली बार टिपियाये इनके ब्लाग पर..
दर्शन एक प्रयोगी है वह प्रयोगो से कभी नही डरता..मै उसके आज़ाद नज़्मो से बहुत प्रभावित होता हू..सोलन्की साहब तो बस फ़ेक के मारते है..लगता है कि बस अब लगी...
लाल्टू और निशान्त भी बहुत पसन्द आये..काफ़ी नये लोगो से मुलाकात हुयी..आशा से फ़िर मिलते रहेन्गे...
bahut achchee aur suljhi hui.Shukriya.
जवाब देंहटाएंचिठ्ठा चर्चा का ये रूप भी कमाल है.. टी आर पी के लोभ से मुक्त चर्चा.. चर्चाकार को जो सुकून मिलता है ऐसी चर्चा करके.. मुझे नहीं लगता की उसके बाद टिप्पणियों की संख्या मायने रखती होगी.. जो लोग कहते है कि चर्चा बायस्ड होती है उन्हें ऐसी चर्चा पर भी नज़र रखनी चाहिए.. कुछ लोग तो वैसे भी जब उनकी चर्चा होती है तभी कमेन्ट करते है..
जवाब देंहटाएंखैर कमेन्ट की मोह माया से इतर.. चर्चा नायब मोतियों से सजी हुई है. चुन चुन के लिंक्स लगाये है आपने.. दर्पण की तारीफ़ तो सागर के ब्लॉग पर कर ही आया हु.. सबद अपने आप में खज़ाना है.. ऐसी चर्चा निरंतर मिलती रहे तो कुछ बातबने..
ऐसी विशद चर्चा मे की गयी मेहनत और पैशन का महत्व तब पता चलता है..जब कुछ वक्त ब्लॉग से दूर रहने के बाद वापस आओ और अपने सारे पसंदीदा आइटम्स प्लेट मे करीने से सजा हुआ पाओ..अभी तो कुछ पोस्ट्स को देखा है..कुछ ब्लोग्स को घोटा जाना बाकी है..ओवरटाइम की हालत है..
जवाब देंहटाएंहाँ आँकडों वाली बात सही कही आपने..मगर ऐसे आंकडों को देख कर नजरों को होने वाली बदहजमी के इलाज के लिये ही ४ एमएम थिक टीन के मजबू्त चश्मे आते हैं..क्या है कि ऐसी समस्याओं के सार्वत्रिक समाधान का फ़ार्मूला आइंस्टाइन से बहुत पहले अपने तुलसी बाबा दे गये हैं..’मूँदहु आँख, कतहु कछु नाहीं’
..फिर इन आकडो की तल्खी ढ़कने के लिये और आँकड़े भी हैं..शुक्र है कि सचिन की डबल सेंचुरी है..और होली की तैयारी भी करनी है..’४५ रुपीज पर केजेी सुगर’ के एज में..