1. स्विचबोर्ड पर हाथ लगाते समय ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे कि कोई जघन्य अपराध करने जा रहा हूँ।
2. बिजली बचाने का अर्थ है कि दिन के समय का भरपूर उपयोग और रात्रि के समय को आराम।
3. डाइनिंग टेबल की जगह भूमि पर बैठकर ग्रहण किया।
4. मुझे फाइलों के ढेर कटे हुये पेड़ों की तरह लग रहे थे। पर्यावरण की आत्मा इन फाइलों में कैद है।
5. श्रीमतीजी के आग्नेय नेत्र याद आ गये (ग्लोबल वार्मिंग तो झेली जा सकती है पर लोकल वार्मिंग कष्टकारी है)।
6. दाम्पत्य का प्रारम्भ कुछ कार्बन क्रेडिट से तो हो!
सुबह की बात तो शाम तक आते-आते आई-गई हो गयी लेकिन शाम होते-होते हमें एक और उलझन ने लपेटे में ले लिया। शाम को मसिजीवी की पोस्ट बांचने बैठे तो सोचने लगे कि ई ससुरा ’घेटो’ का होता है। सोचना इसलिये पड़ा कि हम सच में समझना चाहते थे कि इस जिस पोस्ट का बीज शब्द ’घेटो’ है उसका मतलब क्या है? जित्ता देर हमको अपने बालक से शब्दकोश उधार लेकर इसका मतलब देखने में लगा उत्ती देर में हमने मसिजीवी को देश की उच्चशिक्षा व्यवस्था का प्रतिनिधि मानकर जमकर कोस डाला कि मास्साब लोग ऐसे-ऐसे शब्द जानबूझकर प्रयोग करते हैं ताकि उनकी अबूझता बनी रही और लगे कि कोई ऊंची बात कह हैं सिरीमानजी।
बहरहाल शब्दकोश से पता चला कि घेटो माने होता है- शहर का एक हिस्सा जिसमें अल्पसंख्यक समूह निवास करता है (a part of a city lived in by a minority group)। इस पोस्ट के माध्यम से मसिजीवी ने यह बात कहने का (मेरी समझ में) प्रयास किया है कि ब्लॉगजगत में मंडल/राज्य के अनुसार समूह या एसोसियेशन बनाना ब्लॉग जगत की असफ़लता सी है और समूह की अपने में ही सीमित रहने की प्रवृत्ति:
अगर छत्तीसगढ़ या किसी और क्षेत्र या समूह के ब्लॉगर इस पूरे ब्लॉगशहर को पूरा अपना न मानकर अपनी बस्ती बसाना चाहते हैं तो इसे कानूनी नुक्तेनजर से समझने की कोशिश इस एलियनेशन को और बढ़ाएगी ही इसलिए जरूरी है इसे पूरे ब्लॉग शहर की असफलता के रूप में देखे जो कुछ साथियों में इस एलियनेशन के पनपने को रोक नहीं पाई।
इस ऊंची बात पर हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं है सिवाय इसके कि मसिजीवी ने आम हिंदी के अध्यापक की तरह अंग्रेजी के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग किये हैं। इस तरह से पूरी पोस्ट में प्रभावोलंकार की छ्टा दर्शनीय है। ज्ञानजी ने भी अपनी टिप्पणी की गागर में (ब्लॉग कम्यूनिटीज का बनना एक तरह का अर्बनाइजेशन प्रॉसेस है।)अंग्रेजी के गनीमत है कि समझ में आने वाले 40% सागर भर दिया।
यह बात अवश्य कहना चाहेंगे मसिजीवी मास्साब से कि उनकी यह बात (छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर साथियों की खुद से नाराजगी ) पूरी तरह सही नहीं है। एक-आध-दो-चार लोगों की नाराजगी को पूरे समूह की नाराजगी के रूप में देखना किसी भी तरह से उचित नहीं है। इस मुद्दे पर पर भी उसी अंचल से नाराजगी से अलग मत भी प्रकट किये गये हैं। इति मास्साब मसिजीवी वार्ता।
डा.श्रीमती अजित गुप्ता अपनी पोस्ट में आजकल नयी पीढ़ी में अपने परिवार के अन्य लोगों से जुड़ने और जान-पहचान बनाने की सहज अनिच्छा की प्रवृत्ति की बात करती हुई लिखती हैं:
आज संतानों के द्वारा परिवारों में यह कहकर टेक्स देना या अपना अंश देना बन्द कर दिया है कि आपको इसकी आवश्यकता ही क्या है? परिणाम हुआ है कि आज एक पीढ़ी ही समाज को बनाए रखने का प्रयास कर रही है। यही युवा पीढ़ी जब स्वयं कहीं जाती है तब माता-पिता से रिश्तेदारों का पता पूछती हैं लेकिन ये रिश्तेदारी कैसे बचायी जाती है इसकी चिन्ता नहीं करती।
आलोचक रामचंद्र शुक्ल लिखित पाठ को जब स्वंय के द्वारा लिखे गये पाठ को पोस्ट करने पर उसे स्वयं उनके द्वारा लिखा हुआ समझकर उनकी भूरी-भूरी( मतलब भूरि-भूरि ) प्रशंसा पाठकों ने की तो रंजना सिंह जी सच में स्वयं लिखने लगीं। और भक्ति शक्ति युक्ति आगार... की रचना कर डाली। जैसे सहवगवा या फ़िर जयसूर्यवा पारी की शुरुआतै में दे छक्का-चौवा लगा के मामला जमावत हैं वैसे ही झकास शुरुआत हुई लेख की:
उस समय जदि भुतवा कहे ... " का ससुर, तू तो ढेर विज्ञान बतियाता रहा,अब काहे को बजरंगबली को बुला रहा है बे...हिम्मत है तो चल, हमरे संग सवाल जवाब का कबड्डी खेल के दिखा...."अब जब वेल विगिन हुई गवा तो हाफ़ डन हुई गवा। चर्चा मां का पूरा बताया जायेगा। बकिया उधर देखिये।
तब भैया, जरा करेजा पर हाथ धर के ईमान से कहिये....लेंगे चैलेन्ज ??
का कहे, निरभय मन से खेल आये हु- तू- तू परेत बाबा संग, औ उनही को पटखनिया दै आये.....बह-बाह चब्बास !!!
प्रमोद सिंह अभी पाये गये थे गोरखपुर में। उहां सरपत फ़िलिम का शो हुआ था। जब उहां गये तो एक ठो पोस्ट भी धांस दिये। देखिये टाइटिल भी धरे हैं-देखिये गोरखपुरिये कैसे हैं:
ठिठोली करते कोचिंग से लौट रहे हैं, थोड़ा पीछे चार लड़कियों का साइकिली जत्था है, एक के टी-शर्ट पर ऐलानिया आवाह्न है, 'ग्रैब लाइफ़ बाइ हॉर्न्स', मैं बालिका के चेहरे पर ऐलान का कनेक्ट पढ़ने की कोशिश करता हूं तो वह सहेलियों की बात पर हंसती आगे निकल गई है. पीछे भोजपुरी सिनेमा की एक नई रिलीज़ का एक भीमकाय होर्डिंग दूसरा ही ऐलान चीख़ रहा है- 'निरुहवा नंबर वन!' मेरे बैग में असद ज़ैदी के 'थ्री एसेज़' के अच्छे प्रकाशकीय उद्यम की वसुधा डालमिया की एक पतली किताब अपने को पढ़वाने की राह तक रही है, मन में कुछ-कुछ वैरागी भाव से 'आनेवाले वक्तों में हिन्दी का अपने समाज से क्या संबंध बनेगा' की एक अलग ठुमरी सुनी जा रही है, उस ठुमरी को एक ओर ठेलियाता फिर खुद से पूछता हूं, हां, बॉस, बोलो, क्या ज़रुरी है जीवन में?
विनीत कुमार बच्चों के टेलीविजन पर रियलिटी शो के चलते उनका बचपना खतम होने की बात करते हैं। वे इस सबंध में कानून की जानकारी देते हुये बताते हैं:
लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। इस बारे में अभिभावक भी बराबर के दोषी हैं जो बच्चों को स्टेटस सिंबल और आर्थिक लाभ के लिये इन रिपलिटी शो में जाने की अनुमति देते हैं। देखिये विनीत की राय इस बारे में।
सरकार ने टीवी शो और बाल कलाकारों को लेकर नियम बनाए हैं कि-
- 8 साल से कम उम्र के बच्चे अब रियलिटी शोज में हिस्सा नहीं ले सकते।
- बच्चे की जो भी कमाई हो उसे नकद की जगह फिक्स डिपोजिट और एजुकेशनल बांड में डाला जाएगा। ये रकम उसे तभी मिलेंगे जब वो 18 साल का होगा।
- नए कायदो के मुताबिक बच्चे एक दिन में 4 घंटे से ज्यादा शूटिंग नहीं कर सकते।
मेरी पसंद
हर किसी नेडराया मुझे
डरी हुई माँ ने सिखाया
पिता से डरना
डरे हुए पिता ने
दिखाई आँख
और स्कूल में धकेल दिया
डरे हुए अध्यापकों ने
मुझे बनाया मुर्गा
नैतिकता, सिद्धांत और
आदर्शों में लपेट कर
पढाए..
बेसूद महत्वाकांक्षाओं के पाठ
साहस, स्पर्धा, वीरता का
जीभर गुणगान किया
पर मैं जान गया
हर पाठ हर गुणानुवाद
डरे हुए शब्दों ने बुना था
डर जितना बाहर था
भीतर सौ गुना था
वहीं से पाया मैंने
तथ्यों का तथ्य
जीवन का सत्य
कि आलू और आदमी में
कोई खास फर्क नहीं होता
इक तेल में तला जाता है
इक डर में भुना जाता है
नवोत्पल से
कम पर बढ़िया चिट्ठा चर्चा..धन्यवाद अनूप जी
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढिये चर्चा मे हैं।हा हा हा अच्छी चर्चा।मसीजीवी मास्साब की नाराज़गी दूर करने का कोई उपाय हो तो बताईगा ज़रूर्।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत चर्चा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुते बढिया चर्चा!
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंअनूप जी, घेटो का अर्थ समझा दिया यह अच्छा किया। नहीं तो मन में यह शब्द घुटता ही रहता। हम यह तो सुनते आए थे कि तुम्हारा घेटा दबा देंगे लेकिन यह घेटो? वाह बहुत ही बढिया चर्चा है बधाई।
जवाब देंहटाएंचर्चा फुर्सत से नहीं की गयी...
जवाब देंहटाएंअंत की कविता ने तो मन मोह लिया ...
जवाब देंहटाएंनवोत्पल पर अच्छी कवितायेँ पढने को मिल जाती हैं... यह कविता भी शानदार है... सच है वीरता, आत्मविश्वास, फलाना - धिम्काना यह सब डर से उपजा है और डर ही पैदा करता है... इस पर इससे पहले भी एक अच्छी कविता आई थी...
जवाब देंहटाएंbahut rochak link है aaj ka... vishesh kar praveen panday ji, ranjna ji और pramod ji ka...
जवाब देंहटाएंनवोत्पल पर कविता जानदार है .श्रीश का प्रयास सराहनीय है .....पर आम पाठक के संवाद के लिए उसे खुला छोड़ना चाहिए ......ओर हाँ पीछे चिटठा चर्चा पर की गयी डॉ अमर कुमार की टिप्पणी हफ्ते की टिप्पणी की श्रेणी में रखे जाने लायक है ......
जवाब देंहटाएं@ अनिलजी, ऐसा उलाहना भी न दें आपसे नाराज होकर हम कहॉं जाएंगे हम तो दिलोजान से ये जानने की कोशिश भर कर रहे हैं कि हमसे नाराजगी किस बात पर है :)
जवाब देंहटाएंफ़िलहाल अच्छी लगी बकिया का इंतजार है. मसिजीवी जी के पोस्ट और उसमे अनिल जी का कमेंट पढवाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद. खुदा करे आल इज वेल(अच्छा) ही वेल(अच्छा) हो.
जवाब देंहटाएंbahut badhiya charcha kai sare link mile.
जवाब देंहटाएं@डॉ .अनुराग जी
जवाब देंहटाएं"...पर आम पाठक के संवाद के लिए उसे खुला छोड़ना चाहिए ..."
ऐसी कोई पाबंदी तो नही है..आग्रह है थोड़ा स्पष्ट करें..!
खूबसूरत लगी चर्चा.
जवाब देंहटाएं@ मसिजीवी जी मैंने उलाहना नहीं दिया. मुझे जैसा प्रतीत हुआ वैसा मैंने कहने की चेष्टा की. वह टिपण्णी मैंने किसी व्यक्ति विशेष को नहीं दी.
जवाब देंहटाएंयदि मुझसे गलती हुई तो उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ. किसी को पीड़ा देना मेरा उद्देश्य नहीं था.
जवाब देंहटाएं@ अनिलकांतजी खेद है दरअसल मेरी टिप्पणी अनिल पुसादकरजी को संबोधित है..गलतफहमी के लिए खेद है।
जवाब देंहटाएं@श्रीश
जवाब देंहटाएंमेरा तात्पर्य था के कोई भी कविता प्रेमी पाठक जो गूगल खाते से लोग इन करता है ...उसे इस शानदार ब्लॉग में अपनी राय रखने की छूट होनी चाहिए .....