वैसे नीलाभ भाई से मुझे ऐसी ही उम्मीद थी कि वे नयेपन से घबरायेंगे नहीं। हिन्दी में कवि बहुत उमर हो जाने पर युवा बने रहते हैं, नीलाभ जी सम्भवतः उस उमर के पार चले गए हैं। लेकिन अगर कभी नीलाभ जी से मिलें तो पाएंगे कि युवा कवि कहलाए जाने की लोक-स्वीकृत उमर चौंसठ बरस भी हो जाय तो कम से कम उन के मामले में असंगत न होगा। गर्मजोशी, बिन्दासपन (मराठी बिनधास्त यानी निडर का बम्बईया रूप) और बेबाकी उनका नैसर्गिक गुण है, मगर ऐसा भी नहीं है कि वे कोई गुड़ की ढेली हैं। कुछ लोग उनके इन्ही नैसर्गिक गुणों से भय भी खाते हैं।
नीलाभ भाई को मैं १९८७ से जानता हूँ। उस वक़्त मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी ए का छात्र था और वे बी बी सी हिन्दी सेवा से अपना कार्यकाल पूरा कर लौट कर आए प्रतिष्ठित कवि। ज़माने के प्रति मेरी सोच और जीवन की समझ बचकानेपन से आच्छादित थी, लेकिन नीलाभ भाई ने कभी मेरी अधकचरी समझ को तवज्जो नहीं दी और मुझे और मेरे जैसे अन्य छात्रों को हमेशा एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की इज़्ज़त बख़्शी। मुझे और मेरे साथियों को कभी ये एहसास नहीं हुआ कि वे लगभग हमारी पिता की उमर के हैं। वे हमेशा हमारे दोस्त बने रहें। बड़ों की इज़्ज़त करना तो सभी जानते हैं, छोटो को साथ कैसे मुहब्बत से पेश आते हैं ये नीलाभ भाई से सीखा जा सकता है।
नीलाभ भाई के कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मुझे उनका पहला संग्रह ‘अपने आप से एक लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ काफ़ी पसन्द रहा है। इस बार मिला तो मैंने उन से फिर से लम्बी कविता की और लौटने की गुज़ारिश की तो उन्होने दो रोज़ बाद मुझे इस कविता की ओर ध्यान आकर्षित कराया, जो उन्होने अपने ब्लॉग ‘नीलाभ का मोर्चा' पर चढ़ाई है।
कविता का यह हिस्सा मेरे मन को बहुत भाया:
२०.
कभी-कभी मुझे लगता है तुम
मेरी निजी प्रतिशोध की देवी हो.....
२१.
अब भी बाक़ी है ग़मज़दा रात का ग़म,
तेरी चाहत का भरम अब भी बाक़ी है,
मैं तरसता हूं तेरी क़ुर्बत को अबस,
अब भी बाक़ी है तेरी सोहबत का करम,
है कहां अपना मक़ामे-जन्नत ये बता,
तल्ख़ रातों का सितम अब भी बाक़ी है
बढ़े आते हैं अंधेरी रात के साये,
निज़ामे-ज़ुल्मो-सितम का ख़म अब भी बाक़ी है
इस ज़ुल्मतकदे में किस तरह कटेंगी घड़ियां
अब भी शिद्दते-ग़म में बाक़ी है, बाक़ी है दम
२२.
तेरी आवाज़ की परछाईं भी अब नहीं बाक़ी
अब नहीं बाक़ी तेरे थरथराते जिस्म का लम्स
वो जज़्बा-ए-जुर्रत दिल का अब नहीं बाक़ी
अब नहीं बाक़ी उसकी लज़्ज़ते-क़ुर्बत भी कहीं
ढूंढते हैं इस वीराने में उस के नक़्शे-पा यारब
सुकूने-हयात की कोई सूरत अब नहीं बाक़ी
दिल तड़पे है उस रफ़ीक़े-कार से मिलने को
मगर वो रस्मो-राह पुरानी अब नहीं बाक़ी
२३.
जानती हो, जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगती है ज़िन्दगी
और भी ज़्यादा हसीन लगने लगती है
मंज़िल उतनी ही दूर
की गयी अच्छाइयों से ज़्यादा याद आते हैं अनकिये गुनाह
हसरतें हर रोज़ नया काजल लगाये चली आती हैं
फ़्लाई ओवर पर औटो से उतरती तन्वी की तरह,
छली जाती हैं छीजते तन से, बुझे हुए मन से,
जो देख चुका होता है पर्दे के पीछे की सच्चाइयां,
छली जाती हैं झूठ बोलने-बुलवाने वाले कायर से
ऐसे में सिर्फ़ एक ही ख़याल आता है मन में
जिसे पूरा करने पर रहेगी नहीं सम्भावना
कभी किसी ख़याल के आने की मन में....
पूरी कविता आप उनके ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं।
वामपंथ पर उनकी आस्था व्यक्तियों और पार्टियों से स्वतंत्र रही है और नक्सलबाड़ी के पहले के वर्षों से बनी हुई है। और आज भी वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से ज़रा भी डगमगाए नहीं हैं, इसका प्रमाण उनकी हालिया पोस्ट में देखा जा सकता है। उनका इरादा है कि वे इस ब्लॉग पर लगातार अपने सरोकारों की अभिव्यक्ति करते रहेंगे। इस आभासी दुनिया में मैं उनसे पहले आ कर जम जाने का फ़ाएदा उठाते हुए उनका स्वागत करता हूँ और ब्लॉग की दुनिया के दोस्तों के बीच उनकी लोकप्रियता के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूँ।
उन्हें हमारी भी शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंजिसे पूरा करने पर रहेगी नहीं सम्भावना.nice
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए आभार !!
जवाब देंहटाएंअभय की चर्चा है तो तेवर अलग ही होंगे. नीलाभ जी का पता बताने का शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबेहतर...
जवाब देंहटाएंनीलाभ का अंदाज़ पसंद आया...चर्चा का भी...
-ढूंढते हैं इस वीराने में उस के नक़्शे-पा यारब
जवाब देंहटाएंसुकूने-हयात की कोई सूरत अब नहीं बाक़ी......
-जब शब्द ख़ामोशियों को जन्म दें तो अन्त में
ख़ामोशियां ही जीतती हैं....
-अद्भुत प्रस्तुति .नीलाभ जी बहुत अच्छा लिखते हैं.
परिचय करने के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंइस चर्चा के जरिये उनके ब्लॉग तक जाकर दो हालिया पोस्ट पढ़ आया हूँ ।
लग रहा है कि हिन्दी नेट पर मैं अकेला न रहा, एक हमख़्याल एक हमराह मिल गया है ।
औपचारिकता के कर्मकाँड में मेरी आस्था न होते हुये भी, शब्दों में उनका स्वागत है !
जानकारी के लिए आभार !!
जवाब देंहटाएंवाह, वाह! बहुत खूब! नीलाभजी के ब्लॉग के बारे में चर्चा पढ़कर आनन्दित हुये।
जवाब देंहटाएंअभय जी को चर्चाकार मंडली की सूची से निकलकर वास्तव में चर्चाते देखना सुखद अनुभव है.
जवाब देंहटाएंनीलाभ जी की रचनाएं पसन्द आयीं. मुझे इनमें "फ़ैज़" की झलक बेइन्तहा नज़र आयी. वही इन्कलाबी अन्दाज़, वही शब्द चयन. मेरा दावा है कि "फ़ैज़" इनके पसन्दीदा शायरों की सूची में काफ़ी ऊपर होंगे.
बहरहाल, स्वागत है.
वामपंथ जिस उद्देश्य से ओर नैतिकता से शुरू हुआ था ...इस सदी तक आते-आते भटक गया है ."..इन्फेक्ट " हो गया है ...किसी ओर राजनीतिक विचार की तरह .....ओर अब केवल बुद्धिजीवियों का शगल भर रह गया है .नीलाभ जी का प्रशंसक हूँ .....पर अगर हिंदी का वाकई विस्तार ओर भला करना है ओर इसकी पहुँच दूर तक पहुंचानी है .तो "अन्तरजाल "का इस्तेमाल करना होगा प्रत्यक्ष ओर परोक्ष दोनों रूपों से ...तकनीक की इस दुनिया का भी भला होगा ओर संवाद की एक सार्थक प्रक्रिया की चेन भी शुरू होगी.....
जवाब देंहटाएंएक बेहतर चर्चा के लिए बधाई ....इस पन्ने पर आते जाते रहिये .ऐसी बहसों की आवश्यकता है
ओर हाँ .ये पंक्तिया वाकई कमाल है
जवाब देंहटाएंकभी-कभी मुझे लगता है तुम
मेरी निजी प्रतिशोध की देवी हो.....
पढ़ कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंBhadiya post pad kar accha laga..Aabhaar!
जवाब देंहटाएंhttp://kavyamanjusha.blogspot.com/
उन्हें हमारी भी शुभकामनाएं...
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