कल का दिन ठीक ठाक गुज़रा.. पर आज सुबह जब तेज जुकाम और खांसी के मारे नींद नहीं आ रही थी तो सोचा फिर से खुराक लेनी पड़ेगी.. सुबह सुबह लैपटॉप पर फिल्म गुलाल का अंतिम सीन देखा और फिर कुछ ऐसे ब्लोग्स के लिंक्स खोले कि जिन्हें मैं अपनी खुराक कहता हु..
कहते है तबियत दुरुस्त रखने के लिए काम से से ज्यादा खुराक लेनी चाहिए.. बस इसीलिए अपना लिखना कम और पढना ज्यादा होता है.. पढना भी एक सायलेंट रीडर की तरह.. हम ये जानते भी नहीं होते कि हमें कौन पढ़ रहा है.. आप फीड बर्नर पर अपने सब्सक्राईबरस देखिये अधिकतर को तो आप जानते भी नहीं होंगे.. सबकी अपनी एक खुराक होती है.. बस आज सुबह सुबह सोचा अपनी खुराक से एक चर्चा कर दी जाए.. मेरे फीडरीडर में जो लिंक्स है उनमे से कुछ सेलेक्टेड लिंक्स की चर्चा कर रहा हूँ.. हो सकता है इनमे कुछ पुराने भी हो.. पर इतना तो आप बर्दाश्त कर ही लेंगे..
मेरी पहली खुराक सिनेमा..

दिल्ली विश्वविद्यालय में जूनियर रिसर्च फैलो. फिल्में बहुत देखता हूँ. किताबें बहुत पढ़ता हूँ. बातें बहुत करता हूँ. दोस्तियाँ बहुत लम्बी बनाता हूँ. बार-बार घर भाग जाता हूँ! क्रिकेट का आज भी दीवाना हूँ…
मिहिर को पढ़ते हुए अक्सर ऐसा लगता है जैसे मैं खुद को पढ़ रहा हूँ.. सुबह सुबह मिहिर उस फिल्म की बात करता है जिसके बारे में तीन दिन पहले मैं दोस्तों के साथ चर्चा कर चुका हूँ.. निर्देशक परेश मोकाशी की मराठी फ़िल्म हरिशचंद्राची फैक्ट्री
मिहिर.. अपनी पोस्ट की शुरुआत में एक सवाल पूछते है..
अगर तुम्हें एक मूवी कैमरा (जिससे फ़िल्म बनाई जाती है) मिल जाये और उसके साथ यह छूट भी कि तुम किसी एक चीज़ का वीडियो बना सकते हो तो बताओ तुम किसका वीडियो बनाओगे?
और अंत में खुद मिहिर जवाब देते है..
चलो मैं तुम्हें अपने मन की बात बताता हूँ. जब मैं छोटा था तो हर बरसात के मौसम में हमारे बगीचे में एक कुतिया छोटे-छोटे पिल्ले देती थी. पहले-दूसरे दिन तो वो इतने छोटे होते कि उनके मुँह भी ठीक से नज़र नहीं आते. वे बिलकुल गुलाबी होते. मुझे उनसे बहुत ही प्यार था. फिर तेज़ी से वो बड़े होने लगते. इधर-उधर भागते. मैं उन्हें एक के ऊपर एक रख देता और वो फिसल-फिसलकर नीचे गिरते. वे अलग-अलग पहचान में आने लगते. मैं उनके अलग-अलग नाम रख देता. चिंटू, प्यारू, भूरू, कालू. उनके साथ खेलने में बहुत मज़ा आता. इस पूरे दौर में उनमें से कुछ मर भी जाते. अगर मुझे कोई उस वक़्त वीडियो कैमरा दे देता तो मैं उनकी वीडियो ज़रूर बनाता.

इसी बीच वे फिल्म हरिशचंद्राची फैक्ट्री की बात करते है जो दादा साहब फाल्के के जीवन पर आधारित है.. और ये भी बताते है कि फाल्के साहब ने कैमरे का क्या किया?
उन्होंने पहला वीडियो बनाया एक उगते हुए पौधे का. अब तुम कहोगे कि उगते हुए पौधे का कोई वीडियो कैसे बना सकता है. अरे भई पौधा कोई एक दिन में थोड़े न उग आता है कि बस कैमरा लगाया और बन गया वीडियो
ठीक कहा तुमने. लेकिन फालके भी इतनी आसानी से हार मानने वाले कहाँ थे. उन्होंने इसके लिए एक अद्भुत तरकीब खोजी. उन दिनों हाथ से हैंडल घुमाकर चलाने वाले फ़िल्म कैमरा आते थे. तो फालके साहब ने क्या किया कि कैमरा गमले के ठीक सामने रख दिया और बिना उसे अपनी जगह से हिलाए वो रोज़ एक तय समय पर उसका हैंडल घुमा देते थे. ऐसा उन्होंने एक महीने तक लगातार लिया. फिर उस पूरी रील को धोकर एक साथ प्रोजेक्टर पर चलाया. और चमत्कार! ऐसा लगा जैसे हमने अपनी आँखों के सामने एक पौधा उगते देखा हो.
इसी बीच वे फाल्के साहब के जीवन से जुड़े कुछ और पहलुओ पर बात करते है..
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फालके ने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से पढ़ाई की थी. उन्होंने कला भवन, बड़ौदा से मूर्तिकला और फोटोग्राफी सीखी. फिर उन्होंने गुजरात के गोधरा में एक फोटोग्राफी स्टूडियो खोला. लेकिन वो चला नहीं, लोगों में यह अफ़वाह जो फैल गई थी कि फोटो खिंचवाने से आदमी की ताक़त नष्ट हो जाती है. -
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उन्होंने आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के लिए भी काम किया. फिर उन्होंने अपनी प्रिटिंग प्रेस भी खोली. यहाँ उन्होंने महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया. -
जो पहली फ़िल्म दादा साहब फालके ने देखी थी वो थी ’लाइफ़ ऑफ़ क्राइस्ट’ और साल था उन्नीस सौ बारह. -
दादासहब फालके की बनाई फ़िल्म ’राजा हरिश्चन्द्र’ जो हिन्दुस्तान की पहली फ़ीचर फ़िल्म थी प्रदर्शित हुई 3 मई 1913 को और थियेटर था कोरोनेशन थियेटर, मुम्बई. -
आगे चलकर उन्होंने अपनी फ़िल्म निर्माण कम्पनी स्थापित की जिसका नाम रखा ’हिन्दुस्तान फ़िल्म कम्पनी’. -
भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले धुंडीराज गोविन्द फालके के सम्मान में उनके नाम पर भारत सरकार ने सन 1969 में ’दादा साहब फालके’ पुरस्कार की शुरुआत की. यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष था. यह पुरस्कार किसी व्यक्ति को सिनेमा के क्षेत्र में जीवन भर के अविस्मरणीय योगदान के लिए प्रदान किया जाता है. पहले साल इस पुरस्कार को गृहण करने वाली अभिनेत्री थीं देविका रानी. साल 2007 के लिए यह पुरस्कार गायक मन्ना डे को दिया गया है. और इस साल गुरुदत्त की फ़िल्मों के लाजवाब सिनेमैटोग्राफर वी. के. मूर्ति को.
ये तो हुई मिहिर की बात.. सिनेमा पर जो चंद ब्लॉग है उनमे प्रमोद सिंह जी का सिनेमा सिलेमा अपनी एक खास छाप छोड़ता है… इस ब्लॉग पर प्रमोद जी क्लॉदिया ल्लोसा निर्देशित पेरु की फ़िल्म 'द मिल्क ऑव सॉरो' की बात करते है..
सामान्यतया, प्रकट तौर पर इतिहास हमेशा हमसे ज़रा दूर, कहीं बाहर चल रही परिघटना की तस्वीर बनी रहती है. वह अभागे लोग होते हैं जिनका जीवन सीधे उस भंवर की चपेट में आ जाए. क्लॉदिया ल्लोसा निर्देशित पेरु की फ़िल्म 'द मिल्क ऑव सॉरो' कुछ ऐसे ही अभागे संसार का सफर है. अपनी मां के मरने के बाद बहुत डरी हुई जवान नायिका फाउस्ता डगमग पैरों अपने अतीत में उलझी अपना वर्तमान सहेजने की कोशिश कर रही है. मज़ेदार यह है कि फाउस्ता की कहानी बड़ी आसानी से एक समूची सभ्यता का विहंगम दस्तावेज़ बनने लगता है..
इसके साथ ही प्रमोद जी एक इंग्लिश ब्लॉग सिनेमा टेक्स का लिंक भी देते है जहाँ पर इस फिल्म की समीक्षा की गयी है और कुछ यु लिखा गया है..
Like all good quests, La teta asustada’s journey is more spiritual than real. It is well worth taking this journey with Fausta.
फिल्म को डाउनलोड करने का टोरंट लिंक आप प्रमोद जी के ब्लॉग से ले सकते है.. फिल्म १.१२ गिगाबाय्ट्स की है.. हमने तो टोरंट डाउनलोड कर दिया है रात दस बाजे बाद डाउनलोड के लिए लगायेंगे..
इसके बाद इसी ब्लॉग से एक पुरानी रुसी फ़िल्म के स्नैप्स..
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तीसरी खुराक के रूप में मुझे मिला उमेश पन्त का पिक्चर हौल.. इस ब्लॉग के जन्म की तारीख भी चिठ्ठा चर्चा के इतिहास में दर्ज है.. मैंने अपनी ही चर्चा में इस ब्लॉग की पहली पोस्ट का जिक्र किया था.. और इस ब्लॉग ने मुझे निराश भी नहीं किया.. उमेश लाशों से कफन बीनने वालों पर बनी फिल्म को नेशनल अवार्ड मिलने पर लिखते है..
जामिया के मासकम्यूनिकेशन रिसर्च सेन्टर में साउन्ड के लेक्चरार मतीन अहमद को फिल्म चिल्ड्रन आफ पायर की साउन्ड डिजाईनिंग के लिये इस बार का नेश्नल अवार्ड दिया जा रहा है।
ये फिल्म वाराणसी के उन 6 बच्चों की कहानी है जो मरघटों पर जलती हुई लाशों पर लिपटे हुए कफन बीनते हैं। कफन बीनकर या कभी कभी चुरा और छीनकर अपनी जिन्दगी जीने वाले इन बच्चों का जीवन कैसे बसर होता है चिल्ड्रन आफ पायर इसे मार्मिक तरीके से दिखाती है।
साउन्ड के लिए नेशनल अवार्ड दिए जाने के बाबत उमेश लिखते है...
इस फिल्म में साउन्ड की एक खास भूमिका है। एमसीआरसी में मतीन सर के छात्र रोहित वत्स फिल्म की साउन्ड पर बारीकी से बताते हैं कि जलती हुई लाशों की आवाज को औन द स्पाट जिस तरह से इस फिल्म में रिकौर्ड किया गया है वो कमाल है। भीडभड के दश्यों में बच्चों की धीमी आवाज भी बिल्कुल स्पष्ठ सुनाई पडती है।
फिल्म में साउन्ड का उतार चढाव बडा लयात्मक है। कुछ दश्यों में शोर शराबे के तुरन्त बाद एकदम सन्नाटा छा जाता है लेकिन इसके बावजूद कोई जर्क साउन्ड में मालूम नहीं पडता। फिल्म में कैमरा उतना क्लोज नहीं जाता जितनी साउन्ड चली जाती है। फिल्म की साउन्ड का सबसे उम्दा पक्ष यह है कि तेज हवा की तरफ माईक्स को प्लेस करने के बावजूद भी साउन्ड फेदफुली रिकौर्ड करने में मतीन सर कामयाब रहे हैं।
अब चलते है सुबह सुबह मिले खुबसूरत तोहफे की ओर.. जी हाँ लघु फिल्म ‘सरपत’ के निर्देशक अभय तिवारी जब किसी फिल्म के बारे में बात करे तो निश्चित ही वो फिल्म देखने लायक होगी..
इसीलिए अपनी टिपण्णी में अजित वडनेरकर जी लिखते है..
अभय भाई,
जब खुद एक फिल्मकार होकर आप इतने मुग्ध भाव से लिख रहे हैं तब निश्चित ही फिल्म तो देखनी ही होगी। समस्या यही है कि ऐसी फिल्में कहां प्रदर्शित होती हैं और कहां कहां से गुज़र जाती हैं, पता तक नहीं चलता। अभय की प्रशंसा बहुत कीमती होती है, यह मैं जानता हूं। खाली कभी खाली नहीं जाती...इसे देखने का जतन ज़रूर किया जाएगा। सीडी आए तो खबर कीजिएगा।
अभय जी के ब्लॉग पर क्लीक करते ही सामने दीपक डोबरियाल का ये चित्र नज़र आता है..

बस यही से मेरी दिलचस्पी इस पोस्ट में बन जाती है.. एक बार मैंने कहा था.. कि दीपक डोबरियाल की प्रतिभा को अगर भारतीय सिनेमा यूटिलाईज नहीं कर पाया तो बड़े शर्म की बात होगी.. क्योंकि मुझे वे खट्टा मीठा, खूबसूरत, बातो बातो में जैसी फिल्मो से पहचाने जाने वाले रंजित चौधरी की तरह प्रतिभाशाली लगते है.. जिन्होंने बाद में होलीवूड की ओर रुख किया ओर एक अरसे बाद भारतीय फिल्म कांटे में एक छोटे से रोल में नज़र आये..
खैर बात करते है दीपक डोबरियाल की जिन्हें आप गुलाल ओर ओमकारा से बेहतर जानते है..
एफ़ टी आई आई, पुणे की स्नातक बेला नेगी की फिल्म ‘दाये या बाये’ के बारे में अभय जी लिखते है..
यह उस फ़िल्म का नाम है जो मेरी समझ में हिन्दी फ़िल्म की एकाश्मी परम्परा से बहुत आगे, और बहुत ऊपर की संरचना में बुनी हुई है। जीवन का इतना गाढ़ा स्वाद और इतने महीन विवरण उपन्यासों में भी तो फिर भी मिलते हैं, मगर फ़िल्मों में विरलता से दिखते हैं। हिन्दी उपन्यास और हिन्दी फ़िल्म के संसार में मैंने कभी नहीं देखे। बावजूद जीवन की गाढ़ी जटिलता के ‘बायें या दायें’ एक बेहद हलकी-फुलकी और गुदगुदाने वाली फ़िल्म बनी रहती हैं,
फिल्म की कहानी के बारे में विस्तार से बताते हुए वे अंत में कहते है..
फ़िल्म रिलीज़ होने के इन्तज़ार में है, जब भी परदे पर आए ज़रूर देखियेगा, एक अप्रतिम अनुभव आप की प्रतीक्षा कर रहा है। मैंने यह समीक्षा एक ट्रायल शो देखने के बाद लिखी है।
मैं तो ये फिल्म जरुर देखने वाला हूँ.. आप भी टाईम निकालिए..
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“Ishqiya undoubtedly is a move that is fuelled by the performances. It is a fine example of a great ensemble performance that shines through. Each and every cast member has put in their best efforts, irrespective of how quirky the characters may seem.”
वही संदीप पाण्डेय कुछ और कहते है फिल्म के बारे में..
टुकड़ों टुकड़ों में अच्छी होने का भ्रम पैदा करती इश्किया दो घंटे की एक छोटी फिल्म है जिसका पहला हाफ जबरदस्त झिलाऊ है। गालियों का तड़का जाने क्यों असरदार नहीं लगता। गालियों से लेकर घटनाओं तक फिल्म में नेचुरल कुछ भी नहीं है। सारी परिस्थितियां और पात्र हर मोड़ पर गढ़े हुए लगते हैं। किरदारों में कमीने का एक्सटेंषन डालने की कोशिश की गई है। एक सवाल यह भी है कि क्या महज चौंकाऊ गालियां डालकर घटनाओं को स्वाभाविक रूप दिया जा सकता है
नसीरुद्दीन शाह के अभिनय के बारे में वे कहते है..
नसीर ने एक बार फिर साबित किया है कि उनका कोई जवाब नहीं। बूढ़े अंतरमुखी आशिक और एक छुटभैये उठाईगीर की भूमिका में उन्होंने जबरदस्त जान फूंकी है।
अंत में फिल्म के एक गाने इब्न बतूता को सुनकर वे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता याद करते है..
फिल्म के गाने सुनने में जितने अच्छे हैं देखने में वे उतने असरदार नहीं लगते। इब्ने बतूता गीत सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की इसी नाम की कविता की याद दिलाता है -
इब्नबतूता
पहन के जूता निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते उनका जूता
पहुँच गया जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गए
मोची की दूकान में
अगला लिंक अचानक से खुल जाता है.. तो याद आता है कुमार आलोक का ब्लॉग मिसगाइडेड मिसाइल, कुमार आलोक जो अपनी तस्वीर के ऊपर लिखते है मेरा थोबड़ा.. .
और साथ ही एक डिस्क्लेमर भी लगाते है.
“बढी हुई दाढी बौद्धिकता का प्रतीक है, वैसे पैसे बचाता हूं इसलिए दाढी़ कभी-कभी बनाता हूं।”
कुमार आलोक नक्सली बिलाइ मियां की बात करते है..
मैने कहा बिलाइ मियां जब तक वैचारिक क्रांति आप लोगों के अंदर समावेश नही करेगी तब तक आप अपने मकसद में कैसे सफल होंगे । बिलाइ ने माओ-त्से-तुंग का डायलाग बोला क्रांति बंदूक के नली से होकर गुजरती है । खैर दस्ता प्रमुख ने बोला आलोक जी अब हमारा पडाव यहां से चल रहा है ..हमने पूछा कि कहां ..बोले मुझे भी नही मालूम ।
एक उभरते हुए लेखक का कल रात फोन आया था जिसने अपने ब्लॉग पर नयी पोस्ट डालने की बात की.. बस वही लिंक खोला.. ब्लॉग था सोचालय.. ठीक इसके आगे लिखा है.. क्योंकि सोच कही भी आ सकती है.. वाकई! तभी तो इस बेजोड़ सोच का नमूना मिलता है इस ब्लॉग पर.. सोच को शब्द देने पर जो कमाल हुआ वो ज्यो का त्यों यहाँ लिख रहा हूँ...
दोनों को खुद से ही प्यार होने लगा था और वो अपनी ही परछाई में छुप जाना चाहते
थे। छिप जाना चाहते थे मानों ठण्ड में बारिश हुई हो और गली का कुत्ता
थोड़ा सा भींग कर किसी छज्जे के बित्ते भर खोदी गई जगह में दुबक रहा हो।
आगे आप पढेंगे तो इसमें ये शब्द भी मिलेंगे.. प्रेशर कुकर की चौथी सीटी.. दिवार पर लगी घडी.. एक सदी में अटकी उम्र.. प्रेशर कुकर की पांचवी सीटी.. सिरिंज से निकला गया खून.. ब्रेड का पैकेट.. जली हुई खिचड़ी.. ठंडा पानी और ऊबे हुए आदमी का बिस्तर.. शायद बुखार में पड़े आदमी की बिस्तर पर पड़े हुए सोच है.. क्योंकि सोच तो कही भी आ सकती है..
अंत में लेखक एक स्टार लगाकर किसी पूजा उपाध्याय को विशेष आभार भी देता है.. पर पता नहीं क्यों? शायद लेखक कभी कही खुलासा करे.. हो सकता है आज यही टिपण्णी में.. इन्तेजार करिए लेखक का..
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कहानी की किसी गली में भागते हुए लेखक का पीछे से ही हाथ पकड़ लिया उसने...
"रुको! सुनो!! मेरी मायोपिक नजर मे इस लेखक को पलायनवादी नही होना चाहिये..पलायन का संबंध लेखन से नही जीवन से होता है..भागता हुआ व्यक्ति लिख नही सकता सिर्फ़ भाग सकता है..लिखने के लिये पहले रुकना पड़ता है..और लेखन तो खुद को अभिव्यक्त करने का नाम है..और खुद को अभिव्यक्त करना परिस्थितियों के प्रति ’रिस्पॉन्ड’ करना होता है..’इस्केप’ करना नही..."
रात ने दूसरी तरफ करवट ली जब, कुछ मतलबी पंछी सूरज के साथ-साथ नंदादेवी के ऊपर से उड़ते

रात भी किसी चादर की तरह होती काश, खींच कर नींद को सर से पांव तक ढक ही देता सोहन . रोज़ की ही बात है, चहा (चाय) रोज़ की तरह उतनी गर्म थी. 'ठंडी' या 'गुनगुनी' शब्द का प्रयोग जानबूझकर नहीं किया क्यूंकि सोहन के लिए ताज़ी की परिभाषा बदल गयी थी चहा और रात्तीब्याण (सुबह) दोनों को लेकर. अपने दोनों हाथों से ग्लास को घेर कर उस 'लगभग गर्म' चाय की गर्मी पूरी ले लेनी चाही. मानो थुलमे (रजाई) से निकले 'दिसम्बरी हाथ' गर्मी का 'डेमेज कंट्रोल' कर रहे हों.
'क्षति पूर्ती'.
लेखक कहानी का अंत
जानता है पर वो पाठकों से कैसे कहे?
लेखक उसे बदलना भी चाहता है पर बदल क्यूँ नहीं पा रहा है? इश्वर भी इतना ही विवश हो जाता है कभी कभी?
या लेखक इश्वर नहीं है ?
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यही से कविताओ की खुराक की भूख बढती है.. दो लिंक्स याद आ जाते है.. दोनों ही लिंक्स को लेफ्ट राईट में लगा रहा हूँ एक एक करके पढ़ लीजिये.. चाहे तो लेफ्ट वाला पहले पढ़िए या फिर राईट वाला.. कोई बंदिश नहीं है..
पत्नी ने अंगुली उठाई, यह उच्छृखंलता घुन है, कि सभ्य-समाज की दुहाई देनेवाले, भितरघात की तरह उसकी जड़ मत खोदो, रिश्ते जीवन के सुलझाव के लिए हैं, मान करो उनका, सहजता से निभा नहीं पाते, तो कोशिश करो, नियंत्रण के तहत, धीमे-धीमे आदत पड़ जाएगी, हजारों साल पहले की शुरुआत और उम्मीद बेकार नहीं जाएगी - स्मिता सिन्हा | हम सर उठाकर बाहर देखते हैं। आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन, ज़मीन पीस देंगे। हमें नींद नहीं आती। गोलियाँ खाई हैं, काँपती नहीं जुबान और सच का ग़श खाकर गिर पड़े हैं। यह ज़हर की तरह उतरता है रात दिन शहर हमारी नसों में। |
लास्ट बट नोट द लिस्ट..
सुबह सुबह आपका क़त्ल करने के लिए ऐसी ही किसी पोस्ट की दरकार होती है... ब्लॉग कबाडखाना से..
एक साल क्षात्कार में विख्यात इतालवी उपन्यासकार इतालो काल्वीनो से पूछा गया "क्या आप कभी बोर हुए हैं?"
इतालो का जवाब था: " हां, बचपन में. लेकिन मैं यहा पर बताना चाहूंगा कि बचपन की बोरियत एक खास तरह की बोरियत होती है. वह सपनों से भरी बोरियत होती है जो आपको किसी दूसरी जगह किसी दूसरी वास्तविकता में प्रक्षेपित कर देती है. वयस्क जीवन की बोरियत किसी काम को बार-बार किये जाने की वजह से पैदा होती है - यह किसी ऐसी चीज़ में लगे रहने से होती है जिस से अब आप किसी अचरज की उम्मीद नहीं करते. और मैं ... मेरे पास कहां से समय होगा बोरियत के लिए! मुझे सिर्फ़ डर लगता है कि कहीं मैं अपनी किताबों में अपने को दोहराने न लगूं. यही वजह है कि जब जब मेरे सामने कोई चुनौती होती है, मुझे कुछ ऐसा खोजने में लग जाना होता है जो इतना नई हो कि मेरी अपनी क्षमता से भी थोड़ा आगे की चीज़ हो."
और ठीक इसके बाद ब्लॉग सनसेट पॉइंट पर पीटर कोर्मन के शब्द
चाहे कुछ भी घटित हो : लिखो
........................................
अगर तुम्हारे शरीर मे अंधकार घिर आता है
तो लिखो उस रौशनी के बारे मे
जो बाहर खङी इन्तजार करती है........
ब्लॉग सनसेट पॉइंट अपने बारे में क्या कहता है.. ज़रा ये भी तो जान लिया जाए..
नज्मो के नाम बात अनुभवो की होती है तो तर्क मे नही ढलती ....क्योकि तर्क तो तर्क को काटना जनता है..................अंतर्मन मे उतरना वो क्या जाने? कहानी बहुत लम्बी है..........क्योकि कहानियो मे खामोशिया छुपी होती है..... रिश्तो की खामोशिया...... धरकनो की खामोशिया....... दर्द और खुशियों की खामोशिया...... और ये खामोशिया जब लफ्जो का चोला पहनती है तो कोई कबीर......कोई ग़ालिब......कोई गुलजार.......का अक्श उभर आता है। ये blog उन्ही अक्शो के नाम..................आमीन
अब जब सुबह से तीसरी चाय पी चुका हूँ तो सोचता हूँ बाकी के लिंक्स किसी और दिन के लिए बचा लिए जाए..
अंत में अपनी बात कि आप जो भी लिख रहे है.. उसे पढने वाले कई हज़ारो है.. मैं कई सारे ब्लोग्स पढता हूँ पर उन पर टिपण्णी नहीं कर पाता.. शायद उन्हें पता भी ना हो कि मैं उन्हें पढ़ रहा हूँ. ठीक इसी तरह जब मैं अपने सब्सक्राईबरस की लिस्ट देखता हूँ तो उनमे दो चार ही ऐसे नाम मिलते है जिन्हें मैं जानता हूँ.. सायलेंट रीडरशिप भी आपकी अपनी है.. हाँ वो टिपण्णी नहीं देते.. लेकिन लेते भी तो नहीं है :)
वैसे सुबह सुबह अनूप जी भी एक चर्चा कर चुके है.. उसे बांचने के लिए यहाँ क्लिक करे..
अभी के लिए टाटा है..
आपा-धापी वाली हड़बड़ चर्चा से अलग बेहद सुन्दर सुकूनदेह चर्चा। पोस्टों का सार-तत्व निकाल कर बुनी गयी सुन्दर चिट्ठाचर्चा!
जवाब देंहटाएंTo read it in full or to browse - that is the question!
जवाब देंहटाएंफिलहाल बुकमार्क कर ले रहा हूं!
जवाब देंहटाएंतुम्हारी ख़ुराक़ तो बहुत तगड़ी है, यार !
अनुरानन, दँश, हज़ार चौरासी की माँ, समर 2007, दृष्टि और अनवर के कथ्य और शिल्प को भी समेट लेते तो मेरी भूख भी मिट जाती । पर, बड़े अच्छे सोणे लिंक तोड़ कर लाये हैं ज़नाब ! इस शैतान का साधुवाद तो समेट ही लिया, ज़नाब ने !
इतनी बेहतरीन चर्चा की तो मै सहज कल्पना भी नहीं कर सकता..अपनी खुराक बस लिए जा रहा हूँ...!
जवाब देंहटाएंकुश भाई...मान गए जनाब को..!
हाँ इसे कहते हैं चर्चा। और ऐसी ही चर्चा का लाभ है केवल सब की पोस्ट्स दिखा देना उस चर्चा का लाभ क्या है? चर्चा समीक्षात्म्क हो चाहे कम हो। बहुत अच्छी लगी बधाई । अनूप जी ने सही कहा है। बधाई
जवाब देंहटाएंjabardast khuraak, itni khuraak lene k liye bhi jabaradast samay chahiye hoga ;)
जवाब देंहटाएंशानदार चर्चा, सहेज रहे हैं आराम से पढ़ेगें
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं"आपा-धापी वाली हड़बड़ चर्चा से अलग बेहद सुन्दर सुकूनदेह चर्चा"
जवाब देंहटाएंअनूप जी से सहमत...
मैं सोचता था मिहिर जी का "आवारा हूँ" बिरले ही पढ़ते होंगे अलबत्ता वहां जानकारी का खजाना है ... सिलेमा (प्रमोद सिंह) वाली ब्लॉग अभी पढ़ी नहीं... उमेश पन्त जी का ब्लॉग तो वो सरल शब्दों में समझाने में कामयाब रहते हैं... अभी कुछ महीने पहले उन्होंने बड़े अच्छे-अच्छे पोस्ट लिख्खे थे... उन दिनों दिल्ली में कोई फेस्टिवल चल रहा था सीरी फोर्ट में...
बांकी तो अभी पढ़ी नही पैशन फॉर सिनेमा - यह साईट बस देखने में अच्छा लगता है और इसे अंग्रेगी में देख कर हम वैसे ही इग्नोर करते हैं जैसे मोटी फाइल को देखकर सरकारी बाबू...
रही सोचालय की बात तो पूजा का धन्यवाद पोस्ट में किये गए स्त्रीलिंग-पुल्लिंग सुधार के लिए किया गया है... पहले सोचा वहां इसे ठीक कर दूँ... लेकिन अब महसूस हो रहा है कि इस सार्वजानिक मंच पर ही यह बात ठीक रहेगी... अब भी जो गलतियाँ हैं या रह गयी हैं उसकी जिम्मेदारी खुद लेता हूँ, क्षमा...
दर्पण के बारे में क्या कहूँ... वो शब्दों के साथ शतरंज खेलते हैं... उसे हर जगह रखकर देखते हैं और हर कसौटी पर रखकर तौलते हैं...
गौरव ने आदतन एक बार फिर कमाल किया है...
अंत में दो अच्छी कविताओं का जिक्र करना चाहूँगा... चूकि लिंक देना नहीं आता इसलिए url चेप रहा हूँ...
पुनर्नवा पर यह :
http://masscommdept.blogspot.com/2010/01/blog-post_595.html
और
नवोत्पल साहित्यिक मंच पर :
http://navotpal.blogspot.com/2010/01/blog-post.html
@अनूप जी..
जवाब देंहटाएंआप अगर सुबह ये कह देते कि आज आप चर्चा कर रहे है तो मैं नहीं करता.. पर मेरे तीन बार ये पूछने पर कि आज आप चर्चा कर रहे है क्या? पर आपने जवाब दिया तुम कर दो.. तीनो बार आपका यही जवाब था.. शुक्रिया..!
@पाण्डेय जी
मेरे लिए बहुत मुश्किल था.. कि चर्चा करू या इन लिंक्स में और थोडा नीचे उतर जाऊ.. शायद इसीलिए सुबह छ बजे से लेकर बारह बज गए चर्चा करते करते..
@गुरुवर अमर कुमार जी
आप 'ये मेरा इण्डिया' को कैसे भूल गए गुरुवर.. हज़ार चौरासी की माँ मेरी भी फेवरेट है.
@निर्मला जी..
आपकी बात नोट कर ली गयी है.. आगे भी ऐसे ही प्रयास किये जाते रहेंगे..
@सागर..
चलो लेखक तुम आये और कारण भी बता दिए.. कभी कभी उन लोगो से मस्ती भी कर लेटा हूँ जो करीब होते है.. दोनों कविताओ के लिंक पिज्जा पर टोपिंग्स की तरह है..
@all
आप सभी का आभार कमेन्ट के लिए..
kyaa padhun kyaa chhodun ????!!!!!!!
जवाब देंहटाएंसच कहा ....दिमाग की खुराक के वास्ते कंप्यूटर के कुछ दरवाजे खंगालता हूँ ....बाकी गपियाने ओर दोस्ती निभाने के लिए सोशल नेट वर्किंग साइट्स तो है ही.......प्रमोद जी सच कहूँ तो असल ब्लोगर है .मन में जो चलता है वही लिखते है ...असल ब्लोगिंग वही है ..
जवाब देंहटाएंइस तरह की खुराक न केवल दिमाग की ओवर होलिंग करती है बल्कि अच्छा लिखने को प्रेरित करती है ...मिहिर को पहले भी पढ़ा है ...दीपक डोबरियाल के हम पहले ही फेन है .ओर कमीने के बाद से ओर हो गए है ......दर्शन उन लोगो में से है जो उम्र के उस प्लेटफोर्म पे खड़े है ....जहाँ से वे उचक कर दोनों बाजू बखूबी देखते है .मुझे उनके लिखने का स्टाइल बेहद पसंद है ......गौरव सोलंकी तो खैर घोषित कवि है ही....उनका लिखा एंजाइम का काम करता है .....
याद है आज से ढाई साल पहले जब ब्लोगिंग में कदम रखा था तब ढेरो ऐसे लिखने वालें थे जिन्होंने इस भरम को तोडा के केवल पत्रकार ओर पेशेवर लेखक ही अच्छा लिख सकते है ...ओर इस भरम को भी के पत्रकार केवल अच्छा लिखते है ...
कुल मिलाकर एक बुकमार्क करने लायक पोस्ट ....कई ब्लोगों को तसल्ली से झांकता हूँ बाद में
@अनूप जी..
जवाब देंहटाएंआप अगर सुबह ये कह देते कि आज आप चर्चा कर रहे है तो मैं नहीं करता..
इसई लिये तो बताया नहीं बालक! हम बता देते तो चौथी बार चर्चा करते-करते रह जाते! :)
एक बार फ़िर शानदार चर्चा के लिये बधाई!
वाकई...
जवाब देंहटाएंबेहतर...
सुन्दर..
जवाब देंहटाएंअभी के लिए करते टाटा हो
जवाब देंहटाएंपर यह चर्चा मजबूत बाटा है।
yun shaant rahkar padhte jane me maja ye hai ki slow connection ki gundagardi havi nahi ho pati. tippani karne ki lalsa ko slow connection poora hi nahi hone dega. ab jaise ye tippani karne ke lie hame kitna ladna pada apne connection se ye hami jante hain. kush ki charcha hamesha ki tarah bemisal rahi
जवाब देंहटाएंतुम्हारी यह खुराक सिर्फ तुम्हारी खुराक न रही.....हमारी भी खुराक बन गयी.....बहुत बहुत आभार जानकारियों से भरी इस सुन्दर सुकून देती मुग्धकारी पोस्ट के लिए...
जवाब देंहटाएंतुम्हारे इसी अंदाज़ के कारण तो तुम्हारे पोस्टों का बेसब्री से इन्तजार रहा करता है....लिखा करो...इतना लम्बा अंतराल न रखा करो....
bahut khub charcha.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कुश, मेरा तो तुमने आज दिन बना दिया! (या रात के 2 बजे ’रात बना दी’ कहना ज़्यादा ठीक होगा.) और टिप्पणियों में इसका उल्लेख देख और अच्छा लगा कि मेरा ब्लॉग इतने लोग चाव से पढ़ते हैं. मैं सच में नहीं जानता था. मज़ा आ गया सच! तुमने सही कहा, एक साइलेंट रीडरशिप होती है जिसे हमेशा आपका लिखा ध्यान रहता है. और मुझे लगता है कि उसकी ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी है हमारे ऊपर...
जवाब देंहटाएं...miHir.
साइलेंट रीडर मान लिया जाए :-)
जवाब देंहटाएंअलग व सुंदर चर्चा.
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