वैसे तो इलाहबाद पर कुरूक्षेत्र अभी जारी है और क्या पैंतरे हैं साहब...मजा आ गया। जिसने भी अब तक हिन्दी चिट्ठाकारी के विवाद देखे हैं वह मानेगा कि इस प्रकरण के जैसा अब तक कुछ नहीं हुआ...तिस पर भी तुर्रा यह कि ये कोई विवाद भी नहीं हैं केवल हल्की सी असहमति है। समीरलाल को टकराव मुद्रा में ला पाना या फिर ईस्वामी बनाम फुरसतिया हो जाना या अजीत वडनेरकर को विवादक्षेत्र में ले आना सामान्य घटनाएं नहीं है... कुंभ की तरह कभी कभी होने वाली बाते हैं इसलिए इन्हें ट्राल नहीं कहा जा सकता... ये उपेक्षणीय नहीं है। इनमें शामिल हों... ये बहस ही है भले कहीं कहीं कटु दिखे, पर है स्वस्थ बहस ही।
पता नहीं लोगों को कापी पेस्ट से इतना परहेज क्यों है, देखिए न ऊपर की सभी तस्वीरें सिद्धार्थजी के चिट्ठे की समाहार पोस्ट से स्रोत कापी-पेस्ट लिया गया हे।
चर्चा में पता नहीं चर्चाओं की चर्चा क्यों नहीं होती। पिछली चर्चा में अनूपजी ने घोषणा की थी कि टैंपलेट बदल रहे हैं... पिछली टैंपलेट भी नई ही थी और लग भी अच्छी ही रही थी... आभास हुआ कि नई चिट्ठाचचाओं के नकलचीपन से दुखी हैं अनूप... हम नहीं है जितनी चर्चा हों उतना अच्छा...हॉं टैंपलेट आदि में मौलिक रहें तो अच्छा वरना ब्लॉगर के मिनिमा में ही का खराबी है :) । वैसे ढेर से लिंक देने के लिए हम आज चर्चा चिट्ठों की से ये पेराग्राफ दे देते हैं-
इतनी बकवास कि, अच्छा हुआ मेरा कोई दोस्त ब्लागर नही है वर्ना कहते हमने वो पढ़ा तो आप इसे भी पढ़ लीजिए... क्यूँ पढ़ लीजिये भाई ? कम से कम अभी साफ़ कह तो सकते हैं कौन सा ब्लौग? कौन सा चिट्ठा? कौन से मठाधीष? हम नहीं जानते जी आपको !! वैसे ही ब्लॉगिंग से स्तब्ध हैं सत्ताधारी. सत्ताधारी?????? कहाँ हैं सत्ताधारी, कहाँ है सरकार? मिल कर इसका नाम विचारें ! आइये इन्हें पहचानें !! कुछ तो करें..... चलो एक कविता ही सोचो..... सोचो बहुत दूर कही पुल के उस पार या कभी एक प्यारा सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव या दहलीज के उस पार जहाँ से हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए , ...से लौटकर झांकते हैं कि कहीं जिनको छोड़ के गये थे घर में वो तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे हमारे बच्चों को पीट ने लग गए तो? और वह जीत गए तो? ह्म्म्म !! वैसे बच्चे आजकल के शोले,हँसगुल्ले हँसने के लिए, जो हिंदी को हेय समझते हैं, भावनाओं के राग नहीं जानते, श्रीमद्भागवतगीता से उन्हें कोई लेना देना नहीं लडेगा कौन इनसे सर पर कफ़न बांध कर ? लेकिन बेचारे जाएँ तो जाएँ कहाँ.... ह्म्फ़.... ह्म्फ़... बहुत हो गयी न ये बकवास ? बस !! !! इतनी मेहनत के बाद काश... एक गरम चाय की प्याली हो
बे-इलाहाबादी पोस्टों में हम विशेषकर चर्चा करना चाहते हैं विवेक की पोस्ट क्यों रहें हम भारत के साथ । विवेक इस पोस्ट में चंद झिंझोड़ने वाले सवाल उठाते हैं। राष्ट्रवाद किस प्रकार अनेक कष्टों व पीड़ाओं का सरलीकरण कर बैठता है इसका भी अनुमान लगता है।
...वे धधक उठते हैं – आप मानते हैं?? आप मानते हैं सभी भारतीयों को सिर्फ भारतीय? हमने देखा है भारत के मुंबई में भारत के यूपी और भारत के बिहार वाले भारतीयों को मुंबई के भारतीयों के हाथों पिटते हुए, लुटते हुए...मरते हुए...वे तो गैर मजहब के भी नहीं थे...अलग तहजीब के भी नहीं थे...बस एक जगह से दूसरी जगह आए थे...क्यों नहीं माना गया उन्हें अपना...फिर हमसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इन लोगों को अपना मान लें...वो भी तब, जब हमने देखा है, झेला है...इनकी मार को, इनकी घिन को...
सवाल कश्मीर, फिलीस्तीन, जाफना या फिर मोतीहारी का ही क्यों न हो, इतना तय है कि कुछ कम सीमाओं की हो दुनिया, तो हरेक के पास घर से पलायन कर कहीं जाने का कम स कम एक विकल्प तो होना ही चाहिए।
..फिर भी वे नहीं आते...क्यों नहीं आते...आएं, जिएं वो सब जो हम जी रहे हैं...साझा करें हमारा दर्द...इस घाटी का दर्द...यह घाटी उनकी है तो इसका दर्द भी तो उनका है...आएं और लाल चौक पर धमाकों में लहू बहाएं, जैसे हम बहाते हैं...लेकिन नहीं, वे नहीं आएंगे...वे चले गए क्योंकि वे जा सकते थे...उनके पास जाने के लिए जगह थी...हम नहीं जा सकते, क्योंकि हमारे पास नहीं है
देर से हुई इस संक्षिप्त चर्चा में बस इतना ही।