वैसे तो इलाहबाद पर कुरूक्षेत्र अभी जारी है और क्या पैंतरे हैं साहब...मजा आ गया। जिसने भी अब तक हिन्दी चिट्ठाकारी के विवाद देखे हैं वह मानेगा कि इस प्रकरण के जैसा अब तक कुछ नहीं हुआ...तिस पर भी तुर्रा यह कि ये कोई विवाद भी नहीं हैं केवल हल्की सी असहमति है। समीरलाल को टकराव मुद्रा में ला पाना या फिर ईस्वामी बनाम फुरसतिया हो जाना या अजीत वडनेरकर को विवादक्षेत्र में ले आना सामान्य घटनाएं नहीं है... कुंभ की तरह कभी कभी होने वाली बाते हैं इसलिए इन्हें ट्राल नहीं कहा जा सकता... ये उपेक्षणीय नहीं है। इनमें शामिल हों... ये बहस ही है भले कहीं कहीं कटु दिखे, पर है स्वस्थ बहस ही।

पता नहीं लोगों को कापी पेस्ट से इतना परहेज क्यों है, देखिए न ऊपर की सभी तस्वीरें सिद्धार्थजी के चिट्ठे की समाहार पोस्ट से स्रोत कापी-पेस्ट लिया गया हे।
चर्चा में पता नहीं चर्चाओं की चर्चा क्यों नहीं होती। पिछली चर्चा में अनूपजी ने घोषणा की थी कि टैंपलेट बदल रहे हैं... पिछली टैंपलेट भी नई ही थी और लग भी अच्छी ही रही थी... आभास हुआ कि नई चिट्ठाचचाओं के नकलचीपन से दुखी हैं अनूप... हम नहीं है जितनी चर्चा हों उतना अच्छा...हॉं टैंपलेट आदि में मौलिक रहें तो अच्छा वरना ब्लॉगर के मिनिमा में ही का खराबी है :) । वैसे ढेर से लिंक देने के लिए हम आज चर्चा चिट्ठों की से ये पेराग्राफ दे देते हैं-
इतनी बकवास कि, अच्छा हुआ मेरा कोई दोस्त ब्लागर नही है वर्ना कहते हमने वो पढ़ा तो आप इसे भी पढ़ लीजिए... क्यूँ पढ़ लीजिये भाई ? कम से कम अभी साफ़ कह तो सकते हैं कौन सा ब्लौग? कौन सा चिट्ठा? कौन से मठाधीष? हम नहीं जानते जी आपको !! वैसे ही ब्लॉगिंग से स्तब्ध हैं सत्ताधारी. सत्ताधारी?????? कहाँ हैं सत्ताधारी, कहाँ है सरकार? मिल कर इसका नाम विचारें ! आइये इन्हें पहचानें !! कुछ तो करें..... चलो एक कविता ही सोचो..... सोचो बहुत दूर कही पुल के उस पार या कभी एक प्यारा सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव या दहलीज के उस पार जहाँ से हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए , ...से लौटकर झांकते हैं कि कहीं जिनको छोड़ के गये थे घर में वो तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे हमारे बच्चों को पीट ने लग गए तो? और वह जीत गए तो? ह्म्म्म !! वैसे बच्चे आजकल के शोले,हँसगुल्ले हँसने के लिए, जो हिंदी को हेय समझते हैं, भावनाओं के राग नहीं जानते, श्रीमद्भागवतगीता से उन्हें कोई लेना देना नहीं लडेगा कौन इनसे सर पर कफ़न बांध कर ? लेकिन बेचारे जाएँ तो जाएँ कहाँ.... ह्म्फ़.... ह्म्फ़... बहुत हो गयी न ये बकवास ? बस !! !! इतनी मेहनत के बाद काश... एक गरम चाय की प्याली हो
बे-इलाहाबादी पोस्टों में हम विशेषकर चर्चा करना चाहते हैं विवेक की पोस्ट क्यों रहें हम भारत के साथ । विवेक इस पोस्ट में चंद झिंझोड़ने वाले सवाल उठाते हैं। राष्ट्रवाद किस प्रकार अनेक कष्टों व पीड़ाओं का सरलीकरण कर बैठता है इसका भी अनुमान लगता है।
...वे धधक उठते हैं – आप मानते हैं?? आप मानते हैं सभी भारतीयों को सिर्फ भारतीय? हमने देखा है भारत के मुंबई में भारत के यूपी और भारत के बिहार वाले भारतीयों को मुंबई के भारतीयों के हाथों पिटते हुए, लुटते हुए...मरते हुए...वे तो गैर मजहब के भी नहीं थे...अलग तहजीब के भी नहीं थे...बस एक जगह से दूसरी जगह आए थे...क्यों नहीं माना गया उन्हें अपना...फिर हमसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इन लोगों को अपना मान लें...वो भी तब, जब हमने देखा है, झेला है...इनकी मार को, इनकी घिन को...
सवाल कश्मीर, फिलीस्तीन, जाफना या फिर मोतीहारी का ही क्यों न हो, इतना तय है कि कुछ कम सीमाओं की हो दुनिया, तो हरेक के पास घर से पलायन कर कहीं जाने का कम स कम एक विकल्प तो होना ही चाहिए।
..फिर भी वे नहीं आते...क्यों नहीं आते...आएं, जिएं वो सब जो हम जी रहे हैं...साझा करें हमारा दर्द...इस घाटी का दर्द...यह घाटी उनकी है तो इसका दर्द भी तो उनका है...आएं और लाल चौक पर धमाकों में लहू बहाएं, जैसे हम बहाते हैं...लेकिन नहीं, वे नहीं आएंगे...वे चले गए क्योंकि वे जा सकते थे...उनके पास जाने के लिए जगह थी...हम नहीं जा सकते, क्योंकि हमारे पास नहीं है
देर से हुई इस संक्षिप्त चर्चा में बस इतना ही।
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गुरुवार, अक्टूबर 29, 2009
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ... और समंदर की जरूरत ज्यादा
ये वाली फोटो जो आप देख रहे हैं वो इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी की नहीं बल्कि संजीव तिवारी के घर की है। इलाहाबाद में साथी ब्लागरों को खाना पकाने की सुविधा नहीं प्रदान की गयी थी। शायद इसीलिये संजीव तिवारी ने संगोष्ठी का प्रतीकात्मक विरोध करते हुये अंगीठी के पास सुलगते हुये ब्लागिंग की।
शायद बटलोई में चाय उबलने की बात आये। तो आप देख लीजिये कि अल्पना जी ने चाय के बारे में कितनी जानकारी एक साथ पेश की हैं। उनकी पोस्ट का शीर्षक है- गरम चाय की प्याली हो। एक लाईना लिखते तो इसके साथ पुछल्ला शायद लगाते- साथ में एक पीने वाली हो। यदि कोई महिला इसे पढ़े तो तदनुसार शीर्षक और एक लाईना हो सकता है। अरे हम क्या बतायें- आप खुद ही समझ जाइये। हां तो अल्पनाजी डा.प्रदीप का लेख पोस्ट करते हुये बताती हैं:
|
![]() दूसरे चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन के पास सबसे पहले ओबी वैन आयी,संचार क्रांति के साधन आए लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं। बहुत कम ही ऐसे मौके रहे जब वो मौजूदा सरकार के प्रति क्रिटिक हो पाया हो। खबरों की तटस्थता के नाम पर कई मसलों पर चुप्पी,दूरदर्शन के प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता को कम करती गयी। नतीजा हमारे सामने है कि एक स्वायत्त इकाई के तहत संचालित होने पर भी इस दूरदर्शन को ‘सरकारी भोंपू’ के तौर पर देखा जाने लगा है। दूरदर्शन के साथ एक बड़ी सुविधा है कि इसके पास सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर रहा है,सबसे पुरानी अर्काइव और नेटवर्किंग,ऐसे में वो देश का सबसे आजाद माध्यम बन सकता था लेकिन जब-तब के प्रयासों के वाबजूद ऐसा नहीं हो पाया। |
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तीन शर्ट, तीन फुल पेण्ट, एक हॉफ पैण्ट (नदी स्नान के लिए), एक तौलिया, एक गमझा (नदी पर ले जाने), एक जोड़ी जूता, एक जोड़ी चप्पल, तीन बनियान, तीन अण्डरवियर, दो पजामा, दो कुर्ता, मंजन, बुरुश, दाढ़ी बनाने का सामान, साबुन, तेल, दो कंघी ( एक गुम जाये तो), शाम के लिए कछुआ छाप अगरबत्ती, रात के लिए ओडोमॉस, क्रीम, इत्र, जूता पॉलिस, जूते का ब्रश, चार रुमाल, धूप का चश्मा, नजर का चश्मा, नहाने का मग्गा, बेड टी का इन्तजाम (एक छोटी सी केतली बिजली वाली, १० डिप डिप चाय, थोड़ी शाक्कर, पावडर मिल्क, दो कप, एक चम्मच), एक मोमबत्ती, माचिस, एक चेन, एक ताला, दो चादर, एक हवा वाला तकिया. इसके बाद समीरलाल जी ने कविता भी लिखी जिसमें वे हाशिये पर खड़े होकर मुस्कराने की बात कर रहे हैं:मैं इसलिये हाशिये पर हूँ क्यूँकि मैं बस मौन रहा और उनके कृत्यों पर मंद मंद मुस्कराता रहा!! |
![]()
नामवर जी के बारे में जानकारी के लिये जिसमें उनकी खूबियों के साथ कुछ खामियों का भी जिक्र है यह लेख बांचिये। |
स्वर चित्र दीर्घा में सुनिये गीत- सखि वे मुझसे कहकर जाते।
ललित डाट काम की पचासवीं पोस्ट पर बधाई।
एक लाईना
१.रामप्यारी का सवाल 96 : शतक से बस चार सवाल दूर२. इलाहाबाद से ‘इ’ गायब – अंतिम भाग: ले १०० किमी प्रति घंटा की दर से ३. अब ये कहना की शादी को सेक्स से जोड़ कर ना देखा जाए अपने आप मे एक बड़ी बहस का मुद्दा है : और बहस के लिये अभी इलाहाबाद ब्लागर संगोष्ठी ही नहीं निपटी ४. पुल के उस पार से: इलाहाबाद दर्शन: करके फ़ूट लिये हाशिये पर५. कौन सा ब्लौग? कौन सा चिट्ठा? कौन से मठाधीष? : किसी एक सवाल का जबाब दो। सबके लिये समान टिप्पणियां निर्धारित हैं। ६. मेरा धर्म महान....तुम्हारा धर्म बकवास!!! : नास्तिक लोगों के लिये धर्म के पहले ’अ’ लगाने की छूट इसी माह के अंत तक। ७.लाक -आउट के चर्चे हैं बाज़ार में .: केवल बेनामी टिपिया रहे हैं यहां८. कुछ दीप कुछ ऎसे भी जगमागतए है : जिससे हर तरफ़ रोशनी ही रोशनी फ़ैल जाती है। ९. चूल्हा पर हम तो फ़िदा .....: लेकिन चूल्हा पलट फ़िदा नहीं हो रहा।१०. पुरानी डायरी से - 5 : धूप बहुत तेज है। : चलो कविता ही कर के डाल दी जाये ११. अच्छा हुआ मेरा कोई दोस्त ब्लागर नही है वर्ना…………………………: सुबह-सुबह जगाता कहने के लिये-भाऊ टिपिया दो जरा। एक पोस्ट चढ़ाये हैं। १२. वो पढ़ा तो इसे भी पढ़ लीजिए... पढने के बाद ....: सर पीटियेगा कि वो क्यों पढ़ा! १३. विश्व ब्लॉग सर्वे : ब्लॉगिंग से स्तब्ध हैं सत्ताधारी: कि ये लोग ब्लागर संगोष्ठी भी करने लगे १४. एक भाषा के भग्नावशेष : बीन बटोर कर ब्लाग पर डाल दिये। १५. चाय का समय : हो गया। अभी तक आई नहीं। थोड़ी देर और हुई तो इसको पोस्ट में डाल दूंगा। १६. मेरा वो सामान लौटा दो : सब सामान लपेटकर मुझे एक कविता लिखनी है। १७. नेता जी के लिए नया ऍप्लिकेशन फॉर्म : ब्लागर भरने की कोशिश न करें। १८. जलेबियां खत्म हो गई आते आते : सबसे तेज गधा सम्मेलन रिपोर्टम: ताऊ ने गधे पर बैठकर अध्यक्षता की। १९. वे मुझ से कह कर जाते.... : हम उनको आने-जाने का खर्चा दिलवाते २०. सिगरेट सुलगाने का मतलब ही सेहत से खिलवाड़ है ....: सही है सुलगने थोड़ी देर बाद ही सिगरेट की मौत हो जाती है। २१. आ अब तो सामने आकर मिल : अब तो इलाहाबाद की संगोष्ठी निपट गयी। |
मेरी पसंद
| आज की टिप्पणी "शादी की बेसिक बुनियाद पति पत्नी के दैहिक सम्बन्ध ही हैं" |
और अंत में:
आज की चर्चा जरा देर से हो पाई। मिसिरजी की तबियत कुछ गड़बड़ा गई। सो हम हाजिर हुये।
आज फ़िर चर्चा का टेम्पलेट नया है। इसको बनाने वाले हैं डा.अमर कुमार। इसको नकल करने वालों से अनुरोध है कि वे अपने गरियाने वाले साफ़्टवेयर में नाम संसोधन कर लें। कश अब इस बदलाव के पीछे नहीं हैं। वैसे कुछ दिन बिना कोसे/गरियाये पोस्ट करके देखें। शायद ज्यादा मजा आये। इस टेम्पलेट में कापी –पेस्ट की सुविधा नहीं है। डा.अमर कुमार को हमारा शुक्रिया। आप को कैसा लगा यह टेम्पलेट बताइयेगा।
मजा करिये।
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बुधवार, अक्टूबर 28, 2009
चर्चा में केवल एक लाईना
- रामप्यारी का सवाल : मुझे राष्ट्रीय संगोष्ठी में क्यों नहीं बुलाया गया?
- इलाहाबाद से ’ई’गायब :ब्लाग थाने ने रपट लिखने से इंकार किया
- आखिर ब्लॉगर हैं..हर स्थिति में अपना झंडा गडेगा ही. : झंडा बायें कोने में सबसे ऊपर लगाना ताकि उसका अपमान न हो
- कब आ रही हो!!:चाय चढ़ा दें तुम्हारे लिये?
- बहस कम , चर्चे ज्यादा प्रश्न कम , पर्चे ज्यादा :वो तो ठीक है लेकिन उन दो को क्यों छोड़ दिया?
- जा कर दिया आजाद तुझे : अब अगली संगोष्ठी में मिलना
- ब्लॉगर खाया हो या न हो, अघाया जरूर होता है : उसे हाजमोला का डब्बा दे दो
- डाक्टर, ज्योतिषी और वकील खामोखाँ नहीं डराते: वे तो खाली घर-कपड़े बिकवाते हैं
- इस पोस्ट को न पढ़ें...खुशदीप:चलो नहीं पढ़ते। लेकिन शीर्षक तो बांच सकते हैं।
- गांव में चलते हैं छ: और सात रुपये के नोट : अभी शहर नहीं पहुंचे
- प्रसिद्ध लेखकों के अजब टोटके : टोटके अपनायें प्रसिद्ध हो जायें
- अखबारों ने फर्जी खबरे छपी : और सिद्ध किया कि वे अखबार ही हैं
- आइए आज शाम को ऑनलाइन सीखें कि विंडोज़ 7 पर हिन्दी में काम कैसे करें : हिंदूवादियों और मार्क्सवादियों के लिये समय एक ही रहेगा कि अलग-अलग?
स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को :पलकें मुंदी-मुंदी से मुस्काती देख रही अलकों को- मुख्यमंत्री द्वारा हीरा सेम्पल प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन :मख्य मंत्री की कैसे हिम्मत हुई यह करने की? क्या सब जौहरी मर गये थे?
- हे भीष्म पितामह, हम ब्लॉगर नहीं, पर वहां थे…: आपको पितामह को नहीं भष्मासुर को रिपोर्ट करना है। अब वे आपके बॉस हैं!
- हाँकोगे तो हाँफोगे :ग्राहक की संतुष्टि में ही निष्पत्ति है।
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मंगलवार, अक्टूबर 27, 2009
बहस कम , चर्चे ज्यादा प्रश्न कम , पर्चे ज्यादा
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इलाहाबाद में ब्लॉग मंथन शुरु और तो इस तरह खत्म हुआ इलाहाबाद का ब्लॉग मंथन । विनीत ने जिस जिम्मेदारी से वहां लगातार हर एक बातचीत की तुरंत रिपोर्टिंग उससे मैं बहुत प्रभावित हूं। पूरी लगन के साथ हर एक वक्ता की बात तुरंत नोट करना/टाइप करना। बहुत अच्छा लगा। विनीत को अगर अफ़लातून ने उभरता सितारा कहा तो मुझे कत्तई आश्चर्य नहीं हुआ। बहुत अच्छा लगा। विनीत की रिपोर्टिंग की खास बात है कि उसमें उनकी अपनी छौंक नहीं है न अपना कोई मिर्च-मसाला। जो हुआ उसको जैसा का तैसा रखने का पूरा प्रयास किया विनीत ने। कुछ चूक भी हो गयी होगी शायद लिखने में जैसा मीनू खरे जी ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई लेकिन उसमें विनीत की मंशा कुछ ऐसी नहीं रही होगी कि उनको चोट पहुंचे। कोई बात व्यक्ति सोचता है, उसे कहता है, अगला समझता है, उसे प्रकट करता है। फ़िर उसके प्रकट किये हुये को दूसरा समझता है। इस एक व्यक्ति से तीसरे व्यक्ति तक पहुंचते-पहुंचते बात काफ़ी कुछ बदल सकती है। इसमें बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि बात की संप्रेषण क्षति (Transmission loss) कितनी हुई।
इस मसले पर आज जो कुछ और पोस्टें आईं उनमें कुछ ये हैं:
इलाहबाद चिट्ठाकार संगोष्ठी: बधाईयां! शर्म तो बेच खाई, ये तो लफ़्फ़ाजियों का समय है! इसमें ई-स्वामी ने अपने विचार व्यक्त किये और कहा:
बाकी की बातें आप उनकी ही पोस्ट पर बांच लें।
इलाहबाद में “हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया” नामक एक कार्यक्रम यानी ब्लाग संगोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमे नामवर सिंह को मुख्य अतिथी बनाया गया. वहां हिन्दी चिट्ठाजगत के तमाम आम-खासियों/मुहल्लेवासियों/भडासियों/संडासियों/शाबासियों समेत रवि श्रीवास्तवजी और अनूप शुक्लाजी ने उछल-उछल कर शिरकत की.
चिट्ठाकारी (हिन्दी?) में निहित ख़तरे… इसमें रवि रतलामी ने बताया कि
यदि आप ब्लॉगिंग में हैं, तो इन खतरों से बच नहीं सकते. इन खतरों को मोल लेना ही होगा. कोई भी आपके किसी भी हिस्से की धज्जियाँ कभी भी कहीं भी बड़े बेखौफ़ तरीके से उड़ा सकता है.
जाहिरा तौर पर, आपकी जानकारी के लिए, टिप्पणीकार विशाल पाण्डेय का ब्लॉगर प्रोफ़ाइल बन्द है याने बेनामी?. अब जनता को कैसे पता चले कि ये मरियल... और हँसोड़ के बीच या इधर उधर ऊपर नीचे कहाँ ठहरते हैं?
इस तरह हम भी पहुंचे हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया - राष्ट्रीय संगोष्ठी में इसमें प्रवीण त्रिवेदी मास्टर साहब ने अपनी शिरकत के किस्से बयान किये हैं।
ब्लॉगर जान गये हैं.. नामवर सिंह कौन हैं .. शरद कोकाश की संक्षिप्त टिप्पणी!
इलाहाबाद से ‘इ’ गायब, भाग -1इसमें इलाहाबाद के किस्से बयान करते हुये गिरिजेश ने लिखा:
पहला दिन जुमलों का दिन रहा। इस तरह के जुमले उछाले गए:
- ब्लॉगर खाए,पिए और अघाए लोग हैं।
- ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है।
- अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा।
- पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है।
- एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं।
- इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है।
- एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं।
- औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)
यह बंद करो हमें अपने लिये भी सुनाई दे रहा है सो चलते हैं काहे से कि दफ़्तर का समय हो गया। चलते-चलते मास्टरनीजी की तुकबंदी पढ़ जी जाये। आज उनका जनमदिन भी है सो वह भी मुबारक हो:
चाय कम , खर्चे ज्यादा
बहस कम , चर्चे ज्यादा
प्रश्न कम , पर्चे ज्यादा
सोए कम, रोए ज्यादा
पाए कम , खोए ज्यादा
पोस्ट कम मार्टम ज्यादा
दुःख कम, मातम ज्यादा
औरत कम , मर्द ज्यादा
मलहम कम, दर्द ज्यादा
मक्खी कम , मच्छर ज्यादा
शगुन कम फ़च्चड़ ज्यादा
विचार कम आचार ज्यादा
सम्मलेन कम प्रचार ज्यादा
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रविवार, अक्टूबर 25, 2009
इलाहाबादी सम्मेलन की चित्रमय चर्चा
डिस्क्लेमर : मेरा कोडक का कैमरा जाने कैसे डिसफ़ंक्शनल हो गया और उसके फ्लैश ने काम करना बंद कर दिया, साथ ही वो कम रौशनी में ब्लर्ड इमेज लेने लगा (क्या ये रिपेयर हो सकता है?). पुराने जमाने का मेरा वीडियो रेकॉर्डर भी हाल के कम प्रकाश में सही फोटो / वीडियो खींच नहीं पा रहा था. लिहाजा मैंने मित्रों के कैमरों के मेमोरी कार्डों को उधार मांग कर उनमें से खींचे कुछ चित्र वहीं आयोजन स्थल से मेरे रिलायंस मोबाइल के जरिए इंटरनेट (जिसकी गति कछुआ चाल से भी धीमी होती है,) पर चढ़ाए गए थे. तो उन मेमोरी कार्डों में से डाउनलोड किए बाकी बचे कुछ और चित्रों की झलकियाँ प्रस्तुत हैं. बहुत से चेहरे फिर भी छूटे हुए हैं. तमाम चिट्ठाकार मित्रों ने सम्मेलन के सैकड़ों हजारों फोटो खींचे हैं. आशा है कि वे भी अपने चिट्ठों पर तमाम चित्रमय झलकियाँ व दीगर विवरण जल्द ही पेश करेंगे.
तो देखिए इलाहाबाद व सम्मेलन की कुछ चित्रमय झलकियाँ -
पहले, इलाहाबाद की गलियों से कुछ चित्र -
इलाहाबाद जंक्शन आधुनिकता व प्राचीनता का संगम : रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर गधों/खच्चरों से लदान
शिक्षा का प्राचीन केंद्र – स्वसिद्ध?
रद्दी पेपर के बैग पर चलती, मुस्कुराती जिंदगी -
जिंदगी कठिन है, मगर इतनी भी नहीं कि मुस्कुराया न जा सके…
द रिक्शा आर्ट?
संगम पर
अब, एक पीस तो खा सकते हैं? और हाईजीन? जब पेठ की सभी बीमारियों के लिए लाभदायक है तो फ़ालतू की बात काहे करते हैं?
अब चलिए चलते हैं सम्मेलन पर वापस -
खचाखच भरा सभागार
खचाखच भरा सभागार 2
खचाखच भरा सभागार 3
सड़क पर चाट सम्मेलन?
किस गहन चर्चा में?
और, अंत में – एक पोस्टर दीवार पर -
कहा क्या गया है, ये तो समझ में ज्यादा कुछ नहीं आया, मगर पंकज का पोस्टर लाजवाब है. तमाम कक्ष ऐसे उच्च कोटि के पोस्टरों से सजा धजा था.
(सभी चित्र – अनूप शुक्ल, विनीत, अजित वडनेरकर, मसिजीवी, सिद्धार्थ के कैमरे से.)
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शनिवार, अक्टूबर 24, 2009
दूसरे दिन का पहला सत्र शुरू
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आज सुबह का सत्र कुछ देर से साढ़े ग्यारह बजे शुरु हुआ। इस समय हिमांशु बोल रहे हैं। कहा कि ब्लाग के लिये मैं कुछ अलग नहीं लिखता। वही लिखता हूं जो अन्यथा भी लिखता।
इसके पहले आज अध्यक्ष के रूप में मंच पर प्रियंकर हैं। संचालक के रूप में इरफ़ान। आज कल की तरह अराजकता सी नहीं है । संचालक महोदय ने सबको बता दिया है कि सब को अनुशासन में रहना है। समय सीमा का ध्या रखना है। सवाल अंत में पूछे जाने हैं। ये नहीं कि जब मन आया उठ खड़े हुये और सवाल को भी उठा दिया।
मसि्जीवी ने शुरुआत की आज की बात की।तीन बिन्दु उठाये। उनके बारे में बगल बैठे विनीत अपनी पोस्ट में लिख चुके हैं। इसके बाद गिरिजेश राव, हेमंत , विनीत कुमार, अरविन्द मिश्र माइक के सामने आये-गये। फ़िलहाल हिमांशु हैं।
अरविन्दजी ने अपने ब्लाग का प्रचार किया केवल कि हमारे साइंस ब्लाग में ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है।
विनीत ने बहुत बेहतरीन बोला। उनको और समय मिलना चाहिये था। विनीत ने इस बात को खारिज किया कि ब्लाग में संपादक नहीं है। उन्होंने कहा पहले एक था अब पचास हैं। आपके पाठक आपको सही करते हैं। टोंकते हैं। सुधारते हैं। संपादक का रूप बदल गया है। पहले वह पहले देखता था और रोकता/टोंकता था। अब वह छप जाने के बाद अपना काम करता है।
विनीत ने कहा कि आज हिन्दी में भले महावीर प्रसाद द्विवेदी न हों लेकिन तमाम रेणु, तमाम प्रेमचन्द छोटे-छोटे ताजमहल के रूप में उभर रहे हैं। ब्लाग विविध रूप में अनगिनत तरह से विविध रूप में भाषा को समृद्ध कर रहा है। यह बहुत सुकूनदेह है घर परिवार के लोग अपनी दिन भर की घिचिर-पिचर के बीच अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं। विनीत ने तमाम टिप्पणियों का भी उदाहरण दिया।
हिमांशु ने गिरिजेश की तमाम कविताओं का उदाहरण दिया। यहां की फ़ोटो आज सुबह से अब तक की गतिविधियों की हैं।
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