शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2010

होली है भाई होली है!!!

नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ।

२० फ़रवरी की चर्चा में संगीता पुरी जी ने सलाह दी थी

आप चूंकि साप्‍ताहिक चर्चा करते हैं .. सप्‍ताह भर के महत्‍वपूर्ण पोस्‍ट एक जगह इकट्ठा कर दें .. तो पाठकों को बहुत सुविधा होगी !!

मुझे यह सलाह काफ़ी जंची। सोचा यह प्रयोग भी कर के देखूं।

दस दिनों के लिये शहर से बाहर जाना है इस लिये थोड़ी ज़ल्दी में हूँ ...

तो चर्चा शुरु करते हैं

शेफाली पांडे जी की पोस्ट आओ ग़रीब दिखें ने मुझे काफ़ी सोचने पर मज़बूर कर दिया। शेफाली जी का कहना है कि आजकल हर जगह धौंस भरी आवाजें गूंजती सुनाई दे रही हैं। ऑस्टेलिया का कहना है कि भारत वाले हमारे देश में सुरक्षित रहना चाहते हैं तो गरीब दिखेंयह भी बड़ी अजीब बात है कि जो अपने देश में मिलेनियर है वही दूसरे देश में उन्नति करे या करने की कोशिश भी करे तो स्लमडॉग की तरह मारा जाता है। क्या कारण है कि भारतीय युवक भारत में शिक्षा ग्रहण करते हैं और वैल एजुकेटेड होने के लिए ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका का मुँह ताकते हैं। वहां जाकर विदेश का ठप्पा माथे पर तो नहीं लग पाता हाँ, शरीर पर घाव और दिल में गहरे ज़ख्म लेकर हम बैरंग वापिस चले आते हैं. पढ़ने वाले में नैतिक ऊहापोह पैदा करे, ऐसी रचना कम ही मिलती हैं। इस रचना पर सुशीला पुरी ने कहा शेफाली जी कितनी दूर तक चली जाती हो !!!!! गज़ब !!!

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सुबीर संवाद सेवा पर होली का रंग बनाने के लिये नज़ीर अकबराबादी का पूरा गीत जब फागुन रंग झकमते हों तब देख बहारें होली की पढि़ये, ये पूरा सातों छंद के साथ आपने कहीं नहीं पढ़ा होगा । यह एक दुर्लभ संग्रह है।

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।

ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।

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निर्मला दीदी ने पंखनुचा शीर्षक से एक लाज़वाब कविता प्रस्तुत की है। यह कविता आज के समाज के दोहरे मापदंड के बीच से निकलती एक नारी की गाथा है। इस कविता में उन्होंने बहुत बढ़िया भाव पिरोया है। शब्द संयम का अनूठा प्रयोग इस कविता में मिलता है।

ये कलयुग है
क्या नहीं सुन रहा
दंडपाशक का अनुनाद
तडिताका निनाद
बनादेगी तुझे निरंश,पंगल
कर देगी सृ्ष्टी का विनाश
उस प्रलय से पहले
सहेज ले
घर की दिवारों को
अपना उसे
अर्धनारीश्वर की तरह
समझ उसे अर्धांगिनी

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रविवार २१ फरवरी को एक बहुत मज़ेदार पोस्ट आया वाणी गीत जी की तरफ़ से ये बेचारे (??) पति। कहती हैं हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह ही पतियों की महिमा अनंत है। वैसे तो वो अनगिनत पुराण लिख सकती थीं पर एक साथ बेचारे उतने झटके झेल नहीं सकते थे इसलिये कुछ कम (कन्सेशन) कर दिया गया है, होली डिस्काउण्ट!!! इस पर ताऊ जी का विचार है एक दीन-हीन पति परमेश्वर संघ गठित करने का।

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जड़-चेतन में अभिव्यक्त हो रही अभिव्यक्ति को समझने के प्रयास और उस प्रयास को अपने चश्में से देखकर आंदोलित हुए मन की पीड़ा को खुद से ही कहते रहने का स्वभाव जिसे आप "बेचैन आत्मा" कह सकते हैं। ये कहना है देवेन्द्र जी का। पर आत्मा कितना भी बेचैन क्यूं न हो फागुन का त्योहार आते ही गाने लगती है

जले होलिका भेदभाव की, आपस में हो प्यार

तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार

हो जाएँ सब प्रेम दीवाने

दिल में जागें गीत पुराने

गलियों में सतरंगी चेहरे

ढूँढ रहे हों मीत पुराने

अधरों में हो गीत फागुनी, वीणा की झंकार

तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार

बर्गर, पीजा, कोक के आगे

दूध, दही, मक्खन को खाये !

कान्हां की बंसी फीकी है

राधा को मोबाइल भाये !

इन्टरनेट में शादी हो पर, रहे उम्र भर प्यार

तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार

अपने सोए भाग जगाएँ

दुश्मन को भी गले लगाएँ

जहाँ भड़कती नफ़रत-ज्वाला

वहीं प्रेम का दीप जलाएँ

भंग-रंग पर कभी चढ़े ना, महंगाई की मार

तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार.

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21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर प्रवीण शाह जी ने हमें अवगत कराया कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने नवम्बर १९९९ को हर वर्ष २१ फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया to promote linguistic and cultural diversity and multilingualism.यानी भाषाई व सांस्कृतिक विविधता तथा बहुभाषाओं को बढ़ावा देने के लिये।

साथ ही उन्होंने यह आह्वान भी किया, आप सभी से सादर अनुरोध करता हूँ कि अपनी अपनी मातृभाषा को जिन्दा रखिये अपने दिल में और अपनी तथा अपने बच्चों की जुबान पर।

उनकी बात के समर्थन में यही अपील मैं भी करता हूँ।

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आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में मनोज पर परशुराम राय जी द्वारा काव्यशास्त्र पर चल रही चर्चा की श्रृंखला की तीसरी कड़ी काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी प्रस्तुत की गई। उनका यह प्रयास इस दूरी को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।

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22 फरवरी को

वसंत आर्य की व्यंगात्मक रचना जब फागुन में रचाई मंत्री जी ने शादी होली के रंग में भंग की तरंग का काम करती प्रतीत होती है। परिकल्पना पर इसे प्रस्तुत किया है रवीन्द्र प्रभात जी ने। चूंकि वहां (परिकल्पना) पर ताला लगा है इसलिए कोई पंक्ति चुरा कर पेश नहीं कर पा रहा हूँ, पर यक़ीन मानिए एक प्रवाहपूर्ण भाषा में लिखी यह रचना आपको बेहद पसंद आयेगी।

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पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरा हुआ था तो नीरज गोस्वामी जी ने जो ग़ज़ल प्रस्तुत की थी उसी ग़ज़ल को आज अपने ब्लॉग पाठकों के लिए फिर से पोस्ट किया है। यह एक बहुत ही अच्छी ग़ज़ल है, जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है।

सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये

भरी सांस गहरी बहुत खिलखिलाये

कसीदे पढ़े जब तलक खुश रहे वो

खरी बात की तो बहुत तिलमिलाये

भलाई किये जा इबादत समझ कर

भले पीठ कोई नहीं थपथपाये

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मनोज पर साप्ताहिक समीक्षा आँच प्रस्तुत करते हुए हरीश गुप्त कहते हैं सृजन का मूल संवेदना है। इसी संवेदना से बीज ग्रहण कर रचनाकार अपने सृजन में जीवन का सत्य और यथार्थ मात्र ही प्रस्तुत नहीं करता वरन् उसमें समाज के संस्कार और आदर्श के रंग भी भरता है, अपनी कलम-तूलिका से सजा-संवारकर उसमें नयापन पैदा करता है और आकर्षक रुप प्रदान कर समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। देसिल बयना के दो अंकोआ पर समीक्षा प्रस्तुत की गई है। देसिल बयना में रचनाकार ने स्थानिक लोक व्यवहार में सामान्यतः प्रचलित उक्तियों को विषय रूप में चुना है और अपनी सृजन प्रतिभा से उसके व्यापक अर्थ को कथारुप में पिरोकर प्रस्तुत किया है। उसका प्रयास कहाँ तक सफल है, इसकी पड़ताल आँच के इस अंक में की गई है।

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कई ज्वलंत मुद्दों पर एक साथ हमला कर रहे हैं समीर लाल जी ऑपरेशन कनखजूरा के ज़रिए। समीर जी का तल्ख़ तेवर देखिए बड़े आदमी की छींक बीमारी और छोटे आम आदमी की छींक, मौसम का असर और बदतमीजी कि नाक पर हाथ रख कर नहीं छींकता। मानवीय सम्वेदनाओं को झकझोरती हुई इस पोस्ट पर डा. श्रीमती अजीत गुप्त का कहना है होली पर भिगो-भिगोकर और रगड़-रगड़कर रंग लगाया है। बहुत ही उम्‍दा व्‍यंग्‍य है। बस कनखजूरे की तस्‍वीर से डर लग गया। बचपन में भी यही डराते रहे और आज फिर आपने डरा दिया। हिन्‍दुस्‍थान हमारी धरती है और कनखजूरे बने नेता और नौकरशाह इस धरती को खोखला कर रहे हैं। इनकी संख्‍या कम नहीं हो सकती। एक मरेगा तो दस जन्‍म लेंगे।

शिखा वार्षणेय जी ने सटिक शब्दों में वर्णन किय है एक के बाद एक पंच जबरदस्त्त... सच ही भिगो भिगो कर मारा है...और कविता तो cherry on the top

दुनिया का क्या हाल हुआ है
जंगल था जो मॉल हुआ है
बिजली पानी को रोते है
हाल यहाँ बेहाल हुआ है.
पहले तुम इन्सान बचाओ
बाघ हमारे खुद बच लेंगे
तुम तो हिन्दुस्तान बचाओ.

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रश्मि प्रभा जी की रचनाओं में गहन संवेदना होती है। इसीलिए वे गहरा प्रभाव डालती हैं। होली की शुभ कामनाएं देते हुए बहु आयामी सुन्दर रंगों में सजा कर अपनी कविता प्रस्तुत करते हुए वो कह रही हैं

आओ हम अपनी नफ़रत का दहन करें

और इन रंगॊं से अपना आज रंग लें!

उनका काव्य भी ऐसे ही चटक रंगों में खिल रहा है।

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कभी-कभी हम रजाई बन जाते हैं
और समेटते हैं सिहरन
एक दूसरे की,
हमें देख कर सूरज भी आसमान लपेट लेता है
और सोया रहता है देर तक

अच्छी चीजों का इंतज़ार कितना अच्छा होता है न! और अच्छी चीज़ों में कविता भी शामिल है। तो समझिए आपका इंतज़ार ख़त्म हुआ। ओम आर्य चाहते हैं कि

वो जागे कभी गर मुझसे और सूरज से पहले
तो उठे नहीं बिस्तर से
बस करवट लेकर कविता में आ जाए
ताकि सबसे सुन्दर प्रेम कविता लिखी जा सके उस दिन

इस कविता की व्याख्या नहीं की जा सकती। कोई टीका नहीं लिखी जा सकती। सिर्फ महसूस की जा सकती है। इस कविता को मस्तिस्क से न पढ़कर बोध के स्तर पर पढ़ना जरूरी है तभी यह कविता खुलेगी।

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रंग और रँग -- इन दोनों में कुछ विशेष अंतर है? यदि आपको मालुम है तो आप किसमें डूबना चाहेंगे? ये प्रश्न मेरा नहीं है। रावेंद्रकुमार रवि पूछ रहे हैं। कह रहे हैं चलिए होली के इस रंग के बहाने ही हिंदी का शृंगार किया जाए!

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बहुत शानदार होलीमय गजल प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ० डंडा लखनवी मौसम चुहल मसखरी वाला। पढकर देखिए आपको विचार के क्षण ही नहीं मनोरंजन और फुलझड़ियों का ज़ायका भी मिलेगा। मैं तो पढ़कर लोट-पोट होने लगा। आप भी इस हास्य का आनंद लीजिए।

गली देखिए घाट देखिए।
रंगबिरंगी हाट देखिए।।
मौसम चुहुल-मसखरी वाला-
आज हुआ स्टार्ट देखिए।।
भाभी की स्पिन बालिंग पर,
देवर जी के शॉट देखिए।।
पढ़ा रही साली जीजा को-
सोलह दूनी आठ देखिए।।
लव लाइन छूने के पहले-
उसका मेगावाट देखिए।।
होली कहती खोल के बैठो-
मन के बंद कपाट देखिए।।

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संगीता पुरी जी एक झूठी कहानी सुना रही हैं। बता रही हैं एक राजा को झूठी कहानियां सुनने का बहुत शौक था , मतलब कि ऐसी कहानी जो सच हो ही नहीं सकती। उन्‍होने पूरे राज्‍य में घोषणा कर दी थी कि उनको जो भी झूठी कहानी सुना दे , जो कभी सत्‍य हो ही नहीं सकती , तो राजा की ओर से इनाम के रूप में बडी राशि दी जाएगी। पूरे राज्‍य से राजा को ऐसी कहानियां सुनाने के लिए लोग आते । आगे क्या होता है आप खुद ही पढकर देखिए।

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रंजीत, एक शहरी जो वास्तव में देहाती हैं बासी मांड़ और बासी भात खाकर
पूरब की पहली किरण के साथ गिरोहों के बीच कहते हैं

हम भारत के लोग'
हैं भी क्या
एक वोट के सिवा

'भारत को'
देंगे भी क्या
एक वोट के सिवा

इस कविता पर दिगम्बर नासवा का कहना है गहरी संवेदना है इन लाइनों में .. जीवन का कठोरतम सत्य है .... सच है कितना बेबस हो जाता है कवि कभी कभी।

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ताऊ रामपुरिया बता रहे हैं आपका रमलू सियार जब ब्लॉगजगत के बारे में शेरनी भाभीजी को बता रहा था तो उसे तरही मुशायरे की याद आई। बस उसने भी एक ग़ज़ल दे ही मारी मतलब मिसरा जो दिया था मास्साब ने..तो वो भी गज़ल खाये वो जूते तेरी गली में सनम लिख कर ही माने।
भूख नहीं लगती ताऊ को, जबसे जूते पड़े गली में
सांस अटक जाती है उसकी, जाने तबसे उसी नली में,
ताऊ को तो काम क्या है, शेर बचाना काम बचा है,
बिन बिजली तो जीना आता, पानी मिलता नहीं तली में

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तुम हमारे बच्चो को और हमें मारो हम तुम्हारे बच्चो को और तुम्हें मारेंगे ये राज भाटिया जी के पोस्ट का शीर्षक है। शीर्षक देख कर पहले तो मैं चौंका कि ये क्या बात हो गई सुबह-सुबह, क्यों मारने मरवाने पर तुले हैं। पर ज्यों-ज्यों आलेख पढता गया मेरी आंख खुलती गई। एक बेहद ज्वलंत विषय पर बहुत ही गंभीर आलेख। राज जी को शिकायत है मिलावट करने वालों से। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। राज जी कहते हैं अब देखे कौन कितने बच्चे मारेगा, नकली दूध वाला, नकली और मिलावटी तेल वाला, मिलावटी आनाज ओर दाल वाला, नकली दवा वाला, नकली और मिलावटी सीमेंट वाला, कमजोर पुल बनाने वाला, रिश्वत ले कर आंताकियो को नजर आंदाज करने वाला, यह सब पेसा तो खूब कमा लेगे लेकिन इन की ऒलाद तो एक दूसरे की करतूतो से ही मरेगी तो यह लोग उस पेसो से खाक ऎश करेगे बिना बच्चो के, या अपने बच्चो की लाश पर ऎश करेगे।

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एक बहुत ही मार्मिक घटना को दर्शाता विचारोत्तेजक पोस्ट पढा नारी ब्लॉग पर पहले क्यूं नही संभली तुम ! हमारे यहां पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को एक पतिव्रता रूप में ही दर्शाया गया है। लड़कियों को शुरू से ही यह नसीहत दी जाती है कि पति चाहे नशेड़ी हो, जुआरी हो, दुराचारी हो, - परमेश्वर की तरह परम पूज्य है। किरण राजपुरोहित नितिला जी बता रही हैं पत्नी को छोड़ कर चले जाने वाला पति कुछ वर्षों बाद लौटा। पता चला उसने दूसरी शादी कर ली थी। बच्चे हुये पर वह औरत ही उसे छोड़ कर चली गई। पति ने पहली पत्नी से माफी मांगी। वह चीखी चिल्लाई और आखिर उसके दिखाये सपनों में डूबन उतराने लगी। अब यही रह कर कमाने लगा। पहले वाला दम नही रहा। स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। उसने अपनी तकदीर को कोसा कि अब ही तो उसके जीवन में सुख आया है वह भी ईश्वर से सहन नही हो रहा। लेकिन वह तस्वीर का दूसरा रुख नही जानती थी। पति का यही रहना उसने अपने पतिव्रत धर्म का तेज माना था। उसकी तपस्या का फल जान मस्त थी। पति एड्स की सौगात ले आया था। पति की करतूतों का बोझ वह पतिव्रता होकर भुगत रही थी।

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सच्ची साधना क्या है? निर्मला दीदी एक बहुत ही रोचक कहानी के ज़रिए समझा रही हैं पिछले किस्त में आपने पढा था कि शिवदास अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर साधू बन गया था। इस पलायन के बाद उसने जो साधना की वह सच्ची साधना थी या वह जो समाज में रह कर जिम्मेदारियां निभाते हुए की जाती है वह सच्ची साधना है? पढिए।

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भंग की तरंग में होली का हुड़दंग मचा रही हैं शिखा वार्षणेय जी। कहती है

होली के त्यौहार पर ,

चलो कुछ हुडदंग मचाएं,

टिप्पणियाँ तो देते ही हैं

इस बार कुछ title बनाये.
ब्लॉगजगत के परिवार में.
भांति भांति के गुणी जन
आज इस छत के नीचे
मिल जाएँ सब मित्रगण
प्रेम सौहार्द के रंग के साथ
है बस थोडा निर्मल हास्य
जैसे मीठी ठंडाई में
मिला दी भंग की गोली चार..
लो सबसे पहले हम खुद पर
महा मूर्ख की उपाधि धरते हैं.
कृपया न बुरा माने कोई.
अब हम शुरुआत करते हैं.


बुरा न मानो ,होली है भाई होली है.

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स्वागतम ... नए चिट्ठे

आज १२ नये चिट्ठे जुड़े हैं चिट्ठाजगत के साथ। इनका स्वागत कीजिए।

1. ''झंकार -तरंग '' (http://jhankartarang.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: कमलेश वर्मा

2. अनंतिम (http://anantim.wordpress.com)
चिट्ठाकार: SatyaVrat
सैनिक

[कारगिल युद्ध के दौर में लिखी गई]

बैठा था निशब्द, निर्वाक कि तभी एक हुंकार सुनी,
युद्धक्षेत्र में जाना तुमको’- उसने एक पुकार सुनी,

मातृभूमि की इस पुकार पर माता के रक्षार्थ उठा,
उठा देख मां को संकट में, शत्रु के भक्षार्थ उठा,
विचलित नहीं हुआ किंचित भी, चल पड़ा विद्युत गति से,
वीरों का नाता मृत्यु से- कामदेव का जो रति से.


3. तिरछे नैन ...!!! (http://tirchhenain.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: कमलेश वर्मा

4. राही (http://sudhanshurahee.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: सुधांशु वत्स

5. Kataaksh, Kahaniya, Veyang aur Sansmaran (http://kpchauhankataaksh.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: K.P.Chauhan

6. महामानव (http://mahaamaanav.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: देवसूफी राम कु० बंसल
महामानव की गतिविधियाँ चिंतन केन्द्रित होती हैं जबकि मानवों में चिंतन का अभाव होता है और उपयोग में न लिए जाने के कारण उनकी चिंतन क्षमता क्षीण होती जाती है. मानवों की गतिविधियाँ उनके अंग-प्रत्यंगों की इच्छाओं पर केन्द्रित होती हैं. इस प्रकार मानवों में मन तथा महामानवों में मस्तिष्क प्रधान होता है. मनुष्य जाति के वर्ण वितरण के मानव और महामानव दो चरम बिंदु होते हैं और प्रत्येक मनुष्य की स्थिति इन दो चरम बिन्दुओं के मध्य ही होती है.
7. ऊषाप्रारब्ध (http://ushaprarbdh.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: ऊषाप्रारब्ध
कुछ देर ठहर जाना चाहती हूं
मैं ठहर जाना चाहती हूं फूल-फूल महकने और
पराग की तरह बिखर-बिखर जाने के लिए
फुदकती गिलहरी के हाथों कहां-कहां तक मैं
बिखर जाना चाहती हूं दाना-दाना यहां-वहां
8. cavs today (http://cavstoday.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: halchal

9. purane panne (http://nikash-puranepanne.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: nikash

10. jantakiray (http://jantakiray.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: tanmayjain

11. Ehsaas-e-Adaa (http://ehsaas-e-ada.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: sauban

12. .. (http://cinema-festival.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: shivraj gujar

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आज का सबसे ज़्यादा पसंदीदा

चिट्ठा जगत पर दिख रहे सबसे अधिक टिप्पणियों के आधार पर ...

आज के हालात इतने उलझ गये हैं कि हर इन्सान के मन मे आक्रोश जन्म ले रहा है। जब दिगम्बर नासवा जैसे सरल ह्रदय इन्सान को इस आक्रोश मे देखें तो हालात की गम्भीरता का अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। जागती आँखों से स्वप्न देखना इनकी फितरत है पर दिल को छू जाने वाली हक़ीक़त पेश कर रहे हैं .. कुल मिलाकर सौदा बुरा नहीं है।

पेट की आग
जिस्म की जलन
उम्मीद का झुनझुना
मौत का डर
मुक्ति की आशा
अधूरे स्वप्न
जीने की चाह
कुछ खुला गगन
पूंजीवाद की तिजोरी में बंद
गिनती की साँसें के बदले
सोदा बुरा तो नही!!

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हमारी पसंद

आज की हमारी पसंद है गौतम राजरिशी जी की पोस्ट।

गौतम जी पुरानी ग़ज़ल नये लिबास में पेश कर रहे है और चंद अशआर नये जोड़े हैं। कहते हैं जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्दिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रुमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है...कि प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है...कि भटकी समाजिकता और छिछली राजनीति में डगमगाते मानवीय-संतुलन के लिये ये सस्ते रुमानी हुस्नो-इश्क वाली ग़ज़ल भी बीच-बीच में सही बटखरे लेकर आती है...कि तल्ख और तीखे तेवरों के मध्य तनिक जायका बदलने के लिये इन शेरों की उपस्थिति आवश्यक है।...तो इन तमाम "कि" की खातिर पेश है ये ग़ज़ल:-


ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये

कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये

मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये

हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये

हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये

चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये

उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये


इस ग़ज़ल को "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये" की धुन पे गाकर देखिये एक बार- बस मजे के लिये।

*** *** ***

चलते-चलते

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है,

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।

हुकूमत मुंहभराई के हुनर से खूब वाकिफ है,

ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है।

*** *** ***

भूल-चूक माफ़! नमस्ते! अगले हफ़्ते फिर मिलेंगे।

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9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया चर्चा.....होली की शुभकामनायें

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  2. ब्लॉग लिस्ट में यह अपडेट नहीं दिखा रहा बंधू... मैं अंदाज़न और आदतन यहाँ आ गया

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  3. bahut achchi charcha ki haen manoj aapne holi ki shubkamnayae aap ko

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  4. बढ़िया चर्चा....होली की अनेकों शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  5. आपने मेरे सुझाव पर ध्‍यान दिया बहुत खुशी हुई .. बहुत अच्‍छे अच्‍छे लिंक्स समेटा है आपने .. यदि कोई दस दिनों तक ब्‍लॉग जगत से बाहर भी हो .. तो आपकी एक चर्चा उसके काम आ जाएगी !!

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  6. कई रंग समेटे हैं मनोज जी ने चर्चा में..मेरा रंग भी कुछ काम आया...तो होली की शुरुआत मान ली जाए..
    और शीर्षक में जो कह रहें हैं कि बुरा न मानो...तो हम कहते हैं ...अच्छा मानो होली है

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