सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

दियाबरनी,लखैरा और उम्मीद की साढ़े पांच फ़ुटी लौ

दीपावली तो सबकी ठीकैठाक निपट गयी होगी। निपटना ही था। सबको शुभकामना जो दिये थे। साथी लोगों ने दीपावली की शुभकामनायें देते हुये पोस्टें लिखीं। लोगों ने जमकर टिपियाया भी दीपावली की शुभकामनायें देते हुये। होली/दीवाली और किसी राष्ट्रीय पर्व पर टिपियाने में भी आसानी होती है। चाहे जौन मसला होय धर देव बधाइया का बक्सा ब्लाग के चौपाल पर। लोग बाग तो कविता भी लिख लेते हैं अवसरानुकूल और सुनाते (झेलाते नहीं कह रहे हैं भाई) चलते हैं।


समीरलालजी ने कविता में शुभकामनायें दी हैं:

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

यहां मामला कंडीशन्स अप्लाई वाला है। अब भला बताओ फ़्लैट के जमाने में आंगन किधर मिलेगा? मतलब सुख और समृद्धि की डिलीवरी गोल। फ़िर दिशायें दस बताई गयीं हैं। भाई साहब छह दिशायें दबा गये अपने जलवे और क्यूट काया में। कवि है- कुछ भी कर सकता है। बहरहाल इसके बावजूद लोगों ने दीपावली धांस के मनाई। सबको एक बार फ़िर से सब कुछ मुबारक हो।

दीपावली भी अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग भाव लाती है। श्रीश जैसा कि लिखते हैं। मामला संपन्न और विपन्न का सा है। देखिये:
आज दीवाली है, खासा अकेला हूँ. सोचता हूँ, ये दीवाली, किनके लिए है, किनके लिए नहीं. एक लड़की जो फुलझड़ियॉ खरीद रही है, दूसरी बेच रही है, एक को 'खुशी' शायद खरीद लेने पर भी ना मिले, और दूसरी को भी 'खुशी' शायद बेच लेने पर भी ना मिले. हम कमरे साफ कर रहे हैं, चीजें जो काम की नहीं, पुरानी हैं..फेक रहें हैं, वे कुछ लोग जो गली, मोहल्ले, शहर के हाशिये पे और साथ-साथ मुकद्दर के हाशिये पे भी नंगे खड़े रहते हैं, उन्हीं चीजों को पहन रहे हैं, थैले में भर रहे हैं...



दीवाली के मौके पर साफ़-सफ़ाई भी होती है। वंदनाजी ने भी की और जमकर की। घर के सामान सहेजते-सहेजते रिश्तों को सहेजने की बात करने लगीं और पश्चिम और पूरब की तुलना भी। निष्कर्षत: वे रिश्तों के बारे में लिखती हैं:
हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से.....लगा ये विदेशी क्या जाने सहेजना ...... न सामान सहेज पाते हैं न रिश्ते......


दीपावली के मौके पर विनीत ने दियाबरनी से प्यार के प्यारे किस्से लिखे हैं। दियाबरनी पहले समझ लिया बजरिये विनीत कुमार ही:
एक ऐसी लड़की जो दीया बारने यानी जलाने का काम करती है,जो पूरी दुनिया को रौशन करती है। प्रतीक के तौर पर उसके सिर पर तीन दीये होते और जिसे कि रात में रुई की बाती,तीसी का तेल डालकर हम जलाते। मां के शब्दों में कहें तो हमारी बहू भी बिल्कुल ऐसी ही होगी जो कि पूरी दुनिया को रौशन करेगी।
अपने बचपन के आंगन में टहलते हुये विनीत ने दियाबरनी के कई किस्से उजागर किये। दियाबरनी को लेकर अपने इमोशनल हो जाने की कथा सुनाते हुये विनीत कहते हैं:
मैं सचमुच इमोशनल हो जाता। मैं तब तक दीदियों के आगे-पीछे करता,जब तक वो उसे मेरे बन मुताबिक जगह न दे दे। लेकिन एक बात है कि रात में जब दीयाबरनी के सिर पर तीन रखे दीए को जलाते तो दीदी कहती- तुमरी दीयाबरनिया तो बड़ी फब रही है छोटे। देखो तो पीयर ब्लॉउज रोशनी में कैसे चमचमा रहा है,सच में बियाह कर लायो इसको क्या छोटू? दीदी के साथ उसकी सहेलियां होतीं औऱ साथ में उसकी छोटी बहन भी। मैं उसे देखता और फिर शर्माता,मुस्कराता। दीदी कहती-देखो तो कैसे लखैरा जैसा मुस्करा रहा है,भीतरिया खचड़ा है और फिर पुचकारने लग जाती। रक्षाबंधन से कहीं ज्यादा आज के दिन दीदी लोगों का प्यार मिलता।

विनीत की इस पोस्ट पर मनीषा की टिपियावन है:
बहुत सुंदर विनीत। वो तो बचपन के खेल थे। अब असली वाली दियाबरनी कब ला रहे हो। और हां, ये लड़कियों से प्‍यार करने की आदत ठीक नहीं है। सिर्फ लड़की से प्‍यार करो। एक लड़की से। समझे... लखैरा...:)

विनीत को लखैरा बताने के बाद फ़िर मनीषा ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरु की। वहां दुलहिन थी तो इहां दूल्हा खोज का विषय था। वे अपने बचपने के किस्से सुनाते हुये लिखती हैं:
घर में भविष्‍य के दूल्‍हों, (यानि लड़कों) की दुल्‍हनों को लेकर घर की बड़ी औरतें, बहनें, रिश्‍ते की भा‍भियां, चाचियां और कई बार मां-बड़ी मां तक मजाक किया करती थीं। चाची तीन साल के नाक बहाते लड़के, जिसे हगकर धोने की भी तमीज तब तक नहीं आई थी, से लडि़यातीं, ‘का बबुबा, हमसे बियाह करब।’ बबुबा अपनी फिसलती हुई चड्ढी संभालते हों-हों करते मम्‍मी की गोदी में दुबक जाते। मम्‍मी लाड़ करती, क्‍यों रे, चाची पसंद नहीं है तुझे।'

एक बार का किस्सा सुनाते हुये वे लिखती हैं :
एक सुंदर सी लड़की लाल रंग की साड़ी में और खूब सजी हुई मुझे इस कदर भा गई कि घर आकर मैंने पैर पटक-पटककर घर सिर पर उठा लिया कि मेरी शादी करो। मुझे भी उस लड़की की तरह सजना है। मां ने डांट-डपटकर चुप करा दिया लेकिन वो लाल रंग की सुंदर सी लड़की मेरे दिमाग में बैठी हुई थी और कभी-कभी उसका भूत ऐसा सिर चढ़कर नाचता कि मैं शादी की रट में मां को मुझे थप्‍पड़ लगाकर शांत करने के लिए मजबूर कर देती थी।

इसके बाद मां को भी अपनी बिटिया के बचपने के किस्से याद रहे। उसके बारे में मनीषा बताती हैं:
बाद में बड़े होने पर उनके हजार समझाने पर भी जब मैं किसी दुबेजी, पाणेजी का घर बसाने के लिए तैयार नहीं हुई तो मां मेरे बचपन को याद करती और कहती, ‘बचपन में जब मेरी शादी करो, शादी करो चिल्‍लाती थी, तभी कर दी होती तो अच्‍छा था। आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता।’
इसके आगे का किस्सा आप मनीषा के ब्लाग पर ही पढिये जिसके आखिरी में मनीषा सूत्र वाक्य लिखती हैं:"जिस कमरे में पैर रखने की मनाही थी, उसमें घुसने के चोर दरवाजे भी हम निकाल ही लेते थे।"

दीवाली के मौके पर लिखी क्षणिकाओं में से एक में ओम आर्य का मानना है:
एक ही लौ होगी हर कहीं
और एक ही ऊर्जा
देख लो चाहे कोई भी दीया हो
या हो कोई भी बाती


लौ और ऊर्जा के समाजवाद के वे यादों में डूब जाते हैं:
तुम्हारे लौ भरे हाथ
बहुत याद आतें हैं
जब भी दिवाली आती है


दीवाली में लौ भरे हाथ याद आना- क्या बिम्ब है भाई! बलिहारी जाऊं। हमको नंदनजी की कविता की ये पंक्तियां याद आईं:
सुनो ,
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
मुझे तुम्हारी आंख में ठिठके हुये
बेचैन समंदर की याद आती है।


अरे भाई ये रोशनी के हाथ कहां-कहां न ले जायें!! हमें अपने डा. के जीनियस शुक्ला जी याद आ गये। डा.अनुराग आर्य की इस पोस्ट में पांच फ़ुटी रोशनी का जिक्र है। अगर आपने न बांचा हो तो बांच लीजिये। आनंद की गारन्टी। समझ लीजिये की इस पोस्ट का लिंक पाने के लिये हम खासतौर पर डा.आर्य को फोनियाये और तीन रुपये पच्चीस पैसा हम खर्चा किये फ़ोन पर। डा.आर्य का खर्चा बाद में बताने में हुआ सो अलग। उसका हम का हिसाब बतायें! देखिये नमूना तो इधरिच देख लीजिये:
उस रोज रात को शुक्ला जी ने अपने जुमले में संशोधन किया .."जीनियस डोंट फाल इन लव -इट हेप्पंस " .२ महीनो में ये वाकई हेप्पंस हो गया ....शुक्ला जी हॉस्टल के तमाम नाकाम प्रेमियों के लिए उम्मीद की एक साढ़े पांच फ़ुटी लौ बन के उभरे ओर एक घटना ने इस लौ को ओर जगमगा दिया ....


सागर ने भी चार दिन पहले चांद को अपनी तरफ़ खैंच के कविता लिख मारी। कविता क्या वाहियात ख्याल हैं जैसा कि खुद सागर कबूलते हैं शीर्षकै में:
उसके काबिलियत का कोई सानी नहीं है
यह दीगर है कि आँख में पानी नहीं है

माली हालत देख कर अबके वो घर से भागी
यह कहना गलत है कि उसकी बेटी सयानी नहीं है

चांद तो रह ही गया यार इस ख्याल में। लेकिन चिन्ता नको जी। आगे बरामद होगा मय बुढिया के। कवि के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। देखिये :
चाँद पर सूत काटती रहती है वो बुढिया
नयी नस्लों में ये भोली कहानी नहीं है

तमाम उम्र इसी अफसुर्दगी में जिया 'सागर'
मेरे ज़िन्दगी का अरसे से कोई मानी नहीं है..

अब बारी आती है अपूर्व शुक्ला की। शाहजहांपुर के अपूर्व का नाम हमने एकाध बार देखा। कविता दो तीन बार देखी। लेकिन सम्प्रति बंगलौर बस रहे अपूर्व की त्रिवेणी हमने कल ही देखी। हमने सोचा कह दें कि माशाअल्लाह क्या खूब लिखते हो। लेकिन फ़िर सोचा पहले आपको पढ़वा तो दें। तीन में दो तो इधर ही देखिये जी:
  • तेरी पहचान के रैपर्स उड़ा दिये हवा में, हँस कर
    वक्त ने तेरे नाम की टॉफ़ी, फिर लबों पे रख ली है

    मेरी नाकामियों मुबारक हो, बस वो भी पिघल जायेगी

  • कहते हैं सिकुड़ के माउस बराबर रह गयी है बेचारी दुनिया
    इंटरनेट, केबल, मोबाइल्स ने खत्म कर दी हैं सारी दूरियाँ

    हाँ, तेरा दिल ही छूट गया होगा शायद, नेटवर्क कवरेज से बाहर

  • जहां तक मामला पहली त्रिवेणी का है तो अपूर्व को लगता है कि उनके नाम की टाफ़ी वक्त के साथ पिघल जायेगी। जबकि हमारे कानपुर के प्रमोद बचपने की टाफ़ी का स्वाद बुजुर्गियत तक सहेजने की बात करते हैं। देखिये न:
    वो जूठी अब भी मुँह में है,
    हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं।
    राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
    ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।


    गौतम राजरिशी वागर्थ में छपी अपनी गजल पढ़वाते हैं:
    ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
    हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली

    कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
    मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली

    जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
    हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली

    भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
    गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली


    अपनी गजल पढ़वाने के गौतम अंकित सफ़र की गजल पढ़ने और उनकी हौसला आफ़जाई करने को कहते हैं। अंकित के यहां गये तो वहां एक तिरछी गजल देखने को मिली। देखिये आप भी। अंकित की गजल ताले में बंद है लेकिन एक शेर तो बांच ही लीजिये जिसे गौतम ने सबसे पसंदीदा शेर बताया है:
    है बचपन शोख इक चिड़िया जवानी आसमां फ़ैला
    बुढ़ापा देखता दोनों खड़ा तनहा शजर वो एक


    अपने ताऊजी गाहे-बगाहे जिस किसी को अपनी पहेली में जिता-जिताकर इंटरव्यू लेते रहते हैं। आज तो वे खुद ही इंटरव्यूइत हो गये। पकड़ लिया मुंबई के टाइगर ने इंदौर के ताऊ को। बैठाल के सोफ़े पर लै लिया ताऊ का क्या कहते हैं इंटरव्यू को हिंदी में वही जी हां साक्षात्कार। ताऊ ने अपनी बात कहते हुये बताया:ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-अपनी खिल्ली उडाकर ही हास्य के रुप मे व्यंग करता है!
    ताऊ ने अपने इंटरव्यू में फ़ुरसतिया के लेखन से प्रभावित होने की बात कहते हुए कहा:
    अगर आप मुझसे यह पूछें कि कौन ब्लागर मेरा पसंदीदा लेखक है? तो बिना सोचे कहुंगा अनूप शुक्ल फ़ुरसतियाजी, निसंदेह मुझे उनका लिखा पढना कम और बात करना ज्यादा लगता है. उनकी लेखन शैली का मुरीद हूं.
    लेकिन फ़ुरसतिया तो खुरपेंची ब्लागर हैं। कोई न कोई कमी तो निकाल ही लेता है सो वहीं पर टिपिया दिया जैसे रायचन्द लोग बोलते हैं:
    ताऊ को अपना मग्गाबाबा का आश्रम वीरान नहीं करना चाहिये। २९ जून से वहां दिया नहीं जला।
    ताऊ ने जहां यह पढ़ा फ़ौरन मन के बादशाह ताऊ का माउस फ़ड़फ़ड़ा उठा और उन्होंने अपने मग्गा आश्रम में दिया जला दिया और पोस्ट शुरु कर दी। ताऊ पर अपना एकाधिकार सा जमाते हुये डा.अमर कुमार कहते भये:
    यह तो सच है कि, ताऊ को मैं भी उतना ही पसँद करता हूँ, जितना कोई अन्य न करता होगा ।
    शुरुआती दिनों में नियमित टिप्पणी देने के बावज़ूद अब मैं उन्हें टिप्पणी देने में उतना सहज नहीं रह पाता ।
    ताऊ बोले तो एक निडर और चतुर हरयाणवी चरित्र, इसके उलट एप्रूवल बोले तो खुलेपन का अभाव !


    ज्ञानजी गत्यात्मक ज्ञानी होने की राह पर चल पड़े हैं। सुबह वे उत्क्रमित प्रव्रजन करते दिखे। अब शाम को उत्क्रमित नौकायन भी करन लगे। हमें डर तो नहीं लेकिन लग रहा है कि गति यही रही है तो कल तक वे कहीं उत्क्रमित वायुचालन न करने लगें।

    प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। उनको हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

    एक लाईना


    1. आपकी एक अदद टिप्पणी की कीमत महज़ पांच 5.00 रुपए? : और कित्ते चाहिये भाई आपको?

    2. कठुआये हुये एहसास :भीग गये हैं जी अब तो

    3. बाबू बडा या पीएचडी थीसिस्!!:यह पोस्ट का नहीं पीएचडी थीसिस का विषय है

    4. ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली :स्नेहिल नर्स आकर दे गयी टॉफ़ी कैडबरिज वाली

    5. कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में गाय रेस का प्रावधान हो :ताकि फ़िर से उन पर निबंध लिखना शुरु हो

    6. गब्बर, ये दुनिया तुमसे भी खतरनाक है :और यहां अब बसंती भी नहीं है

    7. बस्‍ते के भीतर रोज़..:सिर्फ़ मेरा वहम होता है.

    8. सरकारें जनता को न्याय दिलाने के काम को कितना जरूरी समझती हैं? : जनता को रोटी, कपड़ा, मकान के बाद अब् न्याय भी चाहिये?

    9. शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ... :अच्छा! करते हैं एस.एम.एस.

    10. मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं:किसी अच्छी जगह वजन करवाओ भाई

    मेरी पसंद


    वो,
    लड़की अक्सर
    मुझे मिल जाती है
    अपनी बारी का इंतजार करते
    सिमटी सिमटी सी
    कुछ सहमी सहमी सी
    दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये

    वो,
    कभी कभी देखती है मुझे
    कनखियों से फिर सहम जाती है
    कुरेदने लगती है
    हथेलियों को नाखून से
    या ज़मीन में धंसी जाती है

    वो,
    कराहती भी है
    अपनी सिसकियों के बीच
    या सलवार घुटनों तक उपर कर
    सहलाती है किसी चोट को
    फिर भावशून्य हो जाती है
    किसी बुत की तरह
    और एकटक देखती है दीवार के पार

    मुझे,
    लगने लगता है कि
    एक विषय मिल गया है
    कविता लिखने के लिये
    और मेरी रूचि
    अब सिमटने लगती है
    उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में

    शायद,
    यह कविता पसंद भी आये
    पढने पर या सुने जाने पर
    मैं,
    अपने अंतर उदास था कहीं
    कि मैं पूरे समय
    देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
    उसकी हरकतों को
    और लिखता रहा जो भी देखा
    एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
    उसके दर्द को
    मैं पहले तो ऐसा नही था

    मुकेश कुमार तिवारी

    और अंत में


    फ़िलहाल इतना ही। आजकी चर्चा का दिन कविताजी का था। उन्होंने सूचना दी थी कि वे आज कुछ पारिवारिक कारणों से व्यस्त रहेंगी इसलिये हम हाजिर हुये। आपकी दीपावली के बाद की शुरुआत झकास हो, बिन्दास हो। आपके जीवन में हास हो परिहास हो। उल्लास हो और थोड़ी क्यूट सी मिठास हो।

    चलिये अब चलते हैं आफ़िस। आप मौज से टिपियाइये। कोई कुछ कहे तो हमें बताइये। ठीक है न!

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    30 टिप्‍पणियां:

    1. ये अफ़साना अगरचे सरसरी है
      वले उस वक़्त की लज़्ज़त भरी है
      पढ़कर मज़ा आया।

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    2. आहा..हा ..अनूप जी का निराला अंदाज .वाह ...आज तो चिटठा जग मग जग मग ....

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    3. ...एक लाइनवां भी गजबे धा रहा है..ऐ..शुकुल जी....मजा आ गया..होय रे अंदाज....

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    4. ईस्ट हो या वेस्ट
      यही चर्चा है बेस्ट...

      जय हिंद...

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    5. बढ़िया है
      बहुत बढ़िया चर्चा है
      पर चर्चा में हमारा नाम भी होता तो क्या बात थी :)
      खैर !
      आपने बहुत कुछ समेटने का सफल प्रयास किया है
      बधाई और शुभकामनायें

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    6. विनीत और मनीषा जी की प्रविष्टियाँ, गौतम जी की गजल - तीनों को सच में देखना चाहता था यहाँ । आभार ।

      आपकी पसंद का प्रभाव अदभुत है । मुकेश जी का आभार ।

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    7. बहुत दिनों बाद चर्चा में आनंद आया। आप की पसंद भी खूब भाई!

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    8. चर्चा की बोलूँ तो, आज तो बेजोड़ पत्ते छाँट लाये हो, गुरु !
      लेकिन और कुछ नहीं तो, मेरी टिप्पणिये पकड़ कर बैठ गये । आप बाज नहीं आओगे ।
      ताऊ पब्लिक प्रापर्टी हैं, उन पर एकाधिकार कैसा ? यह मूँ देखी टिप्पणी नहीं रही, बस इत्तै बात रही ।
      रही बात एकाधिकार की तो, बेचारे ताऊ बहुत पहिलेन अतिक्रमण के शिकार हो चुके हैं । अब ई सब बात कह कर हम्मैं मत फँसवाओ, मालिक !

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    9. बहुत बढ़िया चर्चा रही यह तो।
      भइया-दूज की शुभकामनाएँ!

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    10. "अगर आप मुझसे यह पूछें कि कौन ब्लागर मेरा पसंदीदा लेखक है? तो बिना सोचे कहुंगा अनूप शुक्ल फ़ुरसतियाजी,"

      हम भी ताऊ के साथ लाइना में खडे हैं जी अपनी पसंद दर्ज कराने के लिए:)

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    11. अरे वाह!!! आज तो अनूप जी हमें भी चर्चा में ले ही आये............मुकेश जी की कविता लाजवाब..

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    12. फुरसत से की गई बढिया चर्चा.....

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    13. वाह !

      उसके काबिलियत का कोई सानी नहीं है
      यह दीगर है कि आँख में पानी नहीं है

      एक ही लौ होगी हर कहीं
      और एक ही ऊर्जा
      देख लो चाहे कोई भी दीया हो
      या हो कोई भी बाती

      बहुत बढिया है ...चर्चा ।

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    14. अरे वाह अपनी तस्वीर भी...

      शुक्रगुजार हूँ देव, अंकित और अपूर्व जैसे युवाओं की दमकती लेखनी को जिक्र में शामिल करने के लिये।

      और मैं तो आज फिर से लेजेंडरी एक लाइना में भी..

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    15. ओह बहुत दुखद -मुले जी नहीं रहे ! हिन्दी में विज्ञानं लोकप्रियकरण का एक स्तम्भ ढह गया ! हद है तमाम संचार माध्यमों के बावजूद यह खबर ब्लागजगत से ही मिल पायी है ! मुले का जीवट का व्यक्तित्व किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है -वे सही अर्थों में विज्ञानं को आम आदमी तक ले जाने को पूर्णरूपेंन समर्पित रहे और बिना नौकरी और सरकारी टुकडों पर पले पूर्ण कालिक विज्ञान लेखन की अलख जगाते रहे ! मेरा श्रद्धासुमन !

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    16. दियाबरनी और मनीषा जी के आलेख ने खासा प्रभावित किया.अब सागर की रचना पढ़ेंगे. बेहतरीन चर्चा.

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    17. अच्छी चर्चा रही....दो दिनों तक नेट से दूर रहना नहीं खला....कई सारे पठनीय चिट्ठों की जानकारी मिल गयी...शुक्रिया

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    18. निसंदेह फ़ुरसतिया स्टाइल चर्चा, आनंद आया.

      रामराम.

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    19. अपूर्व ओर दर्पण शाह दर्शन को अभी कुछ दिनों से पढना शुरू किया ..जब भी पढ़ा ...बेहतरीन लिखते हुए पाया ....अपूर्व की पिछली पोस्ट की एक नज़्म अपने आप मे इतनी मुकम्मल थी की बस आप उसे बुकमार्क कर रख सकते है.... .......
      मुकेश जी की कविता समाज को ओर संवेदन शील बनाने मे एक कदम है...मनीषा जी के हम फेन हो गए है ....

      गुणाकर मुले जी का जाना एक दुखद घटना है .विनम्र श्रद्धांजलि।

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    20. आपकी टिपिकल फुरसतिया स्टाइल एक लाईना के तो हम भी बहुत बड़े वाले फैन हैं... बाकी चर्चा बढ़िया रही.

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    21. बहुत विस्तार से आपने चिठ्ठाजगत का हाल-चाल बताया। पढ़कर आनन्द आ गया। इतना विस्तृत कैसे पढ़ पाते हैं जी?
      इधर तो समय को जैसे पंख लग गये हैं। देखते-देखते २३-२४ अक्टू.का ब्लॉगर सेमिनार भी आ गया। आजकल तैयारियाँ जोरों पर है जी। आप सभी दुआ कीजिए कि आयोजन सफल हो।

      धन्यवाद।

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    22. बहुत अच्छी चर्चा रही,
      गौतम भैय्या का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने मुझे अपने स्नेह से लबालब कर दिया.

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    23. वाह वाह क्या चर्चा है! कई हफ्तों के बाद इस गली में वापस आया तो यहां जो कुछ उपलब्ध है वह देख कर मूँह में पानी आ गया!!

      सस्नेह -- शास्त्री

      हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
      http://www.Sarathi.info

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    24. गुणाकर जी का जाना इतिहास पुरुष का जाना है| उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि|
      हिन्दी वालों को सोचना चाहिए कि वे क्या कारण हैं जिनके चलते हिन्दी के दिग्गजों तक का अवसान मीडिया के लिए कोई मायने नहीं रखता|
      वस्तुतः हम लोगों में से अधिकाँश ने अपने टुच्चेपन की हरकतों के द्वारा स्वयं अपने को तो छोटा किया ही है, समूची हिन्दी-जाति पर कलंक तक पोत दिया है| सदा हमारा घटियापन बात बात पर स्वयं ही जाहिर हो जाता है होता जाता है |
      काश हम अपने टुच्चेपन, लीचड़पने, नीचताओं से बाज आएँ !

      जवाब देंहटाएं

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