रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग पर चूतिया शब्द क्या इस्तेमाल कर दिया हिन्दी ब्लॉगजगत के नाखून उग आये हैं। इरफ़ान के बहाने एक दूसरे के विचारों की लानत मलानत करने के बाद अब दूसरों को विचार रखने से भी रोकना चाहते हैं। भईया दूसरे के विचारों को पढ़ कर मंदाग्नि कि शिकायत हो जाती है तो ब्लॉगिंग काहे करते हो? जाओ अपनी शाखा में दंड पेलो। इंसान बनना है तो सब्र रखो, पढ़ो और पढ़ने दो, लिखो और लिखने दो। इंसान की तरह अपने विचार रखो, इस भले मानस ने तो तुम्हारी बेहूदी टिप्पणियाँ छाप भी दीं, वो भी जो तुमने Anonymous की चूड़ीयाँ पहन कर दागीं, तालीबानी कहे जाने से इतनी चिढ़ है तो पहले उनके जैसी हरकतें करना तो बंद करो। मैं तो सभी चिट्ठाकारों को यही कहुंगा टिपपणी कर सबमिट बटन दबाने से पहले एक बार सोच लो कि क्या यह तीप्पणी तुम अपने ब्लॉग पर छापते?
इधर चिट्ठाकारों के नी जर्क रिएक्शन का ये आलम है उधर एनडीटीवी का चिट्ठाकार दल अपने उठाये "असल मुद्दों" पर चिट्ठा पाठकों कि बेरूखी से हताश है,
असली हीरो के अभाव में हमने मुन्ना भाईयों जैसे गली के लुक्कों की ताजपोशी कर दी है. हमारा हीरो डॉन बनकर आता है तो हम ताली बजाकर कहते हैं यह लक्ष्य अच्छा है. हीरो और विलेन एकरुप हो गए हैं...निठारी को स्वीकारने में समाज अभी थोडा हील-हुज्जत भले कर रहा है लेकिन हफ्ता बीतने दीजिये, देखिये, निशब्द को कितने प्यार से स्वीकारता है. समाज भयानक उदारता के साथ एक्सेप्टिंग हो रहा है.ब्लॉगिंग विधा के नये रंगरूट रवीश से प्रोबेशन पीरीयड का उन्माद छुपाये नहीं छुप रहा।
समय अब पलछीन है। तो मैं कह रहा हूं कि महीनों तक लिखी जाने वाली रचनाएं अब से कालजयी नहीं कहलायेंगी। वो तो पूरे काल को खा पीकर रची जाती हैं। ब्लॉग के दौर में दैनिक लेखन ही कालजयी हैं। इसलिए रोज़ के लिखे हुए को आप कमतर न मानें। जितनी देर में राजकमल प्रकाशन वाले किसी कालजयी रचना का प्रूफ पढ़ेंगे उतनी देर में ब्लॉग रचनाओं की प्रतिक्रिया आ जाती हैं।अविनाश ने कहा कि "प्रेमचंद के ज़माने में ब्लाग होता तो वो लाखों कहानियाँ लिख गए होते"। "ब्लॉग मंडूकों" को सुन कर आनंद मिला होगा पर बात पूरी सही नहीं लगती, प्रेमचंद तो सहस्त्रों बरसों में एक पैदा होता है। अभी तो ब्लॉगरों को लिखना ही सीखना है, अनूप जैसे उदाहरण विरले ही हैं जिनके चिट्ठे के ठोंगे नहीं बनते। मनोहर श्याम जोशी जी सुनते तो आपत्ति करते, सुना है वे रचनायें डिक्टेट करता थे और कई रचनायें एक साथ "फ्लोर" पर रहती थीं। "बदमास" जोशी जी के लेखन का सिंहावलोकन करना हो तो सराय के रविकांत का यह दृष्टांत लेख अवश्य पढ़ें।
और चलते चलते, अपने ब्लॉगशिविर को नये रूप में ढाल चुके रमण वर्डप्रेस प्रयोक्ताओं को खबरदार कर रहे हैं। मिर्ची सेठ की दुकान फिर खुली है और बता रहे हैं कि सजाल से पढ़ें NCERT की किताबें।
बहुत सही। यह अदा है देबाशीष की कि केवल काम की बात करते हैं। सीधी-खरी बात! इंडियन काफी हाउस पर भी लेख देखा इसी बहाने। उसमें पंकज बेंगाणी ने कुछ सवाल पूछे हैं। जानकारी के लिये यहां बता दें कि हरिशंकर परसाई की टांग संध के स्वयंसेवकों ने तोड़ दी थी जिसके कारण वे जिंदगी भर ठीक से चल नहीं पाये। सांप्रदायिकता किसी एक की बपौती नहीं है। संघ, जहां तक मुझे पता है, देश के सबसे बड़े संगठनों में से एक माना जाता है। तमाम कल्याणकारी कार्यों में भी इसके स्वयंसेवकों का योगदान रहता है। लेकिन दूसरे योगदान भी कम नहीं हैं जिनके लिये इनके स्वयंसेवकों को लोग गाहे-बगाहे कोसते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंकाफी हाउस वाली पोस्ट पर जो लिखा लेखक ने उसके खिलाफ इतना आक्रामक अंदाज में टिप्पणी देखकर लगता है कुछ न कुछ तो गड़बड़ है जो विरोध के शब्द सहन नहीं होते। देबू ,तुम्हारा ये डायलाग पढ़कर मजा आ गया-इस भले मानस ने तो तुम्हारी बेहूदी टिप्पणियाँ छाप भी दीं, वो भी जो तुमने Anonymous की चूड़ीयाँ पहन कर दागीं, तालीबानी कहे जाने से इतनी चिढ़ है तो पहले उनके जैसी हरकतें करना तो बंद करो।
भैये प्रेमचंद तो महान थे। उनकी जैसी सामाजिक निगाह दुर्लभ है। वैसे हम गदगद हुये इसे गुदगुदायमान वाक्य से अनूप जैसे उदाहरण विरले ही हैं जिनके चिट्ठे के ठोंगे नहीं बनते।
लेकिन इसके पीछे के दो सच हैं-
१. हमारी रचनाओं का कोई प्रिंट आउट नहीं लेता। ऐसी हैं कहां?
२. आजकल ठोंगे चलन के बाहर हैं। देश पूरा पालीथीन में पैक हो रहा है।
बकिया चकाचक। होली मुबारक! सबको!सपरिवार!
"...मैं तो सभी चिट्ठाकारों को यही कहुंगा टिपपणी कर सबमिट बटन दबाने से पहले एक बार सोच लो कि क्या यह तीप्पणी तुम अपने ब्लॉग पर छापते?..."
जवाब देंहटाएंसत्य वचन!
"भईया दूसरे के विचारों को पढ़ कर मंदाग्नि कि शिकायत हो जाती है तो ब्लॉगिंग काहे करते हो? जाओ अपनी शाखा में दंड पेलो। इंसान बनना है तो सब्र रखो, पढ़ो और पढ़ने दो, लिखो और लिखने दो।"
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही। और यह बात दोनों तरफ लागू होती है। जिस तरह लोग संघ के खिलाफ लिखने के लिए मुक्त हैं, उसी तरह भिन्न विचार रखने वाले लोग अपना मत प्रकट करने के लिए मुक्त हैं। जितना अन्याय एक पक्ष को नज़र आता है, उतना ही दूसरे पक्ष को भी। इस यह कहना कि शाखा वालों को "मन्दाग्नि होती है" ग़लत है। यह कहना ही सबूत है कि मन्दाग्नि के शिकार वे अकेले नहीं हैं। मैं तो दोनों तरफ के लिए कहूँगा कि लिखो, तो पढ़ो भी।
आपके कुछ विचारों से कुछ हद तक सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंमै कहना चाहूँगा कि आपने एक बहुत बड़ी बात की अनदेखी कर दी है। बहुत ही कम टिप्पणियाँ आपत्तिजनक हैं, इनकी भर्तसना की जानी चाहिये। किन्तु भारी संख्या में लोगों ने संस्कारित भाषा में सकारात्मक टिप्पणियों के द्वारा उन लोगों की वैचारिक धुलाई की है जो किसी विशेष आइडियालोजी का झण्डा गाड़ने के इरादे से दूसरे विचारों को गाली दे रहे हैं। इस सकारात्मक पहलू को भी देखा जाना चाहिये।
यदि आप तालिबान की बात करते हैं तो कम्युनिस्टों का इतिहास तो तालिबानियों को भी शर्मिन्दा करने वाला रहा है। इसलिये मेरा विचार है कि किसी आइडियालोजी के विशिष्ट रंग में रंगे व्यक्ति को आईना दिखाना ही चाहिये ताकि उनकी मतान्धता को कम किया जा सके।
आपकी यही बात सबसे अच्छी लगती है, की आप साफ साफ जो कहना हो कह देते हो. यह सही अन्दाज है. हमारे मतभेद हो सकते है, मगर जो कहना है, साफ साफ कहा जाना चाहिए.
जवाब देंहटाएंअज्ञात नाम से टिप्पणी करना वैसा ही है जैसा पीठ पीछे से वार करना. कायरों के विचारों की कौन कदर करेगा?
हम जब लिखते है तब शब्दो की मर्यादा का पालन जरूर करते है, इसलिए चु*यापा जैसे शब्द अरूची पैदा करते है. वैसे लिखने वाला स्वतंत्र है. लेकिन मैने देखा है, कुछ कलम के नए सिपाही जो दुनिया को बदल देने की स्पनिल दुनिया में रह रहे है, उनके लिखे कुछ एक वाक्य विभस्त जरूर रहें है.
ऐसे में सेक्स विषयक चिट्ठो को नारद से हटाने का क्या औचित्य रह जाता है?
शाखाओं में कभी गया नहीं, मगर इतना जरूर जानता हूँ, की तालिबानो को आदर्श मानने वालो तथा लालझंडे वालो की तरह वे देशद्रोही तो नहीं होते.
दो चार उदाहरण और दे देते चाचु कि खाकी चड्डी वालों ने और किस किस की टांग तोडी थी. लेकिन मेरे सवालों के जवाब नही दे पाएंगे.
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