उम्मीद करते हैं भविष्य में आप अनुपस्थित नहीं रहेंगे। :) इतनी लम्बी चर्चा लिखने के बाद भी चिट्ठे आते ही रहे और कविराज थक गये और उसी समय मेरा जीमेल पर आना हुआ झट से मुझे बाकी चिट्ठों की चर्चा करने का आदेश दे कर कट लिये (मुझे बोलने का मौका दिये बगैर साइन आउट कर लिये)।
वो कहते हैं ना अनाड़ी से दोस्ती जी का जंजाल..........ठीक है भाई दोस्ती की है तो निभानी भी पड़ेगी चलिये आदेश का पालन करने की कोशिश करते हैं।
अब जब चिट्ठा चर्चा लिखने बैठा हूँ तो चिट्ठे देखकर लग रहा है कि वाकई आज बहुत ही शानदार और पठनीय चिट्ठों की चर्चा का सौभाग्य मुझे मिला है। भारत के महान सपूत सरदार भगत सिंह का आज शहादत दिवस है और मैं उनको श्रद्धान्जली देता हूँ।
कल प्रकाशित हुए सारे चिट्ठों की पूरी सूचि आप यहाँ देख सकते हैं।
घुघुती बासुति ने मेरी पिछली चर्चा में मुझ पर दया कर कोई पोस्ट नहीं लिखी पर आज कह रही हैं ऐसा बार बार नहीं होगा। बासुती जी अपनी कविता में अपने बीती यादों के लिए कहती है
ये ही तो वे हैं जो ला डाल देती
गोद प्यारी नन्ही बिटिया को
ये ही तो लौटा लाती हैं फिर से
मेरे और उसके बीते बचपन को ।
सच है बासुति जी हम सब जब अपने बीते पलों को याद करते हैं तो कभी अधरों पर मुस्कान आ जाती है तो कभी पलकों पर आँखों में आँसू आ जाते हैं।
उनमुक्त जी आज बात कह रहे हैं लैंगिक न्याय की! साथ ही अलग अलग श्रेणी के लोगों के बारे में बता रहे हैं। उन्मुक्त जी अपने इस लेख को अपनी आवाज में सुना रहे हैं और इसे आप यहाँ सुन सकते हैं यह लगभग 7.09 Mb की ऑडियो फाईल है। अमित गुप्ता जी और रामचन्द्र जी के बाद उन्मुक्त जी; लगता है आने वाले दिनों में बहुत सारे चिट्ठाकार अपनी पोस्ट को पॉडकास्ट के रूप में सुनायेंगे। मुझे चिट्ठा पढ़ने की बजाय सुनना ज्यादा अच्छा लगा क्यों कि इस को सुनते हुए हम अपना दूसरा कार्य कर सकते हैं जब कि चिट्ठा पढ़ते समय हम अन्य काम नहीं कर सकते।
इन दिनों बहुत सारे नये चिट्ठाकार आये हैं और बहुत से विषयों पर लिख भी रहे हैं। ऐसे ही एक नये चिट्ठाकार है अनिल रघुराज! अनिल अपने बहुत सुन्दर लेख नोटों की नीति : जेब कटी हमारी, मौज हुई उनकी
में बता रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने निर्यात को सस्ता बनाने के लिये अप्रैल 2006 से जनवरी 2007 के बीच सिस्टम में 56,543 करोड़ रुपये बाजार में डाले और किस तरह उनसे लाभ होने की बजाय नुकसान हुआ। इस लेख को पढ़ कर बहुत कम टिप्प्णीयाँ लिखते अतुल अरोड़ा जी बहुत प्रसन्न हो गये। और कह बैठे इसे कहते हैं चिट्ठाकारी!
इस तरह रिजर्व बैंक ने नोटों की जो नीति अपनाई है, उसका हश्र ये है कि न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम। अमेरिका और यूरोप के ग्राहकों के लिए भारतीय माल को सस्ता रखने की कोशिश भारतीय ग्राहकों के लिए महंगाई का सबब बन गई है। हकीकत ये है कि आज भारतीय ग्राहक विदेशी ग्राहकों को सब्सिडाइज कर रहा है। अगर आज हमारी जेब कट रही है तो इस जेब से निकले नोटों का फायदा विदेशी ग्राहक को मिल रहा है। ये है हमारी सरकार और रिजर्व बैंक का भारत और भारतीयता प्रेम।
मैने कुछ बहुत पहले पढ़ा था कि किस तरह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की सरकार ने अनाप शनाप नोट छापे और मुद्रा का इतना अवमूल्यन हुआ कि जनता को मिट्टी का तेल या लकड़ी से खाना बनाने की बजाय नोट जला कर खाना बनाना ज्यादा सस्ता लगता था। एक अंडा और एक ब्रेड तक खरीदने के लिये करोड़ों रुपये अदा करने होते थे। खैर इसकी चर्चा फिर कभी करेंगे।
अनिल अपने दूसरे लेख में प्रसन्न होते हुए कह रहे हैं कि आह-हा! गाओ खुशी के गीत... अनिल इतने खुश क्यों है? आप जानना चाहेंगे? वे इसलिये खुश है कि देश में गरीब घट गए हैं। आबादी में उनका अनुपात घट गया है।
अगर मुंबई का कोई भिखारी दिन में 18 रुपए कमा लेता है तो वह गरीब नहीं है, उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे की आबादी में नहीं हो सकती। इस तरह मुंबई से लेकर दिल्ली और चेन्नई के सारे भिखारी तक अब गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं क्योंकि ये लोग दिन में कम से कम 20 रुपए तो कमा ही लेते हैं। गांवों में तो अब रोज 12 रुपए कमानेवाले भी गरीबों की राष्ट्रीय गिनती से गायब हो गए हैं।
मैं अनिल रघुराज को इतने सुन्दर लेखने के लिये बधाई देता हूँ।
नन्दीग्राम हत्याकांड पर ताऊ को लिखे पत्र पर मिली एक टिप्प्णी को धुरविरोधी अपने चिट्ठे पर बता रहे हैं , कि
यह वही सालिम ग्रुप है, जो इंडोनेशिया में 1965 कम्युनिस्टों के कत्लेआम के बाद अमेरिकी संरक्षण में फला-फूला. इसे भ्रष्ट सुहार्तो शासन ने विकसित होने में मदद की. अब सुदूर भारत में इसे एक ज़बरदस्त मददगार मिल गया है-बुद्धदेव भट्टाचार्य.
धुरविरोधी जी के इस पत्र पर और भी अच्छी टिप्पणीय़ाँ आई है।
बेजी जी आज कुछ अध्यातमिक मूड में है और अपनी कविता प्रयत्न में कह रही है कि
महसूस कर सको तो करो उस खुदा को...
साँस लेती हुई हर सदा को...
खामोश सी हर उस अदा को...
अहसास से जुड़ी भावना को...
रंगों को....रागों को....
कर सको तो करो समर्पण....
तन को...मन को....और रूह को...
अंदाज़ को...आवाज़ को....और अरमान को....
खुद को...खुदाई को....और अपने खुदा को....
तिर्यक विचारक आज भगत सिंह की शहादत दिवस पर देश की युवा पीढ़ी से बहुत चिंतित है और कह रहे हैं कि
...सोचिएगा कि आखिर 23 साल की अवस्था में भरपूर जवानी का बलिदान कोई कैसे कर सकता है...और हम क्या कर रहे हैं...एक सामूहिक आत्महत्या की तैयारी...बगैर किसी आततायी का सिर तक फोड़े हुए...कम से कम...
रचना जी भी आज कुछ चिंतित है कि अच्छा है मेरी समझ कमजोर है!! रचना अपनी इस कविता में पूछ रही है कि हम भारतीय क्या सार्थक बहस कर पाते हैं? और खुद के अलावा क्या किसी और की सुन पाते हैं? रचना जी माना कि हम भारतीय़ सार्थक बहस नहीं कर पाते पर मैं आपकी इन पंक्तियों से ज्यादा सहमत हूँ।
हर शख्स समझे, बस खुद ही होशियार है!
ज्ञानीयों के ज्ञान का हाय कैसा शोर है!!
तब क्या सार्थक बहस की कोई गुंजाईश शेष रह जाती है?
पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कोच बॉब वूल्मर की हत्या पर बिहारी बाबू अपनी चिरपरिचित शैली में स्व. बॉब से कह रहे हैं
ठीक है कि टीम को बढि़या परदरशन करना चाहिए, लेकिन हारने के बाद आपको एतना सेंटियाने किसने कहा था? ई भारतीय उपमहाद्वीप है, यहां सरवाइव करना है, तो काम से मतलब कम रखिए औरो पोलिटिक्स बेसी कीजिए। आपके जैसन लोग, जो यहां बेसी प्रोफेशनलिज्म दिखाते हैं, सबको ऊपर का ही रास्ता चुनना पड़ता है, फिर चाहे ऊ हमरा दफ्तर हो या परधानमंतरी कार्यालय। यहां काम खराब कर शरमाने औरो सिर छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती, बस गोटी बढि़या से फिट कीजिए, फिर देखिए आपको कोसने वाला शरमाकर खुदे छुप जाएगा।
काश बॉब, बिहारी बाबू की यह सलाह पहले ही मान लेते तो अपनी जान से हाथ ना धोते।
वार्षिक संगीतमाला लिखने से निवृत हुए मनीष अब लेकर आ रहे हैं फैज़ अहमद फैज़ की गज़लों और नज़्मों का सफर। मनीष इस सफर के पहले लेख में फ़ैज़ की जीवनी तथा उनकी कुछ गज़लों को पढ़वा रहे हैं। और लक्षमी नारायण जी बड़े दिनों के बाद आये हैं और आज एक मच्छर की व्यथा को अपने शब्द दे रहे हैं।
रैयाज़ उल हक अपने दो अलग अलग चिट्ठों पर एक साथ कई लेख प्रकाशित किये हैं। नन्दीग्राम लाल सलाम पर रैयाज ने नन्दीग्राम हत्या कांड के बाद के दृश्यों के अलग अलग वीडियो बताए हैं और अपने दूसरे चिट्ठे हाशिया पर सरदार भगत सिंह पर तीन लेख प्रकाशित किये हैं और एक लेख मे एक वीडियो दिखा कर दावा कर रहे हैं कि चांद पर मानव के जाने का अमरीका का दावा झूठा है। एल्लो इतना सफेद झूठ बोलकर अमरीका दुनियाँ को बेवकूफ बनाती रही और हमें पता ई नहीं चला!!!!
फ़िल्म दिखाती है कि क्यों चांद पर जा पाना तब संभव नहीं था और वह पूरा घटनाक्रम गढ़ा हुआ था. जो फ़िल्म हमें चांद की कह कर दिखायी गयी, वह दरअसल धरती पर ही की गयी रिकार्डिंग थी. फ़िल्म तीन वैग्यानिकों के शोध पर आधारित है.
चांद पर पहुँच मानव के पहुँच जाने के इतने वर्षों के बाद भी थोड़े थोड़े दिनों में स्वर उठता है कि यह सब झूठ है, यह बात ऐसी लगती है जैसे कई धार्मिक पुस्तकों में पृथ्वी का आकार गोल नहीं वरन चपटा दिखाया गया है और पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है आदि!! अगर प्रबुद्ध और पढ़े लिखे लोग भी इस बात को मानने में असमर्थ है तो आज तक की विज्ञान की तरक्की व्यर्थ गई।
चलो भाई आजकी मध्याहन चर्चा सागरजी ने निपटा दी.. :) थेंक्यु जी.
जवाब देंहटाएंचाँद वाली बात मजेदार है. दिवास्वप्न देखने वाले प्रत्यक्ष को समझ नहीं पाते.
पुनः एक बढ़िया चर्चा, सागर भाई!! बधाई!!
जवाब देंहटाएंबढ़िया बल्लेबाजी कर रहे हैं मध्यक्रम में सागर जी!
जवाब देंहटाएंहम चांद पर गये थे ! चांद पर नही जाने वाली अफवाह कोरी बकवास है।
जवाब देंहटाएंइसी विषय पर मुझे अंतरिक्ष मे मै जल्दी ही एक लेख लिखना पडे़गा !
bahut achchi aur santulit charcha ki hai aaapne sagar bhai, badhai
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सागर भाईसा.
जवाब देंहटाएंचर्चा शानदार रही. अब हर शुक्रवार को तैयार रहियेगा :)
बहुत खूब, कल चिट्ठे नहीं पढ़ पाया था आज की चर्चा से कसर निकल गई।
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