मै छांव छाव चल रहा था अपना बदन बचाकर, लेकिन जाने कैसे क्रिकेट बुखार ने जकड़ लिया, क्या मै बीमार हूँ? लेकिन कहाँ समझता है कोई, मैने कितनी ही बार सबको बताया कि:
मुझे लत पड़ गई है, टिप्पणी करने की/चिट्ठा लिखने की। लत भी ऐसी की हर समय एक विण्डो में अविराम नारदजी झाँकते रहते है. मानो मैने ठेका ले रखा है, चिट्ठो का नारद पर 'अपडेट' होते देखने का.मगर मुझे मेरा 'केस' गम्भीर लग रहा है. मोहल्ला पर हाय-तौबा के समय अपनी बीमारी का अहसास हुआ तो सजग हो गया. ध्यान दिया तो पाया की भविष्य में इसका अपने मानसिक संतुलन व व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों पर असर होना तय है.
मोहल्ले वालों और पचड़ों का शायद चोली-दामन का साथ है, अब लीजिए मोहल्ले वालों की फिर से ठन गयी है, नही इस बार किसी ब्लॉगर से नही, बल्कि इस बार अपने ही क्षेत्र के पत्रकार मित्र पंकज पराशर से, पूरा मामला जानने के लिए आपको मोहल्ले और पंकज पराशर के ख्वाब का दर मे जाना होगा। जल्दी ही पढ लीजिएगा, क्योंकि वैसे भी ये फ़ड्डा ज्यादा लम्बा नही खिंचने वाला। क्यों पंकज और अविनाश भाई, लम्बा खिचने के चांसेस हैं क्या?
इधर विनय भाई वैब पर हिन्दी के बढते कदमों का लेखा जोखा दे रहे है, उधर जीतू बता रहे है कि नारद भी क्रिकेट के रंग मे सराबोर है। रवि क्यों पीछे रहते है वो भी सभी के ब्लॉग पर क्रिकेट का स्कोरकार्ड लगवाकर ही छोड़ेंगे। बाजार वाले नन्दीग्राम मे मरने वालों के संख्या पर उठे बवाल के बारे मे लिख रहे है। अजदक ने भी अपने लेख मे लिखा है:
मुझे नहीं मालूम आनेवाले दिनों में सिंगुर और नंदीग्राम में विकास के एजेंटों से स्थानीय लोगों की लडाई का रुप और दिशा क्या होगी. लोग जान गंवा-गंवाकर डटे रहेंगे (नंदीग्राम में जनवरी में सात लोग मरे थे, अबकी यह संख्या और बढी है) या पुलिस की मदद से सीपीआईएम के गुंडे लोगों पर जबरिया सेजरुपी विकास की अपनी मर्जी मढ सकने में सफल होंगे.जो भी हो सिंगुर और नंदीग्राम के सबक देश के अन्य हिस्सों सेज़ के विकासी बुलडोजर का सामना कर रहे नागरिकों के काम आएंगे. फिलहाल हम और आप यही कामना कर सकते हैं कि लोगों की यह बेहया बलि व्यर्थ न जाए.उधर संजीत भी अपने लेख लाशों पर लाठीचार्ज में कहते है :
फ़्री हैंड किए जाने पर पुलिसिया बर्बरता की यह खबर नई नहीं हैं। पुलिस तो सरकारी आदेश का पालन कर रही थी लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में पुलिस अक्सर फ़्री-हैंड किए जाने पर इस कदर बर्बर क्यों हो जाती है…मानों इंसानियत से उसका कोई नाता नही, क्या यह पुलिस जवानों का फ़्रस्ट्रेशन होता है या उनके मन में चौबीस में से बीस घंटे वाली नौकरी के कारण भरा हुआ गुस्सा या खीझ होता है जो अक्सर ऐसे मौकों पर बिना किसी रोक-टोक के बेधड़क निकलता है।कुएं की उपेक्षा पर ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का लेख देखिए इँदारा कब उपेक्षित हो गया , वे लिखते है:
बचपन में गांव का इँदारा (कुआँ) जीवन का केन्द्र होता था. खुरखुन्दे (असली नाम मातादीन) कँहार जब पानी निकालता था तब गडारी पर नीचे-ऊपर आती-जाती रस्सी(लजुरी) संगीत पैदा करती थी. धारी दार नेकर भर पहने उसका गबरू शरीर अब भी मुझे याद है. पता नहीं उसने इँदारे से पानी निकालना कब बंद किया.गाँव जाने का अब मन ही नहीं करता. जिस गाँव के साथ यादें जुडी़ हैं, वह गाँव तो है ही नहीं. खुरखुन्दे अब बुढा़पे की दहलीज पर है. एक शादी के मौके पर मिला था. अब वह एक ठेली चलाता है. लोगों का सामान ढोता है. पालकी का चलन तो उसके बचपन में ही खतम हो गया था. उसके पिता पालकी ले चलते रहे होंगे. वह ठेली ले कर चलता है. यह काम तो पुश्तैनी सा है, पर पानी खींचना बन्द हो गया. इँदारा जो मर गया।
पिछले साल इसी हफ़्ते के लेख यहाँ रहे।
आज की मेरी पसन्द की कविताएं, पहली है काफी हाउस से
कटी हुई पतंगदूसरी कविता है मान्या के ब्लॉग से
वक़्त की हवाओं में फड़फड़ाती रही
उससे
टूटी हुई डोर
उलझती गई भावनाओं के खंडहर मे
आज का चित्र छायाचित्रकार सेमैंशामिल
समझता हूं तुम्हें....
हूं तुम में हमेशा..
हरपर
बार कहता रहा वो...
जब भी खामोशियों
को...
सुननेधङकन भी
का वक्त आया....
कहां सुन सका
कोई....
अच्छा जी, जो ब्लॉग छूट गये है आशा है अगली बार उनपर नज़र विशेष नज़र रहेगी। भूल-चूक लेनी देनी। मिलते है फिर अगले गुरुवार।
shukriya Jitu ji ki aapko meri kawita pasand aayi.. charcha to aap achchhi karte hi hain.. chaliye ab aapko kawitayen pasand bhi anae lagi.. :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया हैं मगर कहीं जीतू भाई की स्टाईल मिसिंग है-कहीं जल्दी में निकलना था क्या??
जवाब देंहटाएं"आज की मेरी पसन्द की कविताए"
जवाब देंहटाएंजीतू भाई भी कविताएं पढ़ने लगे। :०