अफ़लातून नंदीग्राम की घटना की विवेचना करते हुये लिखते हैं, "जो कम्युनिस्ट कल तक हर मामले में कारण-अकारण टाटा-बिड़ला को गाली देते थे, उन्हीं की सरकार आज टाटा के साथ गले में हाथ डालकर खड़ी है और किसानों-मजदूरों-बटाईदारों पर लाठी-गोली चला रही है।" चौपटस्वामी का आकलन है कि इसी लिए चाह कर भी जागृत और सचेतन बंगाल बुद्धदेव भट्टाचार्य को नरेंद्र मोदी होने नहीं देगा।
ब्लॉगजगत में नये हस्ताक्षरों में रवीश सबसे ज्यादा आकर्षित करते हैं। हर बार चर्चा के समय सोचता हूँ कि पेशेवर लेखकों को कम फुटेज देना चाहिये, जी ये मेरा एक पूर्वाग्रह है। पर रवीश के लेखन में कोई कैमोफ्लॉज नहीं है। मेरे ख्याल से वो स्वयं भी यह जानते हैं, अपना मन उढ़ेल कर रख देते हैं, कई बार पाठकों का मन नम करने के लिये। मीरा नायर की नई फ़िल्म नेमसेक के बारे में लिखा, समीक्षा नहीं वरन फिल्म की तर्ज़ पर। अपनी जड़ों से ये लगाव मेलोड्रामाटिक लगता है, बकौल रवीश "यह कोई साहित्यिक नोस्ताल्ज़िया नहीं है"। सचाई भी यह है कि कंक्रीट के जंगलों में गुम हम में से उन सब को ये दर्द सालता रहता है जो ऐसी जगहों से आये हैं जो महानगरों में एलएस कहलायेंगी, जंगल जहाँ पर बच्चे सुराही और गौरैया नहीं पहचानते, अमरूद के पत्तों का स्वाद नहीं जानते और न जानते हैं बेशरम की सूखी डंडी से साईकिल का टायर चलाना। सागर ने गुलज़ार की पंक्तियाँ क्या खुब उद्धत कीं
लवें बुझा दी है अपने चेहरों की, हसरतों नेभारत के चुकंदर बनने से ख़ुमार कुछ उतरा होगा, मैं तो छटवां विकेट गिरने पर ही टीवी बंद कर बैठा था। यह खेल इंडिया का नया धर्म है, विज्ञापनदाताओं ने ये धर्मावतरण करवाया है। हम क्रिकेट फैनाटिक बन बैठे हैं। खीज ऐसी कि बीसीसीआई तक को भंग करवा दें। अब फिर किसी के घर को तोड़ेंगे और किसी की तस्वीर पर जूतों का हार चढ़ायेंगे। पर विज्ञापन चलते रहेंगे। सट्टेबाजों से लेकर प्रसारकों की तिजोरियों भर रही हैं। पैसे की ही बिसात पर बॉब वुल्मर जान दे बैठे। प्रमोद चैपल को मशवरा देते हैं, "हुज़ूर, होटल के कमरे में अकेले मत सोइयेगा, और सोना ही पड़े तो तकिये के नीचे एक पिस्तौल रखकर सोइयेगा"। रवीश को कहना पड़ा कि "कृपया क्रिकेट को धर्म या राष्ट्र मत बनाइये। इन दो रास्तों से सिर्फ धोखाधड़ी करने वाले घुसते हैं। जो ईमानदार हैं वो सीमा पर पहरा दे रहे हैं।"
कि शौक पहचानता ही नहीं है।
मुरादें दहलीज ही पे सर रख कर मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने ही घर में भी अजनबी हो गया हूँ आकर।
कमल शर्मा रियेल्टी के निवेशकों को चेतावनी दे रहे हैं। लिखते हैं, "निवेश गुरु जिम रोजर्स का कहना है कि रियॉलिटी में काफी सट्टेबाजी हो चुकी है और सारी खरीद तो सट्टात्मक थी। यानी सच्चाई से दूर।" हमने निरंतर में काफी पहले ही इस बुलबुले के बारे में लिखा थाबायिंग फ्रेंज़ी के शिकार सुनें तब ना। सेठ होशंगाबादी ने अपनी कंटीजेंसी योजना का खुलासा किया,
मंदी की आशंका से सहमकर मैंने तो योजना बना ली है। बचत तो कुछ नहीं है, बस पीएफ का पैसा थोड़ा बहुत। सेठगिरी छोड़कर, बस दो भैंस व दो बकरी खरीदूंगा, शायद मंदी काट लूं।भगत सिंह की जन्म शताब्दि पर तिर्यक विचारक लिखते हैं, "मुझे नहीं पता कि 23 मार्च को भारत के शहरी युवा क्या कर रहे होंगे...सोचता हूं इस बार पता करूं कि भगत सिंह को याद रखने वाले हमारे देश में कितने मुक्तिकामी नौजवान बचे हैं"। अनिल का मत है कि क्रांति कोई अचानक हुआ विस्फोट नहीं है। वह तो एक सतत प्रक्रिया है।
भारत की हर समस्या के नेपथ्य में जिस नाईं विदेश मंत्रालय इस्लामाबाद को देखता है वैसे ही लोकमंच विश्व के हर त्रास के पीछे इस्लामवाद को। अब डॉ. डैनियल पाइप्स को खींच लाये है खेमे में, जो लाख कुरेदने पर भी बोल पड़
"दीर्घकालावधि में समय-समय पर आतंकवाद इससे सम्बद्ध रहा है...परन्तु ऐतिहासिक रूप से आतंकवाद इस्लाम के साथ सम्बद्ध नहीं रहा है।"और चलते चलतेः चिट्ठों की और खासकर अच्छे चिट्ठों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और मेरे ख्याल से चर्चा मंडळी मानेगी की काम काफी कठिन होता जा रहा है। निश्चित ही हमें और हाथों की दरकार है। यदि आप में से कोई चर्चादल में शामिल होना चाहता है तो टिप्पणी द्वारा संपर्क करें।
कहीं और किसी और संदर्भ में कहा था...
जवाब देंहटाएं.... (मैं तो नारद को अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने का विचार प्रस्तुत करने वाला था....चलो कोई नहीं)
अब फिर से वालन्टियर कर रहे हैं। जब जरूरत हो कह देखिएगा
बढ़िया चर्चा, देबु भाई. सही कह रहे हैं, वक्त आ गया है जब और अधिक लोग चिट्ठा चर्चा से जुड़ें और दिन में दो-या- तीन बार चर्चा हो!!
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