हरिशंकर परसाई
कल परसाई जी की पुण्यतिथि थी। बालकिशन जी ने परसाई जी की रचना प्रेमचन्द के फ़टे जूते पेश की:
यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहिने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है.फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहिन लेते या न खिंचाते. फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम 'अच्छा चल भई' कहकर बैठ गए होगे. मगर यह कितनी बड़ी 'ट्रेजडी' है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
प्रत्यक्षा के ब्लाग पर अनूप भार्गव का संदेश है-तुम्हारे ब्लौग पर चुप्पी अच्छी नहीं लगती । ठीक तो हो ?
उनकी चुप्पी अचकचाकर टूटती है और चाय के ग्लास के रिम पर मामला निपटता है:
अकेलेपन का स्वाद भीगा सा है, चाय के ग्लास के रिम पर
ठिठकता है मुड़ता है बैठता है, दो पल फिर उदास भारी साँस लिये
कँधे सिकोड़े उठ बैठता है, निकोटीन से पीली पड़ी उँगलियों को
फूँकता है बारी बारी से, सरियाता है ऐशट्रे में
दो सिगरेट की टोंटियाँ आमने सामने, जैसे दो लोग बैठे करते हों बात
शीशे पर चोंच ठोकती चिड़िया मुस्कुराती है उसके बचकाने खेल पर
फड़फड़ा कर सुखाती है पँख
उलटे लटके छाते से गिरता है अनवरत पानी
फिर एक बून्द और एक !
अजित वडनेरकर रागिनीजी से परिचय करवा रहे हैं और सुनवा रहे हैं राधिका की विचित्र वीणा जिस पर उन्होंने बजाया है राग किरवानी ।
आर.अनुराधा ने कैंसर को पटखनी दी है। वे अपने अनुभव अपनी किताब इंद्रधनुष के आर-पार में बता चुकी हैं। कैंसर से लड़ाई के सबक के बहाने अनुभव बांटते हुये वे लिखती हैं:
इलाज के उस 11 महीने लंबे दौर ने मुझे सिखाया कि खुद को पूरी तरह जानना, समझना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना जीने का पहला कदम है। अगर मैं अपने शरीर से परिचित होती, उसमें आ रहे बदलावों को पहले से देख-समझ पाती तो शायद बेहद शुरुआती दौर में ही बीमारी की पहचान हो सकती थी। और तब इलाज इतना लंबा, तकलीफदेह और खर्चीला नहीं होता।
विजय गौड़ ब्रेख्त की कविता का अनुवाद पेश करते हैं बजरिये महेन:
मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
डाईवर पहिया बदल रहा है
कोई उत्साह नहीं मुझे कहाँ से आया हूँ मैं
कोई उत्साह नहीं कहाँ जाना है मुझे
क्यों देखता हूँ मैं पहिये का बदलना
इतनी उत्सुकता से?
पुण्य प्रसून बाजपेयी राहुल गांधी के कलावती प्रेम के किस्से सुना रहे हैं। गांव की त्रासदी बता रहे हैं। एक सवाल यह भी है कि कलावती का गांव तब ही क्यों चर्चा में आया जब वहां राहुल गांधी गये। पहले भी वहां गड्डे थे वे क्यों नहीं दिखे?
युनुस ने सागर खैयामी की आवाज में उनकी बेहतरीन रचानये पेश की। सुनिये। पढ़्ते भी चलिये:
ये इश्क़ नहीं मुश्किल बस इतना समझ लीजिये
कब आग का दरिया है कब डूब कर जाना है ।
मायूस ना हो आशिक़ मिल जायेगी माशूक़ा
बस इतनी सी ज़ेहमत है मोबाइल उठाना है ।।
तमाम प्रयासों के बावजूद मित्र लोग करुणाकर को बचा न पाये। उनको हमारी श्रद्धांजलि।
कुछ एक लाइना
ये अच्छी औरते नहीं हैं : वही तो हम भी कहना चाह रहे थे।
प्रेमचंद के फ़टे जूते : कौन सिलेगा यार!
हमारे भरोसे मत रहिए... : कुछ खुद भी तो गड़बड़ करिये।
छत पर मैं हूं और चांद :मुआ धनिया खरीदने निकल गया।
कलावती के गांव में जिन्दगी सस्ती है, राहुल गांधी के पोस्टर से : अपने-अपने भाव हैं जी!
कोई उम्मीद बर नजर नहीं आती: ऐसा कैसे जी? उम्मीद पे तो दुनिया टिकी है। देखो ध्यान से वहीं कहीं होगी-दिख जायेगी।
सभी ब्लोग्गेर्स से मुझे अपनी जान का ख़तरा है : अपनी जान को किसी ब्लाग पर टिप्पणी के साथ नत्थी कर दो। बची रहेगी।
कोहनूर 90 साल तक ग्वालियर के तोमरवंशी राजाओं के पास था : संभाल के रखे नहीं निकल गया हाथ से।
लाल तेल में काला मसूर: खोजो तो जाने।
हमे है इंतजार उनका.... : समय बरबाद करने को कुछ तो चाहिये जी।
हां, सेल्समैन बन गया है मीडिया: बेच रहा है, बिक रहा है।
बंद लिफाफे में राजनीतिक वारिश... : लेकिन लिफ़ाफ़ा विद्रर्भ के खेत सा सूखा।
भोक्वाये ब्लागर कृप्या ध्यान दें ..... : वर्ना वे ध्यान से उतर जायेंगे।
भारत पर हार का खतरा: तो क्या हुआ एक बार और हार लेंगे-खतरा तो मिट जायेगा।
गीता और सुंदरकांड की नाट्य प्रस्तुति करना चाहते हैं राणा: तो करें न कौनौ रोके है?
बेतुकीः गोल्ड मैडल तो हमई जीत लाते : भेजो तो सही-सोना सस्ता भी हो गया है।
ईमानदार भारतीय पुलिस : खोजते रह जाओगे।
हुश्न की तारीफ़ भी गुनाह तो नहीं: अगर सलीके से की जाये।
फ़िलहाल इत्ता ही। बकिया फ़िर कभी।
मेरी पसन्द
आवाज कहां से कहां गई
जीवन भर भटकी वहां गई
अभिशापों के घर खुले मिले
आगे बढ़-बढ़ गले मिले
ठोकर खाने को व्याकुल थी
सोचा न कभी क्यों कहां गई
स्वर के पीछे स्वर लगे रहे
चेतन सोया भ्रम जगे रहे
नादान भिखारिन आस लिए
जाने किस-किस के यहां गई
अनुभव ने बांची यही कथा
संबंधों की विच्छेद प्रथा
धरती, सागर, नभ, अगन, पवन
कोई बतला दे कहां गई
स्व. विष्णु खन्ना
आज की तस्वीर नितिश राज की पोस्ट से
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इतजार
इतजार
यह तस्वीर तो बहुत ही खूबसूरत है. किसने खींची है, उसका भी जिक्र हो जाए तो -----
जवाब देंहटाएंलालूजी का चुनाव प्रचार कर रहे हैं अपनी वैबसाइट पर, कुछ सैटिंग हुआ लगता है। लालटेन में साफ दिखायी दे रहा है।
जवाब देंहटाएंभारत पर हार का खतरा: तो क्या हुआ एक बार और हार लेंगे-खतरा तो मिट जायेगा।
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह मज़ा आ गया ये पढ़कर तो..
शानदार चयन...जारी रहें
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं श्री अऩूप शुक्ल के लिए ...
achhi tasweer.bijli aur pani ka sankat ek sath.badhiya hai
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंये अच्छी औरते नहीं हैं : वही तो हम भी कहना चाह रहे थे।
जवाब देंहटाएंthank you very much is baat ko phir repeat karney kae liyae
पसंद बड़ी बढ़िया है
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजमाये रहिये जी. (आलोक जी से साभार)
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं श्री शुक्ल के लिए (अजित भाई से साभार)
लाइने हमेशा की तरह खूब है ,प्रतयक्षा जी की चुप्पी हमें भी अखरती है......बाकी प्रेमचंद जी के जूते अचानक याद आ गये हमारे बल किशन साहेब को ?क्या कोई सेल चल रही है कही ?
जवाब देंहटाएंये अच्छी औरते नहीं हैं : वही तो हम भी कहना चाह रहे थे।
जवाब देंहटाएंहम समझे नहीं । ये आप कहना चाह रहे थे
आज फिर बेहतरीन चर्चा. चित्र बहुत सुन्दर लगा. नियमित चर्चा करते रहें, बहुत अच्छा लगता है. आपको साधुवाद.
जवाब देंहटाएंये अच्छी औरते नहीं हैं : वही तो हम भी कहना चाह रहे थे।
जवाब देंहटाएंहम समझे नहीं । जो औरतें अच्छी नहीं हैं उन्होंने किसी से कब जानना चाहा था वे कैसी हैं। आप केवल चाह रहे थे कि कह भी बैठे...कुद तो मामला साफ किया जाए।
फिर अच्छी पोस्ट और बढ़िया पढ़ने को मिला। और आपको मेरे ब्लॉग पर प्रस्तुत तस्वीर पसंद आई अच्छा लगा। पर आलोक भाई को तो इसमें भी राजनीति नजर आगई, अरे भई ऐसे तो साभार वाली जगह पर भी टिपिया दिए होते। देखिए तो साहित्य को राजनीति से प्रेरित बता रहे हैं। बढ़िया है...।
जवाब देंहटाएंवाह वाह
जवाब देंहटाएंजमाये रहिये जी.
आनंद आगया.
बाकी जो कुछ बचा है वो भी जल्दी आने वाला है?