देश में स्थितियाँ निरंतर घातक बनी हुई हैं। पिछले ४-५ दिन का चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी का आँकड़ा देखें तो सर्वाधिक प्रविष्टियाँ राष्ट्रीय विपदा की इस घड़ी के चहुँ ओर घूमती दिखाई देती हैं। हम आपादमस्तक लज्जा में गड़ने के खुलासों की परतें चीन्ह रहे हैं। प्रेस की भूमिका तो संदिग्ध है ही ( वैसे भी लगभग सारा दृश्य व मुद्रित मीडिया विदेशी स्वामित्व का है); ऐसे में उस की वरीयता और रुचि उस सारे प्रक्षेपण में किसी राष्ट्रीय संकट से उबारने से अधिक अपने अबाध प्रसारण से चिपकों को बाँधे रखने में रही ; वरना अनेकानेक अनुत्तरदायी अवसर हमारे घरों में यों न घटित होते दीखते।
“टीआरपी के भूखे एक और गिद्ध” ने आतंकवादियों के इंटरव्यू भी प्रसारित कर दिये, ठीक वैसे ही जैसे सुबह तीन बजे अमिताभ के मन्दिर जाने की खबर को वह “ब्रेकिंग न्यूज” बताता है…
यह सही है कि इनमें कार्यरत कई पत्रकार अपने राष्ट्रीय सरोकारों में किसी से उन्नीस नहीं होंगे किंतु वहाँ डटे रह कर प्रसारण करना व इमरान बाबरी आतंकवादी का सीधा भाषण प्रसारित करना तो भयानक भूल है, कम से कम किसी कूटनीतिज्ञ को ही बातचीत के लिए उस समय नियुक्त कर दिया जाता। जिस प्रकार की भड़काऊ बातें वह कर रहा था उन ने कितनी हानि की है इसका अनुमान आने वाली पीढियाँ लगा सकेंगी।
भारत को रक्षात्मक होने की अपेक्षा आक्रामक होने व तुरत आक्रमण कर देने जैसी बातें भी हिन्दी ब्लॉग जगत पर उठीं।
मेरा तो दृढ मत है कि अब तक भारतीय वायुसेना को यह आर्डर मिल जाने चाहिए थे कि वह पाक अधिकृत आतंकी ठिकानों पर बेलौस पूरी शक्ति के साथ आक्रमण कर दे -पर हमारा नेतृत्व फिर नपुंसकता ,क्लैव्यता की राह पकड़ रहा है -हमारे ऊपर आक्रमण हुए कई दिन बीत रहे -आखिर इन सत्ता भोगियों को स्पष्ट राजनीतिक निर्णय लेने में क्या अड़चन आ रही है?इस आक्रमण का आकलन करने के साथ-साथ भारत की भावी नीति की व करणीय-अकरणीय की मीमांसा भी वैचारिकों ने की
यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आतंकवाद एक ऐसी परिघटना है जिससे बचा नहीं जा सकता, उसके खिलाफ चाहे जितनी तैयारी कर लो। पहले तैयारी करके तो दिखाइए। इस बात की पूरी संभावना है कि प्रारंभिक सफलता के बाद यह सुरक्षा तंत्र धीरे-धीरे आलसी और निष्क्रिय हो जाए, जैसा इमरजेंसी के आखिरी दिनों में देखा गया था। अगर भारत को अपनी हिफाजत और इज्जत प्यारी है, तो कम से कम अगले दस वर्षों तक आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर एक जैसी चुस्ती दिखानी होगी। सतत निगरानी के बिना स्वाधीनता को बचाया नहीं जा सकता। मुंबई ने साबित कर दिया है कि छिटपुट आतंकवादी घटनाएँ अब खंड युद्ध का रूप ले चुकी हैं। यह एक तरह की गुरिल्ला लड़ाई थी। भविष्य में यह पैटर्न और बड़े पैमाने पर अपनाया जा सकता है। इसलिए हमारे पास इंतजार करने के लिए थोड़ा भी वक्त नहीं है।इसी क्रम में जो खुलासे निरंतर हो रहे हैं (साजन कपूर ने तीसरे दिन बाहर आकर जो कुछ कहा उसे मुद्दा क्यों नहीं बनाया जा रहा?) उन का विवरण कोई चौंकाने वाला नहीं है ( भारत के सन्दर्भ में); यहाँ हम लोग इतने पतित हो चुके हैं कि वस्तुत: यहाँ आक्रमण एक एक व्यक्ति की अकर्मण्यता व स्वार्थ संलिप्तता का प्रमाण है.
सवाल ये उठता है कि अबू आज़मी किस हैसियत से साउदी अफसर को छुडाने ताज होटल पहुँचे थे?और अगर वे वहाँ पहुँचे भी तो उन्हे और उनके मैनेजर और समर्थकोँ को वहाँ कैसे जाने दिया गया?आखिर साउदी अफसर का अबू आज़मी से रिश्ता कया है?साउदी दूतावास के लोगो ने भारत सरकार को छोड अबू आज़मी से ताज मे फँसे अपने अफसर को छुडाने के लिये कयोँ सँपर्क किया
मध्य रात्रि में CNBC आवाज़ पर प्रत्यक्ष जो कुछ दिखाया गया उसे जान कर इसी की पुष्टि होती है कि हमारा तंत्र नकारा है क्योंकि हम नकारा हैं, तंत्र में बैठे लोग कहीं बाहर से लाकर प्रत्यारोपित किए गए नहीं हैं, वे भी हमीं हैं। और क्या मन्त्रीपद पर बैठे अपराधी लोगों से आप देश की सुरक्षा की आशा निरर्थक नहीं कर रहे हैं? राजनीति के हीरो, फ़िल्म के हीरो, क्रिकेट के हीरो, नाचगाने के कार्यक्रमों में जिन पर आप पैसा लुटाते हैं वे छुटभैये हीरो, हँसी के नाम पर फूहड़ता दिखलाने वाले तथाकथित नायक- नायिकाएँ जिन पर देश का एक एक व्यक्ति अपना तन,मन धन लुटाने में लगा हुआ था सालों से, वे सब के सब कहाँ हैं? किसने आपके प्राण बचाए? क्या धनपशुओं ने? या एकता कपूर ने? या कोमेडी सर्कस में पाकिस्तान से आकर कला के नाम पर बरसों से यहीं जमे हुए कुछ नौटंकियों ने? कला के आस्वादन का अधिकार भी है क्या हमें? प्रश्न बहुत से हैं। उत्तर नेताओं या मंत्रियों से नहीं हमें अपने आप से पूछना है।
अपना आप टटोल कर तो देखें कितनी आत्मानुशासित हैं हम? कितने मध्यमार्गी हैं हम, जब ज़रा से आर्थिक लाभ के लिए किसी भी नीचता पर उतर सकते हैं। CNBC ने कल अपने अभियान में समुद्री मार्ग की परख के लिए २ डिब्बे (मानो RDX) ऐसे पार करवाए हैं कि हमारे समुद्री पहरुओं को कानों कान हवा भी नहीं लगी। मछुआरों ने १००० रु. लेकर सारा सामान सुरक्षित तट पर पहुँचा दिया। जिस स्थान पर १३ वर्ष पूर्व दाऊद ने `सामान' उतरवाया था वहीं का प्रयोग जाँच के लिए टीम ने किया. कहीं किसी ने नहीं रोका। आज आप विस्तार से उसे स्वयं देख सकते हैं। तो यह स्थिति आक्रमण के २ दिन बाद की है। देश को यदि सुधारना चाहते हैं तो केवल एक मार्ग है, वह है आत्मानुशासन व भ्रष्ट आचरण के पूर्ण त्याग का, स्वार्थ व लाभ का लोभ तजने का, ईमानदार होने का; वरना ये सब दूध में आए हुए उबाल हैं, थोड़े दिन में स्वयं बैठ जाएँगे।
अपना आप टटोल कर तो देखें कितनी आत्मानुशासित हैं हम? कितने मध्यमार्गी हैं हम, जब ज़रा से आर्थिक लाभ के लिए किसी भी नीचता पर उतर सकते हैं। CNBC ने कल अपने अभियान में समुद्री मार्ग की परख के लिए २ डिब्बे (मानो RDX) ऐसे पार करवाए हैं कि हमारे समुद्री पहरुओं को कानों कान हवा भी नहीं लगी। मछुआरों ने १००० रु. लेकर सारा सामान सुरक्षित तट पर पहुँचा दिया। जिस स्थान पर १३ वर्ष पूर्व दाऊद ने `सामान' उतरवाया था वहीं का प्रयोग जाँच के लिए टीम ने किया. कहीं किसी ने नहीं रोका। आज आप विस्तार से उसे स्वयं देख सकते हैं। तो यह स्थिति आक्रमण के २ दिन बाद की है। देश को यदि सुधारना चाहते हैं तो केवल एक मार्ग है, वह है आत्मानुशासन व भ्रष्ट आचरण के पूर्ण त्याग का, स्वार्थ व लाभ का लोभ तजने का, ईमानदार होने का; वरना ये सब दूध में आए हुए उबाल हैं, थोड़े दिन में स्वयं बैठ जाएँगे।
वरना तो हमारी रग रग में नफ़ा नुक्सान समाया है -
आर आर पाटिल, गृहमंत्री हैं. महाराष्ट्र जैसे राज्य के. भारत में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले को "बड़े शहरों में इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएं होती रहती हैं" बता गए. कह रहे थे कि आतंकवादी तो पॉँच हज़ार लोगों को मारने आए थे. हमारी कोशिश की वजह से केवल दो सौ लोग मारे गए. अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप. दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं?यही प्रश्न यहाँ भी उठाया गया है। ब्लोगरों से अपील भी की गयी कि वे
दूसरी ओर ऐसे भी सोचते लोग मिलेअपनी कलम को हथियार बना
शब्दों में बारूद भरे
सोया समाज राख समान
उसमे कुछ आग लगे
बहुत दिनों से मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर ये एनकाउंटर स्पेशलिस्ट क्या बला है।यहाँ पुलिस के बन्दूक उठाने पर प्रश्न उठा तो इस जीवित पकड़े गए आतंकवादी का बन्दूक उठाए चित्र भी मेल से संसार भर में जारी हो गया
क्या ये वाकई कोई पद है जिसका आधिकारिक रूप से सृजन किया गया है या फ़िर ये मीडिया प्रदत्त उपाधि है ।मैं जानना चाहता हूँ कि कोई एनकाउंटर का स्पेशलिस्ट कैसे हो सकता है? कैसे कोई लोगों को मारने का स्पेशलिस्ट हो सकता है। ये स्पेशलिस्ट लोगों को मारता कैसे है घातलगाकर या आमने सामने कि लड़ाई में या पकड़ कर मुहँ में पिस्टल ठूंस कर...........................
His swaggering image as he walked around Chhatrapati Shivaji terminus was captured by Mumbai Mirror photo editor Sebastian D’Souza, and was the first glimpse of the terrorists who have held Mumbai hostage over the last 48 hours.इसी के साथी आतंकवादियों पर लिखते हुए अपने को धिक्कारा भी गया
पर हमने तो ये कसम खा रखी है कि हम नहीं सुधरेंगे। इस ग़द्दार क़ौम के साथ एकता और सद्भाव फैलाएँगे। और जैसा चल रहा है वैसा चलता रहेगा। फिर कल आतंकवादी हमला होगा फिर कुछ निर्दोष हिन्दू मारे जाएँगे, फिर से राष्ट्र के नाम प्रधानमन्त्री का मरियल सन्देश आएगा, फिर से शहीदों की याद में कुछ मोमबत्तियाँ जलेंगी और हम एक बार फिर एक नए हमले का इंतज़ार करने लगेंगे। सच्चा मुसलमान (अर्थात् धोखेबाज़ नागरिक) भी घड़ियाली आँसू बहाकर कर फिर ऐसे ही नए कुकृत्य के लिए असला जमा करने लग जाएगा। फिर से हमला होगा और इसी घटनाक्रम की पुनरावृति होती रहेगी।हाल यहाँ भी वही है कि सवाल लाशों पर है
चैनल सर्फिंग के दौरान रिमोट का बटन हाथ से दब गया। और फिर रात के दस बजे से ढ़ाई बजे तक टीवी के पर्दे सड़क पर गिरती लाशों के मंज़र को देखता रहा। बहुत सी तसवीरें बिल्कुल दिल से नहीं निकाल पा रहा, कार्यालय यंत्रवत जा रहा हूँ पर ज़ेहन में वही बातें उमड़ घुमड़ रही हैं। कुछ प्रश्न हैं जिन्हें हर व्यक्ति पूछ रहा है, ये जानते हुए भी कि उसके प्रश्न का ईमानदारी से जवाब देने वाला यहाँ कोई नहीं...देश के हतभाग्य पर मौन रहते-रहते, शिवराज के जाने वाले प्रकरण पर मौन रखने का व्यंग्य भी दुर्दशा का ही बयान है। ऐसा ही एक और सटायर भी अभी पढा- जाना कि देश के लिए कुछ करने के नाम पर चलो दौड़ कर आएँ
भारत में जो हताशा और मायूसी का माहौल मुम्बई की दुखद घटनाओं के कारण चल रहा है; उसे सुधारने की यह ईमानदार और सार्थक पहल कही जायेगी। लोगों का ध्यान आतंक, खून, विस्फोट, परस्पर दोषारोपण और देश की साझा विरासत पर संदेह से हटा कर रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ने के लिये एक महत्वपूर्ण धर्मनिरपेक्ष कोर ग्रुप (इफभैफ्ट - IFBHAFT - Intellectuals for Bringing Harmony and Fighting Terror) ने यह निर्णय किये। यह ग्रुप आज दोपहर तक टीवी प्रसारण में अपनी रणनीति स्पष्ट करेगा। इस कोर ग्रुप के अनुसार उसे व्यापक जन समर्थन के ई-मेल मिल रहे हैं।इसी तरह देश के हालात पर हुई एक चर्चा का लाईव टेक्स्ट भी देखिए कि आम आदमी क्या सोचता है
(इस चर्चा में भले ही अश्लील शब्दों का कहीं-कहीं जिक्र आया है, लेकिन इस चर्चा की पकड को समझने के लिये शायद यह जरूरी भी है कि ऐसे शब्दों को जस का तस कुछ ढके छिपे तौर पर सामने रखूँ। उम्मीद है, आप लोग इस चर्चा को सहज ढंग से देखेंगे। )यहाँ भी आतंकवाद की राजनीति से राजनैतिक आतंकवाद को पढा जा सकता है
राष्ट्रीय क्षति की एक अन्य चर्चा यहाँ भी हुई।
चिट्ठे और विषयों पर भी खूब लिखे गए, लोग उबर रहे हैं उबर गए हैं परन्तु ......असल में मन है कि देश के वर्तमान से इधर उधर किसी बात पर टिक ही नहीं रहा है, सारे मसले बेमानी हो गए हैं मानो। अपनों के सिधार जाने की घड़ी में जैसे आँसू नहीं थमते वही स्थिति है, पाँच दिन से। बार बार उन्नीकृष्णन की माँ का बिम्ब राष्ट्रमाता विद्यावती के चेहरे में एकाकार होता दिखाई देता है।
रसान्तर न करने की इच्छा के चलते ही दूसरे विषयों को अभी उठाना नहीं चाहती थी, परन्तु शास्त्री जी की टिप्पणी मेरी गत चर्चा से ही नदारद है तो उनका अता-पता खोजते ( कहीं उल्लेख न होने की नाराजगी तो नहीं ?) पता चला कि वे भारत के इतिहास का एक पन्ना पलट रहे थे -
यह था हमार प्यारा हिन्दुस्तान 1950 के अंत एवं 1960 के आरंभ में.देश की आंतरिक सुरक्षा के सूत्र भी पठनीय हैं।
समीर जी की उड़नतश्तरी भी जबलपुर लैंड हो चुकी लगती है (पिकनिक आदि मना कर) तभी उन्होंने आज वहाँ के राहुकेतु की पत्री बाँची है
सिक्किम यात्रा की अगली कड़ी यहाँ पढ़ें
हिन्दी की लघुपत्रकारिता पर आए संकट की चर्चा और प्रिंट मीडिया वर्सेज़ ऑनलाइन प्रकाशन पर विचार किया गया।
पठनीय
मैं सही सलामत हूँ
मैं इसलिए बचा हूँ
क्योंकि मैं घर में बैठा हूँ.....
यदि मैं भी वहाँ होता गेटवे या ताज पर तो
आप सब मेरा शोक मना रहे होते।
मैं इसलिए बचा हूँ क्योंकि मैं
वहाँ नरीमन हाउस में नहीं था
ओबरॉय में नहीं था जहाँ गोलियाँ चल रही थीं....
जहाँ मौत का महौल था।
मैं सच में केवल इसलिए बचा हूँ क्योंकि
मैं बच-बच कर रह रहा हूँ
मैं बच-बच कर जीने का अभ्यासी हो गया हूँ
जब से पैदा हुआ यही सिखाया गया
सब यही कहते पाए गए हैं कि बच के रहना
उधर नहीं जाना, उससे नहीं लड़ना
घर में रहना
सावधान रहना
अपना ध्यान रखना....
और मैं
घर में हूँ
अपना ध्यान रख रहा हूँ
किसी से नहीं लड़ रहा हूँ
बच कर रह रहा हूँ
इसीलिए अब तक
बचा हूँ।
यह चर्चा भी मुंबई हमले की प्रतिक्रियाओं पर केंद्रित हो गई। जब कि इसे चिट्ठा केन्द्रित होना था। मैं समझ सकता हूँ कि लोग शीघ्र इस के सदमे से नहीं निकल सकते। लेकिन जितना इस सदमे में रहेंगे उतना ही नुकसान बढ़ेगा। जितना जल्दी हो हमें अपने कामों को संभालना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसार-विस्तार से की गई चर्चा।इसमे की गई मेहनत साफ़ झलकती है। चिट्ठा जगत को बढाने की दिशा मे आप लोगो का अथक व सतत प्रयास सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सधे एवं संतुलित शब्दों में आपने विषय का विश्लेषण एवं सारांश प्रस्तुत किया है. विषय-विवेचन के लिये, अवलोकन के लिये, एवं इस गंभीर चर्चा को तय्यार करने के लिये निवेश किये गये समय के लिये आभार !!
जवाब देंहटाएंसस्नेह -- शास्त्री
पुनश्च: चित्र ने मन को झिझोड दिया !!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा, दिन प्रतिदिन आपकी चर्चा जवान हो रही है !कृपया इसी विषय पर मेरी नई पोस्ट भी देखें ! शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंबहुत मेहनत की गई है इसको संकलित करने में ! धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंHAM SABN SAATH HAIN
जवाब देंहटाएं1. भारत में कोई भी व्यक्ति या समुदाय किसी भी स्थिति में जाति, धर्म,भाषा,क्षेत्र के आधार पर बात करे उसका बहिष्कार कीजिए ।
जवाब देंहटाएं2. लच्छेदार बातों से गुमराह न हों ।
3. कानूनों को जेबी घड़ी बनाके चलने वालों को सबक सिखाएं ख़ुद भी भारत के संविधान का सम्मान करें ।
4. थोथे आत्म प्रचारकों से बचिए ।
5. जो आदर्श नहीं हैं उनका महिमा मंडन तुंरत बंद हो जो भी समुदाय व्यक्ति ऐसा करे उसे सम्मान न दीजिए चाहे वो पिता ही क्यों न हो।
6. ईमानदार लोक सेवकों का सम्मान करें ।
7. भारतीयता को भारतीय नज़रिए से समझें न की विदेशी विचार धाराओं के नज़रिए से ।
8. अंधाधुंध बेलगाम वाकविलास बंद करें ।
9. नकारात्मक ऊर्जा उत्पादन न होनें दें ।
10. देश का खाएं तो देश के वफादार बनें ।
11. किसी भी दशा में हुई एक मौत को सब पर हमला मानें ।
12. देश की आतंरिक बाह्य सुरक्षा को अनावश्यक बहस का मसला न बनाएं प्रेस मीडिया आत्म नियंत्रण रखें ।
13. केन्द्र/राज्य सरकारें आतंक वाद पे लगाम कसने देश में व् देश के बाहर सख्ती बरतें । पुलिस , गुप्तचर एजेंसीयों को सतर्क,सजग,निर्भीक रखें उनका मनोबल न तोडें ।
बहुत मेहनत की है आपने. इतने सारे चिट्ठों को कवर करना बहुत मेहनत का काम है. बहुत समय लगता है. आक्रोश रहना चाहिए. इसे भूलने की ज़रूरत नहीं है.
जवाब देंहटाएंवाकई बड़ी मेहनत से मन लगा कर चर्चा की गई है. बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंजी, आपने सही कहा कि अब उड़न तश्तरी जबलपुर में लैण्ड कर गई है. आप ईमेल से अपना नम्बर भेज दें ताकि चर्चा भी हो पाये.
चर्चा तो वही होगी जो परिदृष्य में चल रहा होगा। बहुत सटीक और श्रमसाध्य चर्चा की है आपने। साधुवाद।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंकविता जी, मैं आपका या अन्य पाठकों का दिल दुखाना नहीं चाहता ...
यह वक़्त इतनी विशद व बेहतरीन चर्चा पर बधाई देने का नहीं है, सो इसकी अपेक्षा न की जाये ।
कल शिव भाई की टिप्पणी " हम यही डिज़र्व करते हैं .." पर बहुत तिलमिलाहट हुई थी, कहाँ गया बचपन से पढ़ा जाने वाला 'वीर भोग्या वसुंधरा.. ' का पाठ ?
पर, मेरी कबीरपंथी सोच भी अनायास इन आतंकियों के प्रति कृतज्ञ हो उठता है, भले मुझे ब्लागर बंधुओं का कोपभाजन बनना पड़े, पर क्या यह कटु सत्य नहीं है, कि ऎसे हादसे सम्पूर्ण देश को कुछेक पखवाड़ों को लिये एकजुट कर देते हैं ? ' ईश्वर जो करता है.. भले के लिये करता है ' यह मान कर इस एकजुटता के ज़ज़्बे को हम लंबे समय तक ज़िन्दा रख सकें और सोते हुये अज़गरी राजतंत्र को इसी तरह जगाये रह सकने में सफ़ल रहें, तब भी गनीमत है !
ऎसा मैंने जयपुर, बंगलुरू, अहमदाबाद के समय भी महसूस किया था, और इस मंच पर यह बिन्दु रखा था । कृपया दो मिनट मौन के बदलें, यदि हम दो मिनट आत्म-अवलोकन में लगायें, कि क्या हम एक अखंडता के स्थायी इकाई के रूप में अपनी धाक जमा पायें हैं ? मेरा खुला ज़वाब है, नहीं ! ' लाली देखन मैं चला, जित देखूँ तित लाल.. जरा पुनर्विचार करें कि अपने मध्य पल रहे विभीषणों के चलते, केवल अपनी और केवल अपनी गोटी लाल करने वालों ने देश को यह दंश देने में सहयोग नहीं दिया है ? मेरा उत्तर है.. अवश्य !
क्या राजनीतिक पैंतरेबाजी में निहित अव्यवस्था बनाये रखने की कुटिल मंशा से हमारा प्रबुद्ध वर्ग परिचित नहीं है ? फिर क्यों.. क्यों किसी फ़िरके से, क्यों किसी आतंकी हादसे से आंदोलित हो उठे हैं, हम सब ?
गोरक्षा.. देशरक्षा के ऊपर है, वोटधर्म.. देशधर्म से ऊपर है, हिन्दू हित.. मुसलमान हितों के ऊपर है, मुस्लिम तुष्टिकरण.. व्यापक जनभावनाओं के ऊपर हैं, इत्यादि इत्यादि.. एक राज्य पीस-बोनस की माँग कर रहा है, क्यों ? क्या वह देशवासियों को शान्ति का माहौल देकर उपकॄत कर रहा है, यह माँग क्यों ?
देश का संघीय ढाँचा पुनर्गठित करने की आवश्यकता है, इससे हम आँख क्यों मूँदते रहे हैं ?
अपना प्रबुद्ध वर्ग, मतदान से विमुख रह, इस देश को चरागाह बनाने का अवसर किसको और क्यों देता है ? बिना चाँटा खाये, क्यों नहीं नींद खुलती है ?
स्वीकार करिये, कि कुत्ते निष्क्रिय चेहरों को ही चाटते व नोंचते हैं, हमारा आक्रोश और ज़ज़्बा सतत कायम रहे, इन्हीं कामनाओं के साथ, मैं अपने सुधीबंधुओं से आग्रह करूँगा, कि ब्लागिंग एक बहुत बड़ा और सशक्त माध्यम है, इसको ज़रिया बनायें । परस्पर ...
अब क्लिनिक से बुलाहट आ रही है, शेष फिर !
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चिट्ठा चर्चा में ब्लॉगजगत का मौजूदा वातावरण जीवंत हो उठा है। मेहनत से की गयी संजीदगी भरी इस चर्चा के लिए कविता जी को हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं"असल में मन है कि देश के वर्तमान से इधर उधर किसी बात पर टिक ही नहीं रहा है, सारे मसले बेमानी हो गए हैं मानो। "
जवाब देंहटाएंझंकझोड़ने वाली चर्चा के लिए कविताजी का आभार।
जवाब देंहटाएं>अमरजी, ऐसे हादसे हमारे लिए श्मशान वैराग्य की तरह है जो केवल ‘पंद्रह दिन तक जोडे’ रखते हैं। बाद में फिर वहि........ क्या ऐसे ‘जोडे रखने’ के लिए इतना महंगा बलिदान उचित है? यदि है तो फिर पाटिल जी को वापिस बुला लेना चाहिए!!
जवाब देंहटाएंसिद्धार्थ जी, यही तो मेरा भी प्रश्न है, कि क्या इस प्रकार एक्जुट हो उठ खड़े होने के लिये, ऎसे हादसे कब तक उत्प्रेरक का कार्य करते रहेंगे ?
क्या राष्ट्रीयता कायम रखने को हम इन आतंकियों के मोहताज़ बने ही रहें गे ?
आप एक नहीं दस पाटिल बुलाओ.. और भगाओ, क्या फ़र्क पड़ता है ? प्यादे और वज़ीर बदल देने से क्या बिसात सुथरा हो जायेगा ।
आज अपना ही तंत्र यह साबित करने में लगा है, कि आतंकी एक वर्ष से योजनाबद्ध हो रहे थे ।
आज दिखाया जा रहा है, कि वह समुद्र के रास्ते आये थे । इन हादसों के बाद क्या फ़र्क पड़ताअ है, कि वह समुद्र के रास्ते आये थे, पहाड़ लाँघ कर आये थे, पाकिस्तानी थे, सूडानी थे या आसमान से टपके थे ?
वह कुछ ऎसा कर गये, कि आप एक्जुट हैं, पर वह जो छेद दिखला गये, बोले तो लूपहोल .. हम इनके प्रति उदासीन रह जो भी नेतृत्व ले आयें , क्या फ़र्क पड़ता है ?
क्या वह आसमानी फ़रिश्ते थे, कि वह आये... उनके रास्ते स्वतः ही साफ होते गये, और देश की अस्मिता से बलात्कार कर गये ।
अब डाक्टरी मुआयना होगा, केस दाखिल होगा, दीवान कोतवाल तलब होंगे, कुछ इस्तीफ़े लिये और दिये जायेंगे, वह कल को राज्यपाल बना कर फिर तैनात होंगे, हमारा घाव तो जहाँ का तहाँ रहेगा ।
यदि ऎसे अपमान भुला दिये जाते हैं, तो यह देश का दुर्भाग्य नहीं... देशवासियों की उदसीनता है, जो ऎसे हादसों को भूल जाना चाहते हैं ।
हम नाकारा नेतृत्व से सवाल क्यों करें, हम उन सवालों को कुरेदें.. जो हमें ऎसा नेतृत्व देती है ।
सड़क पर थूकना भी बाज देशों में दंडनीय है, वह तो मुँह पर थूक कर फ़ना हो गये !
बिल बंद करो भाई, साँप काटे का अचूक इलाज़ तो यही है, शायद ओझा बुलाने की नौबत ही न आये ।
गंभीर चर्चा के लिये आभार !!
जवाब देंहटाएंअमर जी, आप डॉक्टर है। आप जानते ही होंगे कि करेक्ट इलाज के लिए करेक्ट डायोग्निसिज़ ज़रूरी होता है। जब तक हम नहीं जानेंगे कि आतंकवादी कौन है [कहां से आए, कौन देश के और क्या मक्सद लेकर] तो निवारण कैसे हो। इस केस में हमने तो पहले ही टेस्ट रिपोर्ट पा लिए हैं, अब सही दवा का इन्तेज़ार है - डॉक्टर निकृष्ट निकले तो मरीज़ के सम्बन्धी क्या करें?
जवाब देंहटाएंभूलसुधार :
जवाब देंहटाएंभूलवश मेरी दूसरी टिप्पणी सिद्धार्थ जी को संबोधित हो गयी है, वह कृपया अन्यथा न लें ।
मेरा प्रश्न तो अपने आपसे , जनता की उदासीनता से व हर चीज़ के लिये सरकार को ज़िम्मेदार ठहराने वाली सोच से है ।
चाहे चंद्रमौलेश्वर प्रसाद हों या सिद्धार्थ जी, हमसे अलग थोड़े ही हैं । कुल मिला कर मेरा आक्रोश नागरिक कर्तव्यों के प्रति लापरवाही से है ।
कैसे माना जाय, कि बिना स्थानीय सहयोग के यह सब संभव हुआ होगा ? और कोई ज़रूरी नहीं, उनकी सहायता करने वाले एक ख़ास धर्म और तबके के ही हों ।
गद्दारों और बिकाऊ चरित्रों का क्या कोई मज़हब भी होता है ?
अभी चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी की टिप्पणी देखी, आपकी बात सही हो सकती है.. सरजी !
जवाब देंहटाएंपर, मैं उस कोटि का डाक्टर हूँ, जो प्रिवेन्शन इज बेटर दैन क्योर में विश्वास रखता है ।
क्या कोई इंकार करेगा कि क़र्ज़, मर्ज़, और फ़र्ज़ को निपटाये रहने में ही मन का चैन है, यहाँ तो देश की बात हो रही है !
चर्चा तो आपने बहुत मेहनत पूर्वक की है.बधाई स्वीकार करें
जवाब देंहटाएंरही बात आंतकवाद के खात्मे की, मेरी नजर में, ये हमले अभी बंद नहीं होंगे और कभी बंद नहीं होंगे।
कयूं कि यहां आतंकवाद से निपटने की रणनीति भी अपने चुनावी समीकरण के हिसाब से तय की जाती है।
अनेकानेक चिट्ठाकारों ने राष्ट्रीय आपदा की घड़ी में अपनी चिंता और राष्ट्रीय एक जुटता दर्शायी है. इसे रेखांकित करने में यह चिट्ठाचर्चा सफल रही है. इस से यह भ्रम भी टूटता है कि चिट्ठासाहित्य के सरोकार व्यापक नहीं हैं.
जवाब देंहटाएंप्रसन्नता की बात है कि अधिकांश चिट्ठे समय और समाज की आवाज़ बन रहे हैं.
आप सभी ने जिस प्रकार इस गम्भीरमुद्दों वाली चर्चा के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है, उसने मुझे बड़ा सम्बल दिया है कि हम गम्भीर वैचारिक मुद्दों के लिए इस सामूहिक मंच का कितना सार्थक उपयोग कर सकते हैं। वैसे भी चिट्ठाचर्चा हिन्दी ब्लॊगिंग की चौपाल जैसा है,सब का अपना।
जवाब देंहटाएंमैं आप सभी का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ।
@
द्विवेदी जी,मैंने अपनी ओर से यहाँ कुछ प्रत्यारोपित नहीं किया है,हमलों की प्रतिक्रिया की सारी सामग्री चिट्ठों के लिंक सहित दी गई है अत: यह चिट्ठा - चर्चा नहीं है ऐसा कहना कदापि उचित नहीं है। वैसे ‘चर्चाकार किन-किन चिट्ठों की चर्चा करें’ - इसके लिए यदि कोई आचार संहिता हो तो कृपया अनूप जी मुझे अवश्य बताएँ ताकि भविष्य़ में नियम का अनुपालन हो सके।
इस चर्चा का कुछ फल भी निकले
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी है
जवाब देंहटाएंसिंहासन पर मरे हुवे लोग और सड़कों पर डरे हुवे लोग...कभी नहीं रच सकते कोई इतिहास.
जवाब देंहटाएंगिरीश शर्मा
DR. KAVITA JI
जवाब देंहटाएंNAMASTEY
I LIKED THE WAY OF PRESENTATION OF THINGS BY YOU AND GOOD COMMAND OVER HINDI.
YOU DESERVE CONGRATULATIONS FOR YOUR NOBLE THOGHTS WITH PATRIOTISM AND NAIONALITY AND ALSO YOUR COMMENTS ABOUT TRP.
WITH RGARDS
-OM SAPRA, DELHI-9
9818180932