चिट्ठाचर्चा दिनोंदिन चुनौतीपूर्ण होती जा रही है। अनूप न जाने कैसे इस निबाहे ले जाते हैं हम तो हर चर्चा के बाद चर्चा किए गए चिट्ठों से ज्यादा चर्चा से छूट गए चिट्ठों की चिंता में बुरा महसूस करते हैं। ये गनीमत है कि अब रोजाना छप रहे बहुत से चिट्ठों के चलते ये उम्मीद कोई नहीं करता कि सारे चिट्ठे चर्चा में आएं ही वरना पहले तो कागज पर सारे चिट्ठों की सूची बनानी होती थी कि कोई छूट न जाए। हम अब ये तरीका अपनाते हैं कि जितने पढे जा सकें उनमें से जो चर्चा लायक लगें उनकी चर्चा करें जिस नए तरीके से हो सके उस तरीके से। इसी क्रम में ध्यान आया कि पाठ के अलावा भी तो चिट्ठों में कुछ होता है यानि वे चिट्ठे जो देखने के हैं या सुनने के। बोले तो चिट्ठों के मल्टीमीडिया अंश। इसलिए आज पेश है चिट्ठों की देखन सुनी। सभी तस्वीरें तथा अन्य संसाधन उन चिट्ठों से साभार हैं जिन्हें बाकायदा लिंकित कर दिया गया है-
तो शुरुआत करते हैं सलिलदा के दयानि करिबो अल्लाह से जिसे हिन्दयुग्म ने पेश किया है।
और लीजिए एक पेंटिंग ये-हमारा दावा नहीं कि हम इस पेंटिंग को समझ पाए हैं पर विनीत ने इसका संबंध श्रीराम सेंटर की उस दुकान से जोड़ा है जहॉं बनारस और बलिया के संबंध छनते थे।
स्साला साहित्यकारों के साथ यही झंझट है, दिल्ली के बाहर निकलेगा तो एतना अपनापा और भद्र दिखाएगा कि पूछो मत। लेकर जैसे ही बलिया, बनारस, इलाहाबाद, पटना से लौंडों का माल खाकर आएगा तो दिल्ली आते ही बूब्बू की माय मर जाएगी और फिर कुछ भी याद नहीं रहेगा।
इरफान भाई एक गंदा गाना सुना रहे हैं...भोजपुरी के गंदे गानों के बारे में बहुत सुना था, अब लीजिए एक 'गंदा गाना' सुन लीजिए।
रवीन्द्र व्यास की कविता के साम्य के लिए जिस पेंटिंग को चुना गया है उसे देखें।
यह धूप में चमकता हुआ अधजला एक टूटा पंख है, जो जाने कहां से टूट कर यहां तक चला आया है, जहां एक मां अपने बेटे के लिए रोटियां सेंक रही है।
बाकी सब जा चुके हैं।
दूर कुछ लपटें हैं, धुंआ है, चटकती लकड़ियां है और एक पिता मारे गये पुत्र की हड्डियां लोटे में लिए बैठा है।
बाकी सब जा चुके हैं।
जब कबाड़खाना नहीं था तब भी हिन्दी ब्लॉगजगत भी भला क्या खाक ब्लॉगजगत था। आज यहॉं अशोक पांडेय सुना रहे हैं हूलियो इग्लेसियास का एक प्रेमगीत आप भी चटका लगाएं-
अच्युतानंद को खूब जूते पड़े हैं, पर लगता नहीं कि उतने पडे़ हैं जितने कि पड़ने चाहिए थे। खैर इस परंपरा में रवि भाई उन 13 जगहों को गिना रहे हैं जहॉं कुत्ते तक नहीं जाते जाते (जो जाते हैं उनपर कोई टिप्पणी नहीं) आप तो बस कार्टून का आनंद लें-
यदि तस्वीरों के ब्लॉग की चर्चा करनी हो तो बिला शक सुनील दीपक का छायाचित्रकार सबसे बेहतर ब्लॉग है। अपनी ताजा छायाचित्रकारी में मंगोलियाई काले बादलों पर नजर डालते हैं और अपने ही अवचेतन पर सवाल भी उठाते हैं-
छा गये बादल नील गगन पर, घुल गया कजरा शाम ढले ... आज की तस्वीरों में मँगोलिया से काले बादल. जाने क्यों मुझे सफ़ेद बादलों में भेड़, बकरियाँ, ऊँट, बच्चे, आदि दिखते हैं जबकि काले बादलों में गुस्सेवाले राक्षस दिखते हैं, शायद यह भी मन में गहरे बसे रंगभेद का असर है?
वीडियों में देखें कि कैसे आंतकियो से लोहा लेने का काम हमारे पुलिसिया बहादुर लाठी से करते रहे हैं। अनिल आम सैन्य सेवा की मांग उठाते हैं।
इसी घटना पर रुकें तो यूँ तो बहुत से लोग यहॉं मारे गए यानि बच्चे अनाथ हुए पर देसी अपराध बोध के लिए विदेशी अनाथ सा आलंबन और कुछ नहीं हो सकता
नन्ही किलकारी ने
अभी देश ,भाषा के भेद को
कहाँ समझा था.....
अभी तो नन्हे मोशे
तुम जानते थे सिर्फ़
माँ के आँचल में छिपना
पिता का असीमित दुलार
और इन्हीं में सिमटा था
तुम्हारा नन्हा संसार ....
दिनेश श्रीनेत सवाल डठाते हैं कि बेवफा स्त्रियॉं निर्देशकों को इतनी रास क्यों आती हैं-
कुल मिलाकर तमाम महान निर्देशकों या श्रेष्ठ कही जाने वाली फिल्मों में कहीं न कहीं एक छली, मायावी, फरेब का जाल बुनने वाली या फिर मन की पर्त-दर-पर्त जटिलताओं में उलझी हुई स्त्रियों की अनिवार्य सी मौजूदगी दिखती है। कई बार तो इन मायावी स्त्रियों की पड़ताल करते हुए त्रुफो जैसे निर्देशक भी ऐसी भूल-भुलैया में जा फंसते हैं कि फिल्म खत्म होने तक उससे निकल ही नहीं पाते।
फ्रेंकलिन निगम गोदान की समीक्षा कर रहे हैं
दूसरी तरफ अशोक चक्रधर भारत के सुभाव की समीक्षा कर रहे हैं कि नरमाई का है या गरमाई का-
जनता का ज़िक्र करके चचा, तुमने मेरी दुखती रग पर उंगली रख दी। कौन सी जनता? रंग, वर्ण, सम्प्रदाय, जाति, गोत्र, धर्म में बंटी जनता! अल्पसंख्यक जनता या बहुसंख्यक जनता! आरक्षित जनता या अनारक्षित जनता! निरक्षर, अनपढ़, गंवार जनता या पढ़ी-लिखी तथाकथित समझदार जनता! शोषित जनता या शोषक जनता! हमारे यहां हंसोड़ संता और बंता की पहचान तो है पर जनता की कहां है?
जनता की पहचान अशोक अपने कवि सम्मेलनों का एक तस्वीर में खोज रहे हैं आप भी देखें
ट्राइपॉड पर कैमरा लादकर ली गई ये तस्वीर शानदार है पर आज की पोस्टों में मेरी पसंदीदा तस्वीर रही है एक भाव-विभोर कांपते हाथ से, शायद कैमरॉफोन से ली गई आशंकित तस्वीर, अपनी पूरी प्रतीकात्मकता के साथ-
मैं उन बदनसीब बेटों में से एक हूँ जिन्हें अपने पिता के साथ रहने का अवसर कम-से-कम मिला, जिसने 31 साल की उम्र में से 21 साल हॉस्टल में बिताए, छुटपन के 10 साल इस तरह बीते कि वे मेरे जगने से पहले ड्यूटी पर चले जाते और रात में अक्सर मेरे सोने के बाद आते। हॉस्टल में आकर मिलने के लिए भी उनके पास वक्त नहीं था, आज वे रिटायर हो गए हैं और अब मेरे पास वक्त नहीं है कि मैं 1000 कि.मी का सफर तयकर उनसे मिलने जाऊँ।
आज फिर बहुत सी पोस्टें छूट गई हैं, वे जिनमें कोई तस्वीर नहीं थीं, या वीडियो या आडियो। सो भूल चूक लेनी देनी।
हां जी, मेरे पोस्ट में नहीं थी कोई तस्वीर.. सो चलिये माफ करता हूं.. :)
जवाब देंहटाएंचिटठा चर्चा वाकई बहुत मेहनत का काम है ..चित्र बहुत अच्छे चुने हैं आपने ...बढ़िया है यह
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति पर साधुवाद स्वीकारो, प्रभु !
जवाब देंहटाएंसही छायाचित्र किसी पोस्ट के शब्दचित्र को और सटीक बना देते हैं..
उनके चयनकर्ताओं को आज की चर्चा के माध्यम से मान्यता मिलना अच्छा लग रहा है !
वाह! चिट्ठा चर्चा में लगातार नवीन प्रयोग हो रहे है.. देखकर खुशी हुई.. रवीन्द्र जी की पेंटिंग्स देखना काफ़ी सुखद होता है... आज की चर्चा के लिए आपको बधाई
जवाब देंहटाएंबढिया
जवाब देंहटाएंसशक्त चिट्ठा चर्चा !
जवाब देंहटाएंरामराम 1
अच्छी चित्र-प्रधान चिट्ठा चर्चा , बधाई .
जवाब देंहटाएंबढिया चिट्ठा चर्चा !!!!!!!!!111
जवाब देंहटाएंअत्यधिक परिश्रम करते हैं आप । आभार ।
जवाब देंहटाएंरंगों से भरी पहली कुछ तस्वीरे मन को भली लगी....आख़िर की तस्वीरे फ़िर उसी अवसाद में ले आयी ...जीवन यही है
जवाब देंहटाएंगाना सच में *&^%र%^&$% है.
जवाब देंहटाएंबंगाली गान ऊपर से गया.
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा अन्य चर्चाओं से हटकर कुछ नया प्रस्तुत करने में सफल रही है.
जवाब देंहटाएंसस्नेह -- शास्त्री
हर बार नये अंदाज में चर्चा करने का मन बनान और कर ले जाना काबिलेतारीफ़ बात है। इस बार भी अंदाजे बयां नया और शानदार रहा। जो चिट्ठे छूट गये उनकी चर्चा कभी न कभी होगी ही।
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