डिस्क्लेमर- ये एक अकारण गरिष्ठ चर्चा है जिसका कारण ये है कि कल ही कल में तीन चर्चा हो गईं दो मिसिरजी ने कीं एक चर्चा, दूसरी वन लाइनर स्पेशल। एक और चर्चा या कहो कि पुरानी चर्चा का रीठेल रविजी ने भी दिया, इसलिए चर्चा बहुल वातावरण हमें मौका देता है कि हम पसर सकते हैं, नागा भी कर सकते थे पर सोचा कि जब मौका मिल रहा है तो फैल जाते हैं। यानि वे पोस्टें चर्चाई जाएं जो बौद्धिकता से लदी हैं सोचने का मसाला देती हैं।
अजय ब्रह्मात्मज रामू के लोकेशन पर जाने पर हुए हल्ले में फिल्मों को लेकर हमारे समाज का देगलापन देखते हैं।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के साथ रामू की ताज यात्रा पर व्यक्त हो रहीं तीखी प्रतिक्रियाएं दरअसल फिल्मों के प्रति हमारी सोच की बानगी है। फिल्मों को हम सभी ने मनोरंजन का माध्यम मान लिया है। निर्माता हमारे लिए एंटरटेनर के सिवा और कुछ नहीं। समाज में फिल्मों को ऊंचा दर्जा नहीं हासिल है। हम फिल्मी चर्चाओं में इतने गैरजिम्मेदार होते हैं कि उनकी जिंदगी के बारे में चटखारे लेकर बातें करते हैं और उन्हें नीची नजर से देखते हैं।
इस पर हमारा टेक ये है कि इस समाज में आपके तईं उतनी ही गंभीरता आती है जितनी आप डिजर्व करते हैं, पेड़ों के इर्द गिर्द दौड़ दौड़ कर जो सिनेमाई संस्कृति सिनेमाई समाज ने विकसित की है वही हॉंट कर रही है और क्या।
चॉंद एक शानदार सपना है, लगातार दिखता है इसलिए प्राप्य लगता है पर हमेशा पहुँच से थोड़ा दूर भी रहता है। मनीष अपने चिट्ठे पर सप्ताह ही इस चॉंद को समर्पित कर रहे हैं। लेकिन हमारा ध्यान है राजकिशोर की चॉंद की कामना करने की चोखेरबाली इच्छा पर चोखेरबाली में ही प्रस्तुत आपत्ति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पर। राजकिशोर का कथन था-
एक बात तो तय है। किसी भी स्त्री से उसकी सहमति के बगैर संबंध नहीं बनाया जा सकता। बहुत-सी ऐसी स्त्रियां भी यौन हेरेसमेंट का शिकार बनाए जाने की शिकायत करती हैं जिन्होंने यह हरेसमेंट काफी दिनों तक इस उम्मीद में सहन किया कि उनका काम हो जाएगा। जब काम नहीं बनता, तो वे शिकायत करने लगती हैं कि मेरा शोषण हुआ है या मुझे परेशान किया गया है।
अपनी प्रतिक्रिया हॉं हमें चॉंद चाहिए में घुघुती कहती हैं-
एक और बात भी तय है, एक ही क्या बहुत सी बातें तय हैं, किसी की सहमति के बिना उसकी हत्या नहीं हो सकती, चोरी या जेब कतरना नहीं हो सकता, डाका नहीं डल सकता, यहाँ तक कि कोई आतंकवादी उसे आतंकित नहीं कर सकता । यह तथ्य यदि पहले ही पता होते तो इतने सारे न्यायालय बनाकर क्यों पैसा डुबाया जाता ? वकीलों से कहो कोई और धंधा अपनाएँ । यह तथ्य जानने के बाद अब मैं पहले से काफी अधिक सुरक्षित अनुभव कर रही हूँ । मैं तो सोच रही हूँ कि 'मैं असहमत हूँ' की एक तख्ती लटकाकर निश्चिन्त हो कभी भी, कहीं भी घूमने निकल जाऊँ । पुरुष नामक जीव जब यह तख्ती पढ़ेगा तो मुझे कभी कोई हानि न पहुँचाकर एक अच्छे बच्चे सा अपने रास्ते या फिर सहमत स्त्रियों, पुरुषों की खोज में किसी अन्य रास्ते चला जाएगा।
उपर्युक्त दोनों ही उद्धरण पूरे लेखों के उन संतुलन के साथ न्याय नहीं करते जो एक अच्छा विमर्श खड़ा करते हैं। मुझे राजकिशोरजी की तर्क निर्मिति में ये दोष दिखाई देता है कि वे 'इच्छा' को स्वतंत्र निर्मिति मान बैठे हैं जबकि इच्छा का अपना समाजशास्त्र है, यदि हमारा समाज केवल यही इच्छा जाहिर करने की सुविधा स्त्री को देरहा है कि आप इससे बलत्कृत होना चाहेंगी या उससे तो जाहिर है आप हर बलात्कार को ये कहकर मटिया सकते हैं कि उसने यही इच्छा जाहिर की थी।
शुएब के लेखन के हम मुरीद रहे हैं। आजकल कुछ कम लिख पाते हैं वे पर जब भी आते हैं ऑंख-कान खोल देते हैं। उनकी खुदा सीरीज में ताजा पोस्ट में मुसलमानों की आत्मदया की चिढ़ाऊ आदत पर चिढकर खुदा कहते हैं-
हमेशा से मुसल्मान का रोना है कि पूरी दुनिया मे सिर्फ मुसल्मानों पर ही ज़ुल्म होरहा है और बाकी लोग आराम से हैं। मुसल्मानों को अपनी किस्मत पर रोना आता है तो ज़रा अरब देशों मे झांक आएं कि वहां के मुसल्मान दुनिया से बिख़बर कैसे ऐशवआराम से ज़िन्दा हैं। इन अरब मुसल्मानों को ज़रा भी तनाव नही कि दुनिया मे ऐसे कितने देश हैं जहां लोग ज़ुल्म और भूक से हरदिन लड रहे हैं। फिर भी मुसल्मानों का रोना है कि अमेरिका, यूरोप और भारत सब एक होकर हम मुसल्मानों पर ज़ुल्म ढा रहे हैं। जैसा कि मुस्लमान होना ही जीते जी अज़ाब है। मियां, खुदके पैरों पर कुलहाड़ी मारने को क्या अज़ाब कहा जाए?
इस बात से हम सहमत ही हो सकते हैं। पेशेवर सेकुलरवादियों की तरह धर्म को बुरा कहना सेकुलर होना नहीं है वरन सोच को लौकिक बनाना सेकुलर होना है। वरना आप धर्मांधता का ईंधन ही दे रहे होते हैं।
जिन भूख से बिलबिलाते हलकों की बात शुएब ने की है वहॉं की अपनी कष्टकारी दिक्कतें हैं। एक की ओर इशारा सुनील दीपक ने अपनी पोस्ट गोरी गोरी बॉंकी छोरी में किया है। नस्लवाद जब नस नस मंे समा जाए, खुद उसके भी रक्त में जो इससे प्रताडित़ होता हो तो कुरूप स्थिति पैदा हो जाती है।
हमें समाज की सोच को बदलने की भी कोशिश करनी चाहिये ताकि समाज में भेदभाव न हो. पर अगर कोई भेदभाव से बचने के लिए, शादी होने के लिए, नौकरी पाने के लिए, या किसी अन्य कारण से अपना रंग गोरा करना चाहता है या झुर्रियाँ कम करना चाहता है या पतला होना चाहता है या विषेश वस्त्र पहनता है, तो इसमें उसे दोषी मानना या उसे नासमझ कहना गलत है. समाज की गलतियों से लड़ाई का निर्णय हम स्वयं ले सकते हें, दूसरे हमें यह निर्णय लेने के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकते.
हमारा कहना ये है कि पसंद की आजादी से तो वंचित नहीं किया जा सकता पर इस जिम्मेदारी को भी लेना ही होगा कि 'पसंद' को स्वतंत्र न मानकर उसके औपनिवेशिक चरित्र को उजागर किया जाए।
ज्ञानबाबू शिखर के एकांत के बहाने उस बिंदु की बात करते हैं जहॉं बक स्टाप्स।
शिखर का एकांत कितना किलर होता है जी! मैं प्रधानमंत्री जी की हालत की सोचता हूं। प्रजातंत्र में हर आदमी उनपर बक ठेलने में स्वतंत्र है। कितना एकाकी महसूस करते होंगे सरदार जी।
आप और आगे नहीं सरका सकते अपनी मुसीबत... हॉं वाकई बाबूडम की त्रासदी है ये (और कहॉं नहीं है बाबूडम, काफ्का दिखाते हैं कि कैसे सारी दुनिया ही अंतत: एक ऐसी व्यवस्था है)
चलते चलते एक कविता व एक तस्वीर। कविता ब्रजेश की कविता 'बेरोजगार लड़के' है। कुछ पंक्ितयॉं
उन्हें कभी भी आवाज लगाई जा सकती है
मंगवाई जा सकती है बाजार से सब्जी
वे जमा करा सकते हैं पानी-बिजली का बिल
मरीज को पहुंचाना हो अस्पताल
तो उठाया जा सकता है उन्हें आधी रात में
वे अच्छे बच्चे हैं
किसी काम के लिए ना नहीं करते
ना करने पर कहा जा सकता है उन्हें
बेकार और आवारा
बेकारगी व आवारगी दोनों ही बाहरी कंस्ट्रक्ट हैं, आरोपित हैं। कविता बिंब उकेरने में सफल है।
चित्र विजेंद्र विज की नई कलाकृति लाईट्स ...कैमरा...एक्शन...कट..ट्..ट्..ट् का है। मुझे चित्र में मुद्रा की अराजकता अपने विस्तार में आतंकित सा करती दिखती है।
आपका डिस्केमर कुभूल।
जवाब देंहटाएं>राजकिशोर जी की स्त्री की ‘इच्छा’ इस संदर्भ में सही है जहां अवैध सम्बन्ध बन जाते हों। घूघती की बात हत्या और बलात्कार के सम्बन्ध में सही है। तो दोनों अलग-अलग दृष्टिकोण से सही और गलत है - ठीक उसी तरह जैसे सिक्के के हेड और टेल!!
>अरब के मुसलमान जो कल तक खजूर पर जीवित थे आज पेट्रोडालर पर मौज कर रहे हैं। वे बेचारे बौधिकता और जीवन मूल्यों को क्या जाने।
>ब्रजेश्जी की कवितांश अच्छा है पर चलते-चलते यह भी बता देते कि ये अच्छे बच्चे कहां मिलेंगे?-:)
उन्हें कभी भी आवाज लगाई जा सकती है
जवाब देंहटाएंमंगवाई जा सकती है बाजार से सब्जी
वे जमा करा सकते हैं पानी-बिजली का बिल
मरीज को पहुंचाना हो अस्पताल
तो उठाया जा सकता है उन्हें आधी रात में
वे अच्छे बच्चे हैं
किसी काम के लिए ना नहीं करते
ना करने पर कहा जा सकता है उन्हें
बेकार और आवारा
"एक जीती जगती सच्चाई , सरल शब्दों मे बांधी गयी ....सच कहा "
regards
किसी काम के लिए ना नहीं करते
जवाब देंहटाएंना करने पर कहा जा सकता है उन्हें
बेकार और आवारा
बहुत बेहरीन चर्चा और कविता भी लाजवाब !
राम राम !
bahut achchhe saahab!
जवाब देंहटाएंमैंने इसे बेहतरीन चर्चाओं के वर्ग में शामिल कर यानि पृष्ठांकित कर लिया है !
जवाब देंहटाएंयह गरिष्ठ नहीं बल्कि पौष्टिकता से भरपूर है !
डिस्क्लेमर की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ?
मैं समझता हूँ, कि अपने अपने कंम्प्यूटर कीबोर्ड पर बैठा हर बालिग इतनी तो समझ रखता ही है !
रहा विवाद,, तो विवाद किसी घटना व्यक्ति या मंच के लोकप्रियता को दर्शाता भी तो है !
किंवा अनूप जी का चिट्ठा-चरित्र ही ऎसा है..
"वो हँस के मिले हमसे... हम प्यार समझ बैठे "
प्यार के इन्हीं दावेदारों की छीन-झपट है, यह !
बहुत अच्छा! वैसे गरिष्ठ चर्चा के पुछल्ले में कुछ ईसबगोल की भूसी भी हो तो सामंजस्य बन जाये! :-)
जवाब देंहटाएंबहुत बेहरीन चर्चा
जवाब देंहटाएंगुरु अमर जी से शत प्रतिशत सहमत .एक सार्थक चर्चा ......
जवाब देंहटाएंइच्छा का अपना समाजशास्त्र है, यदि हमारा समाज केवल यही इच्छा जाहिर करने की सुविधा स्त्री को देरहा है कि आप इससे बलत्कृत होना चाहेंगी या उससे तो जाहिर है आप हर बलात्कार को ये कहकर मटिया सकते हैं कि उसने यही इच्छा जाहिर की थी।
जवाब देंहटाएं-------
ठीक बात कही, जिसे न कमेंट्स मे ठीक तरह से लाया जा सका न विमर्श खड़ा हो सका।
आपकी हर चर्चा में विविधता होती है... बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसधी हुई चर्चा रही .
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा करी। विजेन्द्र की तस्वीर क्या मारू है!शानदार!
जवाब देंहटाएंबृजेश जी की कविता और शोएब का आलेख खास पसंद आया। इनकी चर्चा के लिए धन्यवाद। विज साहब की ये कलाकृति देख मन ठिठक सा जाता है।
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