आप पूछ सकते हैं किस बात की राहत? तो मेरा जवाब यह है 'जनाब' कि इस बात की राहत कि कवि और व्यंगकार जो हास्य और व्यंग अपने कंधे पर ढोते रहते हैं, उसे एक महीने के लिए उतार दें, जिससे सभी देख सकें कि कितने-कितने वजन का हास्य और व्यंग इन कवियों और व्यंगकारों के कंधे पर रक्खा था?
कवियों और व्यंगकारों के कन्धों से जो सबसे वजनदार चीज उतरती है, वह है नेता और कुत्ता. हमारे समाज में जितना महत्व इन दोनों का है, उतना महत्व आदमी का भी नहीं है. क्या होगा अगर एक कुत्ता किसी पेशेवर नेता को काट ले तो?
नेता वफादार हो जायेगा. कुत्ते को उसकी जाति की पंचायत खूब खरी-खोटी सुनाएगी. खरी-खोटी की मात्रा क्या होगी? यह जानने के लिए आप पढिये डॉक्टर उदय मणि का व्यंग नेता बनाम कुत्ता. शीर्षक को ध्यान से देखियेगा. 'बनाम' में मात्रा बढ़ा दी जाय तो बेनाम हो जायेगा. खैर, आप नेता और कुत्ते के गुणों का बखान पढिये.
जरा बच के, ये है मुंबई मेरी जान. यह जो बचने की सलाह है, यह आज की नहीं है. तब से चली आ रही है जब देवानंद साहब जवान थे. जवान थे? तो अभी क्या हैं?
वैसे, ये बचने की सलाह केवल मुंबई वालों के लिए ही क्यों? बचकर रहना तो सबके लिए ज़रूरी है. कोलकाता वालों के लिए भी और दिल्ली वालों के लिए भी. लाहौर वालों के लिए भी और श्रीलंका वालों के लिए भी. लेकिन शायद मुंबई में कुछ ख़ास है. क्या ख़ास है, यह जानने के लिए आप अनीता जी की पोस्ट पढिये.
उन्होंने मुंबई में रहते हुए मुंबई के बारे में अपने अनुभवों को बहुत सलीके से समेटा है. मुंबई में रहते हुए रोज की जद्दो-जहद करते एक इंसान की नज़र से देखिये मुंबई को.
हम अपनी सफलता के क्षणों में खुलकर जय बोलते हैं लेकिन औरों की सफलता के क्षणों में बंद होकर भी जय नहीं बोल पाते. ढूंढ-ढूंढ कर तमाम मुद्दों को कुरेदते हैं. स्लमडॉग मिलेनेयर को मिलने वाले अवार्ड्स इसी बात को दर्शाते हैं. आज कविता जी ने खुलकर जय बोलने का आह्वान किया है. वे लिखती हैं;
"तो मुद्दा यह नहीं कि 'लगान', 'ब्लैक' या 'तारे ज़मीं पर' को ऑस्कर क्यों नहीं मिला.मिलना चाहिए थे. यदि लगान को मिल जाता तो भाई लोग उसमें भी गुगली फेंकते कि कबड्डी और गुल्ली-डंडा खेलने वालों के बीच क्रिकेट का बुखार फैले, इसलिए लगान को ऑस्कर मिला."
कुछ-कुछ वैसा ही है कि अगर भारतीय सुंदरियों को मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स के खिताब से नवाजा जाता है तो कहा जाता है कि कॉस्मेटिक्स का मार्केट फैलाने के लिए खिताब मिला है. असल में भारतीय सुंदरियाँ यह सब डिजर्व नहीं करतीं.
आप कविता जी की पोस्ट पढिये और जानिए कि खुलकर जय बोलने का उनका आह्वान क्यों है?
लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम के ऊपर बन्दूक, रॉकेट लांचर और गोले से लैश लोग टूट पड़े. खिलाडी घायल हो गए. इसे देखते हुए एक्सपर्ट लोग बता रहे हैं कि पकिस्तान की हालत बहुत खराब हो गई है. कुछ लोग पकिस्तान पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं.
नई-नई बातें होती रहनी चाहिए. समय के बदलने का परिचायक होती हैं ऐसी बातें. राजकुमार ग्वालानी जी ने आज घोषणा करते हुए बताया कि; " खेल को किया नापाक- नहीं करेंगे माफ."
कौन है जो माफी मांग रहा है? और राजकुमार जी ने माफी न देने की कसम क्यों खाई इसे जानने के लिए उनकी पोस्ट पढिये.
सताने का काम केवल लोग ही नहीं करते जी. यादें भी बहुत सताती हैं. अनिल कान्त जी को यादें सता रही हैं. हाल ही में जब वे आगरा गए तो उन्हें पहले की बातें नहीं दिखाई दीं. कई साल पहले कालोनी की दीवार पर क्रिकेट खेलने के लिए चूना से जो स्टंप्स उन्होंने बनाये थे, वे आज भी वैसे ही बने हुए हैं. हालाँकि वक्त और मौसम की मार से ये स्टंप्स धुंधले हो गए हैं.
दस साल में इतना कुछ बदल गया जिसकी वजह से उन्हें सुनना पड़ा कि; "बेटा अब तो बस यादों में बसती हैं वो पहले की बातें."
आप उनकी पोस्ट पढिये और उनकी यादों में क्या-क्या है, यह जानिए.
होली पर रंग वगैरह खलेने से पानी नष्ट होता है. दिवाली पर पटाखे फोड़ने से वातावरण दूषित होता है. ये तो बड़ी समस्या है. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? कौन सा त्यौहार मन सकते हैं? वैलेंटाइन डे और न्यू इयर वगैरह मनाकर खुश हो लें?
यही सवाल आज अनिल पुसदकर जी ने पूछा है. किससे पूछा है, यह जानने के लिए आप उनकी पोस्ट पढिये. अपने विचार भी व्यक्त कीजिये. विचार व्यक्त करने से ही इस मुद्दे पर विमर्श किया जा सकता है. उनके अनुसार होली पर पुलिस वाले तंग करते हैं. विचारक भाई लोग बताते हैं कि सूखी होली खेलना ठीक रहेगा. मतलब अबीर, गुलाल वगैरह लगाकर होली मना लीजिये.
यह तो वैसे ही हैं जैसे कोई कहे कि सूखा फुचका खा लो. मतलब फुचके में इमली का पानी मत डालो. लेकिन भाई सूखा फुचका तो पानी वाला फुचका खाने के बाद खाया जाता है. वो भी एक-दो. ऐसे में फुचका खाने का मज़ा कहाँ से आएगा?
खैर, आप अनिल जी की पोस्ट पढ़कर अपने विचार जरूर प्रेषित करें.
चुनावों का माहौल है. ऐसे में सारे काम अगर चुनावी हो जाएँ तो क्या कहने. मसलन सरकार मुख्या चुनाव आयुक्त के रूप में किसी को चुन ले और वो चुना जाए तो बड़े मज़े में सबकुछ कट जायेगा. कट जायेगा? कटता तो चूना की वजह से है. कहीं सरकार चूना तो नहीं लगा रही.
सुरेश चन्द्र गुप्ता जी ने आज इसी बात पर विमर्श किया है. विमर्श करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि "चुनाव आयोग पप्पू बन गया."
वैसे यहाँ एक लोचा है. हाल के महीनों में जब पप्पू की बात होती है तो सबसे पहले यही बात सामने आती है कि "पप्पू कांट डांस स्साला..." लेकिन यहाँ तो चुनाव आयोग को पप्पू इसलिए बनाया गया है कि पप्पू ही नाचेगा. आप गुप्ता जी की पोस्ट पढिये और विमर्श में हिस्सा लीजिये.
कुछ एक लाइना हो जाएँ...
बूढे लोगों का बड़ा लोकतंत्र : लाठी के सहारे खड़ा है.
क्या इसी का नाम है पाकिस्तान? : नाम पर काहे जाते हैं, काम देखिये न.
अधिकतर जीनियस बन्दों की आम परेशानी- लिखाई: और खास परेशानी- पढाई.
क्यों दिखते हैं आडवानी पाकिस्तानी साइटों पर? : ज़रदारी अब दिखने लायक नहीं रहे.
मार्क्स याद आते हैं : एक बार फोन कर लें.
मोहब्बत सच का नाम है : एक बार सच करके देखो.
गरीबी पश्चिम में खूब बिकती है : मंदी है नहीं तो पूरब में भी बिक जाती.
मेरी चोरी ब्लॉग पोस्ट हटा ली गई है : ये तो चोरों की दुनियाँ में क्रान्ति हो गई.
शायद चुनाव आने वाले हैं : डरें नहीं केवल वोट ही तो ले जायेंगे.
तेरी मौजूदगी का एहसास सदा रहता है : वही होता है जो किस्मत में बदा होता है.
पत्थर, कंकड़ और रेत : नदी बहा ले गई
आज के लिए बस इतना ही. आप सबको होली की हार्दिक शुभकामनाएं.
अरे आप की चिठ्ठा चर्चा और इतनी संक्षिप्त....??? आप से ऐसी आशा नहीं थी...इतना कम लिखेंगे तो हम जैसों के मन का पेट कैसे भरेगा...( "मन का पेट"....साहित्य में नया प्रयोग है...आप चाहें तो साधुवाद दे सकते हैं वर्ना समीर जी से ले लेंगे...)
जवाब देंहटाएंनीरज
बेहतर चरचा।
जवाब देंहटाएं"चुनावों का माहौल है. ऐसे में सारे काम अगर चुनावी हो जाएँ तो क्या कहने"
जवाब देंहटाएंबढिया चुनाव किया है चर्चा के लिए चिट्ठे।एक से बढ़ कर एक निकले सारे पट्ठे:)
>चलिए नीरज जी- हम पहल करते हैं-आपके ‘मन का पेट’ ईश्वर सलामत रखे!:)
आप तो आये, गाये और चल दिये..हम तो अभी पढ़ना ही शुरु किये थे. फिर भी सुन्दर चर्चा-बधाई-होली की भी अग्रिम.
जवाब देंहटाएं’मन का पेट’ तो वाकई नीरज बाबू-साधुवादी साहित्यिक सृजन है. साधुवाद!! साधुवाद!!
चर्चा को भर-पेट कर देते (शायद यह भी नया ही प्रयोग है) तो और भी कितनों का मन भर जाता. धन्यवाद चर्चा के लिये.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा.
जवाब देंहटाएंहोली की रामराम
लगता है शिव भईया कि आप गुझिया बनाने में इतने व्यस्त है कि आज एक छोटी से चर्चा ही दे पाये.
जवाब देंहटाएंमाफ किया क्योंकि:
1. यह एकदम नई विधा में लिखा गया है
2. यह गुझिया के समान स्वादिष्ट है (शायद इसी कारण साईज में कम है. यदि गुझिया को पापड के या खजले के साईज का बनायें तो कौन भला खा सकता है!!)
सस्नेह -- शास्त्री
चर्चा तो बहुत जानदार रही ...अंदाज़ भाया
जवाब देंहटाएंसुन्दर परन्तु आधी अधूरी चर्चा....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब! बताओ यहां तो चर्चाकार का चर्चा करते-करते पल्सतर ढीला हो गया और भाई लोग कह रहे हैं ये दिल मांगे मोर। हम कुछ कह भी नहीं सकते काहे से वे कहेंगे दिल दा मामला है।
जवाब देंहटाएंबकिया आपने बड़ा अच्छा लिखा और लिख के डाल दिया वैसे ही जैसे कवि/वयंग्यकार होली मे मौसम में लिख के डाल देते हैं और साल भर का सारा मजाक एक साथ कर डालते हैं।
गुझिया विमर्श के बाद अब पापड़ विमर्श पर हाथ आजमाया जाये जरा! शायद उससे नीरजजी के मन का पेट कुछ भर सके। :)
आपकी चर्चा के अनुपात में तो सच में यह नन्हींजान है।
जवाब देंहटाएंहोली की मशगूलियत का सोच निभा ले रहे हैं.. वरना कहते पापड़ से पेट भरता है क्या!
शिव जी बड़िया चर्चा, मुंबई की तरफ़ ध्यान देने का शुक्रिया…:) बाकी गुझिया खाने हम पहुंच ही रहे हैं
जवाब देंहटाएंबुरा न मानो होली है।मस्त चर्चा इमली के पानी की तरह स्वादिष्ट्।मज़ा आ गया।
जवाब देंहटाएंलिटिल लिटिल चर्चा का बिग बिग मज़ा...
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