जातिभेद से टकराव और स्त्री का नए कार्यक्षेत्र में दाखिला लेकर, विस्थापित व्यवस्था से टकराना , हिम्मत का काम है/और इसी तरह , बदलाव आते हैं । ऐसी कई " कुंदा वासनिक " हैं !जो हाशिये पर ना रह कर , समाज के मुख पृष्ठ पर आईं और ना सिर्फ़ अपने जीवन की परिधि को विस्तार देते हुए जीवन जीने का उपक्रम किया , बलके दूसरों के लिए मार्ग प्रशस्त करतीं गईं !
सलाम तुम्हे " कुंदा वासनिक " !!
स्वभाविक रूप से इस पोस्ट को लोगों ने प्रेरक मानते हुये कुंदा वासनिक की तारीफ़ की और लावण्या जी को कुंदा जी का परिचय देने के लिये शुक्रिया अदा किया।
इसके बाद नीलोफ़र ने उस पोस्ट पर कमेंट किया-
कितना प्यारा होता हरिजन होना आज पता चला.
आप भी तो चमारिन ही हैं लावण्या दी यह तो आप ही बता चुकी हैं कि आपकी मां मैला कमाती थीं और आप उससे खेलती थीं।
अपनी जात का जिक्र करने का धन्यवाद।
लावण्य़ाजी इस टिप्पणी से आहत हुईं और उन्होंने लिखा-
मुझे जल्दी गुस्सा नही आता !
परन्तु, मेरी अम्मा के लिए कहे गए
ऐसे अपशब्द,
हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकती ।
This is absolutely, "unacceptable "
a grave insult to my deceased & respected Mother who is not alive to defend herself.
मसिजीवी ने लावण्याजी की इस बात का अपनी पोस्ट में जिक्र करते हुये अपनी बात कही
दलित मुद्दे पर संवेदनशीलता के साथ लिखने वाली लेखिका 'चमार' शब्द के इस्तेमाल से इतना आहत महसूस करती हैं..उन्हें करना भी चाहिए पर इसका प्रतिकार झट 'शर्मा' शब्द से विभूषित माताजी का नाम देने की अपेक्षा, चमार शब्द में निहित अपमान को हटाने की ओर प्रवृत्त होकर ही होना चाहिए। मुझे इस सारे प्रक्रम में बेबात के पैट्रोनाइजेशन लेकिन जरा सी त्वचा खुरचते ही जातिवादी अहम की झलक दिखाई देती है।
इस पर लावण्याजी ने लिखा
भँगी, चमार या कोई भी जाति या स्त्री पुरुष पर हम उनसे पहले' भारतीय' भी हैँ ही -
परदेसी हूँ परँतु भारतीय मूल की भी हूँ ..और उससे आगे, हम सभी इन्सान हैँ
That is undisputed , obvious - fact -
Here , there are Class & Color boundries & prejudices which are going through change - slowly but surely -
वैसे तो मसिजीवी ने खुद लिखा है-सभी जानते हैं कि हमारे लेखन में यूँ भी पोलिमिक्स के तत्व अधिक हैं।
यह भी सच है कि मुझे पालेमिक्स का अर्थ आज तक न पता था। आज पता किया तो पता चला कि पालेमिक्स का मतलब होता है The art or practice of argumentation or controversy.मतलब पालेमिक्स बहसबाजी या विवाद की एक कला या अभ्यास है!
मसिजीवी ने जब स्वयं बताया कि उनके लेखन में पालेमिक्स के तत्व अधिक हैं तब इस पोस्ट को उसी तरह से लिया जाना चाहिये और यह मानकर कि यह सिर्फ़ बहस या विवाद के लिये लिखा गया है आगे बढ़ जाना चाहिये।
लेकिन मसिजीवी के इस पालेमिक्स लेखन के कुछ बिन्दु रेखांकित करना चाहता हूं ताकि आगे उनकी बहस/विवादकला में और निखार आ सके।
मसिजीवी ने लिखा:
तोतोचान एक शानदार किताब है तथा औसत पाठक की पसंद नहीं होती, जो अपने ब्लॉग का नाम तोता चान रखता है वो आउट आफ बाक्स सोचनेवाला ब्लॉगर है, कम से कम टुच्ची विषाक्तता के लिए तो नहीं।
मैंने तोतोचान किताब नहीं पढ़ी लेकिन किसी शानदार किताब को पसंद करने वाला और उसके नाम पर अपने ब्लाग का नाम रखने वाला आउट आफ़ बाक्स सोचने वाला हो जायेगा, टुच्चा और विषाक्त नहीं होगा यह बात कुछ जमती नहीं!यह तो कुछ ऐसा ही हुआ जैसा हरिशंकर परसाई ने अपने व्यंग्य लेख सदाचार का ताबीज में ताबीज बांधकर भ्रष्टाचार मिटाने जैसी बात लिखी है।
इस पोस्ट में लावण्याजी ने कुंदा वासनिक का जिक्र किया था। पोस्ट के लिहाज से कुंदा वासनिक का चरित्र एक प्रेरक चरित्र बना और स्त्रियों, दलितों और अन्य के लिये एक आशा का संचार करने वाला चरित्र है। नीलोफ़र ने पोस्ट पर टिप्पणी की
कितना प्यारा होता हरिजन होना आज पता चला.।
आप भी तो चमारिन ही हैं लावण्या दी यह तो आप ही बता चुकी हैं कि आपकी मां मैला कमाती थीं और आप उससे खेलती थीं।
अपनी जात का जिक्र करने का धन्यवाद।
यह टिप्पणी स्त्री, दलित और लावण्य़ाजी और उनकी मां की भी खिल्ली उड़ाने वाली टिप्पणी है। यदि कोई दलित समर्थक है ,स्त्री समर्थक है तो एक दलित /स्त्री के प्रेरणाप्रद वर्णन से लेखक की खिल्ली नहीं उड़ायेगा। यह विध्नसंतोषी प्रवृत्ति है। इसमें टुच्चेपन और विषाक्तता दोनों के ही तत्व मौजूद हैं भले ही लेखक की पसंद तोत्ताचान जैसी शानदार किताब क्यों न हो!
नीलोफ़र की इस टिप्पणी से बहस के नये आयाम भले खुले लोगों को अपनी बहस और विवाद कला को निखारने का मौका मिला ! लेकिन इस टिप्पणी से कहीं से नहीं लगता कि टिप्पणीकार के मन में स्त्रियों या दलितों के प्रति सहज संवेदना है। हां यह हो सकता है कि आउट आफ़ बाक्स सोचने वाला (जैसा मसिजीवी ने लिखा) होने के कारण उनका यही अंदाज हो अपनी बात कहने का।
मसिजीवी ने लिखा
मैला कमाना (कथित कर्म आधारित जाति व्यवस्था के समर्थक सोचें) अगर दलित होने का परिचायक है तो कौन सी मॉं चमारन (सही शब्द भंगी बनेगा) नहीं है.. अपने बच्चे के पाखाना साफ करने से बचने वाली... बच सकने वाली मॉं कहॉं पाई जाती है ? कौन सा बच्चा कभी अपने पाखाने से खेलने का सत्कर्म नहीं कर चुका होता?
यहां मसिजीवी ने दो नितान्त अलग बातों की तुलना की है। मैला कमाना दलितों में भी दलित का जातिगत पेशा होता है। पुराने समय के शुष्क शौचालयों की सफ़ाई करके उसका पाखाना ढोने का काम मैला कमाना होता है। संसार के सबसे घृणित पेशों में से एक पेशा होता है मैला कमाना। कोई दलित इसे स्वेच्छा से नहीं करना चाहता। मजबूरी में पेट पालने के लिये किया जाना पेशा है मैला कमाना।
मसिजीवी ने मैला कमाने के मजबूरी के पेशे को एक मां द्वारा अपने बच्चे का पाखाना साफ़ करने से तुलना करते हुये लिखा-कौन सी मॉं चमारन (सही शब्द भंगी बनेगा) नहीं है?. यह तुलना बेतुकी है। मां (और पिता भी) द्वारा अपने बच्चे का साफ़ सफ़ाई का काम बच्चे के प्रति ममत्व ,लगाव और प्यार के चलते किया जाता है। जबकि पेट पालने के लिये मैला ढोने का काम मजबूरी में किया जाने वाला काम है। अपनी पालिमिक्स प्रेम के चलते दो अलग , नितान्त विपरीत, चीजों की तुलना करना उचित नहीं लगता।
मसिजीवी ने शर्मा शब्द पर बलाघात करते हुये लिखा जरा सी त्वचा खुरचते ही जातिवादी अहम की झलक दिखाई देती है
इसके बारे में लावण्याजी ने लिखा ही है कि वे उनको कष्ट हुआ। जातिवादी अहम झलक मसिजीवी को दिखाई दी! लावण्याजी ने इस पर अपनी बात लिखी भी है।
वैसे भी यह फ़ार्मूला है कि अगर किसी गैरदलित में उसके जातिवादी अहम की माइक्रोस्कोपिक खोज कर ली जाये। और अगर यही बात किसी दलित ने लिखी होती जिसका पेशा मैला कमाना नहीं होता तो उसके लिये फ़ार्मूला है बताया कि भारत में जाति व्यवस्था का मकड़जाल कैसा पेचीदा है।
कई बातें सच होती हैं लेकिन उनका भला या बुरा लगना उनके कहने का अंदाज पर निर्भर करता है। हममे से कई लोगों की पत्नियां नौकरी करती हैं। तमाम लोग अपनी पत्नी की सहमति और सलाह से घर चलाते हैं। अब अगर हममें से कोई महिला समर्थक मुद्दे पर बात करे और कोई आकर कहने लगे- बीबी की कमाई पर पलने वाले जोरू के गुलाम के मुंह से ऐसी बात सुनकर अच्छा लगा! तो मुझे लगता है कि सुनने वाले की सहज प्रतिक्रिया तिलमिलाहट वाली ही होगी।
कुश ने भी लिखा
जहाँ एक और आप लोगो द्वारा हरिजन कन्या को घृणा क़ी दृष्टि से देखने क़ी बात कह रही है वही दूसरी ओर आप स्वयं को अपमानित क्यो महसूस कर रही है.. इस तरह से आप अपने प्रयास में सफल नही हो पाएगी..
कुश से यही कहना है कि बात कहने का अन्दाज का बहुत असर पड़ता है। शास्त्रीजी ने अपनी एक पोस्ट में टिप्पणी की थी :
हिन्दी चिट्ठाजगत में एक मजेदार बात यह है कि एक दो नारियां हैं जो किसी पुरुष चिट्ठाकार का विरोध करते हैं तो बचे कई पुरुषों को एकदम मूत्रशंका होने लगती है और वे तुरंत इन नारियों के चिट्ठों पर जाकर मथ्था टेक आते हैं कि “देवी, हम ने गलती नही की, अत: हमारे विरुद्ध कुछ न लिखना”. यही चड्डी-कांड में आज हो रहा है..
इस पर कुश को बहुत तकलीफ़ हुई और उन्होंने अपनी टिप्पणी दी थी:
एक समझदार आदमी जब इस तरह की बात करे तो क्षोभ होता है... उन्हे ये बात लिखने की क्या ज़रूरत थी.. उनकी इस टिप्पणी पर मैं भी उन्हे ऐसा जवाब दे सकता हू... जिसे पढ़कर उनकी साँसे फूल जाएगी.. मगर मेरे नैतिक मूल्य मुझे इसकी इजाज़त नही देते..
अगर शास्त्रीजी इस अपनी टिप्पणी से बचे कई पुरुषों को एकदम मूत्रशंका होने लगती है और वे हटाकर प्रतिक्रिया करते तो शायद कुश को इतना क्षोभ न होता!
मेरी समझ में ऐसा ही कुछ नीलोफ़र के कमेंट में भी हुआ जिससे लावण्या जी को बुरा लगा!
कुश की चिन्ता भी है
101 बार पढ़ी गयी इस पोस्ट पर सिर्फ़ 10 टिप्पणिया होना बहुत सारे सवाल छोड़ जाता है.. पर इसके जवाब शायद हमे अपने अंदर ढूँढने चाहिए
तो भैया कुश पोस्ट पढ़े जाने और टिप्पणियां आने में अन्तर किसी नये ब्लागर को समझाया जाये तो ठीक लगता है लेकिन तुमको क्या समझायें? 10% टिप्पणियां कम नहीं होती। हर कोई पालिमिक्स प्रेमी नहीं होता। चिट्ठाचर्चा में अधिकतम पाठक संख्या 750 से ज्यादा रही है लेकिन टिप्पणियां कभी पचास का आंकड़ा नहीं पार कर पाईं।
इस मुद्दे पर घुघुतीजी की टिप्पणी है:
लावण्या जी, इतनी अच्छी पोस्ट की, एक हरिजन लड़की की आकाश की उड़ान की बात इस विष भरी टिप्पणी के कारण दब छिप गई। मैला हम सब अपने अन्दर ढोते हैं। हम सबमें भरा पड़ा है। कोई विरला ही इसे साफ करता है। मन का मैल तो खैर और भी अधिक भरा पड़ा है हम सबमें।दुखद विषय को हो सके तो भुला दीजिए। सारे समाज को प्रयास करना चाहिए कि बहुत सी कुंदा वासनिक आकाश की उँचाइयाँ छूएँ।
कविताजी ने लिखा:
लावण्या जी,
सब ओर यही है, लोग टाँग खींचने के बहाने तलाशते हैं, अकारण निन्दा व अपयश फैलाते हैं। यही है, वास्तुत: भारतीय समाज: सड़ते रहने के लिए अभिशप्त इसीलिए है।
कोई बात बुरी लगने पर हर एक का अपना-अपना डिफ़ेन्स मेकेनिज्म होता है। गर्म खून वाले आक्रामक पलटवार करने लगते हैं, शान्त/भावुक दुखी हो जाते हैं। मसिजीवी की जब कोई कमी बताता है तो वे चार कमियां और गिना देते हैं( हम तो हैं ही ऐसे का कल्लोगे?)! ज्ञानजी की तरफ़ से जबाब देने का काम शिवबाबू खुदै संभाल लेते हैं! साधुवादी समीर लाल टंकी पर चढ़ लेते हैं। अरविन्द जी अपनी समझ को कमजोर बताकर काम चला लेते हैं। हम क्या करते हैं हम क्यों बतायें लेकिन मेरे बच्चे का सिखाया हुआ सूत्र वाक्य -जिसकी जैसी अकल होती है वो वैसी बात करता है बहुत काम आता है।
मसिजीवी की पोस्ट के बहाने इस चर्चा का उद्देश्य यही रेखांकित करना था कि पालिमिक्स प्रेम के चलते हममे अक्सर अपनी स्थापनाओं को साबित करने की इतनी हड़बड़ी होती है कि दो नितान्त विपरीत बातों को एक धरातल पर ले आते हैं।
एक किताब के प्रेमी होना मात्र टुच्ची विषाक्तता से मुक्त मान लिया जाता है। मां/बाप द्वारा कुछेक साल अपने बच्चे के लालन/पालन के लिये किये गये काम को ताजिन्दगी मैला ढोने जैसे काम से तुलना करने लगते हैं। एक संदर्भहीन/ शरारती टिप्पणी करने वाले टिप्पणीकार को आउट आफ़ बाक्स सोचने वाला बताकर जनता की सोच से अलग सोचने का भ्रम कायम करने का प्रयास करने लगते हैं।
प्रसंगत:
सन ४३ के अंत में देवली जेल से मुक्त होकर कवि नरेन्द्र शर्मा बम्बई की फ़िल्मी दुनिया में गीतकार बनकर आ गये। नरेन्द्रजी के रिश्ते इन लोगों (कम्युनिष्ट लोगों से) से पुराने थे। तत्कालीन महामंत्री स्व.पूरनचंद जोशी, रमेश सिन्हा, शमशेर बहादुर सिंह, ओ.पी.मंगल, राजीव सक्सेना, कैफ़ी आजमी,स्व.मजाज आदि से वहीं घनिष्टता हुई। यह सब लोग त्यागमय जीवन बिताते थे। तीस रुपये से अधिक शायद किसी को नहीं मिलता था। काम का छोटा या बड़ा होना किसी के लिये कोई अर्थ नहीं रखता था। काम काम था और वह जी जान से किया जाता था। नरेन्द्रजी के साथ मैं अक्सर कम्युनिष्ट पार्टी के दफ़्तर भी जाने लगा। मद्रास में ही नरेन्द्रजी की एक कविता सुनी। मुझे लगा कि हमारे बंधुवर का कविहृदय किसी नाते की नाजुक रेशम की डोर से बंध चुका है। मैंने जब बहुत घेरा तो नरेन्द्र ने अपने मन का भेद खोल दिया। मुझे लगा कि नरेन्द्रजी का यही नाटक स्थाई हो जायेगा। मैंने अपनी पत्नी से भी नरेन्द्रजी के सामने ही इस बात का चर्चा किया। कुछ और बातें भी तब मालूम हुई! कुमारी सुशीला गोदीवाला के पिताश्री रेलवे के एक अधिकारी थे। मेरी पत्नी ने बन्धु की बातों से गोदीवाला परिवार से न जाने कब की पुरानी जान -पहचान निकाल ली। सुशीलाजी के पिताजी कभी आगरे के स्टेशन मास्टर रहे थे। नरेन्द्रजी भी प्रतिभा की इस जानकारी से आश्चर्यचकित रह गये। यह दुनिया कितनी छोटी है, सच पूछा जाये तो यहां कोई भी किसी के लिये अनजाना नहीं है। प्रतिभा ने पन्तजी के सामने यह रहस्य उद्घाटन कर दिया- बरात में चलने के लिये तैयार हो जाइये पंतजी, हमारे ’जेठजी-देवरजी ’ अब जल्द ही अपना ब्याह करने वाले हैं। सुब्बुलक्ष्मीजी की नयी गाड़ी आई थी। दूल्हे को सजा-बजा कर हमने उसी पर बिठलाया। फ़िल्म की खासी नामचीन हस्तियां बराती बनकर गई थीं। उस जमाने में ऐसी शानदार बारात प्राय: बहुत कम ही देखने को मिलती थी। पन्तजी उस दिन परम सन्तुष्ट नजर आ रहे थे। दूसरे दिन मेरे घर पर श्री और श्रीमती नरेन्द्र शर्मा का स्वागत था। अच्छी-खासी शानदार भीड़ थी। श्रीमती नलिनी जयमंत और श्रीमती सुब्बुलक्ष्मी जी ने मांगलिक गीत गाये। परन्तु सबसे अधिक प्रभावशाली पंतजी का काव्य गान ही रहा। मैंने पन्तजी को ऐसे तन्मय होकर काव्य पाठ करते हुये न तो पहले ही सुना था और न कभी बाद में। उस दिन धोती कुर्ता पहने हुये पन्तजी बड़े भव्य लग रहे थे।
अमृतलाल नागर जी की पुस्तक टुकड़े-टुकड़े दास्तान से साभार!
और अंत में
आज चर्चा करने का दिन आदि चिट्ठाकार आलोक कुमार का था लेकिन उनके अभी व्यस्त होने की वजह से हमने ही यह काम कर दिया। मसिजीवी की पोस्ट की चर्चा के बहाने एक पोस्ट की पड़ताल का काम किया। कैसा लगा यह आप बतायेंगे।
चिट्ठाचर्चा में इस तरह की चर्चायें आगे होनी चाहिये या नहीं इसका भी रुझान तय होगा।
कल मनीषजी ने गीत-संगीत की चर्चा की। मनीष का चिट्ठाचर्चा से जुड़ना इसकी एक और उपलब्धि है। मनीष के जुड़ने से चर्चा मंच निश्चित तौर पर समृद्ध हुआ है। अब हफ़्ते में एक दिन गीत-संगीत के चिट्ठों की चर्चा के लिये आप निश्चिंत हो सकते हैं।
फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर।
पॉलीमिक्स माने जूतमपैजारीयता। रिपीटेड पॉलीमिक्सर माने बोर!
जवाब देंहटाएंदो मुख्य ब्राण्ड हैं पॉलीमिक्सी के - नारीमुक्ति और दलित। घणे टिप्पणीचर्णक हैं ये ब्राण्ड। :-)
इस पोस्ट की पड़ताल बहुत जरूरी थी और आपने पूरी बारीकी में की है. मेरे ख्याल से ऐसी पड़ताल आगे भी होनी चाहिए समय और मुद्दे की मांग के अनुसार. चिटठाचर्चा सार्थक बहस का एक अच्छा मंच है और यहाँ हर तरह के लोग मिल जाते हैं जो हर एंगल से चीज़ों को देख कर अपनी राय देते हैं...
जवाब देंहटाएंबस एक सुझाव है, चिट्ठाचर्चा पर आने का मकसद उस दिन के अच्छे चिट्ठो को एक जगह देखना होता है...तो अगर संभव हो तो एक लाईना या ऐसे किसी और आविष्कार के जरिये लिंक दे दिए जाएँ नहीं तो अधूरा अधूरा सा लगता है.
पॉलीमिक्सिंग का मायने जान गये मय उदाहरण-इसके लिए आपका आभार एवं साधुवाद. बाकी बारी पर बैठे नजारा देख रहे हैं.
जवाब देंहटाएंकोई बात बुरी लगने पर हर एक का अपना-अपना डिफ़ेन्स मेकेनिज्म होता है। गर्म खून वाले आक्रामक पलटवार करने लगते हैं, शान्त/भावुक दुखी हो जाते हैं। मसिजीवी की जब कोई कमी बताता है तो वे चार कमियां और गिना देते हैं( हम तो हैं ही ऐसे का कल्लोगे?)! ज्ञानजी की तरफ़ से जबाब देने का काम शिवबाबू खुदै संभाल लेते हैं! साधुवादी समीर लाल टंकी पर चढ़ लेते हैं। अरविन्द जी अपनी समझ को कमजोर बताकर काम चला लेते हैं। हम क्या करते हैं हम क्यों बतायें लेकिन मेरे बच्चे का सिखाया हुआ सूत्र वाक्य -जिसकी जैसी अकल होती है वो वैसी बात करता है बहुत काम आता है।
जवाब देंहटाएंगजब आब्जर्वेशन है... कम से कम हमें लेकर किए गए अवलोकनल से सहमति है... हमें लगता है अगला इतनी मेहनत से कमी खोज रहा है तो थोड़ी सहायता कर देते हैं। :)
नीलोफ़र की इस टिप्पणी से बहस के नये आयाम भले खुले लोगों को अपनी बहस और विवाद कला को निखारने का मौका मिला ! लेकिन इस टिप्पणी से कहीं से नहीं लगता कि टिप्पणीकार के मन में स्त्रियों या दलितों के प्रति सहज संवेदना है।
कतई नहीं लगता... न ही हमने ऐसा कोई संकेत दिया है कि हमें लगता है...खुद हमें खोजने पर लावण्या की ऐसी कोई टिप्पणी नहीं मिली जिसमें उन्होंने अपनी माताजी या अपने बारे में ऐसी कोई बात लिखी हो...इसलिए सुजाता का टिप्पणी नही छापना भी शायद ठीक था... लेकिन हमारी पोस्ट नीलोफर की टिप्पणी पर कम इस टिप्पणी पर लावण्या की प्रतिक्रिया पर अधिक है...लावण्या का डिफेंस मैकेनिज्म हम सभी सवर्णों (स्त्री मुद्दे पर पुरु
षों के) की उस प्रवृत्ति का संकेत है (नहीं नहीं...चमारन नहीं..मैला कमाना नहीं...छि छि कितने गंदे लोगों से तुलना..हाउ डेयर यू) हम सभी संवेदनशीलता अर्जित करने की प्रक्रिया में ऊपर से बदलने की कोशिश करते हैं..कुछ कुछ कर भी पाते हैं पर क्या अंतर्मन बदल पाता है...बस इतनी बात।
पोलिमिक और ट्राल में अंतर है...कम से कम नीयत का तो है... और यकीन मानिए साधुवादी अपोलॉजिया से कही ज्यादा हिम्मत का काम है 10 में 8 आपकी नीयत गलत समझेंगे इसकी ही संभावना अधिक है
... टिप्पणी चर्वण इन अपोलॉजियाई हलचलों से ज्यादा होता है... ज्ञानदत्तजी से बेहतर कौन जानेगा।
वैसे ये भी संयोग है कि लावण्याजी (की माताजी) का परिचय देने में आपने अमृतलाल नागरजी को कोट किया, दलित मुद्दे पर बातचीत के प्रकरण में ही सो भी मैला कमाने के मामले में, यही सुपुत्री लावण्या इन्ही नागरजी की निउणिया से तादात्मय स्थापित करने में विफल रहीं। है संयोग ही पर विचित्र।
टिप्पणी ज्यादा लंबी हो गई खेद है। पॉलिमिक की जरूरत पर लिखा था ... समय मिले तो देखें
जवाब देंहटाएंबहसों के नाम पर बस सचमुच काटते ही नहीं हैं ...बरना फ़न लहराने में कमी कोई नहीं छोड़ते...आह... हम लोगों में कितना ज़हर भरा है...
जवाब देंहटाएं@जो अपने ब्लॉग का नाम तोता चान रखता है वो आउट आफ बाक्स सोचनेवाला ब्लॉगर है, कम से कम टुच्ची विषाक्तता के लिए तो नहीं।
जवाब देंहटाएंयह होता है रिपीटेड पालिमिक्सर का कमाल! हमारी गंवई भाषा में इसे बात का बतंगड बनाने वाला ही कहेंगे ना?:)
विश्लेष्णात्मक चर्चा। बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंलावण्या दी’ के बहाने उनकी माता जी का मानमर्दन करने वाली (? नीलोफ़र)का समाधान इन तथ्यों के आलोक में हो गया होगा। निस्सन्देह लावण्या दी’ को भी राहत मिली होगी कि पितृऋण की भावना में व्याघात नहीं आने दिया।
चर्चा के मंच का सामूहिक हित के कार्य के लिए ऐसा प्रयोग ही इसकी निर्विवाद चौपाल-धर्म की अनुपालना की पुष्टि करता है। जिन लोगों ने इस प्रकरण से जुड़े चिट्ठे न देखे होंगे, या सामान्यत: हिन्दी ब्लॊगजगत् में प्रचलित कॊकस-भाव के कारण सार्वजनिक रूप से वे तद्सम्बन्धी किसी भी ब्लॊग पर अपने आन्तरिक भाव को व्यक्त न कर पाए होंगे,उनके लिए तो ये प्रश्न और इनका यहाँ विश्लेषण सुखद है ही; इसके अतिरिक्त इन प्रश्नों का यहाँ आना और उन पर सम्यक् दृष्टिपात होना उनके व्यक्तिगत से सार्वजनिक हित के प्रश्नों के रूप में व्याख्यायित होने की आवश्यकता पर बल देता है।
चर्चा के मंच की ऐसी ही सार्थकता इसे निर्विवाद समष्टिगत प्रमाणित करेगी। क्रम बना रहे। बधाई। सहमति।
लावण्या जी जैसी संभ्रात और सुलझी सोच वाली महिला का ऐसे बेकार के जातीवाद विवाद में उलझ जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। आप ने जितना कोट किया है उससे तो यही पता लग रहा है कि लावण्या जी ने किसी की कोई बुराई नहीं की थी और निलोफ़र की टिप्पणी संदर्भहीन और गलत मंशा से ही की गयी थी। इस मुद्दे पर ज्यादा बहस कर या टिपिया कर हम निलोफ़र को अपनी मंशा में कामयाब होने में मदद कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसाधारण नाम होने के संभावित खतरे भी है ..आज मुझे वाकई ऐसा प्रतीत हुआ ..वैसे अजीब बात है की हम लोग कंटेंट पर न बहसिया कर शीर्षक ओर दुसरे मुद्दों पर अक्सर बहसिया जाते है...इसे मानसिक अय्याशी भी कहते है ...ऐसा लगता है हिंदी ब्लॉग शैशव काल से (वैसे ये शिशु अवस्था काफी लम्बी हो गयी है )इस अय्याशी का शिकार है.......इन बहस -मुबाहिसों में कितनी बिजली फूंक गयी कितने ब्रॉड बेंड हिल गए पर मूल प्रशन वही पड़े रह गये...अनुतरित .?
जवाब देंहटाएंपोलिमिक्स वाकई मेरे लिए नया शब्द है.... इसका मतलब ढूंढ़ना पड़ेगा ...क्यूंकि यहाँ तो सबके अभ्यास अलग है .जुदा जुदा ..
चिठ्ठाचर्चा में इस प्रकार की चर्चाएँ आगे होनी चाहिए या नहीं ..बिलकुल होनी चाहिए मैं इसके समर्थन में हूँ.मैंने पहले की कहा था की यह टिप्पणी प्रकाशित नही होनी चाहिए थी ..क्योंकि यह किसी पर व्यक्तिगत रूप से की गई थी ..फिर चाहे लेखक की मंशा जो भी हो(वैसे हम देख सकते हैं की कितनी घृणा पूर्वक यह बात कही गई थी ).
जवाब देंहटाएंपालिमिक्स यानि जूतमपैजारियता.. बहुत विशिष्ट शब्द है. होते रहनी चाहिये. हलचल बनी रहती है. पर जिस भावना से यह जूतमपैजारियता हुई है वो अफ़्सोसजनक है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
शानदार चर्चा रही.
जवाब देंहटाएंपॉलीमिक्स का मतलब बताने के लिए धन्यवाद.
हम तो थोडी देर पहले तक समझ रहे थे कि जैसे गुलाबजामुनमिक्स, खीर मिक्स....वैसे ही पॉलीमिक्स. मतलब पॉलिटिक्स का व्यंजन.
मेल से प्राप्त झालकवि की टिप्पणी:
जवाब देंहटाएं--------------------------
कबिरा बैठा पेढ़ पर, मैला करता जाय
जिसको जितना चाहिए,झोला देउ लगाय
"झोला देउ लगाय !" सुनी जब ऐसी बानी
झोला लेकर दौड़े सब ज्ञानी, अज्ञानी
झालकवि यों कहें,ढोइए जमकर मैला
लम्बी लगी कतार खडे़ हैं लेकर थैला
-------------------------झालकवि -
@विवेक जी वाह ..आपको पुनः सक्रिय देखकर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंabhee jaldee me hoon ! phir lautungaa !
जवाब देंहटाएंमुझे एक बात समझ मै नही आई कि जब किसी भी दलित को दलित कहने पर इतना गुस्सा आता है तो यही दलित जब नोकरियो मे, ओर अन्य स्थानो मै अपने कोटे की मांग करते है तो इन्हे गुस्सा क्यो नही आता ? इन से ज्यादा पढे लिखे लोग हाथ पर हाथ धरे रह जाते है ओर यह बहुत कम ना० होने पर भी अपनी जात के कारण दुसरो का हक मारते है, तब यह गुस्सा, यह अक्रोश, क्यो नही आता ??
जवाब देंहटाएंअब चमार को चमार नही तो ओर क्या कहेगे, लेकिन यह सोच सिर्फ़ इन लोगो की खुद की बनाई हुयी है, विदेशो मै भी एक चमार अपने को चमार कहने मै शर्म महसुस नही करता, याद किजिये शु मेकर,गोल्ड समिथ,ऎयर्न समिथ, स्विपर, यह सब उप नाम भी इन गोरो के नामो के संग है लेकिन इन्हे शर्म नही, क्यो कि यह अपने को दलित मांन कर अपना हक नही मांगते, अपने आप को अपनी नजरो से हीन नही बनाते, यही लोग हमारे संग बेठ कर खाते पीते है, ओर यह सब भारत मै भी हो सकता है, बस इन लोगो को सब से पहले अपनी जात की इज्जत खुद करनी आनी चाहिये , सब से पहले यह खुद को इंसान समझे, अपनी जात का रोना लेकर अपने मतलब के लिये कुछ ना मांगे बस आम भारतीयो की तरह से अपने आप को समझे, ओर मतलब निकल जाने पर फ़िर आंखे दिखाये कि चमार, या भंगी कह कर मेरी बेज्जती की है,
मेरे मन मै सब जात वाले एक समान है, ओर सब से मै प्यार करता हुं इस लिये सब से पहले तो यह इन लोगो को मन से निकालाना चाहिये की यह छोटे है, इन की जात छोटी है, जो गलत है, हम सब एक समान है, इस लिये किसी भी जात को ले कर हमे अपनी बेज्जती महसुस नही करनी चाहिये.
भगवान ने हम सब को एक बनाया है जात हमारे कामो की वजह से हमे मिली है, तो फ़िर शर्म केसी, हमे मान होना चाहिये अपनी अपनी जात पर, शर्म नही
धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर तरीके समेट लिए. बालक की बात हमने गांठ बाँध ली "जिसकी जैसी अकल होती है वो वैसी बात करता है"
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएक खासियत देखी कि महाराज आप सब कुछ अच्छी तरह समेट लेते है . बधाई
जवाब देंहटाएंअनूप ने फिर से चर्चा की एक अनोखी मिसाल कायम की है.
जवाब देंहटाएंमाडरेटरों की जिम्मेदारी थी कि लावण्या जी के आलेख पर जो टिप्पणी आई थी उसे मिटा दे एवं किसी को कानोकान खबर न होने दे. ऐसा न करके उस हटाई गई टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी करके लावण्या जी को आहत होने का कारण दिया गया. यह सामूहिक चिट्ठा चलाने वाले हम सब के लिये एक सूचना है कि आगे ऐसी बातों को बडी संवेदनशीलता के साथ हेंडिल किया जाये.
जो हो गया वह हो गया, लेकिन इस विषय पर एक बौद्धिक चर्चा जरूरी थी जो अनूप ने बहुत अच्छी तरह से कर दी है. इसके लिये अनूप को मेरा अनुमोदन!!
सस्नेह -- शास्त्री
पुनश्च: मैं अनूप के हर सुझाव को काफी वजन देता हूँ अत: सारथी पर मेरी एक पुरानी टिप्पणी से जो एक छोटा सा भाग हटाने को उन्होंने कहा है उस भाग को आज ही हटा दिया जायगा. मित्रों के सुझाव का आदर करना हम सब की जिम्मेदारी है.
'कोई बात बुरी लगने पर हर एक का अपना-अपना डिफ़ेन्स मेकेनिज्म होता है।' यह बात बहुत सही लगी। हाल ही में जब राम सेने व उससे सम्बन्धित प्रकरण चल रहे थे और जब स्त्रियों को शालीनता आदि के पाठ पढ़ाए जा रहे थे तब मेरी एक पोस्ट पर एक ऐसी टिप्पणी आई जिससे मेरे सम्मान के प्रति सजग मित्रों को कष्ट हुआ। मैंने कहा कि क्रोध न करें व कुछ न कहें। अन्य लोगों की प्रतिक्रिया देखी जाए। उस टिप्पणी को ही एक नई पोस्ट का आधार बनाकर मैंने वह टिप्पणी ज्यों की त्यों प्रस्तुत कर दी। गौर करने योग्य बात है कि स्त्री भाषा व आचार पर नजर रखने वाले टिप्पणीकारों व ब्लॉगरों में से एक ने भी इसका ना तो विरोध किया और न ही इसपर कोई आपत्ति की।
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यों परन्तु मुझे लगता है कि यदि मैंने स्वयं ने उस शब्द का प्रयोग किया होता तो शायद कुछ लोगों को आपत्ति होती किन्तु क्योंकि यहाँ वह किसी पुरुष की कलम से जन्मा था तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। मेरे इस विचार कि स्त्री व पुरुष से अलग अलग भाषा की अपेक्षा की जाती है की पुष्टि हुई।
हो सकता है कि मैं गलत हूँ व गलत नतीजों तक पहुँची परन्तु मेरे विचार को तो पुष्टि मिली।
घुघूती बासूती
वाह गुरुजी, शब्दों और विचारों के मायने तो कोई आपसे सीखे। पालिमिक्स को उदाहरण सहित समझाने का शुक्रिया, ऐसी चर्चायें होती रहनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअपनी तेजतर्रार लोग नाम की पोस्ट मे शास्त्री जी कमेन्ट मोदेरेशन से आहत हैं और यहाँ कमेन्ट मोदेरेशन को करने की हिमायत कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंhttp://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/11/comment-moderation-and-word.html
इस पोस्ट पर देखे महिला के खिलाफ किस अंदाज से और किस भाषा का प्रयोग होता हैं एक अंश
"ये महिलाओं की ठेकेदारनियाँ हर बात ख़ुद पर क्यों ले लेती हैं? यहाँ साफ़ तौर पर संकेत राष्ट्रद्रोही चिट्ठों की ओर था."
http://nirmal-anand.blogspot.com/2008/01/blog-post_31.html
पर मेरे परिवार के प्रति अनादर की टिपण्णी को प्रत्यक्षा के अपवाद ही मोदेराते किया गया
क्या ब्लॉग लिखने का मतलब होता है कि हम अपने परिवार के प्रति अनादर को भूल जाए और ये अनादर इतना महिला ब्लॉगर के ब्लॉग पर ही क्यूँ होता हैं .
जवाब देंहटाएंमैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ?
इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी..
पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता !
खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ?
मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ?
किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ..
यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ?
इस बहस से, यह फिर से जी उठा है !
नतीज़ा ?
चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ,
क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है !
समाज के केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ?
यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता..
यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है..
तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें
या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ?
चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ? ) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ?
क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ?
या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ?
नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो..
उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं ।
इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है !
यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एक अस्त्र है,
सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो !
मसीजीवी के पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ?
मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै !
राम राम !
जवाब देंहटाएंयह रहा मेरा एक के साथ एक फ़्री..
मोची बना सुनार
अनूप भाई,
जवाब देंहटाएंआभार !
पोलिमिक्स जैसे दुरुह शब्दोँ को
उदाहरण सहित समझाया आपने -
और आदरणीय नागर जी चाचाजी की पुस्तक से
आपने जो उद्धरण यहाँ पर दिया है,
उसे पढकर आँखेँ सजल हो गईँ -
भावुक हूँ -
अपने आदर्श अम्मा व पापा जी की,
सदा मेरे ह्रदय मे बसी छवि को
उनके विवाह पर प्रफुल्ल्लित, मुस्कुराते देख रही हूँ -
ऐसा लगा -
ये नाररजी चाचाजी की लेखनी का जादू ही तो है -
हाँ उनकी कुछ पुस्तके पढीँ हैँ ,
मगर सभी नहीँ पढीँ :)
जिस कारण,
" निऊणियाँ " के पात्र से, मैँ, अपरिचित थी
जिसे मसिजिवी बखूबी जानते हैँ :)
- मेरे, लिये तो , "नागरजी " मेरे, चाचाजी हैँ !
पँतजी दादाजी हैँ !
उसके बाद ही भान हुआ बहुत बडी हुई तब कि, वे कितने ख्यातनाम , प्रतिष्ठित साहित्यकार तथा कविश्रेष्ठ भी हैँ !!
-विश्व की कई विरल पुस्तकेँ हैँ -- अपार ज्ञान है --
मगर मैँ एक साधारण, वत्सल माँ , नानी और गृहिणी ही हूँ -
जो मन मेँ आता है, छल कपट बिना लिख देती हूँ -
मसिजिवी से पुन: कहती हूँ, अत्यँत विन्म्रता सहित,
मेरी प्रतिक्रिया अम्मा के प्रति की हुई असभ्य टीप्पणी के लिये है
और मेरा सहकार हर सँघर्षरत इन्सान के लिये है -
" नीलोफर जी कहाँ हैँ ? " आप छिपी हैँ कहाँ ? हम आप का अभिप्राय तथा आपके कहे को समझकर , अपने आपको सुधारना चाहते हैँ - कृपया दर्शन दीजिये ..
अगर आप मेँ से किसी का नाम मेरे पर ये जो टीप्पणी नीलोफर जी ने की है -
वहाँ..
मेरा नाम हटाकर अगर खुद नीलोफर जी का नाम रखेँ ,
या मसिजिवी जी, सुजाता जी या आर अनुराधा जी या फिर घूघुती जी या अनूप भाई आप के लिये यही बात लिखी जाती तब सच बतायेँ , आप की क्या प्रतिक्रिया रहती ?
खैर !
नागर जी की कथा पढी नहीँ - निऊणियाँ का निर्णय उसका होगा नागर जी के पात्र उनकी कल्पना है मेरे अभिप्राय मेरे हैँ ..
Rather then some one ,to regress,
I'd want them rather to progress ...
To be better, be more comfortable,
to be more successful ..
काश , दलित वर्ग दलित ना रहे -
सभी समान होँ...
तो ये दुनिया कितनी सुँदर हो जाये -
ये कब सम्भव होगा ?
क्या पता ?
मैँ, हर उस व्यक्ति के साथ हूँ जो सँघर्षरत है -
स्त्री और पुरुष - वर्ग व वर्ण ,रँदभेद , सभी का मैँ साथ देती हूँ
But as of yet, I have not got any certificate for my Merits :) No report card :-))
( Not that I am waiting for the same with great anticipation :-)
.. मेरी प्रतिक्रिया तटस्थ है...
परिताप नहीँ
-अम्मा के प्रति लिखे शब्द किसी भी लिहाज से, सभ्य नहीँ लग रहे - आप अपने आपको, मेरी जगह रखेँ -
और " नीलोफर जी कौन हैँ ? "
और नीलोफर जी की
इस प्रतिक्रिया का कारण जानने का प्रयास करेँ -\
बाकी विवाद तो होते ही रहेँगेँ ..
सभी को बहुत स्नेह सहित,
- लावण्या
बहुत अच्छी चर्चा हो गयी। अनूप जी को बधाई। कुछ बातें यहाँ कहना अप्रासंगिक नहीं होगा:
जवाब देंहटाएंदर असल ‘चमार’ शब्द का प्रयोग अब सिर्फ़ एक जाति के लिए ही नहीं होता बल्कि भाषा में यह एक जीवन शैली का अर्थ भी देता है। सवर्णों के बीच भी किसी के घटिया व्यवहार के लिए ‘चमारपन’ का विशेषण प्रयुक्त होता है। यहाँ चमार का मतलब गन्दा, असभ्य, बदतमीज, दुष्ट, अधम, फूहड़, घिनौना, संस्कारहीन, स्वाभिमानविहीन, निर्लज्ज, और मूर्ख कुछ भी हो सकता है।
कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर भंगी या मेहतर होते थे जिनका पेशा झाड़ू लगाना और सिर पर मैला ढोना होता था। ऐसे लोग गन्दगी के पर्याय होते थे। बड़ा ही तुच्छ समझा जाता था इन्हें। इनसे थोड़ा ऊपर चर्मकारी का पेशा था जो मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने से लेकर उनका संस्कार करके चमड़े के जूते और दूसरे सामान तैयार करते थे। यही चमार (चर्मकार) कहलाते थे। मोचीगिरी इनका ही पेशा था। इन्हें समाज में जैसा स्थान प्राप्त था, और जैसी छवि थी उसी के अनुरूप इनके जातिसूचक शब्दों से भाषा में मुहावरे और विशेषण बन गये।
आज के आधुनिक समाज में अब जाति आधारित कामों के बँटवारे को समाप्तप्राय किया जा चुका है। सामाजिक दूरियाँ सिमट रही हैं। लेकिन भाषायी रूढ़ियों को इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता। किसी को ‘चमार’ कहना इसीलिए आहत करता है कि उसका आशय आजके समता मूलक समाज में पल रहे एक जाति विशेष के सदस्य से नहीं है बल्कि ऐसे अवगुणों से युक्त होना है जो आज का चमार जाति का व्यक्ति भी धारण करना नहीं चाहेगा। कदाचित् इसी गड़बड़ से बचने के लिए सरकारी विधान में जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर रोक लग चुकी है।
लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के नाम पर अपने को ‘चमार’ कहे जाने का लिखित प्रमाणपत्र मढ़वाकर रखा जाता है। अपने को चमार बताकर पीढ़ी दर पीढ़ी उच्चस्तर की नौकरियाँ बिना पर्याप्त योग्यता के झपट लेने वाले भी समाज में चमार कहे जाने पर लाल-पीला हो जाते हैं।
किसी सवर्ण को जहाँ-तहाँ बेइज्जत करने का कोई मौका नहीं चूकते। अपनी इस कूंठा को खुलेआम व्यक्त करते हैं और दलित उत्पीड़न का झूठा मुकदमा ठोंक देने की धमकी देकर ब्लैक मेल करने पर इस लिए उतारू हो जाते हैं कि उसके बाप-दादों ने इनके बाप-दादों से मैला धुलवाया था।
आज सत्ता और सुविधा पाने के बाद ये जितनी जघन्यता से जातिवाद का डंका पीट रहे हैं उतना शायद इतिहास ने कभी न देखा हो।
तो भाई मसिजीवी जी, इस दोगलेपन का यही कारण है कि चमार जाति और चमार विशेषण का अन्तर इस शब्द के प्रयोग के समय अक्सर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाता है।
लावण्या जी का आहत होना स्वाभाविक है। नीलोफ़र का असभ्य भाषा का प्रयोग निन्दनीय।
आधुनिक समाज में ये सारे काम मशीनों और दूसरे उद्योगपतियों ने भी सम्हाल लिए हैं। लेकिन इन विशेषणों से छुटकारा मिलने में अभी वक्त लगेगा। एक सभ्य आदमी को इसके प्रयोग से बचना चाहिए।
पोलिमिक्स तो इस चिट्ठा चर्चा पर आ कर हुई है। इस से पहले तो भूमिका मात्र थी।
जवाब देंहटाएंमुझे तो अभी भी यह समझ नहीं आ रहा कि नीलोफर की उस टिप्पणी की वजह क्या थी। कोई खीज ही हो सकती है। बातचीत होती रहे, कुछ हम कहें, कुछ आप कहें। कभी तो मौके बेमौके किसी का कहा याद आएगा। डाक्टर अमर कुमार बिलकुल मौके पर प्रकट हुए। होली से रंग पंचमी तक कहीं अन्तर्ध्यान थे। पर भूलिए मत, यहाँ हाडौती में होली के बारहवें दिन न्हाण खेला जाता है और सूखे रंगों का बिलकुल उपयोग नहीं होता। डोलचियों से निशाना मार कर खेला जाता है। तैयार रहिएगा डाक्टर साहब!
हा हा अनूप जी इतनी शानदार और जानदार चिट्ठा चर्चा मत किया कीजिए भाई हमारी नज़र वज़र लग जाएगी। हाँ नहीं तो।
जवाब देंहटाएंअनूप जी,
जवाब देंहटाएंपहले तो आजकी इस बेबाक और निष्पक्ष चर्चा के लिए बधाई स्वीकारें. इस बहाने हम जैसे अज्ञानियों को भी पोलिमिक्स और खामखाँ की बहसबाजी का ऐसा अन्तरंग सम्बन्ध जानने को मिला जैसे कि झगडालू साली और बहनोई-नखरेवाली का होता है.
यह विघ्नसंतोषी प्रवृत्ति है। इसमें टुच्चेपन और विषाक्तता दोनों के ही तत्व मौजूद हैं भले ही लेखक की पसंद तोत्ताचान जैसी शानदार किताब क्यों न हो!
आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ. दूसरों की पोस्ट पर आग लगाकर उसमें अपनी तत्वहीन पोस्ट के लिए टिप्पणियाँ जुटाकर हाथ सेंकने वाले कई परजीवी मौजूद हैं हिन्दी ब्लॉग-जगत में.
धन्यवाद!
[Note: इस टिप्पणी के सारे हाईलाईट और इटैलिक्स मेरे हैं और व्यंग्यात्मक हैं. किसी के नाम, काम, बदनाम या रिश्ते से साम्य सिर्फ एक संयोग है.]
अनूप जी बधाई के साथ कुसली वाला धन्यवाद भी!! पॉलीमिक्सिंग का असल अर्थ उदाहरण सहित बताने के लिए ............वैसे इसमें भी कुछ लोगों को पॉलीमिक्सिंग का नया मसाला मिले तो अलग बात !!
जवाब देंहटाएंवैसे कल मसिजीवी जी की जिस पोस्ट पर टिप्पणी पर यह पॉलीमिक्सिंग शब्द आया तो भैया हमने भी सोचा था कि अर्थ -वर्थ पता करके कुछ ठेल दें .....अच्छा ही हुआ कि हम सोचते ही रह गए और आपने बढ़िया फुरसतिया स्टाइल में ठोक दिया !!!
जय गुरुदेव!!!
कुछ पॉलीमिक्सिंग हम भी आगे करने की सोच रहे हैं ..........पर बलि का बकरा किसे बनाए ????
अनूप जी बधाई के साथ कुसली वाला धन्यवाद भी!! पॉलीमिक्सिंग का असल अर्थ उदाहरण सहित बताने के लिए ............वैसे इसमें भी कुछ लोगों को पॉलीमिक्सिंग का नया मसाला मिले तो अलग बात !!
जवाब देंहटाएंवैसे कल मसिजीवी जी की जिस पोस्ट पर टिप्पणी पर यह पॉलीमिक्सिंग शब्द आया तो भैया हमने भी सोचा था कि अर्थ -वर्थ पता करके कुछ ठेल दें .....अच्छा ही हुआ कि हम सोचते ही रह गए और आपने बढ़िया फुरसतिया स्टाइल में ठोक दिया !!!
जय गुरुदेव!!!
कुछ पॉलीमिक्सिंग हम भी आगे करने की सोच रहे हैं ..........पर बलि का बकरा किसे बनाए ????
सभी साथियों की प्रतिक्रियाओं का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंलावण्य़ाजी ने पूछा है कि अगर ऐसा मेरे साथ /दूसरे के साथ होता तो कैसा लगता?
मैंने लिखा ही है कि असंगत टिप्पणी देखकर बुरा लगता। उसकी प्रतिक्रिया भले ही मेरी अलग होती।
मसिजीवी से और बेहतर जबाब की उम्मीद थी लेकिन मसिजीवी ने टिप्पणी भी पालेमिकल टाइप है। यह स्पष्ट करने कि मजबूरी में मैला कमाना और मां/बाप द्वारा बच्चों के पालन पोषण के काम की असंगत तुलना कैसे जायज है ? मसिजीवी ने और आगे लावण्याजी के हिन्दी ज्ञान के इम्तहान फ़ेल कर दिया कि वे निउनियां के बारे में नहीं जानती।
(नहीं नहीं...चमारन नहीं..मैला कमाना नहीं...छि छि कितने गंदे लोगों से तुलना..हाउ डेयर यू) की तरह की टिप्पणी टिप्पणीकार की मंशा बताती है। दफ़्तर में हमारे एक साहब ऐसा करते थे। कोई बेहूदी सी बात टाइप करवाते और फ़िर उसको अपने पेन से काटकर दस्तखत कर देते ताकि अगला देख ले कि लिखा है लेकिन कटा है।
टिप्पणी चर्वण इन अपोलॉजियाई हलचलों से ज्यादा होता है... ज्ञानदत्तजी से बेहतर कौन जानेगा। का मतलब मुझे समझ में नहीं आया।
शास्त्रीजी को बधाई कि उनको इसका एहसास हुआ कि वह टिप्पणी हटनी चाहिये।
kripya is par bhi najar daalein.
जवाब देंहटाएंबाल्मीक - शूद्र थे ब्राह्मणत्व को प्राप्त,
ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महर्षि आत्रेय शूद्र परिवार में जन्मे थे.
महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास केवट महिला सत्यवती के पुत्र थे.
सत्यकाम - ज्वाला नामक शूद्र कन्या के पुत्र थे.
महाराज जनश्रुति भी शूद्र थे.
महर्षि पराशर चाण्डाली पुत्र थे.
महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मणत्व को प्राप्त.
महाविद्वान रैक्व स्वयं शूद्र थे.
पैरभी और भालानन्द क्षत्रिय से शूद्रत्व को प्राप्त हुये.
तैत्रिरीय संहिता के अनुसार क्षत्रिय राजा रथानिधि ने अपनी कन्या का विवाह सकाश्व ब्राह्मण से किया था.
बाजसनेई संहिता के अनुसार वृहस्पति ने अपनी पुत्री रोमसा का विवाह क्षत्रिय राजा सवनेय भवगण्य से किया था.
क्षत्रिय राजा ययाति ने शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से विवाह किया था.
महर्षि अंगिरा की पुत्री शरवनी का विवाह राजा असंग से हुआ था.
कसीवान (जो एक दासीपुत्र थे) ने वृषया से विवाह किया था.
अर्जुन का विवाह उलूमी नामक नाग जाति की कन्या से हुआ तथा भीम का विवाह हिडिम्बा नामक कन्या से हुआ था.
सुमित्रा (महाराज दशरथ की पत्नी), ब्राह्मण पिता और कर्णी (अनार्य जाति) माता की पुत्री थीं.
ऐलुष ऋग्वेद के दसवें मंडल के रचयिता एक शूद्र थे.
हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हर कोई अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु समाज को अधिक से अधिक बांटकर अधिक से अधिक वोट पाकर सत्ता सुख हासिल करना चाहता है. किसी की भी इच्छा नहीं है भारत को एक सही राह पर लाने की. समाज को जितना तोड़ पायेंगे सत्ता प्राप्त करने के मौके उतने ही अधिक हो जायेंगे, इस सिद्धान्त पर काम करते हुये समाज में बिखराव लाया जा रहा है. ऊपर से तथाकथित बुद्धिजीवी अपने मतलब की चीजें खोजकर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, उन्हें भी समाज के व्यापक और दीर्घकालीन हितों से कोई लेना देना नहीं है.
अरे बाप रे फिर लौटा हूँ तो देख कर चुटिया लम्बवत हो गयी होती यदि होती तो ! कितना बौद्धिक जुगाली हो गयी रे बाबा ! मानना पड़ेगा अनूप जी ऐसी ही नहीं ताड़ के वृक्ष हुए हैं इस चिट्ठाजगत में -खूब नस पकड़ते हैं चिट्ठों और चर्चा की !
जवाब देंहटाएंअब मैं भी कुछ विद्वता झाड़ लूं नहीं तो डॉ अमर कुमार जी अकेले पड जायेंगें वैसे ही वे पुरुष रजोनिवृत्ति की अभी तक अनकही पीडा झेल रहे हैं इसलिए उनके साथ रहना नैतिक कर्तव्य हो जाता है -उनसे सहमति के साथ यह भे जोड़ दूं कि कई गलतफहमियों और निजी स्वार्थों चलते वर्ण व्यवस्था के दोष स्थाई रह गए पर इसके लिए आज किसी को दोष देने के बजाय पश्चताप के कारण ही सही प्रवंचितों को बढावा देना है और यह काम हो रहा है -अब चमार तो एक भाववाचक शब्द ही होना चाहिए -जैसे इस ब्लागजगत में भी कुछ लोग चमरपन पर उतारू हो जाते हैं -(क्या चमाईन्पन भी हो सकता है ? मैंने इस शब्द को नहीं सुना ! पर चमायिनों को देखा है भाववाचक के अर्थ मैं ही ! )
आपने कर्म वृत्ति से ब्राहमण भी चमार हो सकते हैं कई हैं भी बल्कि बहुधा हैं !
लेकिन नीलोफर और लावण्या जी ने इसे अभिधा मैं ही ले लिया और पोलीमिक का मार्ग प्रशस्त किया !