आशा है होली का ये पर्व आप सब ने अपने नज़दीकियों के साथ सोल्लास मनाया होगा। अब बात होली की हो तो बिना लोकगीतों की मिठास के इस पर्व का मज़ा कहाँ ? पर हमारे संगीत के सो कॉल्ड डेडीकेटेड चैनलों या रेडिओ के इन एफ एम बैंड वालों से इतना भी नहीं हुआ कि होली से जुड़े लोकगीतों पर कम से कम दिन भर का भी कार्यक्रम कर पाते।
करें भी तो कैसे? लगता है कि ना तो वे ब्रज की गोरियों के बालपन से परिचित हैं और ना ही फगुआ की रस भरी बयार से उनका सामना हुआ है। और हद तो ये है कि होली पर आधारित गीत संगीत का प्रचार करते समय ऍसे एलबमों की भरमार होती है जो चोली के आलावा, होली से जीवन के किसी और रंग का जुड़ाव नहीं देख पाते। पर जो काम हमारे संचार माध्यम नहीं कर पा रहे वो संगीतप्रेमी ब्लागिए किए दे रहे हैं।
यूँ तो चिट्ठा जगत पर होली का रंग दो हफ्ते पहले ही चढ़ चुका था फिर भी पिछले हफ्ते इस रंग पर परवान चढ़ाया हमारे साथी चिट्ठाकारों ने। कहीं प्रख्यात गायिका गिरजा देवी आँखिन भरत गुलाल रसिया ना माना रे.... गुनगुना रही थीं तो कहीं सुनने को मिली नवोदित गायिका लीपिका भट्टाचार्य द्वारा होली गीत की गरिमामय प्रस्तुति। आखिर ऍसा क्यूँ है कि हम होली के आते ही गीत संगीत की शरण में चले जाते हैं। यूनुस इस मनोविज्ञान के बारे में कहते हैं ...
"...होली मुझे बेहद तरंगित और ललित पर्व लगता है । मुझे लगता है कि आधुनिक-जीवन के तनावों और दबावों से निपटने के लिए होली एक 'स्ट्रेस-बस्टर' की तरह है । जिसमें हम अपने भीतर जमा हो चुके 'संत्रास' को मौज-मस्ती के माध्यम से बाहर निकालकर बहुत हल्के हो जाते हैं ।..."
वहीं फगुआ गीतों से जुड़े मस्ती और उल्लास वाले माहौल की चर्चा करते हुए सिद्धेश्वर अपनी पुरानी यादों को बाँटते हुए कहते हैं .... "आज होलिका दहन या सम्मत (सम्मथ बाबा ) जलाने की बारी है. बचपन में हमलोग लौकार (मशाल ) बनाकर उसे भाँजते हुए इस जुलूस में शामिल होते थे- गोइंठा (उपले ) और उबटन की उतरन के साथ. हाँ , तब हम लोग होली पर पटाखे छोड़ते -फोड़ते थे दीवाली पर नहीं "......
होली के इन गीतों में, सबसे ज्यादा आनंदित किया पंडित छन्नू लाल मिश्रा के इस गीत ने जिसे यूनुस ने रेडियोवाणी पर चढ़ाया है। शब्दों के साथ इस रसभरे गीत का आनंद लीजिए
खेलैं मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी ।
भूत पिसाच बटोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।
लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के
चिता-भस्म भर झोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।
ये तो हुई होली और उसकी सांस्कृतिक विरासत से मिले लोकसंगीत की बातें। लोकगीतों से चलें फिल्मी गीतों की तरफ। आवाज़ पर इन दिनों पुराने गीतों की श्रृंखला चल रही है। इसी संदर्भ में सुजॉय चटर्जी ने जिक्र किया संगीतकार मदनमोहन द्वारा कम्पोज की हुई ग़ज़लों के बारे में लता जी के विचारों का। लताजी कहती हैं
"पहले ग़ज़ल गाने का एक ख़ास रंग हुआ करता था. गिनी चुनी तर्जें हुआ करती थी. मदन भैया ने अलग अलग रंग के ग़ज़ल गानेवालों को सुना, और जब खुद ग़ज़लों की तर्जें बनाना शुरू किये, तो उनमें अपना एक नया रंग भर दिया, जो अनोखा था. सुर ऐसे चुने जिनमें सोज़ भी था, सुरूर भी. इसीलिए उनके ग़ज़लों के तेवर भी अलग थे. एक अजीब बांकपन था. फिल्मों के लिए ग़ज़लों की तर्जें कैसे बनाई जाती है, उन्हे कितने रूपों में पेश किया जा सकता है, यह मदन भैया हम सबको बता गये. मैं मदन भैया को ग़ज़लों का
बादशाह मानती हूँ"
और हाँ अगर ग़ज़लों के शौकीन हैं तो को पुणे के नवोदित गायक शिशिर पारखी को भी जरूर सुन लीजिएगा जिन्होंने बड़ी खूबसूरती से ज़िगर मुरादाबादी की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से सँवारा है।
गीत पुराने हों या नए, उनका असर तभी होता हे जब वे जिंदगी के विशाल कैनवास के अलग अलग रंगों को कुछ पंक्तियों में उकेर दें। अब आमिर फिल्म के इस परिस्थितिजन्य गीत को देखिए। एक भला आदमी डॉक्टरी पास कर के वापस घर आ रहा हो और एयरपोर्ट पर आते ही उसे ये पता चले कि उसका पूरा परिवार अपहृत है । और फिर अदृश्य अपराधियों से अपने परिवार को बचाने के लिए हो रही जद्दोज़हद को गीतकार अमिताभ गीत के मुखड़े में किस खूबसूरती से व्यक्त करते हैं
अरे चलते चलते हाए हाए
हल्लू हल्लू दाएँ बाएँ हो
अरे देखो आएँ बाएँ साएँ
जिंदगी की झाँए झाँए हो
अरे निकले थे कहाँ को
और किधर को आए
कि चक्कर घुमिओ..
यानि लाख अपनी मेहनत के बलबूते पर आप अपनी किस्मत रचना चाहें पर कभी तो ऊपरवाला भी आपको ऐसे चक्कर घुमाता हे कि आप बेबस हो जाते हैं। युवा प्रतिभावान संगीतकार अमित त्रिवेदी के संगीत निर्देशन में आमिर फिल्म का ये गीत बना है मेरी वार्षिक संगीतमाला 2008 के 25 चुने हुए गीतों में चौथे नंबर का गीत।
तो ये थी इस सप्ताह में गीत संगीत से जुड़ी प्रविष्टियों पर चर्चा ! दो हफ्ते बाद फिर इस चिट्ठे आपकी सेवा में हाज़िर हूँगा। तब तक गाते रहिए गुनगुनाते रहिए और हम सब को कुछ बेहतरीन सुनवाते रहिए।
अरे चलते चलते हाए हाए
जवाब देंहटाएंहल्लू हल्लू दाएँ बाएँ हो
अरे देखो आएँ बाएँ साएँ
जिंदगी की झाँए झाँए हो
अरे निकले थे कहाँ को
और किधर को आए
कि चक्कर घुमिओ..
" ha ha ha ha bhut mjedaar or rochak charcha.."
regards
एकदम मस्त है भाई
जवाब देंहटाएंअरे चलते चलते हाए हाए
जवाब देंहटाएंहल्लू हल्लू दाएँ बाएँ हो
-बेहतरीन चर्चा. एक नया आयाम!! बधाई.
kuch maine suni thi acchi lagi, khas kar chunnulal ji ka geet.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा, चर्चा का यह क्षेत्र।
जवाब देंहटाएंमनीष जी,
जवाब देंहटाएंयह बहुत ही उम्दा युक्ति सुझायी है अनूप शुकुल जी ने पॉडकास्टिंग से जुड़े ब्लॉगरों के प्रयासों को प्रोत्साहित करने का। इससे उन पाठकों/ब्लॉगरों को भी पॉडकास्ट ब्लॉगों के बारे में पता चलेगा, जो अभी तक इनसे अनभिज्ञ हैं।
साधुवाद
पढ़कर अच्छा लगा. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइस तरह की चर्चा भी जरूरी थी। चर्चा सुंदर भी हुई।
जवाब देंहटाएंप्रिय मनीश, सप्त-सुर के लिये आभार !! इसी तरह से चर्चा प्रस्तुत करते रहो!
जवाब देंहटाएंअनूप शुक्ल को इस बात के लिये बधाई और अनुमोदन कि वे चर्चा में विविधता के समावेश के लिये जीजान से लगे हैं!!
सस्नेह -- शास्त्री
अभिनव चर्चा-प्रस्तुति के लिये धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंcharcha ki ye nayi dhun acchi lagi.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया जी.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बढिया संगीतमय चर्चा के लिए बधाई। मदन मोहन जी की गज़लों से मुत्तासिर होकर ही नौशाद साहब ने कहा था कि ‘आपकी नज़रों ने समझा’ गज़ल के लिए वे अपनी सारी मूसिखी न्योछावर करते हैं।
जवाब देंहटाएंवाह कितना मन भावन सयोंजन -बहुत बहुत शुक्रिया मनीष जी !
जवाब देंहटाएंचर्चा का एक अलग रंग भा गया।
जवाब देंहटाएंचर्चा का यह अलग रंग भा गया। बधाई।
जवाब देंहटाएंअनूप जी,
लगता है टिप्पणी बक्सा मेरी बेबसी पर पिघल गया है। शुक्रिया।
बढिया है जी । इसी बहाने संगीतमय चिट्ठों पर एक विहंगम दृष्टि डाल ली जाएगी । चिट्ठा चर्चा का नया आयाम । बढिया कर रहा है अपना काम ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रही चर्चा। साथ ही मेरा बोझ भी हल्का हुआ। :)
जवाब देंहटाएंअब एक दो मित्र और मिल जायॆं तो महीने में बस एक एक दिन ही सबका नंबर आयेगा।
क्या विचार है तरुणजी?
mujhe yaqin tha ki aap kam se kam baware-farira ko zaroor shamil karenge apane charcha men kintu n pakar bhee abhibhoot hoon achchhee charchaa thee
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