ब्लॉग लेखन क्या है, यह विषय ब्लॉग जगत में अब बताने कहने का नहीं है, यह इतना साधारणीकृत हो चुका है कि कम से कम ब्लॉग के लिखने वालेइसका अर्थ अपने मित्रों परिचितों को सही सही बता सकते हैं, समझा सकते हैं। जो इस से परिचित हैं व इसे अपनाए हुए हैं उनके लिए अभी कई प्रश्न मुँह बाए खड़े हैं। अत: स्वाभाविक है कि अब इस से आगे के प्रश्नों पर विचार करना भी यदा-कदा अपरिहार्य होता प्रतीत होता है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि ब्लॉग लेखन उतना डायरी लेखन -सा भी नहीं है कि अपनी डायरी में जो जी आए, या जो जी चाहो, लिख लो। अपनी डायरी को आप अपने तक सीमित रखते हैं, जबकि ब्लॉग लेखन में आत्म प्रकाशन की प्रवृत्ति काम करती है। इस आत्मप्रकाशन को यदि हमने अपने तक ही सीमित रहने वाली डायरी- सा मान कर मनमाना उपयोग करने की बलवती इच्छा के चलाए चालित किया तो समझिए कि दो नावों में पैर रखकर चलने के खतरे ( व परिणाम ) भी आएँगे ही। आप में से अधिकाँश ने यह प्रसिद्ध उक्ति सुनी ही होगी कि " हमारी स्वतंत्रता वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है ।"
डायरी जहाँ अंतर्मुखी स्वभाव की द्योतक है, वहीं ब्लॉग पर अपनी व्यक्तिगतता / या दूसरे की व्यक्तिगतता के उल्लेख निस्संदेह बहिर्मुखी प्रवृत्ति के परिचायक हैं। स्वभाव की यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति सामान्य जीवन में अपने या पराए का यदि कुछ अहित कर सकती है तो निश्चय जानिए कि नेट पर बरती गयी यह बहिर्मुखता उससे कई लाख गुणा हानिप्रद हो सकती है।
ऐसे कई और भी फलाफल हो सकते हैं यदि इन प्रश्नों पर विचार न किया जाए कि आख़िर ब्लॉग का उद्देश्य क्या है, क्या हो। गत दिनों ब्लॉगकथ्य के नियमन के लिए आचार संहिता बनाने की बात भी या विधिक सीमा में रखने की बात भी उठती रही है कि इसे भी क़ानून के लपेटे में लिया जा सकता है। इधर ब्लॉग जगत् की ( भले ही किसी भी देश या किसी भी भाषा के हों) घटनाओं ने सरकारों के कान खड़े किए, साथ ही ब्लॉगरों के कान भी खड़े किए और निरंकुशता की घटनाओं के चलते इन प्रश्नों पर स्वयं ब्लॉग लेखकों को भी विचार करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। कुछ अन्य देशों में जहाँ कथ्य में विचार प्रखरता के चलते सत्ता या सतात्मकता को खतरा लगा वहाँ इस विधा की निरंकुशता को प्रतिबंधित करने वाले कारण यद्यपि वाद -विवाद और सहमति या विरोध के मुद्दे हो सकते हैं किंतु जहाँ सुदीर्घ सामाजिक और व्यापक मुद्दों, व्यवस्था के विरोध आदि जैसे सार्वजनिक हित के प्रश्नों की अपेक्षा लोग परस्पर स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने जैसे नितांत निजी, किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आक्रमण करने या दूसरे को नीचा दिखाने आदि जैसी भावनाओं के चलते इस विधा का प्रयोग करने लगे तो इसकी सीमा और उद्देश्यों पर विचार करना अपरिहार्य होता चला जा रहा है।
कहीं ब्लॉग अपनी धार खो न दे
उमेश चतुर्वेदी ने अपनी पोस्ट *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **! के जरिए ब्लॉग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रति आशंका जतायी है। उमेश चतुर्वेदी का साफ मानना है कि वे ऐसा करके सु्प्रीम कोर्ट के फैसले पर किसी भी प्रकार के सवाल खड़े नहीं कर रहे लेकिन एक मौजू सवाल है कि अगर सरकार और स्टेट मशीनरी द्वारा ब्लॉग को रेगुलेट किया जाता है, ब्लॉग जो कि दूसरी अभिव्यक्ति की खोज के तौर पर तेजी से उभरा है तो क्या लोकतांत्रिक मान्यताओं को गारंटी देनेवाली अवधारणा खंडित नहीं होती। मेनस्ट्रीम की मीडिया को किसी भी तरह से रेगुलेट किए जाने की स्थिति में इसे लोकतंत्र की आवाज को दबाने और कुचलने की सरकार की कोशिश के तौर पर बताया जाता है तो ब्लॉग में जब सीधे-सीधे देश की आम जनता शामिल है और आज उसे भी रेगुलेट कर,दुनियाभर की शर्तें लादने की कोशिशें की जा रही है तो इसे क्या कहा जाए। क्या स्टेट मशीनरी वर्चुअल स्पेस की इस आजादी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। पेश है उमेश चतुर्वेदी की चिंता और सवालों के जबाब में मेरी अपनी समझ-सरकार औऱ सुप्रीम कोर्ट क्या, रोजमर्रा की जिंदगी में टकराने वाले लोग भी ब्लॉगिंग की आलोचना इसलिए करते हैं कि उसमें गाली-गलौज औऱ अपशब्दों के प्रयोग होने लगे हैं। कई बार शुरु किए मुद्दे से हटकर पोस्ट को इतना पर्सनली लेने लग जाते हैं कि विमर्श के बजाय अपने-अपने घर की बॉलकनी में आकर एक-दूसरे को कोसने, गरियाने औऱ ललकारने का नजारा बन जाता है। कई लोगों ने ब्लॉग में रुचि लेना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया है कि इसमें विचारों की शेयरिंग के बजाय झौं-झौं शुरु हो गया है।
ऐसे ही विवाद पर चर्चा का एक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है जहाँ ब्लॉग के कथ्य को संदिग्ध करार दिया गया
इधर इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहां वे जिहादियों की मुद्रा में रोज कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैरजिम्मेदार और अपुष्ट खबरें छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊंचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है। यहां जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जोते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करें? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे।
हिन्दी ब्लॉग्गिंग यद्यपि अभी अपने शैशव में ही है, पुनरपि यहाँ भी ऐसे विषयों को लेकर विचार का वातावरण बनने की आवश्यकता अनुभव की जा रही लगती है।
इसी क्रम में -
व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है को भी देखा जा सकता है -
ब्लागजगत में विविधता काफ़ी आ रही है। इतनी कि लोग आपस में व्यंग्य-व्यंग्य खेलते रहते हैं लोगों को हवा नहीं लगती।
जबलपुर परसाई जी का शहर है। परसाई जी प्रख्यात व्यंग्यकार थे। उन्ही के शहर के ब्लागर आजकल दनादना व्यंग्य लिख रहे हैं। महेन्द्र मिश्रजी और गिरीश बिल्लौरे जी की व्यंग्य जुगलबंदी चल रही है। पहले इशारों-इशारों में हुआ और फ़िर आज मामला खुला खेल फ़र्रक्खाबादी हुआ।
व्यंग्य के इस स्तर को देखकर मैं अभिभूत हूं। परसाई जी होते तो न जाने क्या कहते? समीरजी पूर्वोत्तर में टहल रहे हैं। बवाल जी वाह-वाह कह ही चुके हैं।
ज्यादा दिन नहीं हुये जब जबलपुर के ब्लागर साथी विवेक सिंह द्वारा जबलपुर को डबलपुर कहने पर एकजुट होकर फ़िरंट हो लिये थे। फ़िर जबलपुर ब्लागर एकता के नारे लगाते हुये एक नाव पर सवार दिखे। लगता है नाव में छेद हो गया। नाविक फ़ूट लिये और नाव के हाल बेहाल हैं।
दूसरे के मामले में कुछ कहना अपनी सीमा का अतिक्रमण करना है लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि जिसे भाई लोग व्यंग्य कहकर एक दूसरे की इशारों में छीछालेदर करने की कोशिश कर रहे हैं वह न व्यंग्य है न हास्य बस सिर्फ़ लेखन है। हास्यास्पद लेखन!
ब्लोगिंग की सीमा और उद्देश्यों पर विचार की कुल प्रक्रिया जिस प्रकार के विमर्श में रूपांतरण की अपेक्षा करती है, हिन्दी में यद्यपि वह भी अभी अपने आरंभिक चरण में ही है, तभी तो एक सार्थक प्रश्न पर विचार का ट्रीटमेंट नितांत निजी परिधि पर विचार करने तक ही सीमित रह जाता है-
आखिर हम क्यों करते हैं ब्लॉगिंग ? क्या मिलता है हमें इसमें ? कुछ लोग इसके जरिए पैसा जरूर कमाते हैं, लेकिन अधिकांश को तो एक पाई भी नहीं मिलती। फिर हम अपना इतना समय और श्रम क्यों जाया करते हैं ? ये सवाल बार-बार पूछे जाते हैं और पूछे जाते रहेंगे। लेकिन मेरी तरह शायद बहुत से ऐसे लोग होंगे जो इस तरह से नहीं सोचते।
हम हर दिन सैकड़ों ऐसे काम करते हैं जिनके पीछे अर्थोपार्जन जैसा कोई उद्देश्य नहीं होता। कहीं कोई अच्छा दृश्य नजर आता है, हम उसे अपलक देखते रहते हैं। कोई अच्छा गीत सुनाई पड़ता है, हम उसे जी भर के सुनना चाहते हैं। कहीं कोई प्यारा बच्चा अंकल कहता है और हम उसे गोद में उठा लेते हैं। इन कार्यों से हमें क्या मिलता है ? जाहिर है हमारा जवाब होगा, हमें यह सब अच्छा लगता है...ऐसा कर हमें संतोष मिलता है...हमें सुख की अनुभूति होती है।
विमर्श में रूपांतरित किए जाने के प्रयासों को यदि हम में से कोई भी `मैं' के साथ जोड़ कर देखता रहे तो निस्संदेह परिणाम यह पुष्ट करेंगे कि हिन्दी की ब्लॉग्गिंग में उद्देश्यों और विषयों तक पर विमर्श की संभावनाएँ दूर की कौडी हैं, इस संसाधन की क्षमता का दोहन करने में हम नितांत अक्षम, असफल या असमर्थ हैं। अभी हमें पहली सीढ़ी चढ़ने में ही भरपूर समय, समग्रता, निर्वैयक्तिकता , समर्पण व एकाग्रता की आवश्यकता है। इस संसाधन का सदुपयोग यदि भावी पीढी तक सारे ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रख कर पहुँचाने के उदात्त उद्देश्य से किया जाए ( न कि केवल अभिव्यक्ति के एक माध्यम जैसे सीमित अर्थ में ) तो निस्संदेह हम बड़ी सफलताएँ पा सकते हैं, कई निरर्थक विवादों से मुक्त रख सकते हैं इस संसाधन को तथा स्थाई महत्त्व का एक अनूठा कार्य कर सकते हैं। उद्देश्यों पर वाद - विवाद की इन परिस्थियों को ऐसी निर्वैयक्तिकता से ही अकुंश में लाया जा सकता है। सार्वजनिक हित पर वैचारिक मतभेद के प्रश्न तो सदा ही तर्क के अवसर देते रहेंगे।
आधी आबादी
शायदा के परिचय का पहला वाक्य है - आय एम अफ्रेड । यह आपको चौंकाएगा। साथ ही उकसाएगा भी कि आप लगभग हर पोस्ट को फींच फींच कर पढ़ना चाहेंगे। अपनी एक पोस्ट सांड, टेपचू और एक उम्मीद के बहाने के फुटनोट में शायदा ने लिखा है --
नोट- ठीक एक साल पहले आज के दिन खू़ब सर्दी थी और अवसाद भी। मैं दफ़तर से पंजाब यूनिवर्सिटी तक पैदल ही चली गई थी। एक वादा पूरा करना था जो कुछ माह पहले हमने इंडियन थिएटर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जी कुमारवर्मा से किया था, जब वे उदयप्रकाश की कहानी वॉरेन हेस्टिंग्स का सांड पर नाटक करने के शुरुआती प्रोसेस में थे। बाद में हमने इस बात को भुला दिया लेकिन प्रोफेसर को याद रहा। एक दिन उनका फ़ोन आया कि नाटक देखने ज़रूर आएं। नाटक तभी देखा था और टेपचू कहानी बाद में पढ़ी। मैंने इन दोनों क्रतियों में जिस चीज़ को बहुत गहरे तक महसूस किया वह है ऐसी उम्मीद का हर हाल में जिंदा रह जाना जो इंसान के मर जाने पर भी मरती नहीं। फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी लेकिन नाटक देखने के बाद मुझे अपनी उम्मीद का पता मिल गया था।
मुझे शायदा के लेखन में एक बेहद संवेदनशील व्यक्तित्व दिखाई देने के साथ साथ शब्दों का जादू करने की कला भी दिखाई देती है। दोनों ब्लॉग पठनीयता से भरपूर हैं।
विदेशी भाषाओं से
अपनी श्रवण शक्ति की जाँच कीजिए क्योंकि यह आवश्यक है।
शैंपू, फैब्रिक सॉफ्टनर तथा इसी प्रकार के अन्य उत्पादों के खतरे की जानकारी लें
धरती पर बढ़ते तापमान के सचित्र प्रमाण
पठनीय
बेटी ब्याही गई हॆ
बेटी ब्याही गई हॆ
गंगा नहा लिए हॆं माता-पिता
पिता आश्वस्त हॆं स्वर्ग के लिये
कमाया हॆ कन्यादान क पुण्य ।
ऒर बॆटी ?
पिता निहार रहे हॆं, ललकते से
निहार रहे हॆं वह कमरा जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह बिस्तर जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह कुर्सी, वह मेज़
वह अलमारी
जो बंद हॆ
पर रखी हॆं जिनमें किताबें बेटी की
ऒर वह अलमारी भी
जो बंद हॆ
पर रखे हॆं कितने ही पुराने कपड़े बेटी के ।
पिता निहार रहे हॆं ।
ऒर मां निहार रही हॆ पिता को ।
जानती हॆ पर टाल रही हॆ
नहीं चाहती पूछना
कि क्यों निहार रहे हॆं पिता ।
कड़ा करना ही होगा जी
कहना ही होगा
कि अब धीरे धीरे
ले जानी चाइहे चीज़ें
घर अपने बेटी को
कर देना चाहिए कमरा खाली
कि काम आ सके ।
पर जानती हॆ मां
कि कहना चाहिए उसे भी
धीरे धीरे
पिता को ।
टाल रहे हॆं पिता भी
जानते हुए भी
कि कमरा तोकरना ही होगा खाली
बेटी को
पर टाल रहे हॆं
टाल रहे हॆं कुछ ऎसे प्रश्न
जो हों भले ही बिन आवाज
पर उठते होंगे मनमे ं
ब्याही बेटियों के ।
सोचते हॆं
कितनी भली होती हॆं बेटियां
कि आंखों तक आए प्रश्नों को
खुद ही धो लेती हॆं
ऒर वे भी असल में टाल रही होती हॆं ।
टाल रही होती हॆं
इसलिए तो भली भी होती हॆं ।
सच में तो
टाल रहा होता हॆ घर भर ही ।
कितने डरे होते हॆं सब
ऎसे प्रश्नों से भी
जिनके यूं तय होते हॆं उत्तर
जिन पर प्रश्न भी नहीं करता कोई ।
मां जानती हॆ
ऒर पिता भी
कि ब्याह के बाद
मां अब मेहमान होती हॆ
अपने ही उस घर में
जिसमें पिता,मां ऒर भाई रहते हॆं ।
मां जानती हॆ
कि उसी की तरह
बेटी भी शुरु शुरु में
पालतू गाय सी
जाना चाहेगी
अब तक रह चुके अपने कमरे ।
जानना चाहेगी
कहां गया उसका बिस्तर।
कहां गई उसकी जगह ।
घर करते हुए हीले हवाले
समझा देगा धीरे धीरे
कि अब
तुम भी मेहमान हो बेटी
कि बॆठो बॆठक में
ऒर फिर ज़रूरत हो
तो आराम करो
किसी के भी कमर में ।
मां जानती हॆ
जानते पिता भी हॆं
कि भली हॆ बेटी
जो नहीं करेगी उजागर
ऒर टाल देगी
तमाम प्रश्नों को ।
पर क्यों
सोचते हॆं पिता ।
अंत में
आज की चर्चा मैंने अपने तय फोर्मेट से अलग की है, इसलिए कुछ निश्चित वर्ग इसमें आज सम्मिलित नहीं हैं।
कविता का मन, अभिलेखागार आदि को इस बार की चर्चा से मेल न खाने के कारण छोड़ना पड़ रहा है। पर बदलाव तो सृष्टि का नियम है, थोड़ी छूट हमारे लिए भी परिवर्तन की सही।
नवरात्र चल रहे हैं। आप में से कई लोग उपवासे होंगे। मातृशक्ति आपको सारे सुख सौभाग्य से भरपूर करे।
शुभकामनाओं सहित।
सबसे पहले मोमबत्तिया 6o देखकर बहुत अच्छा लगा। सुन्दर। ब्लाग के बारे में काफ़ी कुछ लिखा आपने। कल मृणाल पाण्डेयजी ने न्यूज मीडिया की समस्यायें बताते हुये ब्लाग के बारे में भी लिखा था। ब्लाग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। इसकी जो सामर्थ्य है वही इसकी भी सीमा भी। जैसे हम होंगे वैसी ही हमारी अभिव्यक्ति होगी। अब यह इसके प्रयोगकर्ताओं पर है कि वे इसे कैसे प्रयोग करते हैं।
जवाब देंहटाएंगहन चर्चा -बिलकुल सही बात कि ब्लॉग निजी डायरी ही नहीं आत्मप्रकाश के माध्यम बने हैं -यह भी ठीक बात है कि अभिव्यक्ति की स्वंतन्त्रता के नाम पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं होने चाहिए -निजता पर टिप्पणी नहीं होनी चाहिए ! मगर यह एक देश -काल सापेक्षिक आकलन ही है -अमेरिका में ओबामा का पुतला बना भरे चौराहे आप जूतों से पीट सकते हैं ,लोगों को भी बुला कर यह 'दुष्कृत्य ' करा सकते हैं ,कोई कुछ नहीं बोलेगा ! वहां यह करने वाला और देखने वाला सही अर्थों में परिपक्व है -मगर भारत के कई प्रदेशों में आपने ऐसा सरकार के मुखिया के साथ किया तो आप सींखचों के अन्दर होंगें -मैंने देखा है कि अपने हिन्दी चिट्ठाजगत की मानसिक परिपक्वता अभी छुई मुई वाली ही है -जरा जरा सी बातों पर यहाँ तलवारे म्यान से बाहर हो जाती हैं -यहाँ जीरो टालरेंस है ,यहाँ सहिष्णुता का घोर अभाव है ,यह एक कबीलाई मानसिकता की ही प्रतीति कराता है -यहाँ व्यंग -व्यंजना की समझ नही है और जो थोडा समझदार हैं वे घुटे लोग हैं जो बस "राम झरोखे बैठ सबका मुजरा लेत " वाली भूमिका में हैं ! और तटस्थ बैठ बस परपीडात्मक प्रवृत्ति के चलते मजा लेते और आनंदित होते रहते हैं !
जवाब देंहटाएंजब अपेक्षित परिपक्वता लोगों में आ जायेगी तो ऐसे विमर्श स्वतः समाप्त हो जायेंगें !
अभिव्यक्ति की स्वंतन्त्रता के नाम पर व्यक्तिगत आक्षेप से बचना चाहिए . लेकिन अभी इसे आत्मसात करने मैं वक्त लगेगा
जवाब देंहटाएं.चर्चा अच्छी रही बधाई .
ब्लोगिंग के बारे में अच्छा लेख पढने को मिला .....ब्लॉग चर्चा भी बेहतरीन थी ....थोडी सी अलग हट कर ...पसंद आयी
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंयह तो अविवादित है, कि..
चर्चा के तौर पर आज एक अच्छा विमर्श !
वैचारिक ढांचे में ढली चिट्ठा चर्चा । बहुत सी जरूरी बातों पर विमर्श ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।
आज अगर ये चर्चा नही पढ़ पाता तो बहुत सारी बातो से वंचित रह जाता.. आपकी इस अनूठी और विविधतापूर्ण चर्चा की आवश्यकता है.. चिट्ठा चर्चा को... अभी टिप्पणी कर रहा हू.. हालाँकि कुछ पोस्ट अभी पढ़नी बाकी है..
जवाब देंहटाएंवैविध्य से भरी इस चर्चा के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंचिट्ठा क्या है, क्या शामिल किया जाए क्या नहीं, शालीनता क्या है एवं उसकी सीमा कहां समाप्त होती है, ये सब प्रश्न हिन्दी चिट्ठाकारी में कम से कम अगले पाच साल चलेंगे.
बेटी ब्याही गई हॆ एक मर्मस्पर्शी रचना है
सस्नेह -- शास्त्री
ब्लॉगजगत में भी
जवाब देंहटाएंपोस्ट लिखने अथवा
टिप्पणियों का उपवास
जाएगा रखा कभी
कब मिलेगा आभास।
कविता जी ,क्या कहने आपके ...आपकी चर्चा पसंद आई जरा हट ,ज़रा बच के ..की तर्ज पर ...आपकी कई पोस्ट पिछली पढ़ी नेट पर गडबडी थी....जवाब नही दे पाई...आपके सारे विचार सहेज लिए हैं ....सरलता और गंभीरता के मिश्रण के साथ कहने की कला आपकी मन मुग्ध करती है ....मोंबत्तियों वाला चित्र भला लगा ...आपकी नज्र फैज का एक शेर अर्ज करती हूँ ...फारसी और उर्दू के शब्दों का इसमें क़माल है ...और आपके लेखन हेतु सटीक भी ......हर एक औला-इल अम्र[बड़े हाकिम]को सदा दो,किअपनी फर्दें [कर्मों कि सूची] संभालें
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपत्तिजनक सामग्री के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो सुप्रीम कोर्ट ने वैसे कोई फैसला नहीं दिया है. कोर्ट ने दरअसल ये बताया - स्पष्ट किया और एक तरह से चेताया है कि आम पारंपरिक प्रकाशन माध्यमों की तरह ही इंटरनेट को भी लिया जाना चाहिए, और इंटरनेट पर किसी भी रूप में प्रकाशित आपके विचारों से यदि किसी की भावनाओं को ठेस लगती है, तो वो न्यायालय के माध्यम से आप पर हर्जाने का दावा तो कर ही सकता है. मैं इस अहम् राय का स्वागत करता हूं. इससे इंटरनेट पर ब्लॉगों में जहाँ पर स्व-संपादन ही अंतिम औजार है - किसी सामग्री के अंतिम रूप से प्रकाशित होने का - वहां अनर्गल प्रलाप और घटिया भाषा पर कुछ तो रोक लगेगी. आप अपनी बात सभ्य तरीके से बखूबी कह सकते हैं और मैं ये मानता हूं कि सभ्यता से कही गई बात हर कहीं और हर हमेशा ज्यादा प्रभावी होती है.
जवाब देंहटाएंऔर, जैसा कि मैंने पहले ही कहा - अनर्गल प्रलाप और असभ्य, घटिया, भावनाओं को ठेस पहुँचाती भाषा का यहाँ कोई स्थान नहीं होना चाहिए. आमतौर पर ब्लॉगर ब्लॉगस्पाट जैसी सेवाओं ने फ्लैग सिस्टम लगाया हुआ है जहाँ पाठक यदि समझते हैं कि सामग्री आपत्ति जनक है, तो वे उस ब्लॉग को फ्लैग (चिह्नित) कर देते हैं. इसके आधार पर उस सामग्री पर प्रतिबंध लगाने में आमतौर पर देर नहीं की जाती है.
वैसे भी, भारत में अनगिनत भाषाएँ हैं और यह रचनाकारों की धरती है. भारतीय भाषाई ब्लॉगिंग के उभरते दौर में मैंने ये देखा है कि यहाँ आमतौर पर रचनाकारिता - मसलन कविता, कहानी, विचार, सामयिक टिप्पणियाँ हावी रही हैं. विषयाधारित, वैज्ञानिक विषयों की शोध-परक ब्लॉगिंग का सर्वथा अभाव है अभी. पर हमें यह भी तो देखना है कि भारतीय भाषाई ब्लॉगिंग अभी शैशवावस्था में है जहाँ आंकड़ा ले देकर दस हजार पार (हिन्दी भाषा में) कर रहा है. परंतु फिर भी, मामला अच्छा खासा उत्साहजनक है क्योंकि पिछले साल जहाँ हिन्दी ब्लॉगों की संख्या 600 थी, सालभर में दस गुना बढ़कर 6000 हो गई है. इस साल के अंत तक आंकड़ा पच्चीस हजार से ऊपर जाने की संभावना है. जब ब्लॉगों की संख्या बढ़ेगी तो यकीनन, बहुत सारे सार्थक, ज्ञानपरक ब्लॉग भी आएंगे.
पर, ये भी तय है कि ब्लॉगिंग का भविष्य सुरक्षित है. कोई छ: महीने पहले किसी परिसंवाद में मैंने कहा था कि भारत में वह दिन दूर नहीं, जब किसी गली, मुहल्ले का अपना खुद का ब्लॉग न हो. और ये बात आज सत्य सिद्ध हो गई है - दिल्ली की जे. पी. कॉलोनी के नाम का एक अत्यंत मार्मिक चित्रण करने वाला ब्लॉग देखते ही देखते चर्चित हो गया है. आने वाले समय में यकीनन हर व्यक्ति ब्लॉग से जुड़ा होगा. जी हाँ, हर व्यक्ति. या तो वो कम से कम एक ब्लॉग लिखता होगा, नहीं तो वो कम से कम एक ब्लॉग पढ़ता होगा. मैं महसूस कर रहा हूं कि अंग्रेज़ी भाषाई ब्लॉगिंग की तरह भारतीय भाषाओं में - भले ही उस परिमाण में न सही - पूर्णकालिक, व्यावसायिक ब्लॉगर होंगे जो अपने आलीशान जीवन-यापन का श्रेय ब्लॉगिंग को देंगे.
फ़न्ने खाँ चर्चा !
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा का स्टाइल अच्छा और अलग है ।
जवाब देंहटाएंअब ये बात नहीं दोहरायुंगा की आपने चिठा चर्चा को एक नए आयाम दिए है ओर बहस के नए आयाम ...पर ब्लॉग पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय किस परिपेक्ष्य में दिया गया है ये देखनामहत्त्व पूर्ण है ....हिंदी ब्लोगिंग में अभी भी मुखरता की कमी है ..ये हमें स्वीकारना होगा ...पर ये भी एक दिलचस्प पहलु है की यहाँ ९० प्रतिशत विवाद केवल पत्रकारों द्वारा अपने ब्लोग्स में उठाये जाते है क्यों ?ये एक यक्ष प्रशन है ...बहस का स्तर अभी छिछला है ओर बेहद निजी भी ..जो कभी कभी बेहद आहत करता है .ओर अक्सर कई लिखने वाले (खास तौर से महिला ब्लोगर्स ) शायद वे नहीं लिखते जो वे महसूस करते है ... अभिव्यक्ति भी जैसे सीमित है ..याधिपी दो दिन पहले रंजना जी ...(संवेदना संसार ) ने अपनी एक पोस्ट में उस मिथ को तोडा है ...ओर दूसरी ओर
जवाब देंहटाएंशायदा जी ,प्रत्यक्षा जी ,विधु जी ...जैसे कुछ ब्लॉग अपने लेखन से विस्मृत करे रखते है ओर एक लेखक से आप यही उम्मीद करते है ....पर अच्छी बात ये है वे ब्लॉग लिखते वक़्त लेखक के उस चोगे से बाहर निकल आते है ..वैसे मेरा मानना है की हिंदी ब्लोग्स की स्थिति बेहतर ओर बेहतर सिर्फ एग्रीगेटर्स के प्रचार से हो सकती है ....
बहुत अच्छी चर्चा रही। मृणाल पाण्डेय जी का लेख भी पढ़ आया। और जबलपुर का नया खटराग भी।
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग में जो गैरजिम्मेदार और घटिया लिखा जा रहा है वह किसी न किसी रूप में एक कुंठा को व्यक्त कर रहा है। पत्रकार बिरादरी में यह कुंठा कुछ ज्यादा है इसलिए उनके ब्लॉग इस बीमारी से ज्यादा ग्रस्त हैं। कुछ महिलाओं और दलित टाइप ब्लॉगर्स की जायज कुंठाएं भी है जिसे स्वर देने में उनकी भाषा बहुत संतुलित नहीं रह पाती। तीखा लिखने के प्रयास में समस्या जस की तस पड़ी रह जाती है, दूसरी बातों का सिरा पकड़ कर विवाद आगे बढ़ जाता है। कुछ ब्लॉगर इस माध्यम में प्रवेश की कोई अधिमानी योग्यता निर्धारित न होने के कारण यहाँ आ तो गये हैं लेकिन सन्तुलन बनाकर टिक पाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। इससे उत्पन्न कुंठा भी उनसे जो लिखवा रही है उसे हास्यास्पद ही कहना पड़ेगा।
ब्लोगिंग मे लेखक नहीं विचार की प्रमुखता होती हैं . भाषा पर सयम जरुरी हैं लेकिन ये बिलुल जरुरी नहीं हैं की हिंदी साहित्य लेखक ही अच्छे ब्लॉगर होगे . चर्चा का ये मंच ब्लॉग लेखन की चर्चा के लिये हैं . २४ घंटे में छपे चर्चाकर की पसंद के ब्लॉग की चर्चा होती हैं . कठिन हिंदी और अच्छी ब्लॉग पोस्ट मे बहुत अंतर हैं . अब आप को ये फैसला करना हैं की आप किसको पढना चाहते हैं , क्या आपके लिये ब्लॉग प्रिंट मीडिया का दूसरा रूप हैं या आप किसी को भी पढ़ सकते हैं बस विषय आप की रूचि का हो . हिंदी इसीलिये पोपुलर नहीं हैं क्युकी बहुत कठिन बना दी जाती हैं . हिंदी को बोलचाल की भाषा मे लिखने का प्रयोग हैं ब्लॉग लेखन . जितनी पोपुलर कुश की चर्चा होती हैं उतनी किसी की नहीं होती इसलिये हम ये नहीं कह सकते की कुश अच्छा लेखक नहीं हैं . चर्चा पर चर्चा को ब्लॉग की चर्चा बनाए जिस से ज्यादा लोग पढे . ये ना कहे की हमे गुनी पाठक चाहिये
जवाब देंहटाएंअच्छी बहस...और लाजवाब चरचा कविता जी
जवाब देंहटाएंमेरे यहां देर से आने का कारण है इंटरनेट का विरोध। आज इसका क्रोध कम हुआ तो यहाँ आ पाया। बढिया चर्चा और सबकआमेज़ भी। हमें बहुत कुछ सीखना है, शैशवकाल की दुहाई देकर छूट तो नहीं ली जा सकती ना। यदि ब्लाग लेखन को स्तरीय रखना है तो उसकी भाषा पर भी ध्यान देना आवश्यक है- क्लिष्टता का ठप्पा लगाकर सड़्कछाप भाषा का प्रयोग किसी भी मायने में स्वीकार्य नहीं ही होगा। जैसा कि रवि जी ने कहा है कि इस वर्ष के अंत तक २५००० ब्लागर हो जाएंगे, यही इस बात का प्रमाण है कि इस भाषा को समझा और पढा जा रहा है। स्तर को बचाए और उठाए रखना हर ब्लागर का कर्तव्य है- चाहे वह भाषा का हो या विषय का। इस प्रकार की चर्चा से चिठाचर्चा की सार्थकता का पता चलता है।
जवाब देंहटाएंब्लॉग लेखन के बारे में व्यक्त की गयी चिंताएँ
जवाब देंहटाएंसामयिक होते हुए भी गहन हैं.
इस वैश्विक और लोकतांत्रिक माध्यम का
दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है.
इसका तोड़ सबसे अच्छा
यह है कि ब्लॉग-लेखन के
अधिकतम सदुपयोग के अधिकाधिक उदाहरण रचे जाएँ.
यह प्रविष्टि भी ऐसा ही उदाहरण होने के कारण स्तुत्य है.
दिविक रमेश की रचना अत्यंत मार्मिक है
और तमाम तरह की दूसरी चिंताओं पर भारी है.
इतनी हृदयस्पर्शी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद स्वीकार करें.