हमारे एक मित्र हैं। आजकल वे धड़ल्ले से कम से कम एक शेर प्रतिदिन के हिसाब एस.एम.एस.करते रहते हैं। कल्लई उन्होंने एक ठो भेजा। फ़र्मायें अरे वही जिसे मुलाहिजा कहा जाता है शेर सुनाने के पहले। सुनिये मतलब पढ़िये। इरशाद बोल लीजियेगा बांचने के पहले। कहते हैं शायर लोग ऐसा बोला जाता है इससे शेर ज्यादा बढ़िया समझ में आता है। इसीलिये कुछ लोग दो बार बोलते हैं -इरशाद,इरशाद। हां तो सुना जाये:
हर तरफ़ छा गये पैगामे मोहब्बत बनकर
मुझसे अच्छी किस्मत रही मेरे अफ़सानों की।
अब जब शुरू हुये हैं तो एक ठो और सुन लीजिये:
जिसको खबर नहीं, उसे जोशो खरोश है,
जो पा गया है ताज,वो गुम है, खामोश है।
अब आप कहोगे ताज का फ़ैसला तो 16 मई के बाद होगा। अभी से किसी को कहां मिल गया। आप की बात ठीक है लेकिन हम तो एक बात कहे कि आमतौर पर ऐसा होता है- जो पा गया वो गुम है, खामोश है।
हमें तो अपने दोस्त के भेजे शेर अच्छे लगते हैं लेकिन विनीत कुमार जो गाहे-बगाहे वाले हैं वो कहते हैं रवीश कुमार भी उनको शेर-ऊर लिख कर भेजते हैं। शेर-चेन बन जाती है। विनीत बताते हैं:
रवीश अक्सर दो लाइन लिखकर ब्राइकेट में सस्ता शेर या चीप शायरी लगाकर कंटेट को क्लियर कर देते हैं। बाकी बातों पर तो नहीं लेकिन सस्ता शेर पर मैं कमेंट करने से अपने को रोक नहीं पाता। यहां मैं अक्सर स्त्रीलिंग भाषा का प्रयोग करते हुए कमेंट करता हूं,कुछ-कुछ हिन्दी के आदि कवियों की नकल करते हुए। क्योंकि रवीश सस्ता शेर के नाम पर जो कुछ भी लिखते हैं, उसे पढ़ते हुए पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि लड़कियों को इसका जबाब देना चाहिए। मैं उनके वीहॉफ पर जबाब देता हूं।विनीत के लड़कियों की तरफ़ से जबाब देने की बात को ध्यान में ही रखते हुये शायद कहा गया होगा- परमारथ के कारने,साधुन धरा शरीर। बहरहाल और जो लेकिन विजय शंकर चतुर्वेदीजी की टिप्पणी- विनीत, ये सब क्या है? कुछ भी हो तुम्हें जीवन में गंभीरता से काम लेना है से लगता है कि उनकी कही इस बात को सही माना जा सकता है-
हमारे और रवीश कुमार के बीच आज अगर कोई बूढ़ा-बुजुर्ग आ जाए तो एक बार तो जरुर कहेगा-ये लौंडे तो पहले से ही खत्तम हैं,तुम इन्हें और क्यों बर्बाद कर रहे हो,रवीश?
आगे और कुछ बांचने से पहले एक नजारा यह भी देख लीजिये अपने देश के आम मध्यवर्ग नागरिक का :
अब ये घर से बाहर मोमबत्ती लेकर निकलता है। कैमरे के सामने छाती पीटता है, देश के नेताओं को कैमरे पर अंग्रेजी में कोसता है, सुरक्षा की दुहाई देते हुये सरकार को उलाहना देता है, राजनेताओं की गिरती साख पर अफसोस जताता है। उसक देश प्रेम रात में विदेशी स्कॉच की चंद घूंटों के साथ पेशाब के रास्ते निकल जाता है।
उधर आलोक पुराणिक का लेख देखकर लगता है कि व्यंग्यकार मूलत: परदुखकातर होता है। वे नेता की पीड़ा बखानते हुये लिखते हैं:
पांच सौ करोड़ की संपत्ति डिक्लेयरेशन पर नेताजी की बेटी के रिश्ते आना बंद हो गये हैं। रिश्ते वाले कह रहे हैं कि इत्ती सी रकम तो आजकल दरोगाजी, इनकम टैक्स इंसपेक्टर भी कमा लेते हैं। फिर नेता के घर में शादी करके फिजूल की बदनामी क्यों मोल लें। इत्ती सी रकम के लिए टेंपरेरी नौकरी वाले के यहां बेटी ब्याह दें, इससे तो दरोगाजी और इनकम टैक्स इंसपेक्टर की परमानेंट नौकरी भली। नेता बनकर भी सिर्फ पांच सौ करोड़ खेंचे, तो फिर नेतागिरी क्या खाक की। मन लगा कर ढंग से काम नहीं किया। ऐसे निकम्मे के घर बेटी नहीं देंगे।
उधर कविराय जोशी की का दुख कुछ अलग तरह का है:
लूट-मार, चोरी-डाका कुछ हुआ नहीं ।
फिर भी मेरे घर में कुछ भी बचा नहीं ॥
आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ सावधान करते हुये कहते हैं:
देखिये वे आ रहे खूँखार अपनी बस्ती में,
सुना है वे करेंगे व्यापार अपनी बस्ती में ।
आज तो अपनों के मेले, हाट हैं बाज़ार हैं,
देखना कल उनका हाहाकार अपनी बस्ती में ।
कुछ पोस्टों को देखकर यह लगता है कि दिल बहलाने होने के लिये गालिब के ख्याल का मोहताज होना अब जरूरी नहीं। खबरों के कैप्सूल गटककर भी बल्ले-बल्ले हो सकती है। अब देखिये द्विवेदीजी इसी बात से प्रमुदित हैं कि लिव-इन संबंधों को एक बार और सुप्रीमकोर्ट की मान्यता दे दी। उधर ज्ञानजी की खुशी का कारण एकदम अलहदा है मतलब जुदा है मतलब डिफ़रेंट है। लोग आने में स्वागत करते हैं। ज्ञानजी जाने में कर रहे हैं। नेपाल में माओवादी प्रचंड ने इस्तीफ़ा दिया। ज्ञान जी बोले स्वागत है। ऐसे जैसे कि अब प्रचंड हिन्दी ब्लागर बनने वाले हैं- जय हो।
काजल कुमार का कार्टून आज कुछ हटकर है। शाहरुख खान की व्यथा कथा विस्तार से बताई है उन्होंने। बांचिये लेकिन कार्टून यहीं देख लीजिये न!
बच्चन सिंहजी की कविता की ये पंक्तियां देखिये तो सही:
तुम्हारी हथेलियों का स्पर्श
लौट आता है बार बार
छा जाता है मेरे सपनों पर
आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा
तुम्हारी ओर
महान लोगों का संपर्क ही लोगों के व्यक्तित्व में परिवर्तन कर देता है। मिसाल के तौर पर देखिये कि कैप्टन गिल के संपर्क में आते ही शास्त्रीजी की सोच क्रांतिकारी हो गयी। ताऊजी प्रकृति के संगत में पड़ते ही बुढ़ापे की बात करने लगे और कल नर्गिस के हेराये गुणग्राहक को खोजते-खोजते के हिमांशु अपनी राह/गली ही बिसरा दिये अब चुन ही नहीं पा रहे हैं:
राह यह भी है तुम्हारी राह वह भी है
तुम्हारी कौन सी मेरी गली है यह न मैं चुन पा रहा हूँ ।
हिमांशु की परेशानी मुझे अपने मित्र राजेश कुमार सिंह की कविता पंक्ति की याद दिला रही हैं:
हमने, अपने प्रश्नों के उत्तर,
बस,राम-शलाका में ढूँढे।
मनीष कुमार ने अपने यायावरी अनुभवों को मुसाफ़िर हूं यारों में लिखना शरू किया था। कल मुसाफ़िर हूं यारों का एक साल पूरा हुआ। मनीष को इसके लिये बधाई।
उधर डा. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने के ब्लागरायटोक्रेट कुमारेन्द्र का भी कल एक वर्ष पूरा हुआ। उनको भी हमारी हार्दिक बधाई।
ब्लागर परिचय
रविकुमार संवेदनशील कवि/चित्रकार हैं। उनके ब्लाग में कवितायें और कविता पोस्टर देखने का सुख अलग है। अपनी एक कविता में वे लिखते हैं:
हम एक अंधेरी खान में जी रहे हैं
हम कई घंटों तक
रोजी-रोटी की आपाधापी में रहते हैं
सोते हैं कई घंटे
बाकी समय में
खु़द को उलझाए रखने के लिए
हमने कई साज़ोसामान जुटाए हुए हैं
हम उलझे रहते हैं
हम इतना व्यस्त रहते हैं कि
खान के मुहानों के बारे में सोचने की
हमें फ़ुर्सत नहीं रहती
और ना ही खान के मुहाने टटोलने लायक
उर्जा ही हममें शेष बचती
धूमिल की कविता -हत्यारे एकदम से सामने नहीं आते पर बनाया उनका कविता पोस्टर देखिये:
मेरी पसंद
वहीं से, आगे बढ़ेंगे।
हैं अगर यदि भीड़ में भी, हम खड़े तो,
है यकीं कि, हम नहीं,
पीछें हटेंगे।
देश के, बंजर समय के, बाँझपन में,
या कि, अपनी लालसाओं के,
अंधेरे सघन वन मे,
पंथ, खुद अपना चुनेंगे।
या, अगर हैं हम,
परिस्थितियों की तलहटी में,
तो, वहीं से,
बादलों के रूप में, ऊपर उठेंगे।
राजेश कुमार सिंह
और अंत में
अब इतना लिखने के बाद और कुछ लिखने का मतलब नहीं होता जी। आज सुबह पांच बजे का अलार्म लगाया कि आराम से चर्चा करेंगे। लेकिन आराम से चर्चा की जगह आराम होता रहा। अलार्म घड़ी पन्द्रह-पन्द्रह मिनट आगे सरकाते हुये करवटें बदलते रहे चर्चा की याद में हम। फ़िर झटके से छह बजे उठ ही तो गये और शुरु कर दिये चर्चा। अब करके डाले दे रहे हैं साढ़े आठ बजे चर्चा।
पहले चर्चा का शीर्षक रखा रविकुमार की कविता पर आधारित हम एक अंधेरी खान में जी रहे हैं। लेकिन फ़िर हिमांशु की पोस्ट देखी तो राजेशकुमार सिंह की कवितापंक्ति याद आ गयी हमने, अपने प्रश्नों के उत्तर,/बस,राम-शलाका में ढूँढे। उसी के बाद फ़िर राजेश की मुझे सबसे अच्छी लगने वाली कविता याद आई सो उसे मेरी पसन्द में ठेल दिया और उसी को शीर्षक कर दिया। पता नहीं बनारसी बालक राजेश आजकल सतना में क्या कर रहा है। लिखना-लिखाना बन्द किये है।
वैसे आपको बतायें कि शीर्षक के लिये मैंने विनीत कुमार की पोस्ट का शीर्षक भी सोचा था-इन लौंडों को क्यों बर्बाद कर रहे हो रवीश लेकिन सोचा फ़िर कि बुजुर्गों की बात हम काहे को दोहरायें।
पिछली पोस्ट में कई साथियों की उत्साह वर्धक टिप्पणियां आईं। उनके लिये शुक्रिया। समीरलाल की कातिलाना अदा
बहुत अच्छी चर्चा कर ली..मुझ जैसे शर्मीले आदमी को तो बधाई देने में शर्म सी लग रही है. :)पर मन तो किया थाना अर्मापुर में अटेम्ट टु वर्चुअल मर्डर की एफ़.आई.आर. लिखवा आयें लेकिन चर्चा करनी थी इसलिये मटिया दिये। लेकिन ब्लागजगत के कवि-शायर समुदाय से अपील है, गुजारिश है, प्रार्थना है कि कोई बहासुर कवि शर्मीले/सजीले समीरलाल जी के शर्माते/लजाते सौंदर्य का वर्णन करे। अपने में अनूठा काम होगा। काम कठिन है लेकिन असम्भव नहीं है जी। जित्ता हो सके करें बकिया महिमा बरनि न जाये कहकर समेट दे। वाह-वाह कहने के लिये हम लोग और एक बार पुन: शर्माने के लिये समीरलाल तो हैंइऐं!
कल की चर्चा मीनाक्षीजी करेंगी।
आपका दिन शुभ हो। बजरंगबली आपके ऊपर मेहरवान रहें, आप अपनी हर परेशानियों के सामने अविजित पहलवान रहें।
ठीक है न! अब बस ! बकिया फ़िर कभी!
आज भी बढियां .
जवाब देंहटाएंhamesha ki taraha se achchi charcha hai
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब चर्चा....
जवाब देंहटाएंइस चिठ्ठा चर्चा की सबसे बढ़िया बात...रवि कुमार जी की कविता और उनका धूमिल जी की कविता पर बनाया चित्र...दोनों लाजवाब...बाकि चर्चा ठीक ठाक...अब जिस चिठ्ठे में हमारी चर्चा न हो उसकी और क्या चर्चा करना...ठीक है ना...
जवाब देंहटाएंनीरज
बढ़िया चर्चा...
जवाब देंहटाएंस्वागत है आपका, चिट्ठाचर्चा में.....:-)
हमारे ब्लॉग पर भी पधारें.
झालकवि वियोगी का कविता ब्लॉग.
काहे शरमा रहे हैं जी? इती बढिया चर्चा की है तो बधाई तो लेनी ही पडेगी ना आपको?
जवाब देंहटाएंबहुत बधाइ जी. और इत्ती बढिया चर्चा के कारण ही एक लाईना नही होने का उलाहना हमारे पास ही रख लिया है. आपको नही दे रहे हैं. वैसे अभी शाम भी बाकी पडी है.:)
रामराम.
बढ़िया चर्चा.
जवाब देंहटाएंबजरंगबली की जय्।
जवाब देंहटाएंविकुमार जैसे लोग जब ब्लोगिंग करते है ...तो बदली जैसे किसी उमस भरे मौसम में दिखती है....उनकी कविता उनकी पेंटिंग .दोनों अद्भुत है...आपका तहे दिल से शुक्रिया जो आपने ऐसी हस्ती का दरवाजा दिखाया ....पिछले दिनों अपने दोस्त का अंग्रेजी ब्लॉग पढ़ते हुए अंग्रेजी के कुछ ब्लोग्स से गुजरा ....वहां कश्मीर पर पढ़कर मन व्यथित हुआ...उसके बाद .इस माह की नया ज्ञानोदय में "वेद राही "का लेख आँख खोलने जैसा है.....हैरानी भी है ओर दुःख भी है की सूचनायो के इस विस्फोटक युग में जब हर रोज एक नया चैनल खुल रहा है......मुझे याद नहीं पड़ता कभी किसी चैनल ने कश्मीरी पंडितो के रिलीफ केम्प का कोई नज़ारा दिखाया हो..... अपने ही देश में विस्थापितों की तरह जी रहे लोग कैसा महसूस करते होगे......
जवाब देंहटाएंयहाँ कुछ ब्लोग्स के लिंक दे रहा हूँ.......
रिलीफ केम्प की असलियत
यूँ तो किसी मह्शय ने रिलीफ केम्प का नक्शा भी किसी ब्लॉग पे दिया है .जो उस माहोल की घुटन का अहसास दिलाता है ब्लोग्स ढेरो है ..जिसका लिंक देना चाह रहा था .उसे सेव नहीं कर पाया ..पर यहाँ भी नजर डाले ...
कश्मीरियत होने का दर्द ये सब देख पढ़के लगता है .....हम भी एक सभ्यता से कटे हुए है....
बिलकुल ठीक है जी !
जवाब देंहटाएंधूमिल की कविता के पोस्टर ने तो बाँध ही लिया । आभार । अनुराग जी का कमेंट - "रविकुमार जैसे लोग जब ब्लोगिंग करते है ...तो बदली जैसे किसी उमस भरे मौसम में दिखती है....उनकी कविता उनकी पेंटिंग .दोनों अद्भुत है...आपका तहे दिल से शुक्रिया जो आपने ऐसी हस्ती का दरवाजा दिखाया ." ज्यों का त्यों लिख देने का मन कर रहा है ।
जवाब देंहटाएंइस खूबसूरत चर्चा के लिये धन्यवाद ।
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद के सिवा तो हमसे कुछ कहा नहीं जाता !!
जवाब देंहटाएंराम राम !!
प्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
आपकी चर्चा
जवाब देंहटाएंसुख देती है
रचना का।
पाँच के बजाय छह से काम पर लगने पर भी मन से लिखा है, पर लगता है फिर भी मन-भर नहीं लिखा। चर्चा का आज जैसा रूप हमेशा ही मनभावन होता है और उस में नया बहतु कुछ मिलता भी है। सुंदर चर्चा के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंधूमिल की इस सामयिक कविता के लिए आभार।
जवाब देंहटाएं----------
किस्म किस्म के आम
क्या लडकियां होती है लडको जैसी
बहुत सशक्त चर्चा।
जवाब देंहटाएंयूं चर्चा न होती तो हिन्दी ब्लॉगजगत का क्या होता? लौंडे तो बिल्कुल ही खत्तम टाइप होते!
नज़ारा देखने के साथ " उपरोक्त पोस्ट पर " यह टिप्पणी भी देखा " लगता तो है, कि इस पोस्ट में यथानाम बहुत सत्यपरक मस्साला होगा, पर हा रे विधना.. अपुन उसक देश प्रेम रात में विदेशी स्कॉच की चंद घूंटों के साथ पेशाब के रास्ते निकल जाता है । " पर ही अटक गया । यह भी वाह वाह ब्राँड तैयार माल है.. मध्यम वर्ग और विदेशी स्काच ? हरे राम हरे राम, घोर कलयुग ! वह ठर्रा पीकर मूते या गम के आँसू पीकर , हाशिये पर रखे जाते रहने के बावज़ूद, सभी को टीसता तो रहता ही है !
जवाब देंहटाएंक्षमा करें, या न भी करें.. मैं सरसरी निगाह फेर कर फ़तवे नहीं दिया करता ! वैसे प्रयास अच्छा है, अब आप बुद्धिजीवियों की ज़मात में शामिल हो सकते हैं !
मैदान में पाला दर पाला बदलते हुये भी < >" आते ही रवीश ने शहरों और कस्बों के रोमांस पर एक बहस छेड़ दी " " लेकिन क्या होगा बीस वर्षों बाद.. " यह भी देखिये " तो हर दो सौ मीटर पर जो ऊंचे-ऊंचे आदमकद होर्डिंग्स लगे हैं वो सुब्रत सहारा के नहीं अपने रवीश कुमार के हैं! हाथ जोडे हुए, मुस्कराते, जनसमूह को संबोधित करते, फिरंगी डेलीगेशन को नया रास्ता दिखाते. मगर इतना कायाकल्प कैसे हो सकता है? मुझे रवीश कुमार की यह नई पहचान सशंकित करने लगी. क्या कल का भोला रवीश कुमार आज बिक गया है ? "
अब.. अब देखिये, ई सब लटर सटर हम थोड़े ही कहें हैं ? नारायण.. नारायण !
रवि जी के पोस्टर ने मोह लिया मन...एक अच्छे ब्लौग से परिचय के लिये शुक्रिया देव...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चरचा
बहुत शानदार चर्चा हो गयी। पढ़कर मजा आ गया। आज अधिकांश लिंक्स पर जाकर भी पढ़ना हुआ। रात की आँधी ने ऑफिस छोड़कर घर रहने का बहाना जो दे दिया था। डिटेल जानना हो तो टूटी-फूटी पर जाँय।
जवाब देंहटाएंbahot khub rai ye charcha...badhaayee..
जवाब देंहटाएंarsh
रवि जी की कविता और फिर वो पोस्टर-क्या कहने, आनन्द आ गया. अब इन्तजार करते हैं आपकी सुझाई कविता के आने का-भले ही फिर से शरमाना पड़े. :)
जवाब देंहटाएंकाफी दिनों बाद चर्चा पढी लेकिन उसे पहले से बेह्तर पाया
जवाब देंहटाएंअगर हम व्यस्त न होते तो आपके समीर जी के सौन्दर्य वर्णन पर कविता के सपने को साकार करते हुए हमें अति प्रसन्नता होती ! वैसे कविता तो हम अब भी लिख मारें पर समीर जी की पूर्वानुमति दिलवानी पडे़गी ! बाद में समीर जी कहीं शरमाने की जगह कोई अन्य भाव प्रदर्शित करने लगे तो हर्ज़ेखर्चे के जिम्मेदार भी आप ही होंगे :)
जवाब देंहटाएं@विवेक बाबू
जवाब देंहटाएंक्या हिमालय वगैरह रह आये इत्ते दिन बगैर फुरसतिया जी के साधु संतो के साथ कि तुमको पूर्वानुमति जैसी बातों की आवश्यक्ता महसूस होने लगी..चलो, सुधार की राह ही कहलाई, इसलिए प्रसन्नता का विषय है :)
लिख लो कविता...
@ समीर जी
जवाब देंहटाएंयही दिक्कत है हमारे बारे में लोगों को बड़ी जल्दी भ्रम हो जाता है कि हम सुधर गये हैं ! अजी हम बिगड़े ही कब थे ? अब आप इतनी दूर पहुँच गए हैं तो कुछ प्रोटोकॉल का भी ध्यान रखना पडे़गा कि नहीं !
आप जहां हैं वहीं से आगे बढेंगे तो काफी पीछे रह जायेंगे. अपन तो जहा हैं उस से शतकोस आगे से आगे बढने की सोचते हैं!!
जवाब देंहटाएंसस्नेह -- शास्त्री