चर्चा करते समय हम अक्सर पाते हैं कि रोजाना के चिट्ठों के एक लघुत्तम समापवर्तक होता है...एक ट्रेंड होता है। कहें कि अंगी रस होता है। ऐसा नहीं कि बाकी विषयों पर लिखा नही जा रहा होता पर...मूल रस एक होता है बाकी संचारी भावों की डूबती उतराती पोस्टें होती हैं। चर्चाकार सूंघकर दिनभर की ब्लॉगिंग का अंगी रस पहचानता है बाकी पोस्टों को फुटकर खाते में डालकर ट्रेंड ऑफ द डे सामने रखता है।
अब हम मास्टरजी के झांसे में आकर कल के चिट्ठों का अंगी रस बोले तो ट्रेंड आफ़ द डे खोज रहे हैं। अंगी रस मिल के नहीं दे रहा है। हमारी समझ में देश भर में मौसम की गर्मी और आजकल हो रहे चुनाव ही आजकल का अंगीरस हैं। चुनाव के मौसम में रवीश कुमार एक नेता फ्रस्टेशन में एक ईमानदार भाषण सुनवा रहे हैं:
तू हमको बुरबक मत बनाओ। काम देख के तू भोट दे रहे हो पिछले साठ साल से। कौन सा काम हो गया है रे देश में। एगो रोड तो न बना तुमरे कोलनी में। बिजली आ गई है। मंदिर बन गया है। दंगे की जांच हो गई है। फालतू का पब्लिक है इ सब। भोट देना होगा तो दे देगा, चलिये इहां से। इ सब जमा हुआ कि हमहूं झूठे बोले। कुछ नहीं करेंगे आपके लिए। जैसे इ सब नहीं किया है। हमको भी भोट दीजिए जैसे उ सबको दिये हैं आप लोग।
ज्ञानदत्तजी राजनीति में चल रही कीचड़ उछाल स्पर्धा की रनिंग कमेंट्री करते वाया उद्दात्त हिन्दुत्व गांधी जी तक आते हैं और बेचारे गांधी जी के दोनों जूते उनके पैर से चले जाते हैं। घुघूती बासूती इस कीचड़ उछाल स्पर्धा को बर्बल डायरिया उर्फ़ मौखिक अतिसार बताती हैं। उनके इस नुस्खे के बारे में चंदन कुमार झा की टिप्पणी है-मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
गर्मी के मौसम के विविध रूप देखिये पारुल की पोस्ट पर। वे चित्रों का काव्यानुवाद भी करती चलती हैं:
सरर सरर टपर टपर
बूंद चली जाने किधर
डा्र डार अरर अरर
पात पात डगर मगर।
भारत भूषण तिवारी कम लिखने वाले ब्लागर हैं। लेकिन मुझसे उन्होंने जिद करके परसाईजी की तमाम रचनायें पोस्ट करवाईं। पिछले दिनों वे कुछ सक्रिय से दिखे। दो वर्ष पहले की उनकी योजनाओं में एक यह चाहत शामिल थी:
और कभी फुर्सत में
सारे शरीर पर लपेटकर
भभूत
तुम्हारी आवाज़ की,
ध्यान-मुद्रा में
बैठना चाहता हूँ
किसी ऊँची पहाडी की
चोटी पर.
मैं फिर फिज़िक्स पढना चाहता हूँ
आवाज की भभूत लपेटकर फ़िजिक्स पढ़ने की तमन्ना रखने वाले भारत भूषण ने अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन को उनकी निर्वाण तिथि पर याद करते हुये उनके बारे में महान अश्वेत नेता फ्रेडरिक डगलस के विचार बताये
विशुद्ध दासता-विरोधी दृष्टिकोण से देखा जाए तो लिंकन मंद, रूखे, सुस्त और उदासीन प्रतीत होते हैं. मगर देश की जन-भावना के हिसाब से नापा जाए- वह भावना जिस पर ध्यान देने के लिए एक राजनीतिज्ञ के तौर वे बाध्य थे- तो वे तेज़, उत्साही, रैडिकल और दृढ़संकल्प थे
अगर आपसे पूछा जाये कि कौन से लेख ब्लाग पर पाठकों को आकर्षित करते हैं? तो आप क्या जबाब देंगे। आपको अपना सर खपाने की कौनौ जरूरत नहीं है बस आप इस पोस्ट को बांच लीजिये आपका काम हो गया।
रचना त्रिपाठी के सवाल-क्या हम सभ्य समाज में जी रहे हैं…? पर ज्ञान जी की टिप्पणी
पता नहीं - शायद यह भी है कि मीडिया के चक्कर में हम सनसनी युक्त नकारात्मक बातें देखने-पढ़ने-मनन करने के आदी हो रहे हैं।जैसे अवसाद को चिमटी से पकड़ बाहर करना होता है, वैसे ही अपने को इस संस्कारहीनता से इम्यून करना सीखना होगा शायद।से कितना सहमत हैं आप, बताइयेगा?
कपिल ने अपने ब्लाग पर सवाल उठाया- हमें तय करना होगा कि ब्लॉग को सार्थक बहस का मंच बने रहने देना है या नहीं... अन्य टिप्पणियों के अलावा अरुण अरोरा(पंगेबाज)की अनूप शुक्ल के बारे में यह टिप्पणी भी है-
ये तो इत्ते भोले है कि चंडूखाना नाम के ब्लोग पर अपने मामाजी श्री कैन्हयालाल नंन्दन जी की बेईज्जती को देख कर भी हर्षित होकर कह गये बहुत बढिया और लिखो।
कमल शर्मा की समझाइसी टिप्पणी है-
ब्लॉगर मित्रों कुछ सार्थक काम करो देश के लिए, समाज के लिए और फिर पूरी दुनिया के लिए। फालतू की बहसबाजी और झगड़े में कोई सार्थकता सामने आनी नहीं है।
सुलझाने संवारने की बात करते हुये अजित जी बताते हैं-
बालों की व्यवस्था से ही किसी के भी व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। बिखरे बाल अस्तव्यस्तता की सूचना देते हैं। मनुष्य दिन में दस बार अपना चेहरा आईने में देखता है और हर बार दर्शनीय नजर आने के लिए सामान्यतौर पर बाल संवार लेता है। जाहिर है कि क्रियाशील रहते हुए अक्सर बाल ही बिगड़ते हैं, जो व्यक्तित्व के बारे में चुगली करते हैं।
ताऊ रामपुरिया की पत्रिका में आज शनिवार की पहेली का हल बताया गया है। पत्रिका में इस बार पोस्ट के अन्दर पोस्ट हैं। मतलब आपको बहुत लम्बी पोस्ट नहीं दिखेगी। क्या दिखेगा आप खुदै देख लो न जी! गुरुवार को समीरलाल जी से होने वाली बातचीत का ट्रेलर भी दिया है जिसमें समीरलाल ने शुरुआतै झांसेबाजी से की है-ताऊ, मैं बहुत शर्मीला हूँ! आगे के झांसे आप ताऊ के यहां गुरुवार को देखियेगा।
काफ़ी समय के बाद रचना बजाजजी ने एक कविता लिखी। कविता में आशावाद का एक सुखद एहसास है:
वो जमी से गुम है, आकाश से नही!
वो इस दुनिया मे न सही, कहीं और सही!
वो जिस भी दुनिया मे है, खुश है,
तुम इस बात का आभास हो!
जीवन है ये यूं ही बहेगा!
पाना खोना, यूं ही चलेगा!!
खो देने की निराशा के तम मे,
तुम एक सुखद उजास हो
अफ़लातूनजी ने किशन पटनायक का लेख प्रजातंत्र और धनतंत्र पोस्ट किया। इस लेख के कुछ अंश देखिये :
भारत में चुनाव आता है तो धनतंत्र की स्थिति देखकर मन में एक प्रकार की मायूसी आती है । क्या इस चक्रव्यूह का भेदन किया जा सकता है ? कभी भेद लेंगे तो सही सलामत लौट भी पायेंगे ? मूलभूत परिवर्तन के विचारों की उड़ान कुछ क्षण के लिए थम जाती है! प्रजातंत्र के न रहने से बेहतर है एक लूला - लँगड़ा प्रजातंत्र । प्रजातंत्र में विश्वास न रखनेवालों के लिए भी वहाँ जगह होगी । भारत के विद्वानों ने तो जैसे कसम खा ली है कि मूलभूत और व्यापक सिद्धान्तों को ईजाद करना उनका काम नहीं महाशक्तियों का है । भारतीय विद्वान ज्यादा से ज्यादा चुनाव सुधार की बात कर लेते हैं , या कभी - कभी राष्ट्रपति प्रणाली बनाम प्रधानमंत्री प्रणाली की बचकानी बहस करते हैं । संवैधानिक उपाय से धनतंत्र को नियंत्रित किए बगैर , राजनीतिक प्रणाली में परिवर्तन लाये बगैर चुनाव सुधार का भी कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है । भारत के संविधान में धनतंत्र को मर्यादित करने का जो भी हल्का प्रावधान था , ग्लोबीकरण और उदारीकरण के दर्शन को अपनाकर उसको अप्रभावी कर दिया गया है । इससे भारतीय प्रजातंत्र और राजनीति पर गहरा नकारात्मक असर हुआ है ।
आठ मई को इलाहाबाद में ब्लागिंग से संबंधित एक कार्यशाला की जानकारी दे रहे हैं सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी।
एक लाईना
- ब्लॉग क्या है?:बूझो तो जानें
- ब्लॉगिंग के दिग्गज प्रयाग में पढ़ाने आ रहे हैं... :लोग परेशान,प्रयाग से पलायन प्रारम्भ
- सुलझाने-संवारने की बातें… : कर लेना लेकिन बात उलझे तो सही
- वर्बल डायरियाः कोई क्या करे चुनावी मौसम में ये रोग हो ही जाता है ! :रोग से बचाव के लिये कान में रुई लगायें और मुंह में टेप चिपकायें
- कीचड़ उछाल स्पर्धा : में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा
- आज तेरी यादों को सीने से लगा के रोये :सब कपड़े गीले हो गये
- पोस्ट पर टिप्पणियां पाने के 1001 उपाय : अविनाश वाचस्पति की बात पर कतई भरोसा न करें
- लेखकों का शोषण करते संपादक :बड़े वैसे होते हैं, हत्थे से उखड़ जाते हैं
- नर्गिस की बेनूरी या "गुण ना हेरानो गुणगाहक हेरानो हैं" : गुणग्राहक के गुमशुदा होने की रिपोर्ट पास के थाने में करायें
- एक एक्कन एक, दो दूनी चार, तीन तियाँ नौ.. .. : कल से यहीं अटके हैं आगे याद करिये भाई
- एंकर जो बेचती थी खबर, अब बेच रही है सेब :बाजार का कोई भरोसा नहीं, कल आलू बिकेंगे
और अंत में
सप्ताह की शरुआत की चर्चा में फ़िलहाल इतना ही। कविताजी अभी भी व्यस्त हैं और शायद एकाध हफ़्ते और रहेंगी। तब तक हमारी चर्चा से ही काम चलाइये।
आपके सप्ताह की शुरआत अच्छी रहे। आप स्वस्थ रहें, मस्त रहें। व्यस्त तो आप अपने आप हो लेंगे उसके लिये क्या कहें? है कि नहीं!
आज तो सुबह सुबह ही लाजवाब चर्चा. लगता है दिन आज सीधा जायेगा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
मेहनत से की गई चिठ्ठाचर्चा ..सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंa very well compiled collection time and effort and your enthusiasm to keep this manch alive is worth appreciating and i think each critic of the charcha understands this
जवाब देंहटाएंअब क्या कहें ?
जवाब देंहटाएं"
मुस्करा कर तुम सदा,
संकेत बस देते रहो। "
झुट्टे कह रहे थे कि अंगी रस मिल नहीं रहा.. मिल तो गया- भयंकर गरमी और चुनाव का मौसम
जवाब देंहटाएंभभूत लपेट कर भौतिकी पढ़ना - वाह। महारुद्र फिजिक्स के आदि पुरुष हुये। जय भूतनाथ!
जवाब देंहटाएंतिवारीजी की फिजिक्स पढने की चाहत तो कमाल की है !
जवाब देंहटाएंभभूत और भौतिकी :-)
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी रही । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों से एक तमन्ना थी कि कोई विश्वविद्यालय दर्शन के साथ भौतिकशास्त्र का अध्ययन कराए। वह इच्छा और स्थानों पर भी देखने को मिल रही है। आप की चर्चा के पीछे भी चर्चा रहती है उस के पीछे भी चर्चा रहती है।
जवाब देंहटाएंआज भी अच्छी रही आपकी चर्चा .
जवाब देंहटाएंबढ़्या है भाईया
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
sub kuchh achha raha..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा कर ली..मुझ जैसे शर्मीले आदमी को तो बधाई देने में शर्म सी लग रही है. :)
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