आलोक जी ने टीवी पर हिंदी और खासकर कई लोकप्रिय चैनलों पर बोली जाने वाली हिंदी पर लिखा है. वे लिखते हैं;
"अचानक टीवी चैनलों के प्रस्फुटन और विस्फोट ने मीडिया में ग्लैमर और पैसा दोनों ही ला दिया है इसलिए भाई लोग एक वाक्य लिखना सीखें, इसके पहले किसी चैनल के न्यूज रूम में प्रोडक्शन असिस्टेंट से शुरू करके सहायक प्रोड्यूसर से होते हुए प्रोड्यूसर और सीनियर प्रोड्यूसर तक बन जाते हैं और गलत मात्राएँ लगाने और मुहावरों का बेधड़क बेहिसाब और बेतुका इस्तेमाल करते रहते हैं."
वे आगे लिखते हैं;
"चूंकि टीवी एक बड़ा माध्यम भी बन गया है इसलिए जो पीढी बड़ी हो रही है वो यही भाषा हिंदी के तौर पर सीख रही है. यह हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है."
ऐसा होना क्या हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है? एक भाषा के लिए?
अगर भाषा के लिए डूब मरने वाली बात है तो वे 'भाई लोग' किस बात पर डूब मरेंगे जो यह भाषा सिखा रहे हैं या फिर वे किस बात पर डूब मरेंगे जो सीख रहे हैं? उनके डूब मरने के लिए कौन सा बहाना चाहिए?
शायद भारतीय क्रिकेट टीम का ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप के पहले राउंड में ही बाहर हो जाना एक महत्वपूर्ण बहाना हो सकता है.
मेरा सवाल यह है कि निकम्मे लोगों के लिए भाषा क्यों डूब मरे? भाषा के लिए डूबना या मरना इतना ही आसान होता तो भाषा कब की डूब गई होती. निकम्मे केवल टीवी संस्कृति की उपज नहीं हैं. पहले भी थे. भविष्य में भी रहेंगे.
हिंदी पहले भी थी. भविष्य में भी रहेगी.
उन्होंने और क्या-क्या लिखा है, ये तो आप उनकी पूरी पोस्ट पढ़कर ही जानिए. कारण यह है कि 'हिंदी भारत' सुरक्षित है. ऐसे में अंश टाइप करना थोड़ा समय खर्च करने का काम है.
खैर, एक और अंश टाइप कर ही देता हूँ. तोमर जी लिखते हैं;
"मगर सौभाग्य से अब समाचार चैनल भाषा के प्रति सचेत होते जा रहे हैं. जी न्यूज में पुण्य प्रसून बाजपेयी, एनडीटीवी में प्रियदर्शन और अजय शर्मा, जी में अलका सक्सेना और एन डी टीवी में ही निधि कुलपति, आई बी एन - ७ में आशुतोष और शैलेन्द्र सिंह की भाषा उस तरह की है जिसे टीवी की आदर्श वर्तनी के सबसे ज्यादा करीब माना जा सकता है."
अब अगर पुण्य प्रसून बाजपेयी जी की भाषा और वाक्य रचने की कला पर जाएँ तो कल रात को ही मेरे एक मित्र के साथ हुई बातचीत याद आ जाती है. बाजपेयी जी की कला (या फिर उलझने की कला) पर मेरे मित्र का कहना था; "अरे सर, ये किस तरह के न्यूज रीडर हैं? मनमोहन सिंह जी की कैबिनेट और उसकी साइज़ पर इन्होने बोलना शुरू किया. पॉँच मिनट तक बोलने के बाद भी पता नहीं चला कि ये क्या कहना चाहते हैं?"
अगर आपको मेरी बात अटपटी लग रही है तो चलिए मैं उनकी 'इश्टाइल' में आज की चर्चा की 'पोस्ट एंकरिंग' (न्यूज एंकरिंग की तर्ज पर) कर देता हूँ.....
नमस्कार
देश में... कह सकते हैं, परिवर्तन का दौर है. और कोई भी परिवर्तन तमाम तरह के मिजाज लेकर आता है. कह सकते हैं मिजाज मौसम का है. जहाँ एक ओर पश्चिम बंगाल में इस महीने की सोलह तारीख से ही जहाँ राजनीतिक मिजाज बदला-बदला सा है वहीँ दूसरी तरफ प्रकृति का मिजाज भी बदल गया है.
राजनीति का मिजाज यह कि वाम की सत्ता उखड़ती हुई नज़र आ रही है. दूसरी तरफ हाल ही में आये तूफ़ान ने एक बार फिर से साबित कर दिया कि प्रकृति के सामने हम कितने बौने हैं. जहाँ एक तरफ मतदाता ने बताया कि वह शक्तिशाली है वहीँ दूसरी तरफ प्रकृति ने बताया कि उसकी शक्ति भी कम नहीं. शक्ति का यह खेल तो चलता रहेगा.
लेकिन बात केवल यहीं आकर ख़त्म नहीं हो जाती. शक्ति परीक्षण की बात आती है तो कहीं न कहीं समाज का मिजाज भी सामने आता है. समाज का वह तपका जो खुद को दबा कुचला पाता है...ऐसे में उन्हें तलाश रहती है ऐसे प्रबुद्ध लोगों की, जो उनकी मदद करें.
हम बात कर रहे हैं विनायक सेन की. जी हाँ, डॉक्टर विनायक सेन जो कई महीनों से जेल में बंद थे....लेकिन बात वो भी नहीं है.
जहाँ एक ओर वे रिहा हो गए हैं, वहीँ दूसरी तरफ अनिल पुसदकर जी सवाल कर रहे है; 'डॉक्टर विनायक सेन की रिहाई पर पर्चे बाँट कर खुशियाँ मना रहे है नक्सली! इसे क्या कहेंगे मानवाधिकारवादी!'...
यहाँ बात केवल मानवाधिकारवादियों की नहीं है....विनायक सेन को लेकर मीडिया का मिजाज भी कुछ मिला-जुला ही लगता है...प्रदेश की मीडिया इसके बारे में क्या कहती वो जानने से पहले हम चलते हैं....
उससे पहले मैं बात करना चाहूँगा साहित्य के मिजाज की...हाल ही में संपन्न हुए चुनावों और उसके नतीजों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि मुंहफट जी का साहित्यिक मिजाज क्या सन्देश दे रहा है....आईये देखते हैं कि मुंहफट जी क्या लिखते हैं...
वे लिखते हैं;
रोगी थे, धनवंत्री होगै
लोकतंत्र के तंत्री होगै
नेता, सांसद मंत्री होगै
हे राहुल के लटकन जी!
सटकनरायन सटकन जी!!
कांगरेस की रेस महान,
अहा मीडिया-गर्दभ-गान,
झूठ-मूठ में तोड़े तान
सरकारों के लटकन जी!
पुआ-पपीता गटकन जी!!
देश के वर्तमान राजनीतिक मिजाज पर साहित्य का मिजाज देखें तो पायेंगे कि साहित्यकार का उत्साह उस तरह का नहीं है जैसा मीडिया और बाकी नेताओं का है...कहीं न कहीं.......
बात साहित्य के मिजाज की भी नहीं है...
लेकिन बात कहीं न कहीं गणित तक आकर रुक जाती है. राजनीति और सत्ता का मिजाज भी गणित का ही मोहताज है...वैसे तो कह सकते हैं गणित का अपना मिजाज है.
ऐसे में हम बात करते हैं अभिषेक ओझा की पोस्ट की. देखा जाय तो बात केवल गणित के मिजाज की भी नहीं है. बात है शत-प्रतिशत से ज्यादा की. गणितज्ञ की बात करें तो वो शत-प्रतिशत से ज्यादा की संभावनाओं से इनकार करता है. अभिषेक लिखते हैं;
"पहले तो इस टिपण्णी को बस पढ़ लेता हूँ, पहली लाइन पढ़ कर प्रसन्न: बिलकुल सही कह रहे हैं आप... ऐसे ही डेढ़ सौ, दो सौ परसेंट की सहमती जताते रहिये. हमारी किस्मत ! या पोस्ट की सफलता या फिर दोनों का मेल... जो भी हो पर यकीनन रूप से सौ प्रतिशत से अधिक सहमति हो सकती है...."
अभिषेक आगे लिखते हैं;
"'शत प्रतिशत से अधिक की संम्भावना प्रॉबेबिलिटी में कैसे व्यक्त होती है?!' अब प्रॉबेबिलिटी को याद करके इस सवाल का जवाब देने का मन नहीं हुआ. अब सीधी सी बात है... प्रसन्नता को कम करने वाले सिद्धांत की काहे व्याख्या की जाय ! अरे मैं तो कहता हूँ… गणित के ऐसे सिद्धांतों को दरकिनार किया जा सकता है जो मानवीय आनंद पर सवाल खड़े करें ! :)"
मतलब यह कि गणितज्ञ का मिजाज भी कभी-कभी साहित्यकार के मिजाज से मेल खाता है...हाँ साहित्यकार का मिजाज अलग ही होता है....तुलसी बाबा ने खुद लिखा है कि;
अस मैं सुना श्रवण दशकंधर
पदुम अठारह जूथप बन्दर
तुलसी बाबा ठहरे साहित्यकार...उन्हें गणित की इस गणना से क्या लेना-देना कि अठारह पदम बन्दर पृथ्वी पर कहाँ फिट होंगे... गणितज्ञ की सोच से उन्हें कुछ खास लेना-देना नहीं...देखा जाय तो कहीं न कहीं बात विश्वास की है...
विश्वास की बात चली तो भौगोलिक और ऐतिहासिक बातों पर विश्वास की परत कैसे जमती है...आईये एक नज़र डालते हैं इस बात पर और बात करते हैं गुजरात की. बात गुजरात की भी नहीं...बात है असल में लक्ष्मीनारायण बालसुब्रमण्यम की.
वे लिखते हैं;
"गुजरात के प्राचीन इतिहास के संबंध में तो यह और भी अधिक सच है। इसलिए गुजरात के संबंध में पुराणों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में जो उल्लेख आए हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व है।"
लेकिन बात करें गुजरात की तो राजनीति का मिजाज कहता है कि गुजरात को नरेन्द्र मोदी से अलग रखकर नहीं देख सकते...सामाजिक ताने-बाने के टूटने की निशानी बन गई है गुजरात...कहीं न कहीं....ऐसे में मोदी और गोधरा से अलग रखकर गुजरात को देखना शायद.....
इतनी देर से चल रहे हैं...एक कोस भी नहीं जा पाए..
कहीं न कहीं....
नमस्कार
ठीक ठाक रही यह चर्चा।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आप सफल रहे।
जवाब देंहटाएंबधाई :)
मुझे कुछ समझ में नहीं आया
सिवाय इसके कि आपने कुछ लिंक दिए हैं। इनमें से दो तीन लिंक को लेकर पढ़ने जा रहा हूं।
चर्चा मस्त रही लेकिन बात जब तक टिप्पणी न कर दें, यहीं कैसे खतम हो जायेगी.
जवाब देंहटाएंCharchaa achee hai ...khas kar Prasun Bajpai ji ki charhcaa asliyat ke kareeb lagi
जवाब देंहटाएंपुण्य प्रसून बाजपेयी स्टाईल चर्चा की क्या जरूरत ! वैसे स्टाइल तो आ ही गयी है ठीक-ठाक । लिंक कम ही मिले । एक लाइना आ जाती तो..
जवाब देंहटाएंवाह! वाह! क्या प्रसून झर रहे हैं चर्चा में।
जवाब देंहटाएंडूब मरती हिन्दी की दुर्गन्ध मर गई!
हमारे ब्लॉग को क्या कहेंगे - हिन्दी का मणिकर्णिका घाट? और हम शाश्वत अभिशप्त डोम।
अच्छी, विवेचनापूर्ण चर्चा.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा
जवाब देंहटाएंcharcha thek hai
जवाब देंहटाएंमजा आया.. एंकरींग चर्चा पढ़..
जवाब देंहटाएंवाह चर्चा आह चर्चा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
bariya charcha achhi charcha car ki terah detailing wali charcha ......
जवाब देंहटाएंकुछ नी हो सकता.
जवाब देंहटाएंहिंदी जिन रास्तों से होकर आज यहाँ पहुँची है उसे यहीं कैसे रोका जा सकता. क्योंकि बीता हुआ कल भी इसे वहीँ रोक न सका था. हिंदी ही क्यों, सभी भाषाएँ अपना रूप बदलती ही आई हैं (यदि कारण छोड़ भी दें) ....और बदलती भी रहेंगी, भले ही हमारी चिंता कुछ भी क्यों न हो. निसंदेह, purism को दरकिनार किये जाने पर बहस हो सकती है, पर फिर भी..
"प्रसुन्न रस" मयी ये चर्चा बहुत बढिया रही....
जवाब देंहटाएंबढ़िया रही चर्चा !
जवाब देंहटाएंसुन्दर! हिंदी ऐसे गलत बोलने-चालने से मरने लगे तब तो हो लिया। सिद्धार्थ जोशी जी गये थे लिंक पढ़ने अभी तक लौटे नहीं। न जाने किधर हों।
जवाब देंहटाएंक्या केरे हो गुरु !
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जवाब देंहटाएं" ब्लॉग के लिंक उठाना और उन्हें एक एक कर जमाना वाकई कठिन काम है। चिठ्ठा चर्चा नियमित रूप से करने वालों को साधुवाद। :)
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शिव भैया काहे गरीबों के पेट पर डांस कर रहे हो।वैसे भी उन लोगो की दूकान चल नही रही है ऊपर से आप मज़ा ले रहो हो।वैसे एक बात ज़रूर है हिंदी मुट्ठी भर लोगो की बपौती नही है।
जवाब देंहटाएंaise gol gol ghumaye bhaiya ki mudiya chakray chaakraay ke khaptaan ho gaya..baap re baap.
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