मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।
जब रवींद्र व्यास यह लिख रहे थे तो शायद उनके अनजाने ही इस धारणा को बल मिल रहा था कि स्त्री सदा पुरुष के लिए एक रहस्य रहती है।क्या वाकई इतना रूमानी होना सही है कि हम रहस्य -स्त्री देह -स्पर्श- किताब को एक साथ एक रूमानियत से देखने लगें! लगभग वही बात कि स्त्री का चरित्र तो ईश्वर भी नही जान सकता।क्या वाकई?मै सोचती हूँ कि क्या किताब के पास जाना किसी स्त्री के लिए भी किसी पुरुष के पास जाने जैसा होता होगा? क्या कभी ऐसा होता होगा?शायद आप बता पाएँ ! मेरे लिए कम से कम ऐसा नही।
मेरे लिए शायद यह ऐसा हो जैसा कि किसी कार्टून सीरियल मे एलियंस आते हैं रियल दुनिया मे जिन्हे हीरो अपने हथियारों और प्रयासों से किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देता है।किताब की दुनिया ऐसे ही किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देती है।
किताब को पढना कैसा है, सबके लिए अलग अलग हो सकता है इसका जवाब।
लेकिन फिलहाल मै इस पोस्ट को पढकर विचलित हूँ।रवीन्द्र ने जो लिखा वह आपने पढा।जो नही लिखा उसे मैने पढा। रहस्य को स्त्री देह के साथ जोड़कर महसूस करना और रूमानियत मे खो जाना व्यतीत क्यों नही होता? क्या रहस्य है ? कितना ही खुलापन है ,मीडिया है,विज्ञापन हैं,अंतर्जाल है जो ज्ञान के भंडार के साथ प्रस्तुत है , क्या जानना है? क्या रहस्य है?कम से कम वह स्त्री देह तो नही ही है।पहले स्कूल की किताब मे नवीं कक्षा मे कुछ समझ आता था कुछ नही।जिज्ञासा दोनो ओर थी।लेकिन क्या अब भी ?
जब जब हम स्त्रीके साथ इस रहस्य को जोड़ते हैं तो हमारे किशोर इस मूल्य के साथ बड़े होते हैं कि स्त्री रहस्य है इसलिए उससे डील करना आसान नही है। इसलिए वे उसके पास जाने से पहले अपने अस्त्र शस्त्र और योजनाएँ बना कर जाते हैं।मुक्त हो कर सहज भाव से नही।यदि आपको बताया जाए कि आप किसी तिलिस्म के दरवाज़े पर खड़े हैं तो स्वाभाविक ही होगा कि आपकी मन:स्थिति जूझने , लड़ने, विजयी होने , जीतने या भय के कारण उतपन्न असुरक्षा और अभिमान की होगी।एक ग्रंथि ! एक ऐसी ग्रंथि जो इस दुनिया मे स्त्री को कभी पुरुश के लिए और पुरुष को स्त्री के लिए सहज नही होने देती।
ऐसे मे जेंडर समानता की उम्मीद एक मुश्किल बात लगती है।कुछ रहस्य नही है।देह तो बिलकुल नही।इसे स्वीकार करना होगा। मन की बात है तो मन तो पुरुष का भी उतना ही रहस्य है।मन है ही रहस्य लोक ! मनोविज्ञान खुद मानता है इस बात को ।
स्त्री देह को रहस्यमयी मानना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है।किसी भी अन्य सामाजिक संरचना की तरह इसकी भी सीमाएँ , खामियाँ,षडयंत्र , प्रयोजन , मकसद हैं।इन मूल्यों को आत्मसात करने वाली किशोरी अपनी वर्जिनिटी के खोने से किस तरह त्रस्त होकर आत्महत्या पर मजबूर होती है यह हम सुनते देखते हाए हैं?रहस्य है ? तो रह्स्य खुलने पर सब खत्म !!! है न !!
शब्द जो जाल बिछाते हैं उनसे उबरना स्त्री विमर्श के लिए बेहद ज़रूरी है।फिर बहुत सम्भव है कि यह शब्द जाल अजाने मे ही किन्ही जड़ीभूत संस्कारों के कारण प्रकट हुआ हो।
निश्चित ही रवीन्द्र का यह आलेख , बल्कि अधिकांश आलेख उत्तम होते हैं।लेकिन यहाँ उनसे मेरी विनम्र असमति है।पुस्तक प्रेम बढाने के लिए आप पुस्तक मे स्त्री देह का उपमान दें यह मौलिक भले ही हो लेकिन मासूम नही है।एकतरफा है।एकांगी है।स्त्री की नज़र से भी इसे देखें!
और भी गम हैं ज़माने में -
अपनी वसीयत करना अपने जीते जी बहुत आवश्यक है।सो यह काम कैसे किया जाए जानिए दिनेश राय
ब्लॉगिंग के टिप्स मे दोस्तों की ई चौपाल
शायदा बानो का ब्लोग सोचकर जिसे खोला वह कबाड़खाना पर दर्ज एक गीत था।
महान मेहनती स्त्रियों से भरी वह दुनिया जिसका इतिहास कभी दर्ज नही हुआ , आंकड़ों मे जिन्हे कभी स्थान नही मिला।
ये नन्हे जनाब बिस्तल मे छूछू करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं।बोलना आता नही ब्लॉगिंग करना आता है :)
भाषा की बात आती है तो प्रामाणिक किसे माना जाए - लोक को या व्याकरण को ?
- सुजाता
कई प्रश्नों को पिरोये हुये है, यह चर्चा ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया है, बहुत बढ़िया है... पर,
लगता है कि, आप केवल परेशान दिखने के लिये ही परेशान हैं ।
विचलित होने का कोई कारण तो नहीं !
जो भी चीज अपर्याप्य, दुर्लभ और वर्जनाओं से ढक दी जाती है,
वह अनायास ही रहस्य के घेरे में बँध जाती है ।
रही बात नारी देह या मन के किताब से तुलना किये जाने की..
तो, हर स्त्री या पुरुष अपने आपमें एक किताब समेटे होता है ।
सरसरी तौर पर सफ़े भले पलटा लिये जायें,
पर एक दूसरे में नित नये पृष्ठ मिलते ही जाते हैं ।
उन पृष्ठों के सँग मूड, मौका, माहौल के साथ खुशबू / बास का जिक्र तो यहाँ किया ही नहीं जा रहा ।
नारी... ? नारी ने इस तिलिस्मी किताब के टैग पर तो तभी कब्ज़ा कर लिया था,
जब आदिम सभ्यता के जनसँख्या अनुपात में उसकी अलभ्यता,
और दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति में उसका ’ पैसिव ’ किरदार, और अपेक्षाकृत अरुचि !
कौन कहता है, कि पुरुष मन गूढ़ नहीं होता या
हर पुरुष खुले दिमाग का होता है ?
नहीं जानता कि आप इस टिप्पणी को किस रूप में लेती हैं,
पर मुझे आज आनन्द आया.. मुरझाते विचारों को खाद पानी देने का धन्यवाद !
ब्लाग चर्चा का यह रूप पसंद आया। विस्तार से किसी एक पोस्ट पर बात हो, सिर्फ़ जिक्र करने भर वाले अंदाज से पाठक तो जुटाए जा सकते हैं, पर पाठक को उससे कुछ खास मद्द नहीं मिलती- कहें तो एग्रीगेटर का ही दूसरा रूप हो जाती है वे चर्चाएं। पर इस तरह से किसी एक पोस्ट के बारे में सहमति और असहमति के साथ की गई बातचीत पाठक को उस अमुक पोस्ट को पढने के लिए प्रेरित करती है। हालांकि कुछ अन्य पोस्टों का एक लाईना जिक्र कर यहां भी एक हद तक रस्म अदायगी तो की ही गई है। जिससे बचा जा सकता था या फ़िर उन पर भी कोई राय होती बेशक छोटी टिप्पणी ही सही।
जवाब देंहटाएंअपना अपना नजरिया ,मुझे तो वह लेख सृजनात्मक लेखन का अनूठा उदाहरण लगा ! सहमति /असहमति एक दीगर मुद्दा है !
जवाब देंहटाएंडॉ अमर कुमार , विजय गौर जी का धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंयूँ मै रस्म अदायगी के लिए एक लाइना नही लाना चाहती थी,यह गलती तो हो ही गयी समयाभाव से, क्षमा कीजिएगा!
अरविन्द मिश्रा जी ,
नज़रिए की बात बहुत महत्वपूर्ण है।एक व्यक्ति के बारे मे यह नज़रिए का फर्क बहुत स्वाभाविक है।लेकिन यह नज़रिया जब दो जातियों , समुदायों के बीच पूर्वग्रग्रस्त हो तो मुश्किल है।सुजाता के बारे मे कहना अच्छा या बुरा - यह अलग बात है , लेकिन स्त्री जाति के विषय मे एक धारणा बनाना अलग बात है।
उद्धृत पोस्ट को स्त्री की दृष्टि से देखने का भी प्रयास करें।
अभी चुनावी ड्यूटी की जल्दी में हूँ। यह पोस्ट विशेष चिन्तन की माँग करती है। शायद दुबारा लौटूँ।
जवाब देंहटाएंसुजाता जी को इस विचारपरक चर्चा की बधाई।
पुरुष प्रधान समाज में इस तरह के लेख आएँगें. मन का सारा सहेजा हुआ संयम कभी कभी बिखर भी जाता है और पुरुष व्यक्ति न रह कर रह जाता है सिर्फ पुरुष. सम्भवत: नारी प्रधान समाज होता तो कोई नारी ऐसा ही पुरुष के बारे में भी लिखती.
जवाब देंहटाएंएकदम बराबरी या संतुलन एक आदर्श स्थिति है जिसे कभी पूर्णत: नहीं हासिल किया जा सकता. लेकिन सभ्यता की कसौटी इसमें है कि अंतर और उससे जनित शोषण को कम और कमतर किया जाय. जो समाज इस ओर जितना ही परिणामपरक प्रयासरत रहेगा, वह उतना ही सभ्य कहा जाएगा. हम दिन ब दिन ,धीरे ही सही, एक ऐसे समाज के स्थापन की ओर बढ़ रहे हैं जहॉ लिंग आधारित भेद और शोषण नहीं होंगे.
आप का यह लेख उस दिशा में बढते कदमों की सजगता और निर्भयता को दिखाता है. साधुवाद गम्भीर लेखन के लिए और सजगता के लिए.
नोट पेड जी आप को मानसिक परिपक्वता बढानी होगी । हिन्दी ब्लोगिंग मे देह से ऊपर कुछ नहीं हैं उसी मे सब तैर रहे हैं , कुछ डूब गये कुछ उतरा रहे हैं । और सलाह माने हिन्दी ब्लोगिंग को समझना हो तो इंग्लिश के " महान साहित्यकार " जैसे barbara cartland और Uk के बडे publisher " mills and boon " के दस बीस नोवेल पढ़ ले । बहुत सी कलात्मक हिन्दी पोस्ट वही से बिना आभार आती हैं ।
जवाब देंहटाएंचिंतनीय चर्चा । आभार ।
जवाब देंहटाएंरविन्द्र व्यास जी का लेखन मुझे प्रभावित करता है ...अक्सर ....उनकी कलात्मकता ..सृजनता ..निसंदेह बेजोड़ है .....पर
जवाब देंहटाएंआज उनका जब ये लेख पढ़ा तो मुझे पता नहीं क्यों एक दो जगह असहजता हुई ........मन को टटोला ....क्या लेखक के इस प्रतीकात्मक विम्ब को समझ नहीं पा रहा हूँ .. ....पकड़ नहीं पा रहा हूँ....दोबारा पढ़के शायद प्रतिक्रिया ओर स्पष्ट दे पायूँ ....सोचा शायद आज सुबह तक शायद लेखक की प्रतिक्रिया मिल जायेगी उनकी दृष्टि .....
वैसे मेरी दृष्टि में स्त्री का मन रहस्मयी है.....आदिकाल से आज तक कोई बूझ नहीं पाया ...पर देह ?????
किताब चेतना को दृष्टि देती है .उसका विस्तार करती है....सोच को कई तजुरबो से गुजरने देती है .......वैसे बकोल सुधा अरोडा "हर स्त्री की नाजुक देह में प्रकृति ने कितने शोंक एब्सोर्बर्स फिट किये है जो उसे जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में लड़ने की जिजीविषा देते है ...इन बिल्ट सर्वाइवल सिस्टम...."
स्त्री की देह से जुड़े इस वक्तव्य से मेरी सहमति है
काफी समय लगा ये सोचने में कि क्या लेखक ने इसे एक अलग सोच देने की कोशिश की है या फिर सुजाता जी ने इसे एक नया अंदाज दिया है। हां पर हर वस्तु को देह से जोड़ने के पक्ष में मैं नहीं हूं।
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