चुनाव के विशेषज्ञ एक बार फिर से सही साबित हुए.
हम पिछले करीब एक महीने से बहुत उत्साहित थे. उद्योग और अर्थ-व्यवस्था में मंदी यानि रिसेशन में कुछ कमी दिख रही थी. हम सोच रहे थे कि ऐसे ही जब कमी की परत खूब जम जायेगी तो रिसेशन लुप्त हो जाएगा. लेकिन हमारी ये धारणा चोटिल हो गई.
अर्थ-व्यवस्था में रिसेशन की जो कमी दिखाई दे रही थी, वो राजनीति में घुस गई.
जैसे मकान की ओवरसप्लाई से हाऊसिंग सेक्टर में रिसेशन आया, गाड़ियों की ओवरसप्लाई से ऑटो सेक्टर में रिसेशन आया और अर्थ-व्यवस्था मंदी की मारी भई वैसे ही राजनीति में समर्थन की ओवरसप्लाई हो गई है. इस ओवरसप्लाई की वजह से देश की राजनीति में विकट मंदी छा गई.
एक और गड़बड़ हो गई. पहले समर्थन कई तरह का होता था. सशर्त समर्थन, बिना शर्त समर्थन, व्यर्थ समर्थन वगैरह-वगैरह. ऐसा होने से कम्पीटीशन बना रहता था. इस बार तो समर्थन भी एक ही तरह का बचा. बिना शर्त समर्थन. मतलब ये कि एक तो करेला ऊपर से नीम चढा.
बड़ी आफत आ गई. किंग मेकर लोग किंग बनाने के लिए लोगों को खोजते रहे लेकिन कोई मिला ही नहीं. न जाने कितने नए कुरते, नए ओवरकोट, नए किमोनो, नई शालें, नए अंगरखे वगैरह 'वाड्रोब' में पड़े खुद को यूज किये जाने का इंतजार कर रहे होंगे.
इन वस्त्रों को पूरा विश्वास था कि किसी को भी यूज करने का आदी नेता इन्हें जल्दी ही यूज करेगा. लेकिन हाय री किस्मत. इन्हें यूज करने वाले नेताओं की तरह इनकी किस्मत को भी लकवा मार गया.
अर्थ-व्यवस्था की मंदी राजनीति तक जा पहुँची. अब सरकार बनेगी. सरकार बनेगी तो बजट वगैरह भी बनाएगी ही. अभी तक ऐसा होता आया है कि बजट की वजह से केवल जनता उम्मीद से रहती थी. अब तो इस बात का चांस है कि बजट की वजह से नेता भी उम्मीद से रह सकता है. जैसे जनता की डिमांड है कि देश से मंदी जल्दी जाए वैसे ही नेता भी डिमांड कर सकता है कि राजनीति में भी छाई मंदी जल्दी जाए.
इस मंदी की वजह से नेताओं की नेतागीरी न छिन जाए. राजनीति में छाई मंदी कैसे जायेगी?
पता नहीं. लेकिन नीरज बधवार जी की मानें तो मंदी में नौकरी बचाने के उपाय उन्होंने ढूंढ लिए हैं. वे लिखते हैं;
"हर किसी के मन-मस्तिष्क, गुर्दे-घुटने में नौकरी जाने का डर बुरी तरह समा चुका है। लोग अभी से सतर्क हो गए हैं। टूथपेस्ट खरीदते वक्त भी दुकानदार को हिदायत देते हैं भइया छोटा पैकेट देना। वो छोटा दिखाता है और आप कहते हैं इससे छोटा नहीं है क्या। वो खुंदक में तीन लोगों के सामने कह देता है.....इससे छोटा नहीं आता।"
उपायों के बारे में वे लिखते हैं;
"अनुशासित कर्मचारी की पहली निशानी है कि वो वक़्त पर ऑफिस पहुंचे। अब आपको करना ये है कि पिऊन से पहली ऑफिस पहुंच जाएं। बॉस से शिकायत करें कि पिऊन देर से आता है। मुझे ऑफिस में ज़रूरी काम करना होता है। लिहाज़ा मेन गेट की चाभी मुझे दिलवा दें। कल से मैं ही ऑफिस का गेट खोल दिया करूंगा। बॉस कहे कि बिना डस्टिंग के आप बैठेंगे कैसे? तो फौरन कहिए, सर, उसकी चिंता मत करें। मैं खुद झाड़ू लगा दिया करूंगा। वैसे भी कोई काम छोटा नहीं होता। ऐसा कह कर आप बॉस को ये आइडिया भी दे सकते हैं कि पिऊन को अगर निकाल भी दें तो ये आदमी कम से कम झाड़ू तो लगा ही देगा। इस तरह ऑफिस को आपका 'अन्य इस्तेमाल' भी समझ में आ जाएगा। जबकि इतने सालों की नौकरी में कम्पनी को आपका 'किसी भी तरह का इस्तेमाल' समझ नहीं आया था।"
और भी ढेर सारे उपाय हैं. वे तो आप नीरज जी के ब्लॉग पर पढिये.
चुनाव ख़त्म तो हुए रिजल्ट भी ख़त्म हो गया. रिजल्ट का नतीजा यह होता है कि जो जीतता है उसे जीतने के कारणों की पड़ताल करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. हाँ, जो हारता है, उसे हारने के कारणों की पड़ताल करनी पड़ती है.
मंथन वगैरह भी होते हैं. मंथन से विष निकलता है.
शेफाली पाण्डेय जी ने हारने के पश्चात दिए जाने वाले ऐसे ही कुछ बयानों की कविता बना डाली है.
आप पढिये. टिपण्णी कीजिये.
हार के कारणों का मंथन आत्मा करती है क्या? पता नहीं. ज्यादातर नेताओं के पास आत्मा नहीं है. ऐसे में शरीर ही मंथन करता होगा. आखिर आत्मा तो इमोशनल इडियट होती है न.
मैं नहीं कह रहा हूँ. डॉक्टर अनुराग कह रहे हैं. वे लिखते हैं;
"आत्मा भी साली टाइम नहीं देखती .कही भी खड़ी हो जाती है ......"इमोशनल इडियट "!."
हमेशा की तरह डॉक्टर साहब की आज लिखी पोस्ट भी न जाने कितने सवाल करती है. बेहतरीन पोस्ट है. ज़रूर पढिये.
भारतीय पक्ष पर प्रदीप सिंह जी का लेख पढिये. भूमंडलीकरण के तंदूर पर विज्ञापन के पकवान.
जनता की नज़र में जिन्हें नायक माना जाता है और जो विज्ञापन के जरिये कुछ भी बिकवा देने की हैसियत रखते हैं, उनके बारे में प्रदीप सिंह जी लिखते हैं;
"ऐसी स्थिति में कुछ दिन के लिए समाजसेवक बने आमिर खान आगे आए। उन्होंने जहरीले पेय को फिर से जनता को पिलाने के लिए कमर कस ली। आमिर खान के बड़े-बड़े होल्डर और पोस्टर से बाजार रंग दिए गए। पेप्सी और कोक का बोतल पीते आमिर खान सारे आरोपों को पी गए। अपने आकर्षण से आम जनता को चमत्कृत करने वाले आमिर खान ने जनता को जहरीला पेय पीने से कोई हानि न होने की गारंटी दे दी। भोली जनता इसे मान भी गई और फिर से पेप्सी कोक के जाल में आ फंसी।"
समझ में नहीं आता कि जनता इतना फंसती क्यों है? जनता के फंसने का ये प्लान अनवरत ऐसे ही चलता रहता है. खैर, आप इस पठनीय पोस्ट को ज़रूर पढ़िये.
संपन्न हुए चुनाव और उनके नतीजों से उपजे जनादेश को कैसे देखा जाय? इस विषय पर आनंद प्रधान जी का लेख पढ़िये. वे लिखते हैं;
"इसलिए जो विश्लेषक कांग्रेस की जीत और वामपंथी पार्टियों की करारी हार को इस रूप में पारिभाषित कर रहे है कि यह नवउदारवादी आर्थिक को बेरोकटोक आगे बढ़ाने का जनादेश है, वह इस जनादेश की न सिर्फ गलत व्याख्या कर रहे है बल्कि उसे अपनी संकीर्ण हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस की नई सरकार ने अगर इस जनादेश को आम आदमी के हितों की कीमत पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का जनादेश समझकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।"
इंडियन पॉलिटिकल लीग हो चाहे इंडियन प्रेमिएर लीग, राजनीति दोनों जगह है. आज प्रशांत ने अपनी पोस्ट में कोलकाता नाईट राईडर्स की तुलना उन नेताओं से की है, जिन्हें वोट कटुआ कहा जाता है. मतलब यह कि जो जानते हैं कि वे नहीं जीतेंगे लेकिन सामने वाले का वोट काटकर उसे हराने में उन्हें मज़ा मिलता है.
प्रशांत की यह पोस्ट पढ़िये और जानिए कि उन्होंने कोलकाता नाईट राईडर्स के बारे में ऐसा क्यों कहा?
अलबेला खत्री जी ने आज लौहपुरुष की वाट लगने के बारे में लिखा है. अब आप भोले ता मत ही बनिए. यह कहते हुए कि सरदार पटेल की वाट कैसे लग सकती है? मेरे कहने का मतलब यह कि उनकी तो प्रतिमा वगैरह भी खुले में नहीं दिखाई देती कि कोई चप्पल वगैरह फेंक कर उनकी वाट लगा दे.
अरे भाई खत्री जी का मतलब आज के लौहपुरुष से है. वे लिखते हैं;
"ले दे के एक ही लौहपुरूष बचे थे श्रीमान लालकृष्णजी अडवाणी, लेकिन इस चुनाव में उनकी भी वाट लग गई। इनकी भारतीय जनता पार्टी जहां से चली थी वापस वहीं पहुंच गई। यानी इतने सालों तक हज़ारों तरह की जो बयानबाज़ियां की, रथ यात्रायें की, लालचौक पर ध्वज वन्दन किया और फीलगुड का नारा शोधा, गई सबकी भैंस पानी में.... बैठे रहो अब हाथ पे हाथ रख के। क्योंकि दूसरा मौका जल्दी मिलने वाला नहीं.. पांच साल बाद अगर मिला भी तो क्या तीर मार लेंगे आप? क्योंकि लौहा तब तक ज़ंग खा चुका होगा और आपके सिपहसालार ख़ुद इतने आगे निकल चुके होंगे कि ये आपके बजाय ख़ुद हीरो बनना चाहेंगे... इसलिए अडवाणीजी, काल करे सो आज कर, आज करे सो अब... यानी आप स्वीकार कर लीजिए कि आपके सारे अरमान आंसुओं में बह गए हैं और आप वफ़ा करके भी तन्हा रह गए हैं"
बढ़िया गजल से जोड़ दिया है खत्री जी ने आडवानी जी को. मतलब पाकिस्तानी सिंगर की गजल से....हम वफ़ा करके भी तनहा रह गए....
लेखन में कल्पनाशीलता का और गहरा नमूना आपको अलबेला खत्री जी की पोस्ट पढ़कर ही दिखेगा...आप तो पूरी पोस्ट पढ़िये और टिपिया दीजिये.
अपने बारे में बताते हुए विश्व जी लिखते हैं;
"खबर के अंदर की खबर पढ़ना भी एक कला है. अब राजनीति से दो-चार होते कई साल बीत चुके हैं तो राजनेताओं की चालों का अंदाजा लगाना भी अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा है."
सच है. विश्व जी का अनुभव बोलता है. असल में वे अमर सिंह जी के बारे में बात करते हुए लिखते हैं;
"बात है अमर सिंह की. ये पुराने चालबाज हैं. इनके पत्ते सधे होते हैं और अपने काम निकालने के लिये यह हर प्रपंच कर लेते हैं. इसी कला में निपुण होने के चलते यह मुलायम के लिये अपरिहार्य हो गये. भाई अब तो हालात यूं है कि आजम खान ने भी इनसे पंगा लिया तो उनकी चला-चली हो गई."
हमें तो जी इस बात का गर्व है कि अमर सिंह जी की चालें समझने वाले ब्लॉगर हमारे बीच मौजूद हैं. हिंदी ब्लागिंग के भविष्य के बारे में चिंता करके दुबले होने वाले लोग अब तो समझें कि उनके पास कोई कारण नहीं है ऐसी चिंता का.
आप विश्व जी की पोस्ट पढ़िये. आपको पता चल जाएगा कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ.
श्यामल सुमन जी की कविता पढ़िये. शीर्षक है खिलौना. उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक लगी मुझे यह कविता. अंश पढ़िये. वे लिखते हैं;
चाभी से गुड़िया चलती थी बिन चाभी अब मैं चलता।
भाव खुशी के न हो फिर भी मुस्काकर सबको छलता।।
सभी काम का समय बँटा है अपने खातिर समय कहाँ।
रिश्ते नाते संबंधों के बुनते हैं नित जाल यहाँ।।
खोज रहा हूँ चेहरा अपना जा जाकर दर्पण में।
बना खिलौना आज देखिये अपने ही जीवन में।।
पूरी कविता आप श्यामल जी के ब्लॉग पर पढ़िये.
आज की चर्चा बहुत देर से शुरू कर सका. ज्यादा चर्चा करने का समय नहीं मिल पाया. जैसे अनूप जी को चर्चा बीच में छोड़कर घर से आफिस जाना पड़ता है, वैसे ही हमें आफिस से घर जाना पड़ रहा है.
आज के लिए बस इतना ही.
"चाभी से गुड़िया चलती थी बिन चाभी अब मैं चलता।
जवाब देंहटाएंभाव खुशी के न हो फिर भी मुस्काकर सबको छलता।।"
बार-बार इन दो पंक्तियों का उल्लेख करने का जी चाहता है । राजनीति केन्द्रित चर्चा में अपना आश्रय इन पंक्तियों की छाँव तले ही । आभार ।
व्यंग्य भरे इस लेख में श्यामल को स्थान।
जवाब देंहटाएंराजनीति अब मंद है राहुल हैं भगवान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंसब पोस्ट बांचने और समुचित टिपियाने के बाद तब कह रहे हैं कि शानदार चर्चा किये हैं। नीरज वुधवार की पोस्ट पढ़ कर दिल खुश होगया और डा.अनुराग की पोस्ट बांच के लगा कि क्या बकैत लेखक हैं भाईजान, कुछ कहने का स्कोप नहीं छोड़ते। बकिया भी चकाचक हैं लेख। शानदार संचयन!
जवाब देंहटाएंमुफ़लिसी की अपनी टी.पी.आर. भी तो है,
जवाब देंहटाएंपाथेर पाँचाली हो या स्लमडाग, इन्दिरा गाँधी हों या अटलबिहारी,
सभी तो मुफ़लिसी की टी.पी.आर. के बल पर ही अपनी वैतरणी पार कर गये !
श्यामल जी की पंक्तियों के उल्लेख से सुबह हो गई
जवाब देंहटाएंसुमन सब ओर खिल गए ब्लॉग में हलचल हो गई
बेहतरीन चर्चा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
DMK और तृणमूल जैसी पार्टियों को अभी समझ आना बाकी है कि भैया वो दिन गए जब मियां फ़ाख्ता उड़ाया करते थे. जबकि लालू को बमुश्किल समझ आया ..पर कुछ देर से. कांग्रेस अब बड़ी होकर, इस बार अपने पाँव पर कहीं बेहतर खड़ी है.
जवाब देंहटाएंDMK की राज्य सरकार कांग्रेस के दम चल रही है पर दिल्ली में इसका नखरा तो देखो..पूरे कुनबे को लिए सबसे करप्ट मंत्री बनाने को पगलाए घूम रहा है बेचारा करूणानिधि.
और उधर ममता है कि कांग्रेस के कान में भिन्नाये जा रही है...रेल लूंगी रेल लूंगी रेल लूंगी रेल लूंगी रेल लूंगी ...
ऐसी विकट मंदी में ऐसी चर्चा..कहीं यह शिव तो नहीं कर गये?? अभी चैक करता हूँ.
जवाब देंहटाएंयदि चर्चा आपने की हो तो.. चर्चारम्भ की पंक्तिया मैं कभी नहीं छोड़ सकता.. बढ़िया रही जी चर्चा..
जवाब देंहटाएंआप तो पूरा भारतीय राजनीति का बैलेंस शीट दे दिए महराज.
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