ये चर्चा पढ़ने से पहले आप क्या जानना चाहते हैं लोग ब्लागिंग क्यों करते हैं! कयास मत लगाइये। देख लीजिये कि 59.3 % लोग ब्लागिंग इसलिये करते हैं कि- बस यूंही... पगला जो गये हैं। अब आप कहते रहें कि 17-18 लोगों की राय को सबकी राय नहीं माना जा सकता लेकिन भैये सर्वे ऐसे ही होते हैं। इसके बाद एक और सर्वे होने जा रहा है जिसमें दस ब्लागों की रैंकिंग बतायी जायेगी। आप भी इसमें प्रतिभाग करिये।
चंद्रभूणजी रोज-रोज नहीं लिखते। लेकिन लिखते हैं तो मन लगाकर। आज उन्होंने गिलहरियों के बारे में लिखा। इसके बहाने और भी काफ़ी कुछ:
नए इलाकों का भी अपना अलग व्याकरण होता है। यहां मैंने कुत्तों को लोमड़ियों की तरह गहरी मांद बना कर बच्चे देते देखा, हालांकि इतनी कोशिश के बाद भी उस पीढ़ी का एक भी बच्चा बचाया नहीं जा सका। और अब गिलहरियों को घोंसला बनाकर बच्चे देते देख रहा हूं। शायद यह एक ही प्लॉट पर ऊपर-नीचे कई सारे फ्लैट बनाकर बेचने की नई इन्सानी युक्ति जैसा ही है।
हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन की चर्चा करते हुये ॠषभ देव जी भाष्कराचार्य द्वितीय द्वारा बताई वैज्ञानिक लेखन की विशेषतायें बताते हैं:
1. वैज्ञानिक साहित्य की भाषा अधिक कठिन नहीं होनी चाहिए।
2. उसमें अनावश्यक विवरण नहीं होने चाहिए।
3. उसमें मूल सिद्धांतों की सही-सही और सटीक व्याख्या की जानी चाहिए।
4. उसमें भाषागत स्पष्टता और गरिमा का निर्वाह किया जाना चाहिए।
5. उसमें विषय को पर्याप्त उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए।
बड़ा लफ़ड़े वाला काम है न वैज्ञानिक लेखन करना। इसीलिये वैज्ञानिक लोग कविता करने लगते हैं। लेकिन अपराजिता का कहना है कि कविता लिखना सरल काम नहीं है।
महावीर जी पढ़वा रहे हैं चन्द्र शेखर 'आजाद' , नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और जाँ निसार 'अख़्तर' की रचनाएं
विनीत उत्पल महिला मुक्केबाजी की विश्व चैम्पियन मेरी काम के बारे में जानकारी देते हैं मुक्कों में है दम: मैरी कॉम
संजीत से जान लीजिये 90 में एक अरबपति, 22 करोड़पति
पाबलाजी बताते हैं अपनी फेसबुक प्रोफाईल का प्रचार ब्लॉग पर कैसे करें
रंजन अरे वही आदित्य के पापा तुलना करके बताते हैं कि हमारी मेट्रो और बैंकाक की स्काई ट्रेन में क्या समानता और अलगाव हैं।
जतिन्दर परवाज कहते हैं:
यूँ ही उदास है दिल बेक़रार थोड़ी है
मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़ी है
नज़र मिला के भी तुम से गिला करूँ कैसे
तुम्हारे दिल पे मेरा इख्तियार थोड़ी है
मुझे भी नींद न आए उसे भी चैन न हो
हमारे बीच भला इतना प्यार थोड़ी है
आइला द्विवेदी जी ने दो महीनों में सत्रह फ़िल्में देख डालीं। कमाल है जी।
भारतीय नागरिक का मानना है कि इन मुनाफखोरों को भी फांसी पर चढाना चाहिये चाहे फिर वह खुदरा दुकानदार हो, स्टाकिस्ट या फिर कम्पनी का मालिक ही क्यों न हो जिन लोगों ने स्वाइन फ़्लू से बचने की दवाओं में घपला किया हो।
अगर अपराध कम करने हैं तो बच्चों में भावनात्मक लगाव की भावना पैदा करनी होगी।
अरविन्द मिश्र का सवाल है- क्या हमारी जीवन्तता को निगल रही है यह आभासी दुनिया ! आप भी शामिल हो जाइये सवाल-जबाब में।
इस बीच इलाहाबाद में महिलाओं के कुली बनने के लिये इम्तहान हो गया। परिणाम इधर जानिये।
आज का बड़ा सवाल है कि आजकल की लाइफ में आखिर 'कूल' कैसे रहे?
चपले साईनाथ विठ्ठल का आलेख : हिंदी का दुर्लभ उपन्यास : नूतन ब्रम्हचारी देखिये रचनाकार पर!
वर्माजी का सवाल है:
मौसम जब कभी पंचवटी होता है
बिस्तर क्यों इतना सलवटी होता है।
अब हम कुछ बतायेंगे तो किसी की निजता का उल्लंघन हो सकता है न! इसलिये चुप हैं।
आज दिल्ली में जै जैवन्ती समारोह है। जा तो भला क्या पायेंगे- कार्यक्रम की रूपरेखा देख लीजिये।
दा ग्रेट हिमालयन ब्लोगर्स मीट : चन्द तस्वीरें और ! भी देख ही लीजिये।
सन्ध्याजी को मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से नवाजा गया। उनको बधाई।
मेरी पसन्द
एक,
जैसा जुड़ा रह ही गया हो जिन्दगी से
कभी दो या ज्यादा का ख्याल आया ही नही
घरों में
कुछ हमारे जैसे घरों में
एक ही पलंग/गद्दा होता था
रिजर्व पिताजी के लिये
और हम सब चार-छः जितने भी होते
बांट लेते जमीन अपने हिस्से की
माँ के साथ कथरियों(गोदड़ी) पर
टूथ ब्रश,
वो भी एक ही होता था
और बाकी सब
या तो चूल्हे से माँग लेते थे राख़/कोयला
या कभी दातून कर रहे होते थे
एक से, ज्यादा कुछ हो भी सकता है
हमारी कल्पनाओं में भी नही आया कभी
अंगोछा,
भी एक ही था,
जो पिताजी के इस्तेमाल के बाद ही
हमारे हिस्से में आता था क्र्मशः
कभी अधगीला या कभी कुछ ज्यादा
अपने हर इस्तेमाल के साथ
दे जाता था पीढी दर पीढी
हस्तांतरित होते संस्कार
और तहज़ीब एक रहने की
फ़िर कमाने वाले और
खाने वाले हाथों का
अनुपात सुधरा तो
लक्ष्मी ठहरने लगी घर
हम बदलने लगे
पहले अंगोछा बदला तौलिये में
फ़िर टॉवेल में
तब भी हमारी गिनती एक तक ही सीमित थी
आज,
मेरे बच्चे जब मुझसे माँगते है
अपने लिये अलग कमरा
प्रायवेसी के नाम पर / या
टॉवेल अपने लिये अलहदा
हाईजीन की देते हुये दुहाईयाँ
मुझे हैरत होती है अपने आप पर
कि हमने कैसे काट ली जिन्दगी
एक ज़मीन के टुकड़े पर/
एक ही टॉवेल में.
मुकेश कुमार तिवारी
और अंत में
आज की चर्चा का दिन विवेक का है। सुबह उनकी चर्चा देखने के लिये बैठे तो दिखी नहीं। मोबाइल पर अलबत्ता संदेश दिखा- तबियत खराब है। चर्चा न कर सकेंगे। लगता है समीरलाल की थकान की बात सुनकर वे भी झटक गये।बहरहाल ये रही जैसी तैसी चर्चा। आप अब मौज करो। बकिया फ़िर देखा जायेगा।
कोई तो आया हमारी तबीयत की चपेट में..हमें तो लगा था कि आप अपने हो..जरुर चपटिया जाओगे. ज्ञान जी तो मानो निकल ही गये शहर छोड़ कर और बनियान पहने बैठे हैं ट्रेन में. :)
जवाब देंहटाएंअच्छा चुनाव.. आभार..
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी रही. पढ कर मजा आया. साथियों की तबियत की खबर अब एसएमएस से आ जा रही है, सूचना मिली. मोबाई आफ कर दिया है, कहीं किटाणू साथ न आ जायें.
जवाब देंहटाएंएकलाईना के बिना चर्चा की तारीफ नहीं करेंगे. न आपको टिप्पणी देंगे!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
एक पहेलिका में ही बीमार हो लिए विवेक बाबु.. उन्हें ताऊ के पास भेजिए वे पहेली सम्राट है..
जवाब देंहटाएंऐसी-तैसी चर्चा पर जैसी-तैसी टिप्पणी ये रही। :)
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी रही....
जवाब देंहटाएंबहरहाल ये रही ढिंचक चर्चा। आप हम मौज करेंगे। बकिया फ़िर देखने आ जायेगें।
जवाब देंहटाएंरामराम.
"देख लीजिये कि 59.3 % लोग ब्लागिंग इसलिये करते हैं कि- बस यूंही... पगला जो गये हैं:
जवाब देंहटाएंआंकडे़ गलत है जी,
यहां हर इक पागल है - हर इक दीवाना
कोई ब्लाग का शैदाई, कोई टिप्पणी को बौराया :-)
जैसी तैसी
जवाब देंहटाएंकैसी भी रही वार्ता
हमें तो लगी बस वैसी
(अनूप जी जैसी) :-)
Aur ye rahee jaisi taisi tippadee.
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-T & S }
ACHHE BLOG CHARCHAA HAI.....
जवाब देंहटाएंसम्प्रति वार्ता: श्रुयन्ताम् , प्रवाचक: विवेक सिंह:
जवाब देंहटाएंमहाजनो येन गत: स: पन्था:।।
इति वार्ता:
जवाब देंहटाएंजैसे तैसे ही सही... इतने अच्छे लिंक मिल गये कि, अपनी तो ऎसी तैसी हो रही है !
आज एक पोस्ट लिखने का पिलान बन रहा था.. देखो आज 3 बजते भी हैं या नहीं ?
पर क्या हमें ऎसे सम्मानों का इस्तेकबाल या स्वागत करना चाहिये ?
मेरे हिसाब से नहीं... इसके मेरे अपने ही कारण हैं ।
क्या किसी को स्मरण आता है कि, श्रद्धेय मैथिलीशरण गुप्त जी ने देश, समाज और साहित्य सृजन से इतर कभी कोई व्यकत्व दिया है ?
मैं पिछले चार दिनों में समस्त उपलब्ध सँदर्भ छान चुका हूँ, निराशा ही मिली ।
यह पुरस्कार वैश्य समाज द्वारा, वैश्य कवि के नाम पर केवल वैश्य रचनाकारों के लिये ही आयोजित / प्रायोजित था ।
प्रबुद्ध समाज में इस तरह के बँटवारे का क्या अर्थ है ? यह एक खतरनाक शुरुआत है.. हिन्दी वाले वैसे ही इतने खेमों में बँटें हैं, अब यह नया शग़ूफ़ा !
फिर तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नाम पर दिया जाने वाला सम्मान अनूप शुक्ल ले जायेंगे, रघुबीर सहाय यानि फ़िराक गोरखपुरी की स्मृति में आयोजित समारोह में समीरलाल गोरखपुरी ही मुख्य अतिथि बनायें जायेंगे ।
Eligibility to stand in Merit being filtered by the Cast of the nominants, hunh !
अच्छी रही चर्चा -विवेक जी तो दांत खोदते दिखे हैं !
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा में बहुत अच्छी पोस्ट पढने को मिली
जवाब देंहटाएंनिवेदन है रोज़ ऐसी वैसी चर्चा की जाये
वीनस केसरी
UMDA CHARCHA !
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जवाब देंहटाएंHe was declared as Rastra Kavi by Rashtra Pita Mahatma Gandhi in 1936 in Kashi. At times, Gandhi ji quoted:
“I respect Maithali Saran Gupt since he is a poet of all of us and he is the only poet who is writing after understanding the need of the nation.”
राष्ट्रकवि को गहोई वैश्य समाज से ही जोड़ कर देखे जाना त्रासद नहीं है, क्या ?
का बात है शुकल जी...ई जैसी तैसी है...काहे के लिए हम लोग का ऐसी तैसी कर रहे हैं..ऐसन ठसका के लिख दिए हैं ..आ कहते हैं की जैसी तैसी..बहुते जोरदार रहा जी...
जवाब देंहटाएंचिट्ठा चर्चा अच्छी रही।
जवाब देंहटाएंआनन्ददायक भी और
ज्ञानदायक भी।
we can never rise over the cast based system and gender bais dr amar , its deep rooted in our system and we even dont want to discuss it openly because those who do are made FUN OFF or LEFT ON THEIR OWN
जवाब देंहटाएंभैया हमें भी तो पूछ डालो रे कोई ? स्वाइन फ़्लू के चक्कर में लिफ़्ट से नीचे आते हैं वाचमैन से सब्ज़ी भाजी, अख़्बार आदि मँगवा लेते हैं और उन सब को भी डेटाल से साफ़ करके इस्तेमाल कर रहे हैं । सारे क्लाइंटों में हवा उड़वा दी है कि जबलपुर निकल चुके हैं । मगर दहशत में पूना छोड़कर जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही। डरते डरते फ़ुरसतिया जी को टीप रहे हैं कि कहीं ब्लागिंग से ही स्वाइन फ़्लू ना फैल पड़े।
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