कल अनूपजी ने चर्चा तारीख बदलने से बस कुछ ही पहले की, एक जानकार चर्चापाठक ने राय रखी-
ई अपरिहार्य कार्य चर्चा के दिन ही क्यों टपक पड़ते हैं??? और यह मुत्तादी [कंटेजियस] क्यों होते हैं?? शायद किसी ब्लाग वायरस का असर हो! रवि रतलामीजी इस पर प्रकाश डाल सकते हैं या फिर पाबलाजी भी अपनी जानकारी बांट सकते है:)
भई गजब खोजे हैं, ये बाकायदा चर्चालेखन का मरफी नियम है कि यदि आप चाहे धुर निठल्ले हैं तथा सप्ताह में एकही दिन कुछ काम पड़ता है तो तय है कि वह काम ऐन चर्चा के ही दिन पड़ेगा, इंटरनेट की खराबी, हाजमे की खराबी, बिजली की गड़बडी, मूड का आफीकरण, सास का आना, ससुर का जाना....सब ससुर चर्चा के ही शेड्यूल का दुश्मन है। हम आज भी बस जैसे तैसे चार बजे मॉनीटर का मुँह देख पाए हैं सो भी जमाने भर की बेशर्मी लादकर। कपड़ों पर इस्तरी अभी हुई नहीं, बालकों के एसाइनमेंट जॉंचने का काम मुल्तवी कर दिया है, फोन आफ हैं तिसपर भी आठ बजते तक चर्चा कर पांवें तो बहुत समझिएगा (ये तो तब है कि ठेठ ठुल्ले किस्म की नौकरी है मास्टरी जिसमें सप्ताह में बस तेरह घंटे लेक्चर देना होता है, बाकी तो बस एरियर का इंतजार भर ही करते हैं, ऐसे में अनूप जैसे अफसर जो चर्चा में इतना समय दे पाते हैं बस धन्य हैं वे तो बेचारे इतने बिजी हैं कि उनके बकाया एरियर के हिसाब तक का आनंद खुद नहीं ले पाते दूसरों से हिसाब करवाना पड़ता है :))
आज की चर्चा का मूल स्वर एक पोस्ट पर आई एक टिप्पणी के एक हिस्से भर से लिया गया है। पोस्ट है कबाड़खाने पर अनिल यादव की पोस्ट तामुल और जलपरी।
मैं मुंह बाए उसकी लाल-लाल आंखों को देखते हुए वहीं जड़ हो गया। उस घर की एक बुढ़िया जो वहीं बैठी हुक्का पी रही थी, ने इसे भांप लिया। उसने आँखे तरेरते हुए वह गमछा मांगा और उठाने के लिए हाथ भी बढ़ा दिया। इससे हड़बड़ाकर उस आदमी ने मुझे छोड़ दिया। बाएं हाथ की मुट्ठी बांधे मैं दो दिन बुखार में पड़ा रहा।
संस्कृति की महानता का पुराण बांचने वाले समलैंगिकता की ही तरह बाल यौन शोषण के भी अपने देश में होने से झट इंकार करेंगे... खैर अनिल यादव ने इस सीरीज में यानि उत्तरपूर्व यात्रा पर संस्मरणों की सीरीज में चार लेख लिखे हैं एक, दो , तीन, चार। अब तक के इन लेखों में जो गुण सबसे उभरकर दिखाई देता है वह है-
मुनीश ( munish ), आलेख की खासियत है लेखक का 'जजमेंटल' होने के ट्रैप से बचा रहना .देखें कब तक ?
हमारी नजर में ब्लॉगलेखन कुछ बेहद मूल्यवान गुणों में से है जजमेंटल होने से बचना। ये वाकई एक ट्रैप है। मसलन पाकिस्तान की फिल्मों में अपने बच्चों में 'देशभक्ति' भरने की कोशिश पर (जो सिर्फ उतनी हर भोंडी या मनमोहक है जितनी हमारी फिल्मों में होती है) प्रतिकिया देखें-
इसमें बच्चों को उनका मास्टर पाकिस्तान को संभालने के लिए कह रहा है. वह उन्हें बताता है कि उनके मुल्क को शहीदों ने अपने खून से सींचा है. बच्चों से कुरआन के सहारे चलने की अपेक्षा की गई है. गाने के अंत में वह कश्मीर को कब्जे में लेने का चिरकालीन राग अलापने लगता है. आश्चर्य है कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी बचपन से ही यह घुट्टी पिलाते आ रहे हैं कि उन्हें कश्मीर पे कब्जा करके वहां अपना झंडा फहराना है.
या फिर अपने गुरूवर प्रभाषजी के लेखन से असहमत (असहमति में भी अति जजमेंटलिज्म का दोष है सही) लोगों पर पिले पड़े आलोक तोमर की भाषा देखें-
ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?
ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है।
लगभग ऐसा ही विनीत भी जुगत-भुगत रहे हैं।
कुछ ऐसा ही गुण अवगुण चोखेरबाली पर नीलिमा की पोस्ट के रीठेल में भी दिखता है।
अरविंद-एशिया ही नहीं ऐसा कमीनापन कमोबेश पूरी दुनिया में है -पर पूरी दुनिया में हर किसी को कोसते रहना ठीक नहीं है ! खुद सोचिये की क्या यह एक एकांगी दृष्टिकोण नहीं है ? यहाँ कुछ खराब है तो वह ही क्यों बार बार उद्धरनीय बनता है -क्या जो अच्छा है वह दिखता नहीं -यह दृष्य्भेद महज दृष्टि भेद के ही चलते है ! लगता है ब्लागजगत की आधी दुनिया के नुमायिंदे प्रशंसाबोध खो चुके हैं -इन्हें बस हर वक्त रोना कलपना ही आता है ! इससे क्या मिलेगा समाज को ? यह कैसी रचनात्मकता है ? इसी को शूकर वृत्ति कहा गया -कबीर को हर जगह बस मैला दिखता था -तुलसी इस शूकर वृत्ति से ऊपर उठे -आज वे कबीर से कहीं अधिक सम्माननीय हैं ! (कम से कम मेरी दृष्टि में ) -यह उदाहरण महज इसलिए की समाज में चोखेरबालियाँ वह भी तो देखें और बताये जो कुछ अच्छा और अनुकरणीय हो रहा है -बार बार एक ही रोना विकर्षित करता है
इसके कंट्रास्ट में लविज़ा का आइडिया देखें (ये दावा नहीं कि पापा का सोना गलत है या उन्हें उठाना ठीक :)) इसी परह परमोद बाबू का अंगरेजी में भिन्न भिन्न मुद्राएं बनाकर सूखे में हरियाना-
सो बिना जज़मेंटल हुए हमने तो जो भी सामने आया परोस दिया, अब आप इसपर जितना चाहें हो जाएं ज़जमेंटल।
बढिया माल उठाया चर्चा के लिए आपने !
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जवाब देंहटाएंज़ज़मेन्टल होना भी न चाहिये !
निष्कर्ष निकालने का दायित्व पाठकों के पाले में ही सोहता है ।
किन्तु पाठक भी कन्नी काट लें, और ’ अद्भुत लेखन.. बधाई हो.. दिल को छू लिया.. ’ जैसे प्रतिक्रियायों पर ही टिका रहे, तो ?
उत्तरोत्तर एक उदासीन सँवादहीन उपस्थिति देते रहने की स्थिति ही काबिज़ होती जाती है ।
यही कारण है, ब्लाग साहित्य को जड़-लेखन में शुमार किया जाने लगा है ।
इससे उबरने के प्रयास में कतिपय बन्धु ज़ज़मेन्टल होने के ग़ुमान का पोषण करने वाले आलेख ठेलने लग पड़ते हैं ।
मेरे इस कथन पर कोई प्रतिटिप्पणी ?
ज़ज़मेन्टल लेखन की पराकाष्ठा तब दिखती है, जब कोई ब्लागकर्मी विशेष एक ही विचारधारा को बारँबार आरोपित करने के प्रयास में ही लगा रहता है ।
गोया किसी जिंस की मार्केटिंग कम्पेन चल रही हो ।
कई किसिम के सवाल उठाती एक अच्छी और सार्थक चर्चा !
अजी जब आप नहीं हुए जजमेन्टल तो हमारी क्या बिसात!! :)
जवाब देंहटाएंवैसे उपर पढ़े लिखों की भाषा देख पढ़ने से जी उचाट हो गया है- अनपढ़ ही बेहतर...करते रहेंगे ब्लॉगरी.
जवाब देंहटाएं@ समीर भाई लालउड़नतश्तरी वाले
ज़ज़मेन्टल की इस खींच तान में दिल को न उचाट कर
वह घड़ी ज़रूर आयेगी, इस घड़ी को थोड़ी फ़ास्ट कर
मैं समझ सकता हूँ, आपकी कचोट को.. आप तो बस अपना प्रोत्साहन विभाग पकड़े रहो ।
यह भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि अन-ज़ज़मेन्टल होना ! हाई बी.पी. की कसम, अब तो हँस देयो ।
थाली परस दी , पहुने ने खाई , नॉन ज़ज़मेन्टल,
जवाब देंहटाएंनहीं खाई , दो बात सुनाई , ज़ज़मेन्टल .
ज़ज़मेन्टल पहुने को क्या भूखा रखेगे ? नहीं ना , सो चावल मे
जवाब देंहटाएंसे कंकर बीने और नॉन ज़ज़मेन्टल पहुना पाए
जजमेंटल मतलब
जवाब देंहटाएंजज मेंटल
होने से
टल गया।
हाय ..हम तो जज ना बन पाये..मगर मेंटल हो कर रह गये..का चर्चियाये हैं..बस इससे जादे उदगार नहीं न निकल रहा है..
जवाब देंहटाएं@ MASIJEEVI---CREATE SOMETHING GENTLEMAN CREATE ....WRITE SOMETHING FRESH LIKE ANIL YADAV ! ITZ NO USE FUMING , FRETTING, SCOFFING AND CRITICISING LIKE THE BLOODY DYING HORSES OF HINDI LITERARY CRITICISM ....NO BODY CARES FOR THEM THESE DAYS ! GONE ARE THE DAYS WHEN LIKES OF U COULD MAKE OR UNMAKE THE CAREER OF YOUNG WRITERS ! IT IS BLOG LAND,HERE RULES ARE DIFFERENT FROM THE ROTTEN HINDI DEPARTMENT OF A UNIVERSITY.GOT IT ?
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जवाब देंहटाएंमुनीश ( munish ) ने कहा…
पर मैंनें कहा
@ मुआफ़ी अता करें मुन्नीश जी, तो एक हाइकू अर्ज़ करूँ.. ..
यह अपना मँच है, सो चलिये कर ही देता हूँ, मुलाहिज़ा फ़रमायें
समुद्र ही नहीं
लाँघना कठिन होता
अपनी परछाईं भी
आपके बेतक्कलुफ़ अलफ़ाज़ तो यही बयाँ कर रहें हैं कि,
गोया कोई परछाईं लाँघनें की ज़द्दोज़हद में लहूलुहान होकर अपनी ही परछाईं से डरने लग पड़ा है ।
एक और बात भी कुछ हैरान करती है कि, बावज़ूद इतनी तल्ख़ी के.. हिन्दी वालों के बीच आपके मौज़ूद होने का सबब आख़िर हो क्या सकता है ?
हिन्दी वालों का तो हाल ही न पूछें..
क़ातिल जाने न ज़ालिम जाने
जाने सिपाही न हाकिम जाने
पँडित जाने न आलिम जाने
जो जाने वो भी कम ही जाने
जिस पे पड़े बस वही जाने
अँग्रेज़ी भी माशाल्लाह आपकी बड़ी हड़काऊ टाइप है, ज़नाब मार्क ट्वेन साहब भी मुस्कुरा रहे हैं...
Noise proves nothing. Often a hen who has merely laid an egg cackles as if she had laid an asteroid.
- Mark Twain
what ever manish has said any one who in any way is related to people in "hindi area " would vouch for it .
जवाब देंहटाएंन तो मुनीष से सहमत हूँ और रचना से.
जवाब देंहटाएंदोनों बिन पेंदी की बात कर रहे हैं.
मुनीष, वही पुराना, अंग्रजी बोल दबाव का माहौल बना रहे हैं और रचना, बिना किसी आधार, हमेशा की तरह, विवाद बढ़ाने का.
अमर जी को नमन करता हूँ. उनकी बात में दम हैं.
जवाब देंहटाएंरिपीट:
जवाब देंहटाएंNoise proves nothing. Often a hen who has merely laid an egg cackles as if she had laid an asteroid.
- Mark Twain
मिनीष सुनना और रचना, गुनना.
चर्चा में है दम, अब आफ़िस जाते हम!
जवाब देंहटाएंअनूप जी की शायरी, सौ चर्चाओं पर भारी!
जवाब देंहटाएंDear Doctor Amar I firmly believe in age old saying which goes something like this ," Your freedom stops where my nose begins " . It is pretty well evident that the way my comment has been picked for hair-splitting by the gentleman shows his high handed approach . Had there been an intention of some healthy and meaningful dialogue ,i would have answered accordingly ! It would be futile to discuss the matter Doc saab unless u read that travelogue yourself .
जवाब देंहटाएंYou see the gentleman in question read all the four parts of that particular travelogue and instead of saying a few words of praise for the author he has picked a comment for hair-splitting !! Isn't it obnoxious ?
So far ur question regarding my benign presence here is concerned , well i must say i am enjoying here doctor and enjoying very much !
..........और हाँ कभी मेरी हिन्दी सुननी हो तो मयखाने में तशरीफ़ लायें चूंकि हिन्दी मैं सिर्फ़ पीने के बाद बोलता हूँ !
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा पर निःशब्द -हाँ डॉ अमर कुमार की बात पते की है !
जवाब देंहटाएंअरविंद मिश्र जी से सहमत
जवाब देंहटाएं@ B.S.Pabla-- Sir ji only a fool will doubt the erudition , integrity and scholastic credentials of Doc' Amar . I have been an ardent admirer of his knowledge and command over several languages .None can challenge his stature in Blogosphere ! Here , in his first comment, only he showed the understanding of expression 'judgemental trap' ,but i can't understand as to why he has jumped into the fray ? Wish u all happy blogging !!
जवाब देंहटाएं"..खासियत है लेखक का 'जजमेंटल' ..."
जवाब देंहटाएंयह चर्चा जज के मेंटल होने की है तो खतरा contempt of court का बनता है। जो लोग मयखाने तक अपनी हिंदी को महदूद रखना चाहते है वे शराबखाने जायें, ब्लागखाने को होश में ही रहने दें तो शायद प्रदूषण से बचा जा सकता है:)
....or u may open a kiosk for issuing 'pollution under control ' certificates mister cmpershad !
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जवाब देंहटाएं@ munish
आज की चर्चा में टिप्पणीयों स्वस्थ रूप से स्वीकार करने के लिये, धन्यवाद मुनीश !
एक पाठक के रूप में चर्चा पर , मैं चाहता नहीं फिर भी अनायास ही व्हिप ( Whip.. या Tail Twister ) का रोल अपना लेता हूँ ।
मसिजीवी के लिये मेरी व्यक्तिगत राय जो भी हो, पर उनके कद का अँदाज़ केवल इसी से लगाया जा सकता है, कि वह स्वयँ ज़ज़मेन्टल होना तो दूर, किसी पोस्ट को एक सामान्य टिप्पणी से कृतार्थ करना भी गवारा नहीं करते । हालाँकि उनके द्वारा की गयी चर्चा के विस्तार को देख यह तो ज़ाहिर है कि अधिकाँश चिट्ठों तक उनकी पहुँच बनी रहती है । वह एक अलग मुद्दा है, फिर भी..
किन्तु आपकी टिप्पणी का यह अँश ".... THE BLOODY DYING HORSES OF HINDI LITERARY CRITICISM ....NO BODY CARES FOR THEM THESE DAYS ! GONE ARE THE DAYS WHEN LIKES OF U COULD MAKE OR UNMAKE THE CAREER OF YOUNG WRITERS !" थोड़ा चुभने वाला है और यही मेरी प्रतिक्रिया का वायस भी बनी ।
मैंनें अनिल जी अब तक की सभी कड़ियाँ पढ़ी हैं, क्योंकि मैं अपनी मिज़ोरम यात्रा को भी इससे जोड़ कर देखता चल रहा हूँ । टिप्पणियों पर माडरेशन मुझे आहत करता है, और यह कड़ियाँ प्रतिलिपि में छप भी चुकी हैं, अतः ’ सोपाड़ी’ वाली कड़ी पर चाह कर भी टिप्पणी करने से कतरा गया ।
पर मित्र, आपका अपनी प्रोफ़ाइल को पोशीदा रखना मेरी समझ में कम ही आया, यह और बात है कि डेढ़ घँटे जाया करने के बाद backtype.com , SEO Directory और Google Cache की सहायता से मैं आप तक पहुँच ही गया ।
एक बात और है दोस्त, हिन्दी जगत में जीते हुये आपका अँग्रेज़ी के प्रति मोह, और अँग्रेज़ी सामान के गले से उतरते ही हिन्दी प्रेम कहीं एक अलग किसिम की अहमन्यता तो नहीं है ? अपने अँग्रेज़ी ब्लाग पर मैं हिन्दी को पक्षपात ही हद तक बख़्श देता हूँ, और हिन्दी ब्लाग पर अँग्रेज़ी को कतई भी महिमामँडित नहीं होने देता । यह दोहरापन नहीं बल्कि मेरे लिये यह स्थान, काल और पात्र के लिये प्रतिबद्धता का प्रश्न होता है ।
हाँ, मदहोश होकर दुनिया को जिया तो क्या, होश में ज़िदगी का लुत्फ़ ही अलग है, मेरे दोस्त । आज़मा कर देखो । अस्वस्थ तरीके से ही सही, पर एक स्वस्थ मुद्दा सामने लाने के लिये पुनः धन्यवाद !
Doctor Saheb Hindi is my mother tongue and i respect Hindi, i adore Hindi ;but English being my 'mistress-tongue' is my love and i can't help it ! Thnx for sharing your valuable views with me , i look forward to many more 'encounters' dear sir !
जवाब देंहटाएंरचना, बिना किसी आधार
जवाब देंहटाएंi endorsed the views of manish because i have seen how the careers of talent hindi teachers rotted in the era of 60-70 when head of hindi department used to be trated as god . many teachers retired as teachers and never were promoted to the post of professor because then it was dependent on the head of the department to promote or demote you
its only after the 1988-89 that teachers got grades into readers and professors right in their colleges on the number of years
headship then became by rotation
in hindi bloging it seems people dont really know the most parents from hindi background never wanted their children to teach hindi
ignorance is bliss for people like rajesh swarthi so happy bloging for them
दोस्तो,
जवाब देंहटाएंबहस शानदार है दिक्कत बस इतनी ही है मजमून पर नही है, तिस पर सबसे ज्यादा मजेदार बात ये कि सीधी सादी प्रशंसा को नाहक निंदा की तरह पढ़ा जा रहा है... अनिल के वृत्तांत न केवल बेजोड़ हैं वरन ठीक इसी वजह से कि वे फैसलाकून होने के लालच से बचे हुए हैं इतने रोचक हैं या कहें कि कम स कम हमें लगे हैं। चर्चा में इसी वजह से चारों संस्मरणों के लिंक दिए हैं। हमारे दोस्त व पड़ोसी मुनीश न जाने क्यों नाराज हैं।
किसी हिंदी विभाग की किन्हीं हरकतों से रचना की नाराजगी पुरानी है उससे उस हिन्दी विभाग के वो लोग निपटे हमें कोई दिक्कत नहीं न ही कोई सरोकार।
किसी कोने के कॉलेज में छोटी सी मास्टरी पीटते हैं तनख्वाह के लिए।
अमरजी दोबारा से देखें पिछले कुछ अरसे से हम हम डोरमेंट चिट्ठाकार ही हैं... नई पोस्टें बेहद कम हैं टिप्पणियॉं उससे तो ज्यादा हैं पर कुल मिलाकर कम ही हैं। साधुवादी टिप्पणियॉं हम पहले भी कम ही करते थे। इसलिए उसके आधार पर निर्णय कहीं नही पहुँचाता। हिंदी चिट्ठाकारी में ज़जमेंटल होने, फतवे जारी करने की प्रवृत्ति हम लोगों में रही है जबकि जो पोस्ट इस आग्रह से बचती है हमें पसंद आती है...अनिल यादव के संस्मरण और मुनीश की टिप्पणी इसीलिए पसंद आई और उसे आधार बनाकर चर्चा की। बाकी तो जैसे अनूप कहते हैं जितने लोग उतनी समझ।