जरा ये पेज देखिए -
(चित्र को बड़े आकार में, पढ़ने लायक देखने के लिए उस पर क्लिक करें)
यह है भोपाल से प्रकाशित, तेजी से – बेहद तेजी से आगे बढ़ता - पीपुल्स अखबार का 29 जुलाई का स्कैन किया गया पेज. पूरा का पूरा पेज निशा मधुलिका.कॉम से उड़ाया गया है जो कि खान-पान को समर्पित ब्लॉग है. मूंग की दाल का करारा यहाँ छपा है तो आलू करी यहाँ से उठाया गया है. इन दोनों में ग्राफ़िक्स भी वहीं से उड़ाया गया है और बड़ी कलाकारी से निशामधुलिका का नाम हटाया गया है. पीपुल्स अखबार में प्रकाशित राजस्थानी दाल की पूरी निशामधुलिका में यहाँ पूर्व प्रकाशित है. इन आलेखों को न तो साभार दिया गया है और न ही इसके लिए निशामधुलिका से कोई पूर्वानुमति ली गई है. इस तरह से इंटरनेट पर हिन्दी साइटों से माल कट-पेस्ट किया और हो गया पेज तैयार. न हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा.
हिन्दी ब्लॉगों से सामग्री चोरी कर इंटरनेट पर पुन: प्रकाशित करने के मामले तो हिन्दी ब्लॉग जगत के शुरूआती दिनों से ही आते रहे हैं. आईना वाले जगदीश भाटिया का तो चेहरा (माने तस्वीर) ही किसी भाई ने चोरी कर अपने ब्लॉग प्रोफाइल में छाप लिया था.
ऐसे ही बहुत पहले जब करिवेप्पिल नाम के मलयालम भाषा के खानपान ब्लॉग से याहू मलयालम ने सामग्री की चोरी की थी तो जिंजर एंड मैंगो, ग्लोबल वाइसेज तथा
देसी पंडित जैसे तमाम तरफ से हल्ला बोला गया और अंतत: याहू समूह को इसके लिए माफ़ी मांगनी पड़ी थी.
तो, क्या पीपुल्स अखबार से एक अदद माफ़ी की दरकार हिन्दी ब्लॉग जगत को नहीं है? उनके इस घटिया काम की निंदा तो कर ही सकते हैं? पीपुल्स अखबार का पता है-
वैसे तो भोपाल से निकलने वाले और तमाम अखबारों के भी हाल कोई जुदा नहीं हैं. सभी इंटरनेट के सदा उपलब्ध सामग्री का भरपूर उपयोग करने लगे हैं. उदाहरण के लिए, भास्कर जैसा बड़ा, विशाल समूह के डेबलायड डीबी स्टार का वर्ड विंडो जैसा पेज सड़ियल किस्म के ईमेल फारवर्ड से मिले चित्रों को कट-पेस्ट कर बनाया जाता है. कुछ समय पहले इसी भास्कर मधुरिमा में क्लाउड कम्प्यूटिंग पर लिखा मेरा एक आलेख थोड़े मोड़े (जेंडर परिवर्तन) परिवर्तन के साथ छापा गया था (भई शैली तो बदल नहीं सकते चाहे जैसा आप संपादन कर लें!) – मैंने उस वक्त एक संपादक से बात उठाई तो बस्स!
आपके शहरों के हिन्दी अखबारों के क्या हाल चाल हैं? कल को अखबार की प्रति हाथ आए तो जरा ध्यान दीजिए कि कहीं आपके ब्लॉग से कौनो कट-पेस्टिया मसाला उठाया तो नहीं गया है! (ताला लगाना बेकार है – चोरों के लिए - वे सिर्फ चिट्ठाचर्चाकार के लिए ही समस्याएं पैदा करते हैं बस्स!!!)
देसी पंडित जैसे तमाम तरफ से हल्ला बोला गया और अंतत: याहू समूह को इसके लिए माफ़ी मांगनी पड़ी थी.
तो, क्या पीपुल्स अखबार से एक अदद माफ़ी की दरकार हिन्दी ब्लॉग जगत को नहीं है? उनके इस घटिया काम की निंदा तो कर ही सकते हैं? पीपुल्स अखबार का पता है-
पीपुल्स समाचार,
6 मालवीय नगर, राज भवन के पास, भोपाल.
मुख्य संपादक – महेश श्रीवास्तव
संपादक – ओम प्रकाश सिंह
फोन – 0755 - 4097074
वैसे तो भोपाल से निकलने वाले और तमाम अखबारों के भी हाल कोई जुदा नहीं हैं. सभी इंटरनेट के सदा उपलब्ध सामग्री का भरपूर उपयोग करने लगे हैं. उदाहरण के लिए, भास्कर जैसा बड़ा, विशाल समूह के डेबलायड डीबी स्टार का वर्ड विंडो जैसा पेज सड़ियल किस्म के ईमेल फारवर्ड से मिले चित्रों को कट-पेस्ट कर बनाया जाता है. कुछ समय पहले इसी भास्कर मधुरिमा में क्लाउड कम्प्यूटिंग पर लिखा मेरा एक आलेख थोड़े मोड़े (जेंडर परिवर्तन) परिवर्तन के साथ छापा गया था (भई शैली तो बदल नहीं सकते चाहे जैसा आप संपादन कर लें!) – मैंने उस वक्त एक संपादक से बात उठाई तो बस्स!
आपके शहरों के हिन्दी अखबारों के क्या हाल चाल हैं? कल को अखबार की प्रति हाथ आए तो जरा ध्यान दीजिए कि कहीं आपके ब्लॉग से कौनो कट-पेस्टिया मसाला उठाया तो नहीं गया है! (ताला लगाना बेकार है – चोरों के लिए - वे सिर्फ चिट्ठाचर्चाकार के लिए ही समस्याएं पैदा करते हैं बस्स!!!)
अखबार चोरी का मजा ले रहे हैं
जवाब देंहटाएंपाठक चोरी का पढ़ने को विवश हैं
अगर ये चर्चा भी चोरी हो गई तो
उस अखबार को अच्छी मिलेगी
टी आर पी।
खेल तो सब इसी पी पी पी का है।
"क्या अब इसे प्रमाण पत्र के रूप में मान लें कि अब हिन्दी ब्लॉगों में भी स्तरीय सामग्री आने लगी है"
जवाब देंहटाएंकिसी प्रमाणपत्र की कोई आवश्यकता नहीं है। हिन्दी ब्लॉगिंग में बहुत ही स्तरीय सामग्री और लोग हैं। अपन लोग को किसी से भी आप कम न समझें। खम ठोंक कर मैदान में आ जाँय तो बस्स...
यह चिंताजनक है।
जवाब देंहटाएंवैसे ताला तो शरीफ़ों के लिए होता है।
'ठगित लेखक संघ' अपनी नई उंचाईयों को छूता लगता है। दिन ब दिन ठगित लेखकों की संख्या जिस तरह बढ रही है, उसे देख कर लगता है अब एक नये संघ बनाने पडेंगे - आदि ठगित लेखक संघ, नव ठगित लेखक संघ, अनठगे लेखक संघ, न्यून ठगित लेखक संघ, खूब ठगित लेखक संघ,
जवाब देंहटाएंऔर अंत में.........
ठगन हेतु वेटिंगाय लेखक संघ :)
यह सही है की अख़बारों में ब्लौगों की सामग्री का बेखटके इस्तेमाल कर लिया गया लेकिन अधिकांश ब्लौगों में जो सामग्री डाली जा रही है वह कहाँ की मौलिक है! स्वयं द्वारा रची गई कविता, कहानी, और लेख की भी मौलिकता की गारंटी नहीं है.
जवाब देंहटाएंमुझे ही लें, अपने ब्लौग में जो कुछ मैं छापता हूँ वह यहाँ-वहां से 'लिया' हुआ ही तो होता है.
फिर भी, अख़बारों को ब्लौगों पर रहम करना चाहिए. करोडों का बिजनेस और सैकडों कर्मचारियों को नौकरी पर रखने के बाद भी उनसे ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती.
ब्लौगजगत में ऐसी खबर छपने पर ब्लौगर का प्रचार तो हो ही जाता है. काश कोई हमारा कुछ चुराकर छापें और हम मन ही मन मुस्कुराते हुए रोनी सूरत बनाकर कहें की 'फलां निर्लज्ज ने मेरी पोस्ट चोरी कर ली है'. इससे एक अदद पोस्ट का जुगाड़ भी हो जायेगा, कुछ सहानुभूति के कमेन्ट भी आ जायेंगे, और निर्लज्ज महोदय से एक खुन्नस भी हो जायेगी.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह रवि भाई , सही चर्चा की ।
जवाब देंहटाएंहिन्दी का प्रतिष्ठित अखबार ’अमर उजाला’ में हिन्दी चिट्ठों की चर्चा करता है । उस चिट्ठे का नाम देता है परन्तु उसका पता (URL) नहीं देता । पारिश्रमिक देना चाहिए उन चिट्ठेकारों को । मजदूरी देने की औकात तो होनी चाहिए !
पत्रकारिता को सौ खून माफ़ है अपने यहाँ . चौर्य भी तो शौर्य की भाति दिखाते है
जवाब देंहटाएंye sach mein chintayogya vishay hai..
जवाब देंहटाएंवैसे तो यह स्वागतीय है कि ब्लाग का लेखन पत्र-पत्रिकाओं में लिया जा रहा है परंतु यदि इसका आभार सहित ज़िक्र लेख के साथ कर दिया जाय कि यह कहां से किस रचनाकार से लिया जा रहा है तो उत्तम रहेगा। निशांत जी के मत से सहमत हूँ। इस प्रकार ब्लाग लेखन का प्रचार भी होगा ही:)
जवाब देंहटाएंऔर ब्लॉगरगण लार टपकाते हैं कि अखबार में कहीं किसी कोने में उनकी चर्चा करदे यह चौर्यकारिता! :-)
जवाब देंहटाएंनिशांत जी से सहमत.
जवाब देंहटाएंएक बार पहले भी मेरा राज ठाकरे से सम्बन्धित लेख इंडियाटाइम्स जैसी प्रसिद्ध वेबसाईट ने उठा लिया था (हालांकि उन्होंने नाम दिया, लेकिन ब्लॉग का पता नहीं दिया), विरोध दर्ज करने पर न तो कोई जवाब दिया था, न ही कोई पैसा भेजा… इतना बड़ा समाचार समूह और ऐसी छिछोरी हरकत?
जवाब देंहटाएंहालांकि मैंने ब्लॉग लेखन की शुरुआत ही इस खुन्नस में की जब "सेकुलरिज़्म" से पीड़ित अखबारों ने मेरे लेख छापने बन्द कर दिये, इसलिये यदि अब कोई अखबार मेरा लिखा कुछ चुराता है मैं इसे अपनी विजय मानता हूँ, लेकिन लगे हाथों उस चोर को हड़काता और उसका "सार्वजनिक अभिनन्दन" भी कर ही देता हूँ, क्योंकि मालूम है कि वह पैसा तो भेजेगा नहीं… :)
जवाब देंहटाएंकुदोस टू रविभाई, देर से घर लौटे को भूला नहीं कहते..
शायद भटका हुआ मान लेना उपर्युक्त रहेगा ।
पहले अपने किये श्रम को मैं मैं अपनी अधिकृत सँपत्ति मानता रहा,
अनूप जी समेत कई साथियों का कोपभाजन या उपहास का पात्र रहा ।
अब ऎसा नहीं रहा..
सभी सामग्री और डिज़ाइन मुक्त कर दी है, " जेहिका जौन जौन चाहिये, लूट लूट ले जाय !"
कल ही प्रत्यक्षा सिन्हा के ब्लाग पर ताला लगे होने की बात कह कर फ़ारिग हो लिया गया,
किन्तु मैं जाकर पाता हूँ कि, मुक्त सामग्री है.. कम ब कम IE8 तो इस तथ्य को झुठला ही रहा है ।
यदि इंटरनेट ज्ञान के भँडार की एक खिड़की है, तो हमें दरवाज़े भी खोल देने चाहिये ।
यह क्या कम सँतोष और गर्व का विषय है कि, प्रिंट मीडिया शनैः शनैः हिन्दी साइट और ब्लाग पर दिये जाने वाली सामग्री को टेंप कर अपने को पोस रही है ?
अपनी पहचान होते रहने का इतना ही प्रमाण काफ़ी है, कि नहीं ?
यह चस्का लगते रहने दीजिये, जब उनके पूर्णरूपेण आश्रित होने की नौबत आयेगी.. तो उनकी इस ज़रूरत या तलब के परिशोध्न के नये रास्ते भी निकल ही आयेंगे । अपना मँच मज़बूत हो जाये, फिर इस पर धमाचौकड़ी मचाने के अधिकार नियत कियें जायें ।
वैसे भी गूगल, मल्टीप्लाई, या वर्डप्रेस से मुफ़्त सेवा लेते रह कर.. हमें अपनी सामग्री के व्यवसायिक मूल्याँकन करने का नैतिक अधिकार नहीं बनता ।
कुल मिलाकर अच्छा संकेत है यह। अब ब्लॉग लेखों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का प्रयास होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंइस दिशा में मैंने एक पहल की है। सत्यार्थमित्र का पुस्तकीय संस्करण जल्द ही आपके सामने होगा।
निशांत से सहमत..
जवाब देंहटाएंदिल खट्टा होता ऐसी घटनाएं जब सामने आती हैं तो....आप चोरी भी करें और असल माल बनाने वाले का नाम तक ना दें...आखिर फिर चोरी रह ही कहाँ जायेगी....मेहनत कोई और करे, फल कोई और खाए
जवाब देंहटाएंकहाँ कहाँ ध्यान रखें, पता नहीं कहाँ छप रहा होगा....यहाँ तो एक साइट की सामग्री ही दुसरी साइट उठा रही है.
जवाब देंहटाएंभाई किससे कहें? हमारी एक पोस्ट को व वैसे की वैसे ऊठाकर एक गंदी साईट वाले ने छाप दिया..एक सज्जन ने लिंक भेज कर बताया..अब हमको तो किसी शरीफ़ आदमी को लिंक भेजते भी शर्म से बडी शर्म आती है. इसका क्या करें? है कोई उपाय?
जवाब देंहटाएंरामराम.
अफसोसजनक.
जवाब देंहटाएंनिशांत जी की बात से पूर्ण सहमति । वैसे ताउ का मामला घट जाय तो क्या हो ?
जवाब देंहटाएंमैंने कॉपीराइट मुक्त करने से सम्बंधित एक अच्छी अंग्रेजी पोस्ट का अनुवाद किया है.
जवाब देंहटाएंयहाँ देखें : http://hindizen.com/2009/08/02/releasing-copyright/
चिंताजनक है मगर नया नहीं है. ब्लॉग-जगत में तो आम-जनता ही है मगर अखबारों में तो पत्रकारिता पढ़े हुए और अनुभवी लोग हैं. क्या उनका यह व्यवहार नया है? नहीं, आजकल के संचार माध्यमों की वजह से जहां ऐसी हरकतें कर पाना उनके लिए आसान हो गया है वहीं उनका पकडा जाना हम लोगों के लिए.
जवाब देंहटाएंचिट्ठा चर्चा बहुत बढ़िया रही।
जवाब देंहटाएंआम चोरी करके खाने में जो मज़ा है,
वो खरीद कर खाने में कहाँ।
ताला तो शरीफ़ों के लिए होता है
जवाब देंहटाएंपाबला जी से पूरी तरह सहमत हूँ
वीनस केसरी
डॉ रुपचन्द्र शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंमजेदार बात कह रहे हैं.
लोग अगर चोरी करके खा लें तो किसी को क्या आपत्ति...मगर लोग चोरी कर के बेच रहे हैं, उस पर आपत्ति दर्ज की जा रही है यहाँ.
-अच्छी चर्चा.
रवि जी,
जवाब देंहटाएंअफसोसनाक बात है कि, अख़बार और चोरी?, सीनाजोरी तो प्रेस(आजकल की) का हक़ बनता है उसका रोना तो नही रो सकते।
ब्लॉग जगत पर पैनी नज़र रहती है आपकी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
हैरान हूँ....
जवाब देंहटाएंनिशांत की बात सही है पर उसमें भी कुछ परिष्कार चाहिए। निशांत खुद जिसे इधर-उधर से लिया बता रहे हैं वह सही नहीं है। वे अंग्रेजी से अनुवाद कर अपने ब्लाग पर ज़ेन कथाएं दे रहे हैं। इसमें चयन, अनुवाद और संपादन उनके खाते में जाता है। फार्म भी बदल जाता है। कॉपीराईट कानून के तहत भी यह एक अलग विधा और प्रस्तुति मानी जाएगी। यहां प्रस्तुत रेसिपी कटिंग वाले उदाहरण के संदर्भ में अपने ब्लाग की मिसाल देकर वे खुद के साथ भी ज्यादती कर रहे हैं और चोरी का भी साधारणीकरण कर रहे हैं साथ ही ब्लाग-जगत कोभी बिना बात कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। ब्लागजगत में भी चोरियां होती हैं और वे सजग ब्लागरों द्वारा तत्काल सामने लाई भी जाती हैं।
जवाब देंहटाएंअख़बारों द्वारा की जाने वाली सामग्री की चोरी बहुत आम बात है। एक दौर वह भी था जब सब एडिटर के पास कलम से ज्यादा ज़रूरी कैंची थी। संपादक भी कैंची लेकर बैठता था। यूं कतरनों का आदान-प्रदान होता था। तब शिष्टाचार बाकी था और साभार-स्रोत लिखने का संस्कार बाकी था।
रविजी का शुक्रिया कि इस बेहतरीन मंच पर ये खुलासा किया।