रविवार, अगस्त 30, 2009

क्या क्विक गन मुरुगन को देखने के लिए हम दर्शकों में अपनी तैयारी और चेतना जरूरी है?

 

आँखें खोलो भोर हुयी है;

दिन निकला है शोर हुयी है;

लोगों को जल्दी है देर हुयी है;

आँखें खोलो भोर हुयी है.

 

क्या ये नर्सरी राइम है? नहीं. अगली पंक्ति पढ़ें –

 

आँखों पे है माया का परदा ,

झूठे सायों का परदा ,

स्वार्थी भावों का परदा ,

दिल को खोलो , मन को मोड़ो ,

देर हुयी है ,

आँखें खोलो भोर हुयी है.

 

पूरी कविता यहाँ पढ़ें. पर, सवाल ये है कि कविता क्या है? आपको पता है कविता क्या है? यदि पता हो तो बताएँ कि कविता क्या है. चलिए, आपकी सुविधा के लिए, कविता कविता में ही बता दें कि कविता क्या है –

 

कविता  क्या  है .…!

 

कविता  क्या  है,  बिन  समझे  ही

कविता  हम  करते  रहते,

सोचा  है  क्या  किसी  कवि   ने ,

ऐसा  क्यूँ  करते  रहते ……

 

कविता  को  किसने  है  समझा,

और  उसकी  क्या  परिभाषा,

जो  कहते  उन्हें  ज्ञात  ये  सब  है,

उनको  मैं  ना  समझ  सका ……

 

कविता को पूरी तरह कविता में समझने के लिए यहाँ क्लिक करें.

 

पिछले हफ़्ते चर्चा में फ़िल्म अवतार का जिक्र किया गया था. इस बीच आर्यपुत्र कई फ़िल्म देख आए, जिसमें कमीने भी शामिल थी. कमीने को रवीश ने बुरी तरह खारिज किया, तो आर्यपुत्र को इस फ़िल्म में बहुत मजा आया. हम कन्फ़्यूजिया रहे थे कि मामला किधर गड़बड़ है. चवन्नी चैप ने स्पष्ट किया –

 

कमीने एक ऐसी फिल्म है, जिसके लिए दर्शकों की अपनी तैयारी और चेतना जरूरी है। कुछ लोग कह सकते हैं कि तो अब फिल्में देखने की भी तैयारी करनी होगी? निश्चित रूप से भरपूर और सटीक आनंद के लिए तैयारी करनी होगी। अपनी संवेदना जगानी होगी और समझ बढ़ानी होगी। संस्कृति के वैश्विक समागम के इस दौर में अज्ञान को हम अपना गुण बताना छोड़ें। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमें यही पसंद है। चूंकि साहित्य, संस्कृति और सिनेमा परस्पर प्रभाव से नित नए रूप और अंदाज में सामने आ रहे हैं, इसलिए किसी भी सजग दर्शक के लिए आवश्यक है कि वह सावधान रहे। वह नई फिल्मों को ध्यान से देखे। फिल्में भी व्यंजन की तरह होती हैं, अगर उनका स्वाद मन को नहीं भाता है, तो हम बिदक जाते हैं। मजा तभी है, जब हम नए स्वाद विकसित करें और नए काम को सराहना सीखें।

 

तब तो लगता है कि अपनी समझ विकसित कर कमीने भी देखी जाएगी और भारत में ताजा ताजा प्रदर्शित हुई एक अपने तरह की फ़िल्म क्विक गन मुरूगन को भी देखी जाएगी. क्यों ? कई कारण हैं. पहली तो लोला कुट्टी है. दूसरी मैंगो डाली है. तीसरी सॉरी, तीसरा राइस प्लेट रेड्डी है, चौथा – आमिर खान है. ये आमिर खान कहां से आ गया?

आमिर खान ने इस फ़िल्म को मजा ले ले के देखा और बताया कि इस फ़िल्म को तो हर किसी को देखना चाहिए! पर, अभी ये भोपाल में रिलीज ही नहीं हुई है. अब या तो इंतजार करें या फिर...&%$#@ चलिए, तब तक कमीने देख आते हैं.

 

आप सभी का पाला कभी न कभी किन्नरों से पड़ा होगा. आपके लिए कभी वे हास्यास्पद रहे होंगे, तो कभी घृणित व तिरस्कृत. जबरिया वसूली करते किन्नरों पर आपको गुस्सा भी आया होगा. परंतु उनकी असली समस्या के बारे में कभी आपने सोचा है? कुछ प्रश्न यहाँ खड़े किए गए हैं -

 

किन्नरों का समुदाये आज भी अपने अधिकारों के लिए एक मुश्किल लडाई लड़ रहा है. जन्म के वक़्त ही माँ बाप छोड़ देते हैं और अगर ना भी छोड़ना चाहें तो समाज छुड़वा देता है. उन बच्चो को अपनाया नहीं जाता और फिर शुरू होता है उनकी ज़िन्दगी का सफ़र जहाँ वो दुसरे किन्नरों के यहाँ ही पलते है बड़े होते है, ना पढाई ना लिखाई. ना मुस्तकबिल की बातें ना माजी की सुनहरी यादें...अब ऐसे मैं बड़ा होकर अगर वो लोगों से पैसा ना वसूले तो क्या करे क्यूंकि यही तरीका उन्होंने सीखा है...

 

इस टुकड़े को पढ़ कर शायद आपके मन में कुछ दूसरी भावना जागे. उन्मुक्त ने भी किन्नरों पर बहुत सी सामग्री लिखी है, जिसकी कड़ी भी इस लेख पर दर्ज टिप्पणियों में है.

 

फेसबुक पर लोगबाग सिर्फ क्या गलतियाँ ही किया करते हैं? नहीं. यहाँ तो बड़ा ही बढ़िया संग्रह है हिन्दी साहित्य के इंटरनेटी कड़ियों का. वहीं पर मुझे मिला हिन्दी साहित्य की प्रमुख पत्रिकाओं में से एक कथादेश के इंटरनेट संस्करण की कड़ी का. अगस्त09 से कथादेश इंटरनेट पर आ चुका है और उम्मीद करें कि यह नियमित रूप से इंटरनेट पर बना रहेगा. हंस तो इंटरनेट पर आया, बंद हुआ, फिर आया और अब तो जैसे उसने इंटरनेट से मुंह ही मोड़ लिया है – कि भइए, भर पाए इंटरनेट से!

 

चलते चलते –

 

यदि आप कार खरीद रहे हैं तो  हो जाएँ सावधान!

 

 

और अंत में –

 

अय दोस्त जा रहे हो ???

हमें अकेला छोड़कर ??? अपनी यादों के हसीं पलों के साथ बंधकर .....

देखो इस घरका हर कोना घूम फ़िर ध्यानसे देख लेना ...

कहीं कुछ छुट नहीं गया है ना ???

अपनी हर चीज़ संभालकर करीनेसे रख देना

कहीं रस्तेमें ,टूट ना जाए ,गूम न जाए .....

इस घर के खिड़की दरवाजे ठीक से बंद कर दो...

 

वैसे तो हम जा रहे हैं, आपको छोड़कर, पर संपूर्ण अलविदा गीत पढ़ेंगे कि नहीं?

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6 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो कमीने और क्विक गन मुरगन दोनों ही फिल्म देख आये.. दोनों ही अलग तरह की फिल्मे है.. ख़ुशी की बात है कि हिंदी फिल्मो में हर तरह के मूड की फिल्म बनने लग गयी है.. जो ख़ुशी की बात है..

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  2. सही बात है, असल में केवल इन्हें ही नहीं बल्कि हर फ़िल्म को देखने के लिये अपनी तरह की तैयारी और चेतना विकसित की जानी चाहिये वैसे ही जैसे आज प्रकाशित हर चिट्ठे को पढ़ने के लिये अलग-अलग किस्म की तैयारी और चेतना चाहिये.

    पर क्या हर फ़िल्म देखना जरूरी ही है?

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  3. दो दशक हो गये होंगे कि हम ने कोई फिलम देखी नै तो क्या कमीना और क्या मुरुगन... हमारे लिए तो काला अक्षर[कलर पिक्चर] भैंस बराबर है।

    अब काला अक्षर की बात चली तो हंस की बात कर लें।
    "हंस तो इंटरनेट पर आया, बंद हुआ, फिर आया और अब तो जैसे उसने इंटरनेट से मुंह ही मोड़ लिया है – कि भइए, भर पाए इंटरनेट से"

    सरल सा मतलब है- यदि इंटरनेट पर दे दें तो सर्कुलेसन का का होगा:)

    हिंदी की असुद्धि ब्लाग पर माफ़ है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं:)

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  4. यह दोनों ही फ़िल्में मैंने तो देखी ही नहीं ।
    हाँ, कमीने अलबत्ता रोज ही मिला करते हैं !
    कभी एक्सरे फ़िल्म पर कुछ चेंपना हो तो बताइयेगा ।

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  5. न कमीने देखी है न ही क्विक गन और न ही देखने का इरादा है

    वैसे एक बात मैंने समझी है पोस्ट में की जिसको कमीने पसंद आई उसकी समझाईस बहुत अच्छी है :)

    वीनस केसरी

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