देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २ ॥२॥
सूरज हमें रोशनी देता
हवा नया जीवन देती है ॥२॥
भूख मिटाने को हम सबकी
धरती पर होती खेती है ॥२॥
औरों का भी हित हो जिसमें - २
हम ऐसा भी कुछ करना सीखें -२
नीरज दीवान ने प्रख्यात गीतकार जावेद अख़्तर का मत बताया है:-
"उलेमा-मौलवी अगर फ़तवा देते हैं कि मुसलमानों को वंदेमातरम् नहीं गाना है तो मैं वंदेमातरम् जरूर गाऊँगा। जब संघ परिवार वाले कहेंगे कि भारत में अगर रहना है तो वंदेमातरम् कहना होगा तो मैं बिल्कुल नहीं गाऊँगा"
अपने संतुलित लेख में नीरज दीवान वंदेमातरम् के बारे में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का मत तथा भारतीय संस्कृति के मिले-जुले रूप के बारे में प्रख्यात पत्रकार विनोद दुआ के माध्यम से जानकारी देते हुये अपना संकल्प बताते हैं।
जीतेंद्र,पंकज बेंगाणी जहाँ अपने ब्लाग में वंदेमातरम् के वीडियो दिखाते हैं वहीं संजय बेंगानी आवाहन करते हैं:-
हैं गर्व जन्मे यहाँ पर
हो न्योछावर तो गम नहीं
दिखलादो गा कर दुष्टो को
देश भक्त भी कम नहीं
इस भावना को दर्शाना होगा
वन्देमातरम गाना होगा
रीतेश गुप्ता भी वंदेमातरम् कहने के पहले सोशलाइज़, सोशलाइट, और सोशल ऐक्टिविस्ट के बारे में बताते हैं:-
बिना कुछ समाज का भला किये ये सोशल भी हैं और लाइमलाइट में भी हैं । लगता है आप समझे नहीं यह सोशलाइट कौन है और कहाँ पाये जाते हैं ।
मुझे भी नहीं मालूम था लेकिन ये देर रात कि फ़ेशन पार्टियों में पाये जाते हैं ।ये जितना समाज को देते हैं उससे कई गुना अधिक चट कर जाते हैं ।
आइये ऐसा समाज बनाये जहाँ सोशलाइट नहीं सोशल ऐक्टिविस्ट को तरजीह मिले ।
आशीष ने वंदेमातरम् विवाद पर कुछ मुश्लिम विद्वानों के विचार बताये हैं:-
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान, इस्लाम के विद्वान
यह कोई धार्मिक मसला नहीं है लेकिन मैं इस पर फ़तवा दिए जाने के ख़िलाफ़ हूँ. दोनों ओर के अतिवादी लाभ उठा रहे हैं. अगर मुसलमान यह समझते हैं कि वंदे मातरम् का गाना ग़ैर इस्लामी है तो उन्हें इक़बाल के इस शेर की भी मुख़ालफ़त करनी चाहिए - “…ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है.” इसलिए मेरे हिसाब से इसे गाने में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए
रचना बजाज अपनी रचना में माँ से कहती हैं:-
मुझे पता है,तुम्हे दुख है! मै चीखकर तुम्हारी प्रार्थना करना चाहती हूँ, लेकिन व्यथित हूँ कि मेरा एक भाई समझेगा कि मै दूसरे की तरफ हूँ..और तुम भी तो यही चाहती हो ना,कि चाहे वे तुम्हारे गुण गायेँ या न गायेँ, कम से कम आपस मे तो न लडेँ..
अमिताभ त्रिपाठी मुश्लिम समाज में पोलियो के बारे में धारणा की पड़ताल करते हैं जिस पर शुऐब की टिप्पणी है:-
बहुत ही मजेदार जानकारी है-हमारा अजीब देश है,अजीब लोग,अजीब सोच और अजीब खबरें
सुनील दीपक ने अपनी व्यथा-कथा बयान करते हुये दुर्गापूजा तथा साईंबाबा के बारे में जानकारी देते हुये कामना की है:-
मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता.
कमलेश भट्ट कमल बहुत दिन बाद अपनी गज़ल सुना रहे हैं:-
सफलता पाँव चूमे गम का कोई भी न पल आए
दुआ है हर किसी की जिन्दगी में ऐसा कल आए।
ये डर पतझड़ में था अब पेड़ सूने ही न रह जाएँ
मगर कुछ रोज़ में ही फिर नए पत्ते निकल आए।
हमारा क्या हम अपनी दुश्मनी भी भूल जाएँगे
मगर उस ओर से भी दोस्ती की कुछ पहल आए।
अभी तो ताल सूखा है अभी उसमें दरारें हैं
पता क्या अगली बरसातों में उसमें भी कमल आए ।
डा.प्रभात टंडन अपनी जानकारी का सिलसिला जारी रखतेहुये झक्कियों के बारे में बताते हैं पर इस बार अंग्रेजी में।निठल्ले तरुण की आंखे टिकी हैं बोलती मोम की गुड़ियापर। आप भी देखें तथा पढ़ें कि अभी तक जिन लोगों ने उनके विचार क्या हैं!
संजय बेंगानी ने कल बताया था कि अनुगूँज पर किसी टपोरी ने कुछ अनुवादित -शब्द भेजे थे। आज उन्होंने अनुगूँज का नया प्रस्तावित लोगो दिखाया है-बिना यह बताये कि ये भी उसी टपोरी ने भेजा है कि किसी और ने।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से अरविंद दास ने एशियायी जीवन को केंद्र में रखकर बनाई गयी कुछ फिल्मों के बारे में जानकारी दी हैअपने लेख एशियाई जीवन के सबरंग में ।
शब्दायन में कविता है जिसमें प्रश्न-उत्तर पढ़िये आज ।उधर लाल्टूजी अपनी क्रन्दन कथा बयान करते हैं:-
हमारे इंस्पेक्टर ने गाड़ी चलाते पकड़ लिया तो।।। तो बहुत सारे कागज़ तैयार कर के, चेसिस नंबर तीन तीन बार पेंसिल से घिसके, अपनी घिसती जा रही शक्ल के फोटू कई सारे साथ लगाकर और पता नहीं क्या क्या चंडीगढ़ में भारी भरकम सरकारी अधिकारी मित्र को भिजवाए हैं, हे ब्रह्मन, रक्षा करो टाइप प्रार्थना के साथ ।
दुनिया में शराफ़त का जमाना नहीं हैं आप इसे माने या माने लेकिन अतुल ने अपने दोस्त शराफ़त अली के दिल से दिये इन्टरव्यू का जो किस्सा बयान किया है उससे तो यही लगता है ।
रत्नाजी की रसोई से इस बार नया विचार पकवान निकला है नाम है उसका चार्ल्स लेकिन ये चार्ल्स वो वाला नहीं है जिसके बारे में आप सोचने लगे होंगे:-
आप ने इस समय प्रिन्स चार्ल्स के विषय में सोचना शुरू कर दिया होगा। अजी साहब, पामिला की मुट्ठी में धंसे, दो जवान बेटों की ज़िम्मेवारी में फंसे, उड़ते बालों वाले, पिचके गालों वाले, बढ़ते सालों वाले उन हज़रात में ऐसा क्या है, जो मेरी ऐसी हालत हो जाए। हाँ, डायना से मिलने से पहले मेरे हत्थे चढ़े होते तो बात फ़रक होती।
अपने चार्ल्स के बाहरी रंग-ढंग के बारे में बताती हैं रत्नाजी:-
चार्ल्स हमारे एक मित्र के बेटे के संग Havard Uni में पढ़ता है। बेल्जियम निवासी है, दो पोस्ट-ग्रेजुएशन कर चुका है व तीसरी की तैयारी में लगा है। भारत की हर चीज़ से बेहद प्रभावित है और छुट्टी मिलते ही भारत-भ्रमण पर निकल पड़ता है। विद्यार्थी है इसलिए जेब की खनकार के अनुसार ही राग छेड़ता है। अर्थात सरकारी बसों का टूटी-फूटी सड़कों पर उछलना, रेलों का मन-मरज़ी से चलना, अच्छे बजट होटलों की तंगी, मच्छरों की सारंगी, गलियों में कूड़े का सड़ना, सड़कों पर जेब का कतरना,भिखारियों की रीं-रीं और बेलगाम ट्रैफिक की पीं-पीं–इन सबसे वो बखूबी वाकिफ़ है।
उसकी सोच जिस पर वो फ़िदा हैं उसके बारे में भी जान लीजिये:-
उसके अनुसार— ” हिन्दू धर्म का खुलापन ही इसकी खासियत है। ढेरों विदेशी इसकी ओर केवल इस लिए आकर्षित होते है क्योंकि इसमें कट्टरता का आभाव है, इसे किसी के गले के नीचे ज़बरदस्ती नहीं उतारा जाता। तभी तो इतने आक्रमण होने पर भी यह आज तक जीवित है। “
शिक्षक दिवस पर शैल अपने गुरुओं को याद करते हैं:-
११वीं में लगभग आधा सत्र निकल जाने के बाद अंग्रेजी पढाने आये जे.एस.राजेन्द्रन.ये केरल से थे और उनके लम्बे बालो की वजह से उनका नामकरण "साँईंबाबा" कर दिया गया.उनका अंग्रेजी पढाने का ढंग निराला था.नये शब्द सिखाने के लिये वो उनके साथ कोई कहानी जोड देते. जैसे "together" याद करवाना हो तो वाक्य बनाते थे "we are going together". इसी को दूसरे तरीके से बोला जाये तो "we are going to get her".इस तरह पढने में कभी बोरियत भी नहीं होती थी और घर जाकर कभी पढने की आवश्यकता भी नहीं होती थी.
सागर चंद नाहर मुश्लिम विद्वान डा.कल्बे सादिक के बारे में जानकारी देते हुये तमाम बातों पर उनके विचार बताते हैं।
फ़ुरसतिया ने हड़बड़ी पसंद जीतेंदर के मेरा पन्ना के दो साल पूरे होने पर उन पर प्यार उडे़लते हुये लिखा:-
हिंदी चिट्ठाजगत अगर एक कला दीर्घा की तरह है जिसमें भांति-भांति के रंग-बिरंगे,धूसर-मटमैले,कलापूर्ण-चलताऊ, आधुनिक-पुरातन,चटकीले-मटकीले,भड़कीले-शांत रंगों वाले विविध चित्र हैं तो जीतेंदर का मेरा पन्ना इस सभी रंगों-चित्रों का एक धड़कता हुआ कोलाज है जिसमें हर चित्र-रंग ,कम-ज्यादा मात्रा में शामिल हैं। लोग इस कोलाज को पसंद-नापसंद कर सकते हैं लेकिन इस खिलंदड़े,बोलते चित्र की उपेक्षा करना किसी के बस में नहीं है।
मैं जीतेंदर को उनके लोकप्रिय चिट्ठे मेरा पन्ना के दो साल पूरे होने पर पूरे मन से उनको मुबारकबाद देता हूँ तथा कामना करता हूँ कि आगे आने वाले समय में वे तमाम कीर्तिमान स्थापित करें। जिस तरह उनकी उपस्थिति हिंदी ब्लाग जगत में अभी हलचल मचाती है,वैसे ही वह आगे भी और अधिक सार्थक रूप में इसे स्पंदित करती रहे।
लेकिन कल जीतेंदर के पन्ने का ही जन्मदिन नहीं था.कल डा.भावना कंवर की मां का भी जन्मदिन था.अपनी मां को याद करते हुये
उन्होंने लिखा:-
माँ मुझे भी प्यारी है, माँ तुम्हें भी प्यारी है
माँ इस दुनिया में, सबसे ही न्यारी है।
बचपन में ऊँगली पकडकर,चलना सिखाया था हमको
आज उन हाथों को, थामने की बारी हमारी है।
आज की टिप्पणियां
1.आज जरुरत इस बात की है कि मुस्लिम विद्वान जो प्रगतिशील धारा के हैं उनके विचार भी आवाम के सामने लाये जाये। पर मीडिया चाहे वह पश्चिमी हो या भारतीय इस्लाम का विद्रूप चेहरा दिखाने में ही मशगूल रहता है। जब हम मीरा नायर के अठ्ठारहवी सदी के सती चित्रण पर भड़क सकते हैं तो इमराना प्रकरण या एसएमएस तलाक पर क्यों नही? मुस्लिम समाज में सब के सब जाहिल नही, सब के सब जेहादी नही, उन्हें लेबलाईज करना , जनरलाइज करके राष्ट्रद्रोही , आँतकवादी करार देना भी एक तरह कि फतवेबाजी नही तो और क्या है?
जरूरत आज सूफी धारा को आगे बढ़ाने और मौलाना कल्बे सादिक सरीखे विद्वानो के भी विचार सुनने की है। सागर भाई साधुवाद के पात्र हैं।
अतुल
2.दो वर्षों में संभले, गिरे , ठोकरें खाईं चलना सीखा
इन्द्रधनुष के रंग संजोयें इस बगिया में खिलना सीखा
और नई महकें ले महको, आगे आगे नये वर्ष में
अमरावती बने ये पन्ना,सजी रहे ये कला दीर्घा
शुभकामनाओं सहित- एक संशोधन अनूप भाई( सद्दाम हुसैन मुकदमे अमरीका में नहीं झेल रहा
सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर,कुछ दिन के लिये ही सही,कब्जा कर लिया था तो शायद वो ऐसे ही भाग जाता वापस और शायद आज अमेरिका में मुकदमें न झेल रहा होता।
राकेश खंडेलवाल
आज की तस्वीर:-
आज की तस्वीर आशीष गुप्ता जी की कतरन से साभार
छोटी सी बात
वस्तुतः वन्दे मातरम की रचना १८७६ में ही हो गई थी, अतः आज इसके १०० वर्ष नही हुए हैं...हाँ १९०६ में यह पहली बार अपने संशोधित रूप में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया
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