बुधवार, सितंबर 20, 2006

तुम्हारे नाम वाली इक गज़ल...

पिछली शुक्रवारी चिठ्ठा चर्चा के दौरान भाई अतुल अरोरा हमारी इतनी तारीफ कर गये कि हम तो शर्मा से गये.
समीर बाबू के अँदाजे बयाँ से मुझे लग रहा है कि फुरसतिया जी और सुनील दीपक जी के के बाद यह तीसरे सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लागर बन चुके हैं।

इसी शर्मा शर्मी मे एक कुंडळी रच डाली:

हमरी तारीफ कर गये, अतुल बहुतई गंभीर
शरमाये से बैठे है हम, मन मे पकती खीर
मन मे पकती खीर अब का का लिख डालें
यूँ चलता रहे बखान, अब कौन से डोरे डालें.
कहे समीर कि चलो अब गा देते हैं ठुमरी
शायद यूँ चलती रहे फिर तारीफ भी हमरी.


अभी ठुमरी की तैयारी चल ही रही थी कि फ़ुरसतिया जी आ गये डंडा हिलाते: कल बुधवार है, याद है ना कल तुम्हारी ड्यूटी है. अरे हम कैसे भूलेंगे और भूल भी जाये तो ये भूलने ना देंगे, तो भाई रवि रतलामी का आदेश और फ़ुरसतिया जी कि उकसाहट पर कुंडळी से शुरुवात करते हैं:

पलक झपकते आ गया देखो फिर बुधवार
हम भी कलम उठाई के, लिखने को तैयार
लिखने को तैयार नया सा कुछ तो दिखेगा
चिठ्ठों पर लिखा चिठ्ठा भी बहुत खिलेगा
कहे समीर यहां तो बस दिखती एक झलक
चिठठों को पढ़ते हुये, झपकती नही पलक.


अब चिठ्ठा प्रविष्ठियां खोजने निकले तो बहुत कम सी दिखीं. सारे दावे, कि हम तो अपने लिये लिखते हैं, कोई पढ़े न पढ़े, खोखले से होते साबित हुये. नारद की बीमारी से लोगों की आवाजाही तो तय है, बहुत कम है. टिप्प्णियों का बाज़ार मंदा चल रहा है, तो इसके चलते लेखों की आवक भी रुक गई है.

जो थोडे बहुत मिले, उसी से संतोष किया.

हमेशा की तरह, यात्रा के पूर्व, कविता सागर मे गोता लगा कर हरिवंशराय बच्चन जी की रचना पढ़ी:

कहते हैं, तारे गाते हैं ।

सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं ।
कहते हैं, तारे गाते हैं ।.....



फिर आगे बढ़े तो क्षितिज कुलश्रेष्ठ - एक और नजरिया लिये मिले और सुनाने लगे बर्लिन मे चुनाव पर अपने विचार और जैसा की हम सब भारतियों के साथ होता है, उनके साथ भी हुआ. हर बात के साथ कि अगर यह भारत मे होता:

पर कल रात के नतीजों ने यह दिखा दिया कि जनता सिर्फ नेता का काम देखती है, बाकी चीजों से उसे कोई लेना देना नहीं है। यदि भारत की जनता भी सिर्फ नेता का काम देखे, उसकी जाति, धर्म, या और कोई चीज नहीं तो भारत में भी निठल्ले नेताओं का सफाया हो जाए।

अरे भईया, कभी उल्टा करके देखो कि जो भारत मे हो जाता है और खबर तक नही बनता, वो यहां हो जाता तो क्या होता.

उन्मुक्त जी हिन्दी ब्लागरों के लिये एक बला का खुलासा करते हुये टहलते मिले : आर एस एस फीड क्या बला है.

तब तक हमारी नज़र पड़ी राकेश खंडेलवाल जी पर, हम तो पेड़ के पीछे छुप गये, न जाने किसके लिये आंख बंद कर गा रहे हैं, मगर गजब का और बहुत लय मे.. "तुम्हारे नाम वाली इक गज़ल" ....गीत चुरा लेने को जी चाहता है:

अंधेरे की तराई में चमकते चांद की किरणें
तुम्हारे नाम का दीपक जला कर साथ लाई हैं
बहारों की गली में चल रही अल्हड़ हवाओं ने
तुम्हारे नाम वाली इक गज़ल फिर गुनगुनाई है


अनूप शुक्ला उर्फ़ फ़ुरसतिया जी बेहद फरमाईशुदा लेख लेकर हाजिर हुये ...अथ लखनऊ भेंटवार्ता कथा और हम संतुष्टी को प्राप्त हुये:

अपनी इस भेंटवार्ता का जिक्र करते हुये बताते है:

जब प्रदेश की राजधानी में गन्ना शोध संस्थान के सभागार में अनूप भार्गव सम्मानित हो रहे थे ,इनाम पा रहे थे ऐन उसी समय नाम महात्म्य के कारण और सितंबरी सुयोग वश कानपुर में अपनी फॆक्ट्री के सभागार में अनूप शुक्ल भी पैसे और उपहार बटोर रहे थे। कुल जमा सात सौ रुपये और पानी की दुइ लीटरिया बोतल मिली। कुल चार इनामों में से ३००/-मिले लेखन प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने के लिये,२००/- मिले भाषण प्रतियोगिता में स्थान पाने के लिये और पूरे दो सौ मिले लेख भारत एक मीटिंग प्रधान देश है और कविता आओ बैठें कुछ देर पास के लिये जो हमारी निर्माणी की पत्रिका स्रवन्ती में छपी थी।

और हम समझे कि भाई लखनऊ गये है, खैर यह बात स्विकार भी कर ली गयी उनके द्वारा कि कैसे जब वो द्वय माला पहन रहे थे, उस वक्त हमें टोपी पहनाई गई और चिठ्ठा चर्चा लिखवा कर ही माने. अनूप जी के बारे मे आगे बताते हैं:

लेकिन इनको जानने वाले कहते हैं कि वे कवि,प्रचारक,आयोजक,इंजीनियर,पति,पिता से बढ़कर एक बहुत अच्छे इंसान हैं। यह बात इतने लोगों ने कही है कि इसे सच मानने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं है।

थोडे शिकायती लहजे मे अपना झटका देते हुये फ़ुरसतिया जी:

प्रत्यक्षाजी ने दो दिन लगातार अनूप भार्गव और हिमानी भार्गव के साथ,( बसीर बद्र,कुंवर बेचैन आदि के भी साथ ) कवितागिरी लेकिन उसका कोई विवरण नहीं दिया। उधर पूना में देबाशीष मे न रमण कौल से मुलाकात का जिक्र किया और सृजन शिल्पी तो खैर आज कल वहीं हैं ।

उधर नारद पर टेस्टिंग जोर शोर से चालू है, लगता है जल्द ही पूरे नये रंग रुप मे सज संवर कर जल्द ही आयेगा. तब तक इंतजार मे ही सही, विरह गीत लिखते रहें.

पुनश्चः भाई नितिन बागला भी पुस्तक समीक्षा द अफ़गान करते पकडे गये हैं और कह रहे है:

तो जैसा के नाम से ही जाहिर है, मशहूर ब्रिटिश लेखक फ्रेड्रिक फ़ोरसिथ (Frederick Forsyth) का नवीनतम उपन्यास ‘द अफ़गान‘ (The Afghan) अफ़गानिस्तान की ही पृष्ठभूमि पर आधारित है…उपन्यास की कहानी कुछ इस तरह से है ।

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1 टिप्पणी:

  1. समीरलालजी अपनी कुण्डलीयों का कोटा चिट्ठाचर्चा पर ही पूरा कर रहे हैं, खैर हमें तो आम खाने से मतलब हैं चाहे जिस पेड़ पर लगे.
    नारद के मुर्च्छीत अवस्था में चले जाने का असर चिट्ठा-लेखन पर हुआ हैं इसमें कोई दो मत नहीं हैं. भाई लोग संजीवनी का प्रबन्ध करने में लगे हैं. आशा हैं जल्दी ही चिट्ठाजगत से पतझड़ का मौसम समाप्त हो जाएगा.

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