सोमवार, सितंबर 11, 2006

गालिब भी गये थे कलकत्ता…

राजेश ने चेन्नई ब्लागर महासम्मेलन की खबरें मय फोटो देना जारी रखा। सम्मेलन में सुनील गावस्कर भी आये थे जो पाडकास्टिंग करते हैं।हिंदी ब्लाग की चर्चा के लिये समय नहीं मिल सका। राजेश कहते हैं:-
सबसे बड़ी सीख यह है, कि ब्लागजगत एक यात्रा के समान है, आप कौन सी सवारी से जाते है, किस दिशा मे जाते हैं, और किस मकसद से जाते है, यह अपने उपर निर्भर है। दूसरा, यहाँ गुरु तो कई हैं पर सर्वज्ञ कोई नहीं। तीसरा,यह चिट्ठाजगत मिल बाँट के खाने की दुनियाँ है, जितना बाटेंगे, उतनी बढ़ती होगी़!!!!
राजेश ने आडियो रिपोर्ट भी पेश की है अपने ब्लाग में।जब राजेश चेन्नई में ब्लागर सम्मेलन में शिरकत कर रहे थे तब पुणे में देबाशीश उनके दिये विवरण के अनुसार सारी घटनाओं का विश्लेषण कर रहे थे।तमाम अंदर की बातें बताते हुये देबू ने जानकारी दी:-
साथी हिन्दी चिट्ठाकार राजेश भी समारोह स्थल पर जमे थे कल, बात हुई तो पता चला की जिस स्थान से तमिल के चिट्ठाकारों की रिकार्डतोड़ चिट्ठाकारी होती है वहाँ पर हिन्दी में ब्लॉगिंग होती है यह अभी लोगों को पता नहीं है। पता नहीं कि लोग जाल पर रहते हुये भी कैसे अनभिज्ञ हैं की हिन्दी ही नहीं अनेक भारतीय भाषाओं में लगातार ब्लॉगिंग हो रही है। राजेश ने तय किया कि समय मिला तो एक सत्र में वे जागरूकता बढ़ायेंगे लोगों कि पर कल के असमंजस भरे दिन में उन्हें समय नहीं मिल पाया।


लक्ष्मीगुप्त जी एक पुरातन प्रश्न पूछते हैं:-
निरर्थक हैं पुण्य, निरर्थक हैं पाप
निरर्थक हैं सारे पूजा पाठ।
निरर्थक है योग, निरर्थक है ध्यान
निरर्थक हैं दोनों शैतान और भगवान।
निरर्थक हैं सारे धर्म आचार
निरर्थक हैं सारे मानव व्यवहार
सार्थक है केवल यह प्रश्न ज्वलंत
मरते हैं क्यों और जीते क्यों हम?

रचना बजाज
असमय मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि देते हुये कहती हैं:-
माँ की खुशियोँ का पल बालक,
उसके सपनो का कल बालक,
माँ के जीवन का बल बालक,
उसकी मुश्किल का हल बालक.”

“ना सुख जाने ना दुख जाने,
झूठ ना जाने, सच्चा है!
गलती करता, शिक्षा पाता,
पका नही अभी कच्चा है!
बेफिक्र है वो, बेखोफ भी है,
ना कपटी है,ना लुच्चा है!
कुछ नटखट है, कुछ भोला भी,
वो बडा नही अभी बच्चा है!!”

रचनाकार पर रविरतलामी पेश करते हैं रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य - एक फ़ाइल का सफ़र.सफर की शुरुआत ही देखिये:-
यह जो फ़ाइल नाम की चीज है यह वाकई बड़ी खतरनाक है. अगर फ़ाइल न होती तो न इतने बाबू होते और न इतने अफ़सर. नतीजा यह होता कि हमारा बजट आधा हो जाता और सिगरेट और शराब सस्ती हो जाती. देश में जो कुछ भी परेशानियाँ हैं वे सब फ़ाइल के ही कारण हैं:

यह हुस्न से ही है इश्क पैदा
यह इश्क से ही मुसीबतें हैं
जो ये न होता तो दिल न होता
जो दिल न होता तो गम न होता
-अकबर

वंदेमातरम के बारे में अपना विचारक्रम जारी रखते हुये नीरज दीवान ने लिखा:-
धार्मिक प्रतीक हमेशा सांप्रदायिक नहीं होते ये हम सत्यमेव जयते, परित्राणाय साधुनाम्, सत्यं शिव सुन्दरम् जैसे सारगर्भित वाक्यांशों से समझ सकते हैं. किंतु बात जब विवादित प्रतीकों की होती है तो सिर्फ़ उनके बारे में यह मान लेना कि यही राष्ट्रीय प्रतीक हैं, हठधर्मिता कही जाती है.

एक धर्म, एक संगठन अथवा किसी व्यक्ति विशेष की ओर से इन विवादास्पद प्रतीकों का इस्तेमाल होता हो तो इसे उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर देखा जा सकता है बशर्ते कि वह संवैधानिक तौर पर किसी अन्य के ख़िलाफ़ न जा रहा हो. लेकिन जब बात राष्ट्र की हो, राष्ट्र के आधिकारिक प्रतीकों की हो तो समूचे तथ्यों पर विशद विचारप्रणाली अपनानी चाहिए.

फुरसतिया ने फिर से अपनी भ्रमण यात्रा के किस्से सुनाने शुरु किये:-
कलकत्ते में ही हमने ट्राम पहली बार देखी।मजे की बात सबेरे -सबेरे कभी-कभी देखा कि ट्राम चली जा रही है आगे कोई सांड़ खड़ा हो गया । अब कंडक्टर उतर कर सांड को हटा रहा है। सड़क के किनारे चारपाई बिछाये आदमी को झल्लाते हुये उठा रहा है। आगे लगा जाम हटा रहा है।हम कई बार ट्राम में घूमे।
आफिस के घंटों में कलकत्ते का सड़क का ट्रफिक रेंगता हुआ चलता है। गाड़ियाँ साम्राज्यवाद और आतंकवाद की जुगलबंदी की तरह सटी-सटी चलती हैं।उन दिनों हमारे पास समय इफरात में था। समय की कीमत का अंदाजा नहीं था।लेकिन अब जब कभी कलकत्ता जाता हूँ तो लगता है कि कितने रेंगते हुये वाहनों का बोझ रोज सहता है यह सिटी आफ ज्वाय।

आज की टिप्पणी:-


अनूप भाई, मज़ा आ गया! मैने अभी आपका लेख पूरा पढ़ा ही नहीं, या कि यूँ कहूं कि मात्र पहला ही अनुच्छेद पढ़ा है और टिप्पणी लिखने बैठ गया। अब आप सोचेंगे क्यूँ। तो साहब हुआ यह कि मैंने जैसे ही “खरीदी कौड़ियोँ के मोल” और विमल मित्र जी का नाम देखा तो मन बल्लियोँ उछल पड़ा और पाया कि कोई हिन्दी चिठ्ठाकार इस महान, भावनात्मक और उत्कृष्ट उपन्यास का पाठक तो दिखा और फिर याद आ गयी सती दी की छवि, जादूगोपाल की कचौड़ी की दूकान, गड़ियाहाट की रेलवे क्रासिंग और नहीं याद आ रहा है तो उपन्यास के किशोर नायक का नाम। हाँ मैंने मूल बाँग्ला उपन्यास तो नहीं, पर उसका हिन्दी रूपांतरण, जो कि दो मोटे-मोटे खण्डों में है, अत्यंत मनोयोग और अनवरत रूप से पढ़ा था। मेरे अन्य मित्र भी, जो हिन्दी में रुचि रखते थे, वे भी इसके और मित्र जी की अन्य रचनाओं के प्रशंसक हैं।
अब मैंने शेष लेख पढ़ लिया है…
मैंने भी अपनी याद में कलकत्ता के सामाजिक जीवन का वर्णन इसी उपन्यास के द्वारा जाना था।
चलिये, इस सन्दर्भ में शेष चर्चा फिर कभी…

राजीव

आज की फोटो:-


आज की पहली फोटो राजेश की पोस्ट से:-
चिटठाकारों के असम्मेलन की चेन्नई मे धमाकेदार शुरुआत
>रजेश सुनील गावस्कर के साथ

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