कहते हैं गर्मी भी बडी होती है पैसे में..अच्छे अच्छों को पिघला देता है, एक दम मक्खन के माफ़िक…यकिन नही आता..किसी सरकारी विभाग में चले जाइये..आपको पैसे की गर्मी, और नोट का वजन दोनो पता चल जायेंगे,कोई फ़ाइल नही सरकती , जब तक नोट की गर्मी अफ़सर के हलक के नीचे नही उतरती..धारावाहिक आफ़िस-आफ़िस तो सबने देखा ही होगा
सुनील गावस्कर के हस्ताक्षर देखिये हिंदी ब्लागर्स के लिये शुभकामनाओं से सहित बजरिये राजेश.उधर बेंगाणी भाई की खरीददारी की व्यथा कथा देखी जाये और यह भी अंत कैसे मुस्कान से हुआ:-
अब बारी थी भुगतान करने की. कम्पयूटर ने बार-कोड पढ़-पढ़ कर आंकड़ों को दर्ज किया फिर कटर-कटर की आवाज़ करता बिल निकला. श्रीमतिजी ने इसका भुगतान किया. तब तक हम पास पड़ी कुर्सी पर ठेर हो चुके थे. श्रीमतिजी पास आकर बोली,”बिल देखो, 7 के भाव थे 15 से बिल बनाया हैं.”
”अब तुम्हें मोर्चा संभालना हैं तो सम्भालो, नहीं तो घर चलो. मुझ से तो अब खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा.”
”यह बेईमानी हैं, मैं देखती हूँ.”
मैं उन्हे काउंटर दर काउंटर बहस करते देखता रहा. फिर जीत की मुस्कान लिए लौटी तो हमने भी मुस्कुराकर स्वागत किया और घर की ओर निकल लिए.
सागर चंद नाहर आपके सुझाव के लिये परेशान हैं तो तरुण की चिन्ता क्रिकेट की अनिश्चितता को लेकर है.हिंदी के नक्कारखाने में बिहारी बाबू अपनी तूती बजा रहे हैं.इस पर प्रेमलताजी अपने मन की बात कह रही हैं:-
पर तुम्हारा यह अहं ठीक नहीं,
नयों के लिए कोई सीख नहीं।
मत रखो नियमों को ताक पर,
मत काटो बैठे हो जिस शाख पर।
वरना स्वयं तो अंगभंग हो जाओगे,
साथ में औरों को भी विकलांग कर जाओगे।
अतुल अब लिखना कम करके मजेदार फोटो दिखाने में लग गये हैं.
कचरे के सार्थक उपयोग के बारे में विस्तार से जानिये बमार्फ़त वंदे मातरम:-
अच्छी खबर ये है कि इस समस्या का समाधान हमारे देश की एक महिला वैज्ञानिक ने ढूंढ निकाला है. नागपुर, महाराष्ट्र के एक इंजीनियरिंग महाविद्यालय की प्राध्यापिका श्रीमती अलका झाडगांवकर ने एक ऐसी प्रणाली की खोज की है जिससे प्लास्टिक को ईंधन मे परिवर्तित किया जा सकता है. वैसे तो प्लास्टिक का निर्माण पेट्रोलियम मतलब खनिज तेल से ही होता है लेकिन उसे फिर से खनिज तेल में परिवर्तित करना बडा़ ही मुश्किल और महंगा काम होता है. लेकिन यह नयी प्रक्रिया दुनियाँ की सबसे पहली प्रक्रिया है जिसमें किसी भी प्रकार की प्लास्टिक बिना किसी साफ़ सफ़ाई के सुरक्षित ढंग से इस्तेमाल की जा सकती है और वह भी व्यावसायिक रुप से! प्रो. झाडगांवकर के अनुसार, औसतन ९.५० रु. की लागत से १ किलोग्राम प्लास्टिक से ०.६ लिटर पेट्रोल, ०.३ लिटर डीज़ल व ०.१ लिटर दूसरे प्रकार के तेल का निर्माण किया जा सकता है जिसकी कीमत लगभग ३१.६५ रु. है.
वाह मीडिया में आज देखिये नायिका को और हो सके तो पहचान भी लीजिये.अफलातून देसाई समाजवादी विचारधारा के हैं.अक्सर अपने विचार बताते रहते हैं.कभी गांधी वांग्मय के हिंदी अनुवाद को लेकर दुबले होते रहते हैं तो कभी नारद के बारे में अपनी
समझ जाहिर करते हैं.नेता विरोधी पार्टी के अन्दाज में मुट्ठी तनी रहनी चाहिये मामला कौनो होय.आज वे बता रहे हैं हिंदी राजभाषा के बारे में गांधीजी के विचार:-
इस विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है . उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है , उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है . इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुंचाने में असमर्थ हो गये हैं . विदेशी माध्यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा विदेशी बना दिया है . यह वर्तमान शिक्षा -प्रणाली का सब से करुण पहलू है . विदेशी माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है . अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो , तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये हमारे लडके और लडकियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें बर्ख़ास्त करा दूं . मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा . वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह एक ऐसी बुराई है , जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिये
इसी क्रम में संविधान और हिंदी भाषा के बारे में जानकारी दे रहे हैं स्रजन शिल्पी.
मीडिया के छिछ्लेपन पर नजर दौडा़ते हुये मीडिया युग में सवाल उठता है:-
सवाल ये भी है कि क्या इन प्रेम कहानियों के अतिरिक्त समाज में कहीं भी कुछ और नहीं घट रहा है, जिस पर बात करना मीडिया की जिम्मेदारी होती है। और जिसे मीडिया बिल्कुल अनदेखी कर रहा है।
आखिर ये मीडिया है या खाला बी और बुलाका बुआ की दोपहर को होने वाली गपशप, जिसमें वो सारे मोहल्ले की खबर रखती और बताती है, जिनका बदला हुआ स्वरूप है आज की किटी पार्टीज।
अमित की थीम नई है और माशाअल्लाह काबिलेतारीफ़ भी लेकिन रोना वही पुराना कि समझ में नहीं आता क्या लिखें.
हिंदी दिवस पर अपने लेख में विचार व्यक्त करते हुये विनय लिखते हैं:-
अब ये बात बिल्कुल अलहदा है कि राजभाषा बनकर हिंदी को फ़ायदे कम नुकसान ज़्यादा हुए. सरकारी हिंदी बन गई औपचारिक, रूखी और अनुवाद की भाषा. और वह भी बस खानापूर्ति को, बल्कि कई बार उतनी भी नहीं. न तो यह सही मायनों में राजभाषा बन सकी न सरकारी काजभाषा.
इसके कारण कई रहे होंगे और मैं उनमें नहीं जाना चाहता, पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के विकास को सरकारी मशीनरी ने अवरुद्ध भले ही किया हो, गति तो नहीं दी. अगर हिंदी फिर भी जनभाषा है, विश्व में तीसरी-चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़ुबान है, दिनों-दिन नये शब्द ग्रहण करती जीवंत बोली है, तो यह सरकारी मशीनरी के प्रयासों के बावजूद है, उनके कारण नहीं.
पर मनाने दीजिये सरकार को राजभाषा का एक दिन. आखिर यह आधिकारिक मामला है. इस बहाने साल में एक दिन तो समीक्षा करें कि आधिकारिक तौर पर इस दिशा में क्या काम हो रहा है. बस इसे हिंदी दिवस कहा जाना थोड़ा खटकता है. वैसे ही जैसे अगर आप स्वतंत्रता दिवस को भारत दिवस कहने लग जाएँ.
बधाई:- आज हिंदी ब्लागर फुरसतिया उर्फ अनूप शुक्ल का जन्मदिन है. फुरसतिया अक्सर दूसरों की खिंचाई करते पाये जाते हैं.लेकिन इस बार बारी इनकी खिंचाई की है.एक दिन पहले से ही लोगों ने इनकी मोमबत्ती फूंक दी.रविरतलामी और ईस्वामी ने कुछ सवाल-जवाब हैं.इसी मौके पर पढ़ें अनूप शुक्ला का अभिव्यक्ति में हिंदी दिवस के अवसर पर लिखा लेख.
आज की टिप्पणी:-
1.बिल्कुल सही बात कही है विनय जी. अंत में सरकार क्या कहती है या करती है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा. डँडे या कानून के ज़ोर से भाषाएँ नहीं फ़लती फ़ूलती, अगर उनमें जनता को अपनी अभिव्यक्ति न मिले. उससे अधिक प्रभाव पड़ा है शायद मुम्बई के फ़िल्म जगत की भाषा होना का!
सुनील दीपक
2.अरे भाई, इनको तो टी आर पी बढानी है, तो मसाला खबरें लाते नही, निर्मित भी करते हैं, आप चाहे जिस नाम से पुकारें, "तो हम इन न्यूज चैनलों को की जगह घर चौबारा क्यों नहीं कहते?"
ये तो वही ला रहे हैं, जो बिक रहा है.
उड़न तस्तरी
आज की फोटो:-
आज की फोटो अतुल की पोस्ट से:-
मजेदार तस्वीर
बहुत बढ़िया...आपका अभिव्यक्ति पर आलेख पढ़ा, बहुत गजब का है: बहुत सही कहा कि अक्सर ऎसे लोगो का दोनों भाषाओं पर समान अधिकार होता है, यानि दोनो चौपट..:)
जवाब देंहटाएं