हमारे रोजनामचा नरेश अतुल से कल चिठ्ठाचर्चा लिखने में देर हुयी सो बेचारे हायकू में हाथ आजमाये। हायकू हमें और समीरलाल को तो पसंद आने ही थे काहे से कि हम लोग तो एक ही बैंड के आदमी हैं लेकिन रत्नाजी को ये हायकू अपनी पोस्ट से ज्यादा भाये। पर क्या बतायें कि कविवर गिरिराज जोशी अपना हायकू मीटर(५-७-५) लेकर हर हायकू की गरदन नापने लगे और तमाम हायकू को उसी तरह बदलकर नया कर दिये जैसे मुख्यमंत्री लोग नये-नये आने पर जिलों के नाम बद्ल कर पुराने या नये कर देते हैं। उनकी मात्रा की बात तो सही है लेकिन हायकू विद्वान कहते हैं कि किसी और कविता की तरह हायकू में भी मूल प्रवाह मूल तत्व है उस लिहाज से अतुल का प्रथम हायकू प्रयास लगे रहो अतुल भाई टाइप का है। अतुल को अन्दाजा भी नहीं होगा कि जहां वे छिद्रान्वेषियों का आवाहन करेंगे वैसे ही विनय अपना मोर्चा संभाल लेंगे। वैसे व्याकरण में कुछ फिसलन जानबूझकर होती है और कुछ अनजाने में जैसे यहीं पर टिप्पणी में विनय ने अतुल की जगह राजीव लिखा!
लगता है कि बेंगानी परिवार हिंदी में सबसे ज्यादा चिठ्ठे लिखने वाला परिवार बनने का कीर्तिमान अपने ही पास रखना चाहता है। अभी अपने ब्लाग पर मिली टिप्पणियों से उत्कर्ष का खुशी से नाचना बंद नहीं हुआ था कि खुशी अपना चिठ्ठा लेकर हाजिर हैं। यह खुशी की बात है कि उनके ब्लाग का नाम भी खुशी की बात ही है। खुशी को नियमित लेखन के लिये शुभकामनायें।
खुशी की बात के साथ-साथ बधाई की भी कुछ बात। हिमानी भार्गव के बारे में हमने लिखा था अपनी एक पोस्ट में जब वे अपने जीजा अनूप भार्गव के साथ लखनऊ में मिलीं थीं। अपनी बच्ची प्रियम के नाम पर उन्होंने अपना ब्लाग शुरू किया और बच्ची के दांत निकलने की ऐतिहसिक घटना का विवरण बताया:-
यही वो पहला दाँत है जो बाकी दाँतो के साथ न जाने कितनी टाफियाँ और चोकलेटस काटेगा.यही वो पहला दाँत है जो बाकी दाँतो के साथ न जाने कितने आलू के चिप्स के पैकिटस खोलेगा यही वो पहला दाँत है जो बाकी दाँतो के साथ कभी सर्दी मे या कभी बुखार मे किटकिटायेगा यह पहला दाँत,छोटा सा दाँत ,इस बात का सूचक है,कि ज़िन्दगी फिर से शुरू हो रही है,बचपन फिर से दिल पर दस्तक दे रहा है,यह वह पहला दाँत है जो बाकी दाँतो के साथ उस धागे को काटेगा जिससे प्रियम अपने पापा की कमीज़ पर बटन टाँकेगी।
मूलत: कविमना हिमानी ने इसके पहले अपनी पोस्ट में लिखा:-
तुम्हारे बालो मे उंगलियां मेरी
भटक गयी हैं रास्ते
हाथ पकड़ के मेरा
इन्हें ढूंढ लाइये.
भूल जाइयॆ शिकवे गिले
दरकिनार कीजिये
फिर से मुहब्बत का
आगाज़ कीजिये.
अब आप पूछेंगे कि इसमें बधाई की क्या बात यहां तो स्वागत की बात है। लेकिन नहीं भाई बात तो असल में बधाई की ही है। कारण यह कि आज ही हिमानी का जन्मदिन है। हमारी तरफ़ से ब्लाग लेखन प्रारम्भ करने और जन्मदिन की हिमानी भार्गव को बधाई। आशा है कि
वे नियमित लेखन करती रहेंगी और अपने जीजा अनूप भार्गव की तरह नहीं करेंगी जो अपनी भारत यात्रा,हिंदी प्रसार सम्मान,गुड़गांव-बफैलो कवि सम्मेलन के उकसावे के बावजूद उनके बारे में कुछ न लिखकर पुरानी की गयी
जगलबंदियों को दोहरा रहे हैं। ऐसी भी क्या व्यस्तता महाराज!
2 अक्टूबर आने वाला है और देश में हर जगह गांधीगिरी की तैयारी चल रही है। ऐसे में राकेश खंडेलवाल अपनी पुरानी यादों में खो हये हैं। ये यादें चरखे, तकुआ, पूनी के बारे में हैं और बात कही गयी है मालिन,ग्वालिन,धोबिन,महरी की:-
एक एक कर सहसा सब ही
संध्या के आँगन में आये
किया अजनबी जिन्हें समय ने
आज पुन: परिचित हो आये
वर्तमान ढल गया शून्य में
खुली सुनहरी पलक याद की
फिर से लगी महकने खुशबू
पूरनमासी कथा पाठ की
शीशे पर छिटकी किरणों की
चकाचौंध ने जिन्हें भुलाया
आज अचानक एकाकीपन, में
वह याद बहुत हो आया.
आजकल मीडिया की महिमा न्यारी है। वह मतलबी यार किसके,काम निकाला खिसके वाले अंदाज़ में हरकते करता है। यह मानना है बालेंदु शर्मा का। डरावनी पिक्च्ररों में से एक के बहाने कुछ सवाल खड़े कर दिये आशीष गुप्ता ने अपनी कतरनों मैं।
मनीष अपने इंटरव्यू की दूसरी किस्त लेकर हाजिर हैं तो रविरतलामी अपना 'पच्चीस साल'पुराना गज़ल का स्टाकलेकर आ गये हैं:-
कर उनसे कोई बात जिगर थाम के
उनका जल्वा ए हुस्न देख जिगर थाम के
मर ही गए उनपे क्या बताएँ कैसे
डाली थी नजर उनपे जिगर थाम के
इतना तो है कि बहकेंगे हम नहीं
पी है मय हमने तो जिगर थाम के
पता नहीं महफ़िल में बहक गए कैसे
पी थी मय हमने तो जिगर थाम के
मेरी आवाज लौट आती है तेरे दर से
चिल्लाता हूँ बार-बार जिगर थाम के
वो दिन भी दूर नहीं जब तू आएगी
इंतजार है कयामत का जिगर थाम के
रवि ये इश्क है जरा फिर से सोच ले
चलना है इस राह पे जिगर थाम के
रविरतलामी के इस गज़ल के प्यारे तेवर देखकर एक शेर याद आता है:-
जवानी ढल चुकी,खलिस-ए-मोहब्बत आज भी लेकिन,
वहीं महसूस होती है,जहां महसूस होती थी।
बिहारी बाबू बता रहे हैं आजकल के रावणों के बीच पुराने रावण का रोना
:-
देखो जरा इन्हें, हमने तो वरदान में सोने की लंका पाई थी, लेकिन इनमें से बेसी रक्तपान के बाद बनी महलें हैं। ईमानदारी से कमाकर तो कोइयो बस अपना पेट ही भर सकता है, अट्टालिकाएं खड़ी नहीं कर सकता। क्या हमारी लंका से ज्यादा अनाचार नहीं है यहां? अगर ये सदाचारी होते, फिर तो दिल्ली झोपडि़यों की बस्ती होती। ये हमसे खुशकिस्मत हैं कि इन्हें मारने वाला कोई राम नहीं मिल रहा है। वरना इनकी दशा भी हमारी तरह ही होती।
ऐसे में रावण का रोना सुनकर कोई ताज्जुब नहीं कि कोई हीरो आये और पूरे देश को ठीक करने के वैसे तरीके अपनाये जैसे लगान और रंग दे बसन्ती में बताये गये हैं। बिना व्यवस्था में बदलाव लाये देश सुधार की बात करना खामख्याली है यह बात परसाईजी ने अपने लेखों उखड़े खम्भे और सदाचार का ताबीज में कही है। लगान और रंग दे बसन्ती की कथा की अतार्किता को कथा के ही माध्यम से परख रहे हैं लखनवी अतुल श्रीवास्तव।
इन सबके अलावा और भी बहुत कुछ है कल की पोस्टों में। इनमें डा.टंडन की दवायें हैं, कैलाश मोहनकर के माध्यम से पेश की गयी गज़लें हैं और है क्षितिज की बर्लिन की ट्रेन कंपनी कापोस्ट्रर और इसके अलावा सबसे खास है फुरसतिया का पुस्तक चर्चा का प्रस्ताव। न देखा तो देखिये और अपने सुझाव दीजिये।
फिलहाल इतना ही।बाकी की कहानी कल व्यंजल नरेश- रवि रतलामीं से।
आज की टिप्पणी
अपराधी को सज़ा देने का एक कारण यह भी है कि वह दोबारा फ़िर से वैसा काम न करे. यादाश्त खोने के बावजूद अगर उसका व्यक्तित्व नहीं बदला और वह दोबारा से वैसा ही अपराध कर सकता है.
मैं यह मानता हूँ कि कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरों की जान के लिए खतरा होते हैं, मेरे विचार तक उन्हे लम्बे समय तक जेल में ही रहना चाहिए पर मुझे मृत्युदँड का विचार अच्छा नहीं लगता.
सुनील दीपक
आज की फोटो
आज की फोटो क्षितिज के ब्लाग से
शुक्लाजी अन्यों की तरह बिना टिप्पणी दिये निकल जाना अच्छा नही लग रहा. यह वैसा ही होता जैसे पसन्द का पकवान चट कर जाते बिना किसी प्रसंशा के या भुगतान किये.
जवाब देंहटाएंआप अच्छा लिखते हैं इसलिए बारबार क्या कहे की खुब लिखे हो. :)
चिट्ठा चर्चा में हमारे चिट्ठे का पता नही चल पाया, आप लोगों ने पहेली तो देखी ही होगी अब इस वास्तविक जीवन की पहेली को जरा सुलझाने का प्रयत्न कीजिये निठल्ला चिंतन में जाकर
जवाब देंहटाएंवैसे व्याकरण में कुछ फिसलन जानबूझकर होती है और कुछ अनजाने में जैसे यहीं पर टिप्पणी में विनय ने अतुल की जगह राजीव लिखा!
जवाब देंहटाएंमैं राजीव जी की ही बात कर रहा था, जो अतुल के अध्यापक रह चुके हैं और जिनका उन्होंने उस लेख में ज़िक्र किया था.
कुछ टाइपो हाजिर हैं:
जवाब देंहटाएंनवरात्र,दुर्गा-पूजा - नवरात्र, दुर्गा-पूजा (अल्पविराम के बाद जगह)
चिठ्ठों - चिट्ठों
आवाहन - आह्वान
बेंगानी - बेंगाणी (?)
जगलबंदियों - जुगलबंदियों
हये - गये
हरकते - हरकतें
अतार्किता - अतार्किकता
गज़लें - ग़ज़लें
पोस्ट्रर - पोस्टर
रतलामीं - रतलामी
(चंद्रबिंदु की जगह आप अनुस्वार ही प्रयोग कर रहे लगते हैं, इसलिए वे सारे सुधार मैंने रहने दिए हैं)
(संदर्भ - मीन-मेख अभियान)
इसमे मेरे चिट्ठे की चर्चा नहीं हो पायी है, आप से निवेदन है कि अगली चर्चा में इसे शामिल करियेगा ।
जवाब देंहटाएंdhruvswamini.blogspot.com
विनय भाई, अगर आप राजीवजी की ही बात कर
जवाब देंहटाएंरहे थे तो फिर आपकी फिसलन नहीं ये कुदान है-
छपाक टाइप की। आपकी टिप्पणी है-
(अंत में राजीव जी को दोहराना चाहूँगा- "भई गलती सुधर सके तो सुधार लो पर इसे परछिद्रान्वेषण न समझ लेना।")
मेरे ख्याल से यह वाक्य गलत है। राजीव जी की जगह यहां पर राजीव जी की बात होना चाहिये या फिर सलाह। पूरा वाक्य होना चाहिये-
अंत में राजीव जी की बात/सलाह को दोहराना चाहूँगा- "भई गलती सुधर सके तो सुधार लो पर इसे परछिद्रान्वेषण न समझ लेना।"
बकिया तो ठीकै है। 'चिट्ठाकार' की जगह् 'चिट्ठाकार' तो आपकी पिछली टिप्पणी को गलत पढ़ लेने के कारण हुआ। मैंने समझा यह बताया गया है कि सही शब्द 'चिठ्ठाकार' है। अब कुछ दिन हेलमेट लगाकर घूमिये। कुछ ब्लागर बंधु गुस्सा जरूर् होंगे
गुस्सा तो हमे भी आता हैं, पहले कहते हैं मीन-मेख निकालेगें और फिर रफ्फुचक्कर. हम उम्मीद लगाये बैठे रहते हैं.
जवाब देंहटाएंहेलमेट लगाकर घूमिये। कुछ ब्लागर बंधु गुस्सा जरूर होंगे
जवाब देंहटाएंअनूप, शायद होंगे. बड़ा 'थैंकलेस जॉब' है :). पर मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भई बुरा लगे तो बता दो, बंद कर देंगे. मुझे कौन-सा यह करने में मजा आता है. मेरा विचार इस अभियान को कम से कम पूरे अक्टूवर तक चलाने का है, देखें होता है क्या. वैसे भी मुझे लगता है कि धीरे-धीरे यह कम हो जाएगा. या तो लोग ग़लतियाँ कम करने लगेंगे या मेरी हिम्मत जवाब दे जाएगी :).
गुस्सा तो हमे भी आता हैं, पहले कहते हैं मीन-मेख निकालेगें और फिर रफ्फुचक्कर. हम उम्मीद लगाये बैठे रहते
संजय, मुझे ख़ुशी है कि आपके गुस्सा होने का कारण दूसरा है. पर देखिये, हर चिट्ठे को पढ़ पाना मुश्किल है. न ही मैंने ऐसा कोई वादा किया था. आप दूसरे चिट्ठों की टिप्पणियों में देखकर भी सुधार कर सकते हैं. कोशिश रहती है कि दिन में कम से कम एकाध जगह यह नेक काम कर दूँ :). ख़ैर, आप लिखिये इस बार, मैं आता हूँ :).
मेरी ज्यादातर गलतियाँ टाईपो दिखी। पर एक प्रश्न है, चँद्र बिंदु किस जगह लगाया जाया और कहाँ छोड़ा जाये?
जवाब देंहटाएंअतुल:
जवाब देंहटाएंहुआ तो मैं इसपर अपने चिट्ठे पर थोड़ा विस्तार में लिखूँगा, पर तब तक आप यह देख सकते हैं (अँगरेज़ी में है):
http://groups.google.com/group/rec.music.indian.misc/browse_frm/thread/1013b6fe0fe00e45/8efc43e38eac685f?#8efc43e38eac685f
===
Try this (as a rule of thumb).
Remember that chandrabindu is for the anunaasik (nasal) sound. It is
pronounced with a vowel. e.g.: a.Ndheraa, kahaa.N, u.Ngalii, jaauu.N. However, with vowels i, ii, e, ai, o, au (maatraas that are palced on top of the line/shirorekhaa in Nagari), chandrabindu is replaced by anuswaar, simply because there's not enough space on the top to put a chandrabindu. Hence nahii.n, kahe.n, hai.n, ho.n, au.ndhaa. Technically, writing nahii.N, kahe.N, ho.N, and au.Ndhaa is not wrong. But it's not prevalent.
bindu or anuswaar, OTOH, is a representation of the half-panchamakshar (~N, ~n, N, n, m) sounds. And it is pronounced after a vowel. Remember it
simply as a replacement of the above five half-letters. e.g.: ra.ng, pa.ncham, Da.nDaa, ma.ndir, a.nbar. You can also write these as ra~Ng, pa~ncham, DaNDaa, mandir and ambar.
Vinay
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अतुल भाई, यह मात्र एक संयोग ही है कि मेरे लिखे वाक्य पर एक बार पुन: चर्चा प्रारम्भ हो गयी (पहले सागर भाई को लिखे एक पत्र के अंश को उद्धृत करने पर हुई थी)। रही इस सन्दर्भ विशेष की बात तो मैं कोई व्याकरण विद् तो हूँ नहीं परंतु विनय जी द्वारा अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत टिप्पणी अथवा उसके सम्पूरक के रूप में एक और कड़ी यहाँ पर देखें (यह चर्चा वास्तव में पुस्तचिन्हित करने योग्य है और इसमें विनय जी, रमण जी, रवि जी तथा अन्य चिट्ठाकारों के मत आदि भी हैं)
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