देर आये दुरुस्त आये रवि रतलामी। शिक्षक दिवस पर मरफी के नियमों की बानगी पेश है।
शोऐब , आशीष और समीर लाल जी बहुत खुश हैं। आप भी खुश हो लीजिये और रत्ना जी की रसोई में फिरनी खाकर।
फिल्म मकबूल की समीक्षा के बहाने रंगमंचीय अभिनेताओं की मायानगरी में घुटन को अच्छा उकेरा है अरविंद दास ने।
इस फिल्म की कहानी मुंबई के माफिया संसार के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन ईर्ष्या, द्वेष और खून-खराबे के बीच प्रेम एक शाश्वत भाव के रूप में पूरी फिल्म पर एक झीने आवरण-सा छाया रहता है। कलाकारों के अभिनय, निर्देशन, संपादन, संवाद, संगीत का सगुंफन इतनी कुशलता से हुआ है कि लगता है राष्ट्रीय नाट्य विधालय के किसी सभागार में किसी उच्च कोटि के नाटक का मंचन हो रहा है।
अरविंद अच्छा लिखते हैं पर बहुतो को यह अच्छा नही दिखता। शायद सँजय की सलाह काम आये।
ग्रामीण पृष्टभूमि में लिखी गयी परछिद्रान्वेषी समाज को आईना दिखाने की कहानी है "छछिया भर छाछ " । पढ़िये महेश कटारे कि इस कृति में कैसे अफवाह, कुचर्चा धर्म में पारंगत गाँव के चाणक्यों और एक साधारण सत्री के मध्य शहमात का खेल।
शोएब दिखा रहें वंदे मातरम गाते मुस्लिमों की तस्वीर ।
गौतम पाटिल के एवरेस्ट अभियान की जानकारी दे रहे हैं किरूबा शँकर। छः भिन्न पर्वत शिखरो पर झँडा गाड़ चुके इस योद्धा को एवरेस्ट से एक आँख खोकर लौटना पड़ा पर अब गौतम ने जिंदगी के दूसरे मायने तलाश लिये हैं।
शिक्षण संस्थानो में राजनीति की घुसपैठ पर एक निगाह डालिये आसिफ के साथ।
चलते चलते इंटरनेट दो कौड़ी की चीज है, एक नही ग्यारह कारण है इसके!
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