गुरुवार, नवंबर 09, 2006

तुम्हारी राह तकते हैं

रात को जब फुरसतिया सोये तो नारद जी की खड़ताल में कुल जमा दुई नयी पोस्टें चहक रहीं थीं। रात का फायदा उठाकर वे पोस्टें, हम दो हमारे दो, की आड़ में चार हो गयीं थीं। अब इनमें कोई क्या चर्चा करे?

शुकुलजी बोले- लेकिन जो जिम्मेदारी है उसे तो निभानी ही पड़ेगी। अगर चिट्ठा नहीं है तो खुद लिखो और उसकी चर्चा करो।

ऐसे कैसे होगा, क्या यह उचित होगा कि खुद लिखकर उसकी चर्चा की जाये- फुरसतिया ने नैतिकता की गुगली फेंकी


शुकुलजी उवाच-उचित-अनुचित का निर्णय सुधी पाठक करेंगे। तुम तो लिखो और पोस्ट कर दो।


अच्छा कल वाली पोस्ट की दुबारा चर्चा कर दें?-फुरसतिया ने अबोध बालक की तरह पूछा।

अरे दोबारा करो चाहे तिबारा। अंगुलियां तुम्हारी, की बोर्ड तुम्हारा और समय तुम्हारे टेंट से जायेगा। लिखो जो मन आये लेकिन जो करना हो जल्दी करो। हम ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते- शुकुलजी अधीरता दिखाकर औंघाने लगे।

लेकिन गुरुदेव ये समीरलाल को न जाने क्या हो गया है आजकल। कैसी-कैसी विस्फोटकप्रेम कवितायें लिख रहे हैं:-

अभी बस चांद उगता है, सामने रात बाकी है
बड़े अरमान से अब तक, प्यार में उम्र काटी है
पुष्प का खार में पलना,विरह की आग में जलना
चमन में खुशबु महकी सी, प्रीत विश्वास पाती है.


इसका क्या मतलब है?

इसका मतलब है कि कवि ने ठान लिया है कि अब वह कविता लिखकर ही रहेगा। चांद कहीं से उगने वाला है जैसे किसी पेड़ से कल्ले फूटते हैं। रात को उसने सामने अरगनी पर कपड़े की तरह टांग लिया है। पीछे शायद उसका घर है जिधर देखने की उसकी हिम्मत नहीं है। शायद वह अपने मध्यम आय वर्ग फ्लैट के टेरेस पर बैठकर कवितागिरी कर रहा है। फ्लैट बीच में है और उसके दायें बायें दूसरे फ्लैट होंगे और उधर कुछ दिखता नहीं होगा इसीलिये वह सब कुछ सामने देखने के लिये मजबूर है।

और ये पुष्पका खार में मिलना, विरह की आग में जलना यह सब क्या है?

ये सब पुराने जमाने की बाते हैं। पहले फूल बहुत होते थे तो लोग उनको तोड़ नहीं पाते थे। और फूल अपनी डाली में ही मुर्झा के नीचे गिरे जाते थे। कोई झाडू़-वाड़ू लगाना नहीं होगा तो वहीं मिट्टी में मिल जाते होंगे। उसी की याद में कवि ने कहा है- पुष्प का खार में मिलना। और ये विरह की आग में जलना तो ऐसा है कि पुराने जमाने में लोगों को मिलने में उतना मजा नहीं आता था जितना बिछड़ने में। मिलने में खतरा होता है। इधर मिले उधर शुरू हुये शिकवे गिले। तो लोग उसी को कहते थे कि विरह की आग में जलना । वैसे प्रेम में विरही लोगों के लिये जितने अच्छे पैकेज हैं वैसे मिलने वालों के नहीं है। इसीलिये जैसे गाड़ी चलाने के लिये भिड़ना जरूरी है वैसे ही प्रेम में पक्कापन लाने के लिये बिछड़ना जरूरी माना जाता है।

अच्छा समझ गया। आगे क्या कहते हैं समीर जी जरा देखा जाये

गगन के एक टुकडे़ को, हथेली में छिपाया है
दीप तारों के चुन चुनकर, आरती में सजाया है
भ्रमर के गीत सुनते ही, लजा जाती हैं कलियां भी
तुम्हारी राह तकते हैं, तुम्हें दिल में बसाया है.


ये क्या है?

अब हमसे ये न पूछो। ये वह स्थिति है जिसमें आदमी का कोई भरोसा नहीं रहता। वह कौन सी चीज को उठाके कहां रख दे। तारों को दबाकर दिये में बदलकर थाली में रख दे, भौंरे के गीत सुनाकर कलियों को शर्माने पर मजबूर कर दे। जिसको दिल में रखे है उसकी प्रतीक्षा करता रहे। मतलब समझ लो आदमी के पास कोई काम नहीं रहता और आदमी किसी काम का नहीं रहता।


बहरहाल जो भी हो यह बहुत ऊंची बात कही है समीरलाल जी ने यही समझ के इसकी तारीफ करो इसको और वाह-वाह से ब्लागजगत को गुंजा दो।


लेकिन सब ऐसा क्यों कहते हैं समीरलाल के साथ कुछ चक्कर हो गया है? लक्ष्मी चन्द्र गुप्त जी भी हड़काते हुये पूछ रहे हैं किसके चक्कर में फंस गये!

अरे वो बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं। शाम को फोन करके समीर लाल से पूछ रहे थे - किसके चक्कर में हो, हमें भी कुछ बताओ न!

निठ्ल्ले तरुन को पवार के ऊपर गुस्सा आया जिन्होंने आस्ट्रेलिया की टीम की बदतमीजी बरदास्त की-
इतना होने पर पंवार को फिर भी बत्तीसी दिखाते देख गुस्सा ही आ रहा था, इसीलिये कहते हैं कि अपनी इज्जत अपने हाथ होती है। आखिर पंवार एक नेता ही थे पहले जिनकी रीड की हड्डी का पता नही होता और उन्हें ऐसे अवसरों पर भी खींसे निपोरने की आदत होती है।


जीतेंद्र ने बड़ी अच्छी खबर उत्साह पूर्वक बतायी
-
वर्डप्रेस मे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं मे टिप्पणी करने के लिए बहुत आसान सा प्लग-इन मिल गया है। अभी इस प्लग-इन मे प्लग-इन में निम्नलिखित भारतीय भाषाओं मे टिप्पणी करने की सुविधा है।


उन्मुक्त ने जैकब हीरे के बारे में जानकारी दी:-



जैकब हीरा सवा सौ साल पहले अफ्रीका की किसी खान में कच्चे रूप में मिला था। वहां से इसे एक व्यवसाय संघ द्वारा ऐमस्टरडैम लाया गया और कटवा कर इसे नया रूप दिया गया। कहते हैं कि, यह दुनियां के सबसे बड़े हीरे में से एक है इसका वजन कोई १८४.७५ कैरेट (३६.९ ग्राम) है। यदि आप इसकी तुलना कोहिनूर हीरे से करें तो पायेंगे कि कोहिनूर हीरे का वजन पहले लगभग १८६.०६ कैरेट (३७.२ ग्राम) था। अंग्रेजी हुकूमत ने कोहिनूर हीरे की चमक बढ़ाने के लिये इसे तरशवाया और अब इसका वजन १०६.०६ कैरेट (२१.६ ग्राम) हो गया है।


मजे की बात है कभी ४६ लाख की कीमत के हीरे की आज की कीमत है करीब चार सौ करोड़ और इसका उपयोग कहां होता था यह भी जान लीजिये:-
महबूब अली पाशा ने जैकब हीरे पर कोई खास ध्यान नहीं दिया और इसे भी अन्य हीरों की तरह अपने संग्रह में यूं ही रखे रखा। उनके सुपुत्र और अंतिम निजाम उस्मान अली खान को यह उनके पिता की मृत्यु के कई सालों बाद में उनकी चप्पल के अगले हिस्से में मिला। उन्होने अपने जीवन में इसका प्रयोग पेपरवेट की तरह किया।


दिल्लीब्लाग में साइबर नेटसर्फिंग के बढ़ते नशे के बारे में जानकारी दी गयी-

सच तो यह है कि राकेश जैसे लोगों की संख्या अपने देश में तेजी से बढ़ रही है, जो ऑनलाइन सोशल नेटवर्किंग जैसे कॉन्सेप्ट के दीवाने हैं। साइबर स्पेस दोस्तों को तलाशने और पुरानी दोस्ती को फिर से जीवित करने की जगह ही नहीं बन रही है, बल्कि इस पर अंतरंग संबंधों की भी एक वर्चुअल दुनिया तैयार हो रही है। अब सिंगल्स इसके जरिए साथी की तलाश कर रहे हैं, तो यह एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स का माध्यम भी बनता जा रहा है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से इसके साफ संकेत मिलते हैं कि भारत में इंटरनेट इंफिडेलिटी बड़े पैमाने पर अपने पैर पसार रही है और ट्रेडिशनल रिलेशनशिप की जगह अब साइबर रिलेशनशिप का चलन तेजी पकड़ सकता है।


अनुराग श्रीवास्तव आज अपने पूरे शबाब पर हैं। आज पानी के बतासे खिलाते हुये उन्होंने ब्लागजगत में उतरने के सारे किस्से बयान किये। इसमें कविताऒं का आलाप भी है, सुन्दरी का कन्टाप भी है। हम तो पढ़ ही चुके हैं लेकिन आप भी तो हैं। तो पढि़ये न पूरा लेख हम तो केवल इतना दिखायेंगे:-

“विदेशी नहीं, अपने देशी जो वहां जाकर बस गये हैं ना, वो पढ़ते हैं। अब क्या करें बेचारे विदेश में उनको बहुत आइडेन्टिटी क्राइसिस हो जाती है तो काले-गोरों के देश में भूरे देशी अपनी पहचान बनाये रखने के लिये बहुत कुछ करते रहते हैं, हिन्दी पढ़ते-लिखते हैं, कुर्ता धोती पहनते हैं, विदेश में ‘थम्स अप’ और ‘किसान टोमाटो सास’ ढूंढते हैं…। भारत माता के प्रति उनका प्रेम और बढ़ जाता है। जब यहां रहते थे तो ‘फारेन – फारेन’ गाते थे और अब वहां पर दिन रात देश का नाम लेकर रोते रहते हैं – मेरा गांव मेरा देश। बेचारे ना घर के रहे ना घाट के।“

शिल्पी सत्ता की साजिश और भूमंडलीकरण के खतरे से आगाह करते हुये कहते हैं:-
भूमंडलीकरण के खिलाफ एक संगठित, सशक्त और निर्णायक आंदोलन शुरू हो पाने में अभी लम्बा वक्त लगेगा। जब जनता भूमंडलीकरण के अभिशापों को और अधिक झेलने से इनकार कर देगी और उसके खिलाफ सामूहिक विद्रोह के लिए स्वत:स्फूर्त ढंग से आंदोलित हो जाएगी, तभी उस सामूहिक संकट के भाव को भाँपकर उसके दबाव में हमारे बौद्धिक जन भी नए सिरे से सोचने के लिए विवश होंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तब तक हमें हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना चाहिए। हमें इस वक्त अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में संघर्ष करते हुए अपने-आपको समकालीन व्यापक संदर्भों से जुड़ने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुरूप विकास और प्रगति का वैकल्पिक ठोस आधार तैयार करने के लिए साझे प्रयास का माहौल विकसित करना चाहिए।

इसी खतरे को देखते हुये क्षितिज ने अपने अवकाश की घोषणा कर दी। लेकिन फुरसतिया को चैन कहां?

फुरसतिया ने श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी को नेट पर उपलब्ध कराने का काम शुरू कर दिया। पूरा उपन्यास कुल ३५ भागों में हैं। योजना है कि एक पोस्ट में एक पूरा भाग पोस्ट किया जाये ताकि कुल पैंतीस पोस्ट में उपन्यास आ जाये। कुछ साथियों का मत है कि उपन्यास के कुछ अंश ही दिये जाये ताकि लोगों को बाकी का उपन्यास खरीद कर पढ़ने की उत्सुकता हो। लेकिन मेरा यह मानना है कि जिसे यह पढ़ना होगा वह पूरा पढ़ने के बाद भी खरीदेगा। मैं पचीसों बार इसे पढ़ चुका हूं कभी आधा और कभी पूरा। कभी बीच से कभी किनारे से। इसके तमाम अंश मुझे मुंहजबानी याद हैं। मैं इसकी दसियों प्रतियां खरीद क्र दोस्तों को दे चुका हूं। किताब पूरी उपलब्ध कराने की मेरी इच्छा इसलिये है कि बहुत से लोग चाहते हुये भी इसे नहीं खरीद पायेंगे। बड़े से बड़े हिंदीप्रेमी भी जो विदेशों में बसे हैं वे डाकखर्च देकर ६५ रुपये की किताब डाक से नहीं मंगाना चाहते। बहरहाल यहां प्रस्तुत है रागदरबारी के पहले भाग के कुछ मजेदार अंश् जो शायद आपको किताब की दुकान या रेलवे स्टेशन की ए.एच.व्हीलर की दुकान की तरफ जाने के लिये उकसा दें ताकि आप इसे फ़ौरन पढ़ सकें:-
१.प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय, की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देशी कारीगरों के हस्तकौशल और वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब दुनिया में अकेले हमीं को आती है।

२.उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।

३.कहा तो घास खोद रहा हूं। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल रिसर्च शुरू की है।

कूछ बैलगाड़ियां जा रही थीं। जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे। बैल अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे।

४.वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।


अनुरोध है कि पहला भागपूरा पढ़ने के लिये शाम को दुबारा देखें

आज की टिप्पणी:-



1.प्रेम की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति है। सुन कर एक पुरानी फ़िल्म 'सति सावित्री' का गाना याद आ गया, मन्ना डे और लता मंगेश्कर का गाया हुआ। इंटर की मैथ्स लगाते समय रेडियो पर 'विविध भारती' सुना करता था और रात 10 बजे 'छायागीत' पर यह गाना अक्सर बजा करता था,

तुम गगन के चंद्रमा, मैं धरा की धूल हूं
तुम प्रणय के देवता हो मैं समर्पित फूल हूं

तुम महासागर की सीमा, मैं किनारे की लहर
तुम महासंगीत के स्वर, मैं अधूरी तान पर
तुम हो काया मैं हूं छाया
तुम क्षमा मैं भूल हूं

तुम ऊषा की लालिमा हो, भोर का सिंदूर हो
मेरे प्राणों की हो गुंजन मेरे मन की मयूर हो
तुम हो पूजा मैं पुजारी
तुम सुधा मैं प्यास हूं

वैसे ;-) क्या यह कविता कुंडलीनुमा हो सकती थी?

अनुराग श्रीवास्तव

२.कल्पना का क्षितिज, अर्चना के दिये
सब सजे एक आराधना के लिये
शब्द जो है ह्रदय का, व जो भाव है
जानता हूँ कि है साधना के लिये :-)

राकेश खंडेलवाल

सूचना- साधनाजी समीरलाल की एकमात्र पत्नी का नाम है । अभी तक मिली जानकारी के अनुसार समीरजी के दिल का पट्टा इनके ही नाम है।



आज की फोटो



आज की फोटो जीतेंद्र के परियों के देश से
परियों के देश
परियों के देश

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1 टिप्पणी:

  1. वाह वाह, लगता है पोस्ट हमको ही समर्पित है, भाई जी, सब कुछ वाकई हमारी पत्नी साधना को समर्पितहै, बाकि तो सब यूँ ही मौज मजे को. अब इस उम्र में कहाँ जाऊँ. सब साधना की साधना है. :) आपकी समझ की दाद देता हूँ, आप तो सब समझ गये. :)

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