मुकेश बंसल कहते हैं कि हिंदी को अपनाने के मामले में हम दोहरे मापदंडों का इस्तेमाल करते रहे हैं,
"हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डालना चाहता है, लेकिन सामाजिक तौर पर अंग्रेजी के महत्व का विरोध करता है। बातचीत में ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलता है, लेकिन हिंदी के अखबार में अंग्रेजी के शब्द देख कर नाराज हो जाता है। उसकी खुद की जिंदगी में पैंट, शर्ट, टाई, हलो, हाय शामिल हो जाए तो अच्छा है, लेकिन अखबार की भाषा नहीं बदले। इस दोहरेपन से हम जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना अच्छा होगा।"
अपनी बात कहने के अपने मौलिक अधिकार का बखूबी उपयोग करते हुये रचना भारतीय क्रिकेट टीम के हारने के संभावित कारणों पर विवेचना कर रही हैं। सारे टेलीविज़न नेटवर्क इंटरनेट और मोबाईल के साधनों पर अपना आधिपत्य सिद्ध करने को आमादा हैं, NDTV ने भी अपना ब्लॉगिंग प्लैटफॉर्म मुहैया कराया पर जगदीश सख्त ख़फा हैं वहाँ प्रकाशित भद्दी, अशलील और नफरत फैलाने वाली टिप्पणियां देख। इस बीच जानिये कि लोग नौकरियाँ क्यों बदलते हैं और पढ़िये असल जीवन में कॉमेडी आफ एरर्स का उदाहरण, डॉ टंडन की कलम से
मैने उससे कहा, "आप को रात मे सावधानी रखनी चाहिये या फ़िर आप गोलियों का सहारा भी ले सकती हैं।"
"तो आप का कहना है कि यह सिर्फ़ रात मे ही होता है।"
मैने उसकी बात को पकडा, "नही-नहीं! मेरे कहने का मतलब है किसी भी समय आप कर सकती है, जब भी आप का मूड करे, लेकिन पूरी सुरक्षा के साथ।"
अब कि बार वह कुछ परेशान सी दिखी, "इसमे मूड से क्या मतलब।"
मै उस का मतलब शायद कुछ-कुछ समझ रहा था, "यह हो जाता है, इसमे मूड की कोई बात नही है।"
तुषार ने मंगेश पाडगावकर की मराठी कविता का सुंदर भावांतरण प्रस्तुत किया है
प्रेम शेम कुछ नही, कहने वाले मिलते हैंनितिन पई के हवाले से खबर मिली चिट्ठे आफ स्टंम्प्ड के बारे में जो विभिन्न मुद्दों पर ठोस राय का मुज़ाहरा करता है। नितिन कुछ हिन्दी चिट्ठाकारों की तलाश में हैं जो कि इन चिट्ठों को हिन्दी में प्रस्तुत कर सकें। अगर आप को रुचि हो तो मुझे लिखें।
प्रेम याने ढोंग ये भी सोचनेवाले मिलते हैं
ऐसा ही एक व्यक्ति हमसे कहने लगा
पाँच बच्चे हो गए मगर प्यार व्यार कुछ किया नहीं
हमारा काम निकल ही गया, प्यार के सिवा चल ही गया
उसे लगा मै मान गया
लेकिन मैं उस दिन जान गया
प्रेम याने प्रेम याने प्रेम होता है
इनका और हमारा सेम नहीं होता है।
हमारा कहना है आपने बंगला स्वाद वाली हिन्दी हमसे क्यों छीन ली है?
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