शनिवार, नवंबर 04, 2006

तुम हो सुरमय [ गुजराती चिट्ठे ]

आज सुबह फुरसत से चिट्ठाचर्चा पढकर काम में रमने वाला था कि गुज्जु काका आ गए।

गुज्जु काका : गधेडा...
मैं (चौंकते हुए) : अरे क्या हुआ काका?
गुज्जु काका : गुजराती ब्लोगों विशे कोण लखशे तारो काको?
मैं : लिखुंगा ना फुरसत से...
गुज्जु काका : (मुँह बनाते हुए) लिखुंगा ना फुरसत से... बहु जोया तारा जेवा आळसुओ... दीकरा कईं तो लखी दे... (बहुत देखे तेरे जैसे .. बेटा कुछ तो लिख दे)
मैं : शुं लखुँ... कईं छे ज नहीं.... सारु आवुं करीए एक वार जोई आविए.... (क्या लिखुँ, कुछ है ही नहीं.. चलो ठीक है एक बार देख आते हैं)
गुज्जु काका : हा तो में क्याँ ना पाडी छे... चाल....
मैं: तो देखो... ये गुजराती साहित्य परिचय वाले भाईसाब नानाभाई भट्ट की बायोग्राफी लेकर आइले हैं...
गुज्जु काका : ये क्या आइले आइले करता है... भाषा सारी रीते बोल....
मैं: विजय वडनरे का असर है काका...
गुज्जु काका : विजय वडनरे बोले तो.....
मैं : देखा आप को भी लग गई.... छुआछुत का टाइम चल रहा है... देखा नहीं मैने भी नकल मारकर आपका पात्र क्रिएट कर लिया...
गुज्जु काका : मैं तो पहले थी ज हतुं ने.... गुज्जु काका वर्ल्डॅ फेमस छे....
मैं : हाँ पर कल फुरसतियाजी मेरी खिंचाई करेंगे....
गुज्जु काका : कोण फुरसतिया? हवे आ बधु छोड.... आगळ वात कर....
मैं : फुरसतिया भीष्म पितामह है....
गुज्जु काका : हें एवुं...? ए मारा खमैया के जे हों भाई.... बीक लागे आवा माणसो नी आपण ने तो... शुं.. (हें ऐसा... ए भाई मेरी खम्मा कहना ओ भाई.. डर लगता है ऐसे लोगों से अपने को तो.. क्या)
मैं : हाश तो वरी.... हवे आगळ जोइए... ( वही तो... अब आगे देखते हैं)
ये देखो उर्वीश क्या गज़ल लेकर आए हैं..

અમોને કોઇ મનગમતા ઇશારા પર અમે બેઠાતમે મઝધારમાં છો ને કિનારા પર અમે
બેઠા
મસીહા જન્મ લેશે કો’ક દી’ પાછો આ દુનિયામાંલઇને આશ આગમની સિતારા પર અમે
બેઠા
બરફ માફક થીજેલા આ સંબંધો ઓગળે માટેસહી પીડા, આ સમજણના તિખારા પર અમે
બેઠા
નસીબની છે બલિહારી કે દૃષ્ટિ દૂર પ્હોંચે છેધરાતલ પર તમે છો ને મિનારા પર
અમે બેઠા
ખરચતાં પણ ખૂટે ના, એટલો વૈભવ અમારો છેશબદની બાદશાહતના ઇજારા પર અમે
બેઠા.

हमको लगे प्रिय ऐसे ईशारे पर हम बैठे
तुम हो मझदार में और किनारे पर हम बैठे...
नसीब की बलिहारी की दूर तक जाती है निगाह
तुम धरातल पर हो हम मिनारे पर बैठे...

गुज्जु काका : सारी छे.... पण घमंडी नहीं लगती....
मैं: अच्छी है ना... बस... शांति रखने का काका....
गुज्जु काका : सारु सारू .. आगळ के...
मैं : ये जो सुरेश जानी फिलोसोफर है ना... नई थ्योरी लेकर आए हैं... कि अपेक्षाओं के साथ कैसे जीया जाए...
कहते हैं:

अपेक्षाएँ तो जन्म के साथ स्वयं आती है. कोई भले ही सुफियानी सलाह दे कि अपेक्षाएँ
छोड दो.. वस्तुतः यह असम्भव है। क्योंकि अपेक्षाएँ तो हमारे मन, तन, धर्म सब के साथ
जुडी हुई है. अंत में वे सवाल छोड जाते हैं कि फिर किस तरह से इस चुंगुल से निकला
जाए.. अपेक्षाओं के वृत से कैसे बाहर आया जाए?
गुज्जु काका: वात तो विचारवा जेवी छे दिकरा? (बात तो सोचने जैसी है बेटा)
मैं: तो तमे निरांते विचार करो ने.. एम पण घरडा थया हवे.. (तो आप शांति से सोचो ना.. ऐसे भी उम्रदराज हो गए हो)
गुज्जु काका: शुं किधु? (क्या कहा?)
मैं: कई नहीं.. आ जुओ... अमी ने नीलेश राणा की कविता रखी है...

આજ મને લાગી ગઇ ધુમ્મ્સની ધાર,તોયે મને દેખાતું બધું આરપાર.
સ્થળને ને જળને
મેં વ્હેરાતાં જોયાં ને જોઇ લીધું
પળપળનું તળિયું,ગોપી એક સંગોપી બેઠી છે
ક્યારની વ્હાલમનું વૃંદાવન
ફળિયું.
મારા હોવાની ભાવના સંભાવનાથીઆપું નિરાકારને હુંયે આકાર.
વ્હાલમના
વાઘાનું લિલામ કદી થાય નહીં ને
મોરપીંછનાં મૂલ નહીં અંકાય,વાંસળીના સૂરને ઝીલવા હું
જાઉં ત્યાં યમુનાનાં વ્હેણ આ
વંકાય.
તારી ભુજામાં હું ભીંજાતી ભૂંસાતીહવે જોઇએ નહીં કોઇનો આધાર.

आज मुझे लगी धुन्ध की धार
तो भी मुझे दिखे सब आरपार..
मेरे होने की भावना सम्भावना से
देती हुँ मैं निराकार को आकार..
तुम्हारी बाहों में भीगते हुए
नहीं चाहिए अब किसीका आधार..


गुज्जु काका: वाह.. जुआनी याद आवी गई हों दीकरा...
मैं : एम... काकी क्यां छे..
गुज्जु काका: रेवा दे ने... आगळ चाल..
मैं : हम्म.. मोरपिच्छ पर मकरन्द भाई की अच्छी कविता है...

અળગી નથી કરી તને મેં અવગણી નથી,તું પ્રેમને ન માપ એની માપણી નથી
મળવાનું
મન કરે કદી ઠેકીને આવજે,ભીંતો અમારી એટલી ઊંચી કરી નથી.
આવે ગઝલમાં જે રીતે બસ
આવવા દીધીમેં લાગણીની કોઇ દી’ માત્રા ગણી નથી
હું આયનામાં જાત જોઇ ખળભળી
ઊઠ્યો,સારું છે એમની નજર મારા ભણી નથી.
દેખાઉં છું, તે છું નહીં, ને એટલે જ
તો,મારી છબીને મેં કદી મારી ગણી નથી.
એથી જ પ્રેમ પામવાની આશ છે હજીતેં હા કહી
નથી મને, ના પણ ભણી નથી

जुदा नहीं किया तुझे कभी, ना दूर किया

प्रेम को ना माप उसको कोई माप नहीं...

जो देखता हुँ वो हुँ नहीं..

इसिलिए तो खुद को कभी स्वयँ माना नहीं..



गुज्जु काका : क्या घटिया अनुवाद छे..
मैं: जाओ मुझे नहीं करना .....
गुज्जु काका : अरे ना ना दीकरा.. ब्लु आइड बोय आगे चल...
मैं : आप भी चढाने लगे अब.. किसी की तरह...
गुज्जु काका : ही ही ही... तने खबर पडी गई..
मैं : तो शुं.. चालो आगळ जोईए... फोर.एस.वी. में भी एक कविता रखी हुई है...


बस इतनी समझ आ जाए तो

मिले उसमे संतुष्टि मिल जाए तो

मोक्ष की सब बात करते हैं

धरती पर स्वर्ग मिल जाए तो

पिछली बातें सब भूल जाएंगे

आखिरी दाँव तु जीत जाए तो?



गुज्जु काका : सरस... गुजराती कविता कोपी करके क्यों नही रखी..
मैं: हो नहीं रही काका.. और एक बताओ जब हिन्दी आती है तो गुजराती क्यों बोले जा रहे हो..
गुज्जु काका : अरे अपने को शरम थोडे ही है दीकरा... कोई साउथ वालें हैं क्या कि आए तो भी ना बोलें..
मैं: काका खुले में ऐसी बात नहीं करते..
गुज्जु काका : एमां शुँ वळी.. तो क्या..
मैं : बाबा रे.. जाने दो.. रामनाम जपो ना अब.. और यह देखो..
गुज्जु काका : हवे थाकी गयो.... थक गया अब..
मैं : ह्म्म्म.. बुढापे का असर...
गुज्जु काका : ना बोरियत का..
मैं : तो उर्मिसागर को सुनते जाओ ना..
गुज्जु काका : हें उर्मि .... वाह उर्मि मने गमे छे...
मैं : काका काकी ने बोलावुं...
गुज्जु काका : वच्चे वच्चे काकी काकी ना कर... आगळ वध.. (बीच बीच में काकी काकी ना कर.. आगे बोल)
मैं: तो आ जुओ... (तो यह देखो)


રહેતી’તી હું,ખુદમાં તન્મય.
દ્રષ્ટિ મળતાં,થૈ તારામય.
નિજને ભૂલી,થૈ ગૈ
જગમય.
જડ મટીને,થૈ ચેતનમય.
જગ બેસૂરું,તું છે સૂરમય.
સૂરનાં તાલે,રહું
લયમય.
શોધું ખુદને,મળું તુજ મંય.
તવ ઊરે હું,રખડું નિર્ભય.
તું
ઊર-સાગર,હું ઊર્મિમય.

रहती हुँ खुद में तन्मय

दृष्टि मिली तो हुई तारामय

निज को भूलकर हुई जगमय

जड से मिटकर हुई चेतनमय

खुद को ढुंढु मिलुं तुज में

तुम्हारे उर में मैं रहुँ निर्भय

तुम उर सागर, मैं उर्मिमय...



मैं: अच्छी है ना काका.. काका ... अरे कहाँ गए.. सो गए.. ह्म्म्म.. यानि बोर हो गए.. या उर्मिमय... हे प्रभु..

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4 टिप्‍पणियां:

  1. ये गुज्जु काका कहां पकड़ में आ गये, सही जोड़ी बनी है आपके साथ. :)

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  2. हमारा यही कहना है कि बहुत धांसू खिचाई करते हो. हमारी खिंचाई की और हमें अब पता चला! बलिहारी हो.

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  3. इस द्विभाषिक चिट्ठा चर्चा ने आनंदित तो किया ही मन को भी छुआ . सांस्कृतिक मेल-मिलाप की दृष्टि से भी ऐसे चिट्ठों की आत्यंतिक उपयोगिता है . भारत जैसे विविधताओं से भरे -- बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में इस प्रकार की चिट्ठा चर्चा एक दूसरे को समझने तथा भावनात्मक एकता को प्रगाढ़ करने की दिशा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है .

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  4. Pankajbhai, bahot khoob... aapke kaka na 'surmay' ho shake na hi 'urmimay'... ha, chhumantar jarur ho shake?!! :-)

    kabhi aap hamare 'sahiyaru sarjan' blog ki mulakat bhi le lo... kya pata, shayad aapko likhne ke liye khorak bhi mil jaaye...!

    bahot baho shukriya... hamari urmi ke saagar ko tag karne ke liye!!

    www.urmi.wordpress.wordpress.com
    www.sarjansahiyaaru.wordpress.com

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