गुरुवार, नवंबर 16, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनाकं 16-11-2006

एक विराम के बाद संजय धृतराष्ट्र के कक्ष में अपने लेपटोप के साथ प्रवेश कर रहे थे. उलहाने से बचने के लिए एक कप कोफि भी महाराज के लिए साथ में ले ली. कोफि कप महाराज के हाथ में थमा संजय ने लेपटोप पर संजाल का संचार किया. दृश्य उभरने लगे.
संजय : महाराज आज कविगण मोर्चा सम्भाले हुए है.
धृतराष्ट्र : बहुत खुब, सुनाओ.
संजय : मैं देख रहा हूँ, राकेशजी कविता रचने के चक्कर में व्याकरण के नियमो को क्रुद्ध कर बैठे हैं. इधर कविता सागर से भगवतीचरण वर्मा की रचना “आज मानव का सुनहला प्रात है” के रूप में अनमोती लाए हैं मुनिशजी. निनाद गाथा से अभिनवजी जो सामायिक कवि की कथा सुनते हुए बताते हैं कि कैसे वे चार शब्द भी कसौटी पर कसने के बाद ही बोलते हैं.
धृतराष्ट्र : बहुत खुब.
धृतराष्ट्र ने कोफि की चुस्की ली तथा आगे जानने के लिए संजय कि ओर देखा.
संजय : आगे महाराज सुखसागर से चन्द्रमा की चाल पर नजर रखी जा रही है. वहीं जुगाड़ू जितूजी बीना थके नए-नए जुगाड़ ला रहे हैं. काम की वस्तुएं है ले लो भाई.
धृतराष्ट्र : और यह मुसाफिर कौन आ रहा है.
संजय : महाराज ये नदियों के देश से सुनिलजी आ रहे हैं, तथा जो न कह सके वे गुयाना की सारी बाते बता रहे हैं. इससे ज्यादा जानने की उत्सुक्ता हो तो उसका इंतजाम भी किया गया है.
धृतराष्ट्र ने कोफि की अंतिम चुस्की भरी.
संजय : साथ ही महाराज, भारत के दूर दराज के इलाके से साँप-नेवले के सम्बन्धो पर मौज ले रहे हैं मनोजजी.
अब महाराज आपकी कोफि के साथ-साथ मेरी चर्चा भी समाप्त होती है, लोग-आउट होने की अनुमति चाहता हूँ.

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