तुम जब से रूठी हो
मेरे गीत अपना अर्थ खो बैठे हैं
मेरे ही गीत मुझ से ही खफ़ा हो
मुझ से दूर जा बैठे हैं
माना कि तुम मुझ से नाराज़ हो
लेकिन मेरे गीतों से तो नहीं
क्या तुम उनको भी मनानें नही आओगी ?
मेरे गीत फ़िर से नया अर्थ पानें को बेताब हो रहे हैं ।
इस कविता को लेकर 'फुरसतिया' जी इतने विचलीत हुए कि अनूप शुक्ल जी से घंटों गीत और गीत का अर्थ समझते रहे:
पहले तो खबर सुनाई गई:
फुरसतियाजी बोले-पता है गुरू, ये अनूप भार्गव जी की उनके गीत से खटक गयी और वे उनसे दूर भाग गये हैं।
और गीत का अर्थ बताते हुए कहते हैं:
गीत, कविता घराने में पाया जाता है। अब कविता तो इधर-उधर तमाम जगह टहलती रहती है, डांय-डांय घूमती रहती है। कभी इस भेस में कभी उस भेस में। लेकिन इन्हीं कविताऒं में कुछ ऐसी अनुशासित कवितायें भी होती हैं जिनको सुनकर मन खुश हो जाता है। ये कवितायें अच्छे, पढा़कू बच्चों की तरह अनुशासित सी होती हैं। बढ़िया शब्दों का फेसपैक लगाते ऐसी कवितायें अलग से चमकती हैं। कोमलकांत शब्दों से ये कवितायें उसी तरह लदी-फदी रहती हैं जैसे अप्रैल-मई के महीने में मलीहाबाद में आम के पेड़ दशहरी आमों से लदे रहते हैं। खुशबूदार शब्दों से घिरी हुई इन कविताऒं से दूर-दूर तक सौंन्दर्य महकता है। यहां तक कि अगर कोई न्यूयार्क में कविता पढ़ता है तो उसकी महक से लखनऊ की रेवड़ियां और कन्नौज का इत्र तक महकने लगता है। इसी तरह की कविताऒं को लोग अलग रखकर गीत के रूप में पहचान दे देते हैं।
फिर अज्ञानता का कुछ और सफाया करते हुए:
शुकुलजी ने चेले की अज्ञानता पर अपना माथा ठोंका और बताया- जब आदमी को कुछ समझ में नहीं आता कि दूसरे से किस तरह से व्यवहार किया जाये तो वह उसकी इज्जत करने लगता है। इज्जत करने की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि जो आदमी कुछ भी नहीं कर सकता वह भी किसी की भी इज्जत कर सकता है। दूसरी ओर कोई चाहे किसी भी काम लायक न हो लेकिन वह इज्जत के लायक हमेशा हो सकता है।
और अंत में:
शुकुलजी ने जुम्मन मियां और अलगू चौधरी की आत्मा थोड़ी देर के लिये किराये पर ली और अपनी राय जाहिर की- देखो मेरी और जनता की जानकारी में अनूप भार्गव इज्जतदार आदमी हैं। उनको ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जिससे गीत इतने नाराज हो जायें कि दूर जाकर बैठ जायें और जाड़े में ठिठुरकर अपना अर्थ खो दें। अर्थ खो देने का मतलब क्या है -’टोटल मेमोरीलास’ मतलब आगरे की तरफ प्रस्थान। यह सब नहीं करना चाहिये और वे स्थितियां बचानी चाहिये जिससे घर वाले इतना नाराज हो जायें कि बात सरेआम कहनी पड़े। और ये सब घरेलू बाते कहने से क्या फायदा, किस घर में नहीं होता।
थोड़ा लम्बा लेख है, मगर इतनी बड़ी बात के लिए इतनी लंबाई आपेक्षित है। है भी बड़ा मजेदार, आन्नद आयेगा.
यह तो हुई एक तरह की मनुहारी कविता और उस पर चर्चा और दूसरी तरफ देखें राममनोहर जी के अलग तेवर:
रुठ के तुम कहां जाओगी,
लौट के तुम जरूर आओगी,
भूल हम से हुइ है क्या ऐसा,
जिसकी सजा इतनी बेरूखी जैसा,
सजा जब तुम हमको देती हो,
बन्द कमरे मे तुम क्यों रोती हो,...........
अब भाई, सबके अपने अपने अंदाज हैं, अपनी तरह से अपना मामला निपटायें, हम तो आगे चलते हैं.
इन सब गमगीन वातावरण से दूर संजय बैंगाणी एक अलग तरह की कब्जियत का शिकार हो गये हैं, उनकी टिप्पणी करने की अभिलाषा के पूर्ण निस्तार के लिये सबसे निवेदन कर रहे हैं कि सब उन्हें टिप्पणी करने दें. हमसे उनकी हालत देखी नहीं गई और हमने तो कम से कम अपने चिट्ठे पर टिप्पणी करने के द्वार सबके लिये तुरंत खोल दिये. शायद कुछ आराम लगे. आज तो संजय भाई इसबगोल खाकर किसी तरह सोये हैं, देखिये कल क्या होता है.
एक तो अगला कब्जियत से परेशान है वो भी दूसरों की प्रशंसा के लिये, उस पर भुवनेश टॉनिक लेकर खड़े हैं और वो भी आत्माप्रशंसा का:
कुछ लोगों की सेहत के लिए आत्मप्रशंसा का टॉनिक बेहद जरूरी होता है। ये जब तक किसी से अपनी प्रशंसा में दो-चार शब्द ना कह लें इन्हें भोजन हजम नहीं होता, कई बार तो हालत इतनी बिगड़ जाती है कि रात को नींद तक नहीं आती और यदि भूल से आ भी जाये तो बुरे-बुरे सपने आते हैं। इसलिए इन्हें सुबह जल्द उठकर फ़िर से किसी शिकार की तलाश में निकलना होता है।
संजय, अगर आराम न लगे, और ज्योतिष, टोने वगैरह की तरफ मन भटके तो उन्मुक्त जी को पकड़ना, वो लेकर बैठे हैं ज्योतिष, टोने टुटके पर पूरे ज्ञान का भंडार:
सच में हम बहुत सी बातो को उसे तर्क या विज्ञान से न समझकर उस पर अंध विश्वास करने लगते हैं, जिसमें ज्योतिष भी एक है। ज्योतिष या टोने टोटके में कोई अन्तर नहीं। यह एक ही बात के, अलग अलग रूप हैं। यही बात अंक विद्या और हस्तरेखा विद्या के लिये लागू होती है। यह दोनो, टोने टोटके के ही दूसरे रूप हैं।
खैर, इन्हें इनके हाल पर छोड़कर निकलने मे फायदा दिखा तो निकले, अब रचना बजाज जी घोर चिंतन में मिलीं,
छोटे बच्चों के किसी काम को करने या नही करने के अपने तर्क होते हैं.कई बार वे अपने उत्सुकता भरे सवालों से अपने माता-पिता को स्तब्ध कर देते हैं.
इस विषय में कुछ कह देने को उत्साहित है: नन्हें दिमाग और मासूम तर्क:
बेटी- जब मै बडी हो जाउँगी तब दीदी छोटी हो जायेगी ना? तब वो मुझे दीदी बोलेगी!
मै- नही ऐसा नही हो सकता, उसका जन्म तुमसे पहले हुआ है, तो तुम ही उसे दीदी बोलोगी हमेशा..
बेटी- ये तो गलत बात है! मै ही उसे दीदी बोलूँ?, फिर आपने मुझे आपकी बडी बेटी क्यूँ नही बनाया???
फिर मिले सृजन शिल्पी जी लोक सरोकारों में कवि नागार्जुन की भूमिका पर श्रॄंखलात्मक लेख लेकर:
एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं। इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं। जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं। नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है।….यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं।
और लेख के प्रवाह में जो कवितायें हैं, वाह, वाह, मेरी पसंद:
अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
आज मनीष जी अपनी पचमढ़ी यात्रा की अंतिम किश्त लेकर आये हैं, एक से एक तस्वीरें और लिखने का वही निराला अंदाज. मनीष जी का यात्रा वृतांत लिखने का तरीका सभी को बहुत भाया, जो कि टिप्पणियों से जाहिर है, वे बधाई के पात्र हैं.
चलते-चलते पचमढ़ी की यादों को किसी चित्र के जरिये समेटने की कोशिश करूँ तो यही छवि मन में उभरती है ।पहाड़ियों और चने जंगलों की स्याह चादर के बीच इस नन्हे हरे-भरे पेड़ की तरह इन उँघते अनमने जंगलों के बीच हरियाली समेटे जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा !
ज्ञानियों की चर्चा भी हमने सुनी और आप भी ज्ञानार्जन कर सकते हैं, शिरिष जी डॉ.टंडन को रंगीन शब्द लिखना सिखा रहे हैं. हम समझे कुछ रंगीन बात होगी तो चले गये मगर वो तो लाल, पीले, नीले रंगों में शब्द लिखना सिखा रहे हैं.सो हम चले आये.
अब रंगों के बात चली है तो रजनी जी भी पतझड़ के रंगों पर अपना लेख लाईं है जो पढ़ने में बिल्कुल कविता की अनुभूति देता है. वाकई बहुत सुंदर लेख बन पड़ा है.
हल्की सी खुनक हवा में बस रही थी. मुझे अंदर जाने के लिए बाध्य कर रही थी. आकाश में पक्षियों का झुण्ड अपने नीड़ की ओर जा रहा था. हरी घास पर बिछी लाल, पीली पत्ति्याँ लोटने के लिए निमंत्रण दे रहीं थी. ठँड से बचने के लिए मैं अपने को अपनी ही बाँहों के घेरे में कसती जा रही थी. हार कर अन्दर जाने के लिए उठी, कुछ लाल पीली पत्तियाँ मुट्ठी में बँद कर के पतझड़ को मन में अंकित करना चाह रही थी.
अब चलने का समय हुआ, आज तो कोई नई मुण्ड़लियां हुई नहीं, परसों कि हमारी ताली पुराण से ही मेरी दो पसंद की सुन लें फिर से:
नेता, कवि, महात्मा कि गायक गीत सुनाय,
बिन ताली सब सून है, रंग न जमने पाय.
रंग न जमने पाय, ताली से मच्छर हैं मरते
डेंगू, गुनिया, मलेरिया, पास आने से डरते.
गुरु मंत्र लो; तुम डिप्रेशन को दूर भगाओ
सुन कर मेरे कवितायें, ताली खुब बजाओ.
सदियों का इतिहास है, इस पर हमको नाज
मानव की पहली खोज में, आता है यह साज
आता है यह साज कि हरदम मंदिर में बजता
भजन, कीर्तन या आरती, जब भक्त है करता
इसकी ही सुर ताल है जो सबको रखे जगाये
वरना अखंड रामायण में, भक्त सभी सो जाये.
अरे, हां चलते चलते, तरकश पर देखें रचना बजाज की कविता-नेता और जनता और पंकज बैंगाणी का आईडिया. फिर बोर होने लगें तो वहीं मध्यान्तर मस्ती मे सुडोकु और शतरंज खेलें. क्या कहा, सुडोकु खेलना नहीं आता, तो हमसे बताओ, हम एक पोस्ट के माध्यम से सिखा देंगे. जब कुण्ड़ली और त्रिवेणी सिखा सकते हैं, तो यह क्यूँ नहीं. मगर थोड़ा आग्रह तो किजिये, भले ही यहीं टिप्पणी में. और हां, वो सुनील जी की गयाना यात्रा का वृतांत सुनें यहीं पर. बेहतरीन चित्रों के साथ.
आज की टिप्पणी:
सागर नाहर प्रतीक की पोस्ट पर:
बिल्कुल सही है प्रतीक भाई
गाँधीगिरी फ़िल्मों में ही ठीक लगती है, यथार्थ में अगर यह सब करना मूर्खता ही होगी।
अब तो हमें कृष्णनीति, सावरकरनीती या शिवाजीनीती सीखनी चाहिये।
अनूप शुक्ल रवि रतलामी पर:
आपै बताओ क्या है मामला.छोले वाले का इंटरव्यू लीजिये. पूछिये ब्लाग काहे नहीं लिखता जितनी देर ग्राहक नहीं रहते.
आज की तस्वीर:
मनीष जी की पचमढ़ी यात्रा से:
लालाजी,
जवाब देंहटाएंएक अच्छी बात लिखी आपने। हमने सुडोकु कैसे खेलें यह तो बताया ही नहीं।
चलिए अब आप ही बता देवें। हम कॉपी पेस्ट कर लेंगे। उत्ता तो आता है। :)
समीरलालजी, आज सुबह से काफी राहत महसुस कर रहा हूँ. आशा है अब कब्ज से हमेंशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा.
जवाब देंहटाएंहमेंशा की भांति उम्मदा चर्चा रही. तालियाँ बजा रहा हूँ.
बढ़िया चिट्ठा चर्चा ।
जवाब देंहटाएंअरे भाईसाहब मेरा नाम 'शिरिष' नहीं 'श्रीश' है। बहूहू लोग मेरा नाम ठीक कब लिखना शुरु करेंगें।
जवाब देंहटाएंआज का चर्चे का जवाब नही वाह
जवाब देंहटाएंअनूप के लेख हर बार पढ़ता हूँ, कभी आनलाउन, अधिक लंबे हो तो आफलाईन, पर पढ़ता हर बार इस उम्मीद से हूँ कि कभी तो किसी चिट्ठे पर टिप्पणी करने का साहस संजो पाउंगा पर फिर पोस्ट मगज से छ सात फुट उपर निकल जाती है और मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। खैर, प्रयास जारी हैं!
जवाब देंहटाएंश्रीश भाई
जवाब देंहटाएंआपका नाम गलत लिख गया.क्षमा चाहूँगा.
भविष्य में ध्यान रखा जायेगा.
समीर लाल
समीरलाल जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चिट्ठा चर्चा किया है आपने ।
बधाई !!!
रीतेश गुप्ता