दिन में चार पाँच लिख जाते जीतूजी,मिस्टर कनपुरिया
जबरन लिखी कभी सागर ने, नाहर बन कर धौंस जताई
अतुल अरोड़ा सोच रहे हैं, अब क्या करें कहो रघुराई
दोपहरी में आकर संजय, महाभारती बन जाते हैं
अंधे राजा के कांधे पर रख कर तीर चला जाते हैं
बिना शोर के धीरे धीरे काम किये जाते रतलामी
चर्चा ऐसे लिख देते हैं, कोऊ नॄप होऊ हमें का हानी
पंकज गुजराती चिट्ठों की खातिर फ़ैंका करते काँटा
जो कुछ हाथ लगा फिर उसको एक एक कर सबसे बाँटा
सभी प्रतीक्षित हैं कब आखिर देवाशीष नींद से जागे
रविवार की चिट्ठा चर्चा की कब सोई किस्मत जागे
लिखते हैं कब रमन कौल यह ज्ञात नहीं मुझको हो पाया
पूरे हफ़्ते इस तलाश ने मुझको इधर उधर भटकाया
रवि की सांझ, प्रयोगवाद की बात उठाई है जो रवि ने
उसने सब चिट्ठाकारों को लगा आईना एक दिखाया
चिट्ठा हो बस एक याकि दस,चर्चा तो करनी ही होगी
लेकिन इससे पहले करता हूँ इस चर्चा को सहयोगी
शब्दों की मर्यादा को यदि तोड़ मरोड़, प्रयोग कह लेंगे
कोई भी भाषा हो, उसके साथ ज्यादती ही यह होगी
पढ़े फ़ारसी कोई जैसे तरबूजे की फटी फ़ार सी
अरबी उन्हें लगा करती है आलू के संग वाली सब्जी
सीट-ए-सायकिल बैठ खरीद-ए-जिंस चले करने को वे हैं
अगर न लिखते कविता, लगता हो जाती है उनको कब्जी
चलो छोड़िये, ये लिख डाला क्योंकि नजर कम चिट्ठे आते
जब मेरी बारी आती है, सब संडे क्ओ पिकनिक जाते
इसीलिये मंडे को केवल दो या तीन नजर आते हैं
बस उनकी ही बातें करनी होंगी हमको हँसते गाते
ई-स्वामी जी मिले हाथ में नूतन घर की चाबी लेकर
लिये हुए थे साथ मिठाई की जगह कविता के तेवर
खुशखबरी इक और साथ है, जिसमें उनका लेख छपा है
अभी जाल पर ताजा ताजा आया है नव अंक निरंतर
शुक्लाजी परिचय देने को लाये हैं संजय बेंगानी
साथ चले हैं पीछे कब रहते बोलो पंकज बेंगानी
रवि शंकर बतलाते इंटरनेट बुराई की जड़ सारी
वातायन में ज़िक्र समय का कविता में कर रहीं हिमानी
बतलाते उन्मुक्त उपाधि मानद किसने स्वीकारी है
और कौन है जिसने अनगिन सालों से ये दुत्कारी है
शिक्षण संस्थानों ने इसको फ़ैशन नया बना डाला है
याकि नाम लेने देने की नई लगी ये बीमारी है
पंचमढ़ी का विवरण देते हैं मनीष चित्रों के संग में
यायावर होने की इच्छा जाग रही पाठक के मन में
चिट्ठे तीन दोपहरी तक हैं, दोनों पर कुल सात टिप्पणी
चुन कर इनमें से किसको दूँ यही आज की, संबोधन मैं
आज की टिप्पणी:-
सागर चंद नाहर की ( रवि रतलामी की चिट्ठा चर्चा पर )
सागर चन्द नाहर का कहना है:११/०६/२००६ ८:२९ अपराह्न
वाह रचना जी आपने तो सब को एक ही डंडे से हांक दिया है।यह सही नहीं है कि कविता ना कर पाने की झुंझलाहट ही लेख लिखवाती है, अगर सारे लोग कविता लिखने लगेंगे तो बेचारी कविता मर जायेगी, वैसे ही आजकल हिन्दी चिठ्ठा जगत में हर कोई कविता(?) लिख रहा है। कई कवि(?) तो कई कविता के नाम पर ऐसी बानगी पेश करने लगे हैं जिसको पढ़ कर कभी रोना तो कभी हँसना आता है, जिससे तो लेख ही अच्छे हैं जिनको पढ़ कर कम से कम रोना तो नही आता। लेख हँसाते तो हैं।वैसे राकेश जी ने अपनी टिप्पणी में बहुत कुछ कह ही दिया है " यदि कविता होगी तब ही तो समझ मे आयेगी।
आज का चित्र :- परेड से
कवितारूपी चर्चा करने का साहस करने लिए आपको बधाई देता हूँ.
जवाब देंहटाएंसब लोग कविता लिखेंगे तो वह मर जायेगी(बकलम:सागर), पर यदि कविता सिर्फ़ एक विशिष्ट वर्ग दूसरे विशिष्ट वर्ग के लिए लिखेगा तब भी वह मर जाएगी. तुकबंदीकार उर्फ़ 'पोएटास्टर' तो कविता को मारेगा ही,जो कविता के नाम पर निरा लददड़ और आड़ा-तिरछा गद्य लिखेगा वह भी कविता की लाल रुधिर कणिकाएं कम करके उसका हीमोग्लोबिन स्तर घटाएगा .उसे बीमार डाल देगा.कविता पर गम्भीर बहस होनी चाहिये.यह गद्यमय समय कविता के लिए बहुत बुरा वक्त है. गद्य का संबंध ज्ञान और विचार से ज्यादा है और कविता का अनुभूति से.पर इसका अर्थ यह नहीं कि कवि को अज्ञानी होना चाहिये और गद्यकार को भावनाशून्य. कविता में भी विचार होता है पर कोरे विचार से कविता नहीं बन सकती.कविता अवकाश के क्षण चाहती है कवि से भी और पाठक से भी . वह किसके पास हैं.कविता संवेदना की तरलता चाहती है.भावों की हरियाली चाहती है.पर आपाधापी के समय में इन सब के लिये 'स्पेस' बहुत सिकुड़ गया है.कविता के लिये यह कठिन समय है.सो जितने ज्यादा लोग कविता लिखेंगे अच्छा ही होगा. रही बात अच्छी और बुरी कविता की तो इतिहास अपने आप गेहूं और खरपतवार को अलग-अलग कर देगा. इतिहास का सूप फूस-फल्लर बहुत बेरहमी से फ़टकता है.सिर्फ़ वजनदार कविता ही बचेगी और जो बचेगी वही कविता वजनदार होगी .भक्ति काव्य के महान कवि और उनकी प्राणवान कविता इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं.
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