धृतराष्ट्र : कहाँ अटक गए थे?
संजय : कहीं नहीं महाराज, एक लफड़ा हुआ है, गेंहू तथा हल्दी को लेकर. मामला पेटेंट का था, उसे उन्मुक्तजी से समझने में देर लग गई. वहाँ से आ ही रहा था की जितुभाई ‘प्रोपर्टी’ की दो अच्छी ‘डील’ लिए मिल गए. मामला सेट हो जाता मगर दलाली को लेकर अटक गया. और अंतमें ठीक बाहर फुरसतियाजी बगल में ‘रागदरबरी’ दबाए गाँधी-कथा करते मिले. वही सुनने बैठ गया तथा देरी हो गई.
धृतराष्ट्र : चलो कोई बात नहीं, यह जमावड़ा कैसा है, देख कर बताओ.
संजय : महाराज, यहाँ कवियों का जमावड़ा लगा है, कवि समीरलालजी अभी भी अपनी प्यारी चिड़ीया से बिछड़ने का ग़म भुला नहीं पाएं है, एक पागल-सी चिड़ीया पर कविता सुना रहे है. वहीं राजीवजी सूरज से संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहें है. इसी कोशिश में लगा समय ठहर-सा गया है, मौका देख कुवंर नारायण की कविता सुना रहे है प्रिंयकर. इस पर रंजूजी आगाह करते हुए कहती हैं, यूँ टूट कर किसी को कोई ना कभी चाहे. रचनाजी ने चनावों को सर पर देख इसी पर एक कविता सुना रही है.
धृतराष्ट्र : भई यह तो पूरा कवि सम्मेलन हो गया. थोड़ा इधर-उधर भी देखो.
संजय : हाँ महाराज. रचनाकार लेकर आएं हैं, संजय विद्रोही की एक कहानी, तथा दो घटनाओं को मिला कर एक कहानी बनाने की कोशिश कर रहें हैं संजय जोगलिखी.
महाराज, अब आप दैनिक जुगाड़ो लाभ उठाते हुए, चीनी सर्कस का आनन्द लें. मैं होता हूँ लोग-आउट.
कल की काफी भी कृप्या न भूलें.
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