गुरुवार, जनवरी 11, 2007

पीकदान महादन

शतक मार कर आ गये और करने लगे आराम
फुरसतिया जी धमका गये, अब तो कर लो काम.
अब तो कर लो काम कि ढंग से तुम चर्चा करना
लिखवाओ जो कोई और से तब तुम खर्चा भरना
कहत समीर कविराय कि भईया सांस तो ले लो
हड़काना फिर बाद में, अभी तो आज का झेलो.


-समीर लाल 'समीर'

अब हड़काये हो तो झेलो, यह लो आज की चर्चा. एक तो पता नहीं कौन सा जादुई कनेक्शन धरे हैं कि टाइप तो धड़ाधड़ करता है और कविता का ब्लाग खोलने में टांय टांय करता है. हमारे यहाँ तो खुल गया रंजु जी की प्यारी कविताओं का ब्लाग और वो ही अनुभव पर-गिरीन्द्र नाथ झा जी. खैर चिंता न करें, दोनों ही पूरी तन्मन्यता से अपने लेखन में जुटे हैं और आज भी गीत-संगीत, अयोध्या-गाथा जैसी बेहतरीन चीजें लेकर आये हैं, ध्यान से रंजु जी का ब्लाग पढ़िये और जब पूरा पढ़ लें, टिपिया दें तब गिरीन्द्र जी का या कौन सा पहले पढ़ेंगे, आप ही तय कर लो, कहाँ तक हाथ पकड़ पकड़ के कोई सिखाये.

हम तो सब आप पर छोड़कर चल दिये कि चलो अमित भाई से मिला जाये, अभी नमस्ते करने जा ही रहे थे कि वो कहने लगे ओके टाटा बाय बाय. हम भी सोचे-अरे, यह क्या बात हुई-अभी तो मिले भी नहीं, और टाटा. चेहरे पर मायूसी देख तुरंत स्माईली मार बोले-हम तो आपको एक वेब साईट के बारे में बता रहे थे ओके टाटा बाय बाय और उसके माध्यम से यह ज्ञान देने की ईच्छा थी कि अपना नाम कैसे बदनाम करें . तब जाकर हमारे चेहरे की रंगत वापस लौटी और हम आगे चलने लायक हुये.

चलें तो चलें कैसे-बिन आपके. बिना जीतू जी से मिले जा भी कहाँ सकते हो, खास कर जब वो अपनी नई तस्वीर के मुताबिक चेहरा झुलाये हों. हम कहे, क्या हुआ चौधरी साहब, बड़े मातमी टाइप दिख रहे हो. बोले, कुछ नहीं यार, देश की समस्याओं को लेकर मन भरा जाता है, काहे यह सब असम में लड़ रहे हैं, काहे बँटवारे की बात. हमने भूले से कंधे पर तसल्ली देने को हाथ क्या रखा कि इत्ता फूट फूट कर रोये कि हम तो अपने रुमाल से भी हाथ धो बैठे. फिर जब इनकी हिचकी थमीं तो पूरी व्यथा एक नहीं बल्कि दो भाग में लिख मारे. मगर जब आदमी रो कर लिखता है तो अंदाजे बयां सालिड रहता है, ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है खुद के साथ. रोते जाओ, लिखते जाओ. आह, क्या भाव उकरते हैं. बहुत सही चौधरी जी, आगे भी आपकी रुलाई का इंतजार रहेगा, भले ही एक और रुमाल न्योछावर में जाये.

खैर, गम, समस्या, हँसीं, खुशी सब इसी जीवन के भाग हैं. जहाँ संजय बीग बी के रिश्तों से ऐसा परेशान हुये कि उनको रुठ कर कहने लगे जो करना हो करो हमें क्या, मगर उनकी सलाह बीग बी को यही है कि वो अमर सिंग को छोड़ स्वामी समीरानन्द की संगत करें, देखिये कह रहे हैं संगत कीजे संतन की, तो पंकज अपनी तीसरी चिट्ठी पोस्ट निठारी भेज रहे हैं और पूर्ण गुजराती प्रमाणिकता के साथ आवेश वश उन्हें भाई भी कह रहे हैं. खैर, गुजरात में तो महिलायें अपने पति को भी भाई कहती हैं, यह मात्र संबोधन का साधन है, इससे इनके रिश्ते को न आंका जाये और न ही वो उन्हें मुंबई वाला भाई मान कर डर रहे हैं, तबियत से खाट खड़ी की है अपनी चिट्ठी में. वाह, पकंज. यह तो तीसरी चिट्ठी की बात हो गई, पहले वाली दो कहाँ हैं? इतने खतरनाक हादसों से बेखबर, हमारे अनुराग अपने अनुराग में खोये हैं और जहाँ तहाँ पीक थूक रहें हैं और उस पर तुर्रा यह कि पीकदान महादान. जितनी बार थूका..उतनी बार ॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!! खैर थूको यहाँ वहाँ. पहाड़ पर जाकर थूको, पान पराग क्या, माणिकचंद थूको, ऊँचे लोग ऊँची पसंद...किसी के सर चढ़ कर थूको. कोई क्या कह सकता है, जब इतना बेहतरीन लिखते हो तो कोई क्या पंगा लेगा, तुम फिर लिख मारोगे. बस हा हा, वाह वाह करके रह जाना पड़ जाता है भले थूक कहीं गिरे. क्या करें...अरे भाई, अन्यथा न लेना, मजाक कर रहा हूँ. वाकई, बहुत समय बाद इतना डिटेल्ड पूरी थुकन बारिकियों के साथ पढ़ा, मजा आ गया.

अभी एक इनाम से फुरसत पाकर, माणिकचंद दबाये थूकने की जगह ढ़ूंढ़ ही रहे थे कि अब अगला इनाम अगले साल फिर कोशिश करेंगे. तब तक शैलेश भारतवासी जी हिन्द युग्म पर कवियों के लिये महावारी इनाम ले आये. अब उसमें लगो. खैर उसमें तो कभी भी लग लगेंगे, हर ही महिने है और वहाँ ६-७ बेहतरीन कवियों का जमावड़ा तो वर्तमान में ही है. दो चार जो बाहर से झांकते थे, वो भी जुड़ ही जायेंगे. समय को बहुत कुछ करते देखा है तब जा कर बालों में कम से कम, चेहरे पर कभी नहीं आई, सफेदी टाइप का सिलेटिपन पाया है. हमारा नम्बर तो बहुत पीछे से तीसरा है क्योंकि दो को मैं जानता हूँ जो मुझसे खराब कविता लिखते हैं, आप तो उनको जानते ही हैं तो मै क्यूँ नाम लूँ. हा हा. पूरे समाचार को आप भूल न जायें कि ऐसी कोई प्रतियोगिता हमारे शैलेश भाई ने शुरु की है तो उसे पुनः दोहराया है प्रमेंन्द्र प्रताप सिंह जी ने और आगे दौहरायेंगे हमारे काबिल शिष्य, शायद.


देसी टून्स पर नई ट्यून: कैसी समृद्धी-मानते काहे नही भाई कि वाकई यह हाँ, और इस काम में अति सक्रिय हैं - अतुल, पंकज, ई-स्वामी, अनूप भार्गव….इत्यादि इत्यादि…हम तो बचे. थोडा सा किनारे होकर. अभी भी चैन कहाँ, रवि रतलामी कह रहे हैं कि हिन्दी लेखक डिजिट में. अगर सिर्फ शिर्षक से काम चलाना हो तो वाकई डिजिट मे ही हैं अभी तो. समय लगेगा जब डिजिट की जगह नाम से जाने जायें.

दिव्याभ का इकरार-ए-मोहब्बत करना था कि मनीषा जी कहने लगीं कि अब बच्चेदानी का भी प्रत्यारोपण किया जा सकेगा। और लगे हाथ रामा जी ने शारीरिक संरचना के बारे में बता दिया ताकि सब सोच लो, समझ लो, तब आगे बढ़ो. आगे बढ़ने के पहले रामा जी जानना चाह रही हैं कि इसके पश्चात जो मैटर है वह वयस्क श्रेणी में आता है. क्या उसे इसी में आगे जारी किया जाय इसमें चित्र भी हैं जो वयस्क श्रेणी के है. पाठकों से सुझाव आमंत्रित हैं. अरे रामा जी, सुझाव क्या लेना? इस तरह के सुझाव देने में भले सब चुप रह जायें मगर आप छाप कर देखो और आवक जावक गणक पर बढ़ती संख्या का आन्नद लो बिल्कुल अनुराग की तरह: ॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

जगदीश भाटिया जी तो हमेशा ही बेहतरीन मय प्रमाण और तथ्यों के लेख लाते हैं सो फिर आये कि यह भी है हमारा भारत. गजब लिखते हो भाई . अब जैसा भी हो यार, रमा जी को भी तो सुनो जिन्हें वो प्यार न मिला. कभी नल दमयन्ती की कथा सुनी है, तभी तो...अब सुन लो, न!! फिर अफलातून जी के साथ घूमो..मैसूर और राजकोट.

जब चलने का समय आया तब क्षितिज जी आये, कहिन, रुसी, तेल और मंद सर्दी ..हम समझ गये, हल्की ठंड हो, धूप मे बैठे हो, शरीर पर तेल की मालिश और सर से झरती रुसी. आँख भर आई, गांव की याद आ गई. मगर जब पढ़े तो कुछ और ही नजारा...यह रुसी तो रुस देश है जहाँ तेल का पंगा है और मन्द ठंड के कारण स्की वगैरह बंद है, उन सब की बात चल रही है.

खैर, रुमाल तो जीतू जी दबा लिये थे तो आस्तीन से आंसूँ पौंछ कर अब चलते हैं. कोई छुट गया हो तो क्षमा, एक तो आँसूं पौंछ रहा हूँ और बहुत सारे थे आज, कुछ तो रहम करो. वो मध्यान चर्चा वाले भी न, समय देखकर वाट लगाते हैं.


आज का चित्र:

जगदीश भाटिया जी के यहाँ से लाये हैं, मगर यह जगदीश भाई नहीं हैं :) :



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3 टिप्‍पणियां:

  1. "जब चलने का समय आया तब क्षितिज जी आये, कहिन, रुसी, तेल और मंद सर्दी ..हम समझ गये, हल्की ठंड हो, धूप मे बैठे हो, शरीर पर तेल की मालिश और सर से झरती रुसी. आँख भर आई, गांव की याद आ गई."

    कहां की बात कहां जोड़ दी। इस तरह सोचा तो हमारी भी आंखें भर आयीं।

    अद्भुत सोच है!

    :D :D :D

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  2. इन तीन चित्ठों का जिक्र किन्हीं कारणों से छूट गया था, कृप्या आजके चर्चाकार इन्हें कवर करने की कृपा करें:

    गीत कलश:
    http://geetkalash.blogspot.com/2007/01/blog-post_09.html

    गीतकार की कलम:
    http://geetkarkeekalam.blogspot.com/2007/01/blog-post.html

    अनूप भार्गव जी:
    http://anoopbhargava.blogspot.com/2007/01/blog-post.html

    धन्यवाद.

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  3. kya badi mazedaar tarike se pahaluo ki jor thod ki hai bhut hasyaspad...

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