मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं,
तुम होती तो कैसा होता, तुम ये कहती, तुम वो कहती.....
फिर बैग्राऊंड से रेखा और अमिताभ को दिखाते हैं, सुंदर स्विटजरलैंड की फूलवती वादियों में:
अब रेखा गा रही है:
ये कहाँ आ गये हम, यूँ ही साथ साथ चलते
तेरी बाँहों में है जानम, मेरे जिस्म-ओ-जान पिघलते....
सब तरफ फूलों की खुशबू फैली है, प्राकृतिक सौंदर्य है, कलकल नदी बह रही है, झरना है और वाह क्या महौल है, कोई भी गा उठे....ये कहाँ आ गये...
ऐसी ही टाईप की चरमगति की प्राप्ति हर इस तरह के स्थल पर होती है. अब रचना जी को देखिये, उनकी यही गति हिन्दी चिट्ठाकारी के मैदान में आकर हो गई. हाँलाकि यहाँ सोलो चल रहा है, उन्होंने दोनो रोल खुद ही निभाये-
पहले अमिताभ:
किसको छोडूँ, क्या पढ डालूँ!
यहीं रहूँ या विदा कह दूँ!!
फिर बैकग्राऊंड से रेखा और अमिताभ-
और शूटिंग के समय शायद गर्मी बहुत रही होगी और कागज के फूल मूल सजा लिये होंगे तो खुशबू भरा महौल भी नहीं होगा...झरने के नल का पानी चला गया होगा..रेखा गा रही है:
उफ्फ!!ये कहाँ आ गये हम
अरे जी, कहीं नहीं आ गये, यही है हिन्दी चिट्ठाकारी का मैदान. अब चाहे उफ्फ हो या आह या वाह!! जो है सो ये ही है, और है भी बड़ी लती जगह. किसी से पहले के जमाने में बदला लेना होता था तो लोग उसे शतरंज खेलने की आदत डलवा देते थे. लो अब हो गये शतरंजी, अब किसी काम के नहीं. जब तक खेले खेले फिर बाकि समय भी चाल ही सोच रहें हैं कि अगली बार ऐसा खेलूंगा. वैसा ही है ये मैदान भी. आदमी अभी पढ़ता है और नहाते समय हँसता है याद कर कर के, घर वाले पागल समझते हैं और ....हे भगवान, न घर का ख्याल रह जाता है, न अचार का, न मुरब्बे का. बाजार से खरीद लाओ बना बनाया, और घर की शीशी में भर कर खिला दो. हमें तो यही रास्ता समझ आता है. कविता भी लिख मारी वो भी इस उहापोह की अवस्था में:
किसको छोडूँ, क्या पढ डालूँ!
यहीं रहूँ या विदा कह दूँ!!
एक एक चिट्ठाकार को पकड़कर लपेटा गया है जैसे खेत में मवेशी घुस आये हों और सबको डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं. और यह मजाकिया और बेहतरीन हंसोड़ बात करने वाला और कोई नहीं बल्कि एक ऐसा शक्स है जो एक महिने पहले नवम्बर ३०, २००६ को जान पहचान के तहत यह कहता था कि :
वैसे कुछ लोग यहाँ हैं जो मुझे पहचानते भी हैं, उनसे गुजारिश है कि अगर वे मेरे या इस चिट्ठे के बारे मे कुछ कहना चाहें तो जरूर कहें.सिर्फ दो बातों का ध्यान रखें-
१. मै किसी भी मजाक का बुरा मान सकती हूँ!!
२. मैं किसी भी बात को मजाक मान सकती हूँ!!!
वाह भाई, हिन्दी चिट्ठाजगत, क्या परिवर्तन लाता है आपके अंदर. संपूर्ण हृदय परिवर्तन. खैर जो इच्छा हो, जैसी हो वैसा करें, हम तो हमेशा की तरह चुपचाप निकल जाते हैं.
एक नया महौल और चल पड़ा है इस शूटिंग वाले महौल के साथ और वो है विवादों का अखाडा. कितनी बार कहा जा चुका कि न तो अब गाँधी जी हैं, न सुभाष चन्द्र बोस, न भगत सिंग, न नेहरु और फिर हमारे सागर भाई ने भी बताया कि उनकी तबियत भी कुछ ठीक नहीं चल रही मगर जरा इन महारथियों में से किसी एक पर भी लिखिये तो सही या फिर जरा राजनिति पर लिखने की कोशिश करें, बस फिर नगाडे की धुन शुरु..ढमर कड़कड़ ...ढमर किड़िकिड़ ....ढमर कड़कड़ ...ढमर किड़िकिड़.. और कुश्ती चालू..अक्सर विचारों की कुश्ती तक सिमित रहता यह मंजर व्यक्तिगत होता नजर आने लगता है, यहाँ तक कि आज तो आज, पहले कही गई बात भी थाली पत्तल में सजाकर बारात निकाली जाती है. कुछ लोग सड़कों पर निकल कर नाचते हैं तो कुछ घर के भीतर ही. मजा सबको आता है. अभी पिछली बारात का खाना पचा नहीं है तब तक नई बारात और कुश्ती का आयोजन होने लगता है. इस आयोजन के प्रायोजक बनने के लिये आपको कुछ नहीं करना होता, बस उपरोक्त उल्लेखित किसी भी मुद्दे पर एक सनसनाती पोस्ट लिख दें, जैसे कि सृजन शिल्पी जी की पोस्ट-भारतीय सवतंत्रता संग्राम के कर्ण और बाकी आयोजन खुद हो जायेगा. बाराती आ जायेंगे, अखाड़े खुद जायेंगे, और फिर समय रहते सारा सामान लपेट कर अगली बारात की तैयारी. अगर आप इस आयोजन को अपने स्थली पर नहीं कराना चाहते तो जहाँ भी यह चल रहा हो वहाँ जाकर यज्ञ में आहूति डाल सकते हैं. कई बार लोगों को ऐसी जगह देर से पहुँचने पर अफसोस मनाते भी देखा है क्योंकि तब तक सब कुछ लपेटा जा चुका था. इसलिये समय का विशेष ध्यान दें, जितना जल्दी पहू~ण्चेंगे, उतना ही यज्ञ मे ज्यादा आहूति दे पुण्य प्राप्त कर सकते हैं. वैसे तो वाद विवाद एक अति स्वस्थ परंपरा है, इसके लिये, ज्ञान, उर्जा और अध्ययन की आवश्यकता है और अन्य पाठकों का ज्ञानवर्धन भी होता है मगर जब यह व्यक्तिगत आक्षेपों और अलंकरणों पर आ जाये, तब तकलीफ और दुख होता है. अब हम तो निकलते हैं यहाँ से, घर के अंदर ही नाच कर बारात का मजा ले लेंगे.
अभी हम दबे छिपे निकल ही रहे थे कि कोई देख न ले. बस, फुरसतिया जी ने देख लिया, बोले कहाँ चले, हमको नहीं सुनोगे. हमने कहा, भाई, अभी आप ही को और उसके भी उपर आपके बारे में सुनकर चले आ रहे हैं, अब जाने दो हमें. कहने लगे तुम भी उसी टाईप के हो कि छेड़ दो तो दुखी, काहे छेड़ दिया और न छेडो तो दुखी कि काहे नहीं छेडा. सबको छेडा हमको नहीं. इतने भी खराब नहीं दिखते हम. तो सुनो, कल जब निराला जी के बारे में सुनाये थे तो बहुते हिट गया टापिक. कई बार जब टापिक नहीं समझ आता तब भी हिट हो जाता है और लोग भीड़ लगाते हैं कि कहीं लोग हमें अनपढ़ न समझ लें. तो उसी पर जन आग्रह पर अगला भाग लाये हैं, पढ़ लेना. हमने कहा, जरुर पढ़ लेंगे और अब जायें. बोले झूटमूठ टिप्पणी मत करना, उसी में से कुछ बातें पूछूंगा बाद में. अब क्या, एक बार निराला जी को दसवीं की परीक्षा मे ध्यान से पढा था और अब आज. मगर आज वाला बहुते जीवंत है, बिल्कुल जोर नहीं लगा और मजा भी बहुत आया. वाह वाह..सही लिखते और सही लेखन लाते हो, भाई फुरसतिया. अब जो पूछना हो तो पूछ लेना. याद है हमें सब.
इतनी भगदड़ रही कि अब हंसना जरुरी हो गया बिना इसके, हमारे जैसे रक्तचाप के रोगी की तो चर्चा खतम करने के पहले ही लाई लूट जाये.
भला हो भाई प्रमेन्द्र का जो हमें इतना मानते है कि न सिर्फ़ इतमिनान से बैठकर ११ (धार्मिक अंक है) चुटकुले सुनाये, बल्कि ११ बार बसंत पंचमी के स्नान की डुबकी भी हमारी तरफ से लगाये और सबूत के तौर पर फोटू भी भेजी है- भाग १ और भाग २.
हम हंसे, आभारी हुये और चले तो अनुराग ईंग्लिश ईस्कूल का अंतिम भाग ले आये, इतना हंसाये, इतना हंसाये कि हम सोचने लगे कि अच्छा हुआ यह आखिरी किश्त थी, नहीं तो अबकी रक्तचाप का दोष हँसी पर स्थान्तरित हो जाता. फिर चाहे रवि भाई चिट्ठों के हैक्स लाते या रमण जी का एक और ब्लागर जुगाड़ या दिव्याभ जी सत्य संकेत दिखाते, हम तो होते ही न पढ़ने को और अविनाश भाई को भी मौका न लगता कहने का कि अगर तुम न होते. क्योंकि हम तो वाकई नहीं होते.
अब चलते चलते, एक गीत याद आया- हम लाये हैं तूफानों से किश्ती निकाल के.......उसी तर्ज पर यह आज की टिप्पणियां लायें हैं, पढ़ें...कुछ भी अन्यथा न लिया जाये. स्माईली. :)
कल की चर्चा पर आप सबका उडेला गया टिप्पणी रुपी स्नेह ने इतना भाव विभोर कर दिया कि आज फिर चर्चा करने आ गये वरना आज के नम्बरी तो फुरसतिया जी थे, तो अगर कुछ खराब लगा हो तो फुरसतिया जी को कोसें, न वो हमे लिखने देते न हम लिखते. हाँ, तारिफ के बंदा हाजिर है टिप्पणी द्वार पर पलक पावड़े बिछाये. जो छूट गये हैं वो सूचित करें टिप्पणी के माध्यम से सूचित करें, कल संजय भाई मध्यांतर मे कवर कर लेंगे. :)
आज की पोस्टनुमा टिप्पणियाँ सृजन शिल्पी जी के चिट्ठे के सौजन्य से:
अनूप शुक्ला:
मैं अब भी यही कह रहा हूं कि इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरू राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। और मैंने जो इतिहास के
अध्ययन की बात लिखी थी उसमें मेरी अज्ञानता छिपी थी और है भी। मैंने इन लोगों के बारे में जो पढ़ा वह एक आम आदमी की तरह पढ़ा। किसी विद्वान की तरह नहीं और मेरी सीमित जानकारी में ये सभी लोग आम आदमी से ऊपर मानसिकता के लोग थे। इनके बारे में यह सुनना कि ये लोग एक दूसरे को उठाने-गिराने में इस कदर लगे रहे, कम से कम मुझे यकीन नहीं होता। गांधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह में महाभारत के पात्र खोजने का तरीका वह तरीका है जिसमें आप पहले कद तय कर लेते हैं और तब उसके लिये उपमा तलासते हैं। कर्ण अभिशप्त महारथी थे, कुंवारी कन्या की कोख से पैदा हुये थे उनके कौन से साम्य
थे सुभाषजी से? कम से कम आजादी की लड़ाई तक दोनों के दुश्मन साझा थे -वे अंग्रेज थे। जबकि कर्ण और दूसरे पांडव एक दूसरे के खिलाफ़ थे। बहरहाल, संभव है आपका विस्तार से सालों का किया अध्ययन इस बात का प्रमाण देता हो आपको लेकिन मेरा दिल इनमें से किसी महापुरुष को इतना घात-प्रतिघात में संलग्न होने की बात से सहमत नहीं हो पाता। नेहरू सत्ता लोलुप थे या नहीं यह भी व्यक्तिगत सोच की बातें हैं। जो शक्स पूरे १६ देश का नीतिनिर्धारक रहा और एकमात्र जननायक रहा उसके लिये, बावजूद तमाम उनकी गलतियों के, यह सोचना कि उसके सारे काम सत्तालोलुपता से संचालित थे , कम से कम मेरा मन ऐसा मानने के लिये तैयार नहीं होता।
आशा है कि आगे भविष्य में कुछ और ज्ञानभरी बाते पता चलेंगी जब आपके पास अपने सालों के अध्ययन को लिखने का पर्याप्त समय होगा!
नेताजी हमारे देश के महान सपूत थे। उनकी जन्मदिन पर उनको विनम्र होकर याद कर रहा हूं। आपकी पोस्ट इसका माध्यम बनी इसके लिये आपका आभार!
प्रियंकर:
सृजन शिल्पी द्वारा की गई तुलना –सुभाष बाबू की पौराणिक चरित्र कर्ण से तुलना रोचक लगी .
इसके साथ ही दिनकर का सुप्रसिद्ध काव्य ‘रश्मिरथी’ और मराठी उपन्यासकार शिवाजी सावंत का कर्ण के चरित्र पर लिखा कालजयी उपन्यास ‘मृत्युंजय’ मन-मस्तिष्क में तैरने लगे . कैसा उदात्त चरित्र और उसका कितना उत्कृष्ट निरूपण . तुलना सर्वथा उपयुक्त है . प्रतिभा की अवमानना और अपमान के ऐसे अवसर मानव संस्कृति के इतिहास में विरल ही होते हैं, और जब होते हैं तो जनता की सामूहिक स्मृति — लोक-मानस — उन्हें शताब्दियों तक याद रखता है . और अपनी स्मृति कोशिकाओं में रची-बसी अनोखी न्याय तुला पर तौल कर ऐसा पोएटिक जस्टिस — काव्य न्याय — करता है कि उनकी लोकप्रियता की सीमा नहीं रहती . इतिहास का कोई भी सफ़लतम व्यक्ति उनकी लोकप्रियता के सामने बौना हो जाये , वे ऐसी किंवदंती बन जाते हैं . इस तरह ‘लोक स्मृति’ इतिहास द्वारा किये गये अन्याय को अपने ढंग से न्याय में परिवर्तित कर देती है.
सुभाष बाबू के साथ भी कुछ ऐसा ही अन्याय हुआ था. पर यहां अन्याय करने वाला ‘चिन्हित’ नहीं है. गांधी के व्यक्तित्व को देखते उन पर इस तरह के आरोप वैसे भी टिकते नहीं हैं . तो क्या उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का कोई दोष था सुभाष बाबू के राजनैतिक फ़ैसले जिसके प्रतिरोध में खड़े पाये गये ? गांधी के विशाल व्यक्तित्व की छाया में बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को वैसा खुला मंच नहीं मिला जैसा गांधी की अनुपस्थिति में मिल सकता था . पर क्या इसमें गांधी का कोई दोष है ? गांधी के राजनैतिक निर्णयों की समीक्षा करने पर हमें कहां-कहां भावनात्मक दबाव और परिस्थितिजन्य निरंकुशता के छींटे दिखाई देते हैं ? तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, सुभाष बाबू के तात्कालिक राजनैतिक अतिउत्साह और समय से पहले लिये गये निर्णयों के अलावा क्या सुभाष बाबू के साथ हुए अन्याय का कुछ दोष गांधी पर भी आता है?
सुभाष बाबू की मौत के रहस्य ने इस अध्ययन को और भी मुश्किल और चुनौतीपूर्ण बना दिया . सृजन शिल्पी अपने अध्ययन द्वारा इस गुत्थी को समझने का प्रयास करते और समस्या के मुख्य कारकों को चिन्हित करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं . उनके निर्णयों से नाइत्तफ़ाकी रखते हुए भी इतना स्वीकार करने की बौद्धिक ईमानदारी तो हममें होनी ही चाहिये .
अनूप जी से वैचारिक सहमति रखते हुए भी और सबको ‘सन्मति दे भगवान‘ जैसे अच्छे हस्तक्षेप के बावजूद गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है .
सृजन शिल्पी का विश्लेषण सही हो या न हो पर निराधार नहीं है . यह ऐसा धुआं नहीं है जिसके पीछे आग बिल्कुल भी न हो . इसे अनूप जी जैसे होशियार आदमी से बेहतर भला और कौन जानेगा .
पर इन्हीं अनूप जी को, गांधी के विरुद्ध बात-बात में गोडसे को उद्धृत करने वाले गोडसे-भक्त नाहर जी के यह विचार कि ‘देश का जितना नुकसान गांधीजी के सिद्धांतों और नेहरूजी की वजह से हुआ उतना किसी और वजह से नहीं हुआ’ न केवल विरोध के लायक नहीं लगे बल्कि ‘पठनीय’ लगे और प्रमेन्द्र का यह बयान कि ‘ देश को गांधियों के चंगुल से मुक्त कराना होगा’ (मानो गांधी कोई माफ़िया सरगना हों) उन्हें ‘ओजस्वी’ लगा . ऐसे में उनकी मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति, उनकी चुनी हुई चुप्पी, यहां तक कि उनकी सधी हुई सदाशयी टिप्पणियां भी चिट्ठाकारों को सृजनशिल्पी के निष्कर्षों से ज्यादा ‘मायावी’ और ‘मायालोकीय’ प्रतीत होती हैं . सो वे माया-मोह से थोड़ा ऊपर उठेंगे ऐसी आशा रखना अन्यथा न होगा.
कई बार लगता है कि उनका अभिजात्य उन्हें अंतर्जालीय ‘चेंगडों’ से दो-दो हाथ करने से रोकता है . और सज्जनों को सीख देते समय वे सौरव गांगुली की तरह फ़ॉर्म में आ जाते हैं. इस मामले में वे बाबा तुलसीदास की परम्परा में हैं जो कहते हैं: ‘बंदउं संत असज्जन चरना’ . असज्जन की वंदना इसलिये कि दुष्ट आदमी दो मिनट में आपके अभिजात्य को छियाछार कर सकता है — उस अभिजात्य को जिसे आपने परत-दर-परत बरसों से बड़े जतन से अपने व्यक्तित्व पर चढाया है.
अनूप जी से करबद्ध अनुरोध है कृपया वे कुछ समय इस बात की समीक्षा के लिये भी निकालें कि सृजन शिल्पी द्वारा गांधी पर शुरु की गयी बौद्धिक बहस सागरचंद नाहर से होती हुई जब प्रमेन्द्र तक पहुंचती है तो वह किस कदर गंदली होती जाती है. गांधी और सुभाष दोनों का पक्ष इसी आत्म-समीक्षा में निहित है .
आज का चित्र और केप्शन, प्रमेन्द्र के ब्लाग से:
एक कुत्ते का बच्चा पोज देता हुआ, जिसके गले में रुद्राछ माला भी थी, मेरे साथ गये विशाल ने कहा कि ये बड़ा होकर माँडल बन कर अपने बाप क न रौशन करेगा
majedaar,
जवाब देंहटाएंnarad G to hamari 41 se 50 tak wali post to kha gaye, eisa khaye ki kisi ko bhanak nahi lagi.
khair 31 se 40 wali ko dikha diya hai. shayad badjmi ka shikar ho gaye the, hoga bhi kyo na ganga maiya ka sara prasad khud khayege to ye to hona hi tha.
chutkulo ko bhi hajam karne ke mud me haipar, par khai aisa na ho ki haste haste ultiya n aa lage aur pahale wala prasad(post) bhi bahar aa jate. :)
परसाईगीरी का झूठा परचम लहराने वाले चिट्ठा जगत में सेंसरशिप लागू करना चाहते हैं क्या? अभिव्यक्ति की हमारी शैली में शालीनता बनी रहे, इसकी कोशिश सभी को करनी होगी। दूसरों से संयम की उम्मीद करने से पहले अपने भावों को संयत करना जरूरी है।
जवाब देंहटाएंश्री जीतू जी का आदेश है- 'हाजिर जनाब' ।
जवाब देंहटाएंहरकत करतई लेखन शैली ने हर स्थल के लिए एक कुंआ खोदा है सींचने के लिये…टिप्पनियों की विशालकाय काठी देखकर मैं थोड़ा हड़बड़ा गया था…
जवाब देंहटाएंमजेदार चर्चा, और उससे बढ़िया आज की टिप्पणीयाँ रही।
जवाब देंहटाएंएक गोडसे भक्त
"उफ्फ!!ये कहाँ आ गये हम "
जवाब देंहटाएंशीर्षक ही बहुत कुछ कहता है :)
अब जब बात टिप्पणी करने की है तो मैं भी खुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर यह टिप्पणी करता हूँ कि चिट्ठों की परम्परागत शैली में केवल असत्य ही लिखूँगा और सिवा चाटुकारिता के कुछ भी नहीं लिखूँगा. आप अन्यथा लेना चाहें तो जरूर लें. अन्यथा लेकर आप कौन से मेरे खेत के भुट्टे उखाड़ लेंगे. ( मेरे खेत तक आकर तो बतायें) वैसे एक बात जर्रोर है, फ़ुरसतिया जी के असर ने बात को लम्बे खींचना सिखा दिया है
जवाब देंहटाएंशिल्पीजी , ये तो बता दो कहां किसकी अभिव्यक्ति पर अंकुश लग गया। किसने कैसे लगाया?
जवाब देंहटाएंलगता है , समीर जी अखाडे मे ताल ठोंक कर आये हैं…
जवाब देंहटाएंइतनी विस्तृत चर्चा!! धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं//झरने के नल का पानी चला गया होगा// !!! क्या सीन क्रिएट कर डाला आपने तो!
//जैसे खेत में मवेशी घुस आये हों और सबको डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं. //
ओह! ये क्या तुलना कर दी आपने! मेरे लेखन से ऐसा लग रहा था?
//बाजार से खरीद लाओ बना बनाया, और घर की शीशी में भर कर खिला दो.//
ये गलत-गलत क्यूँ सीखा रहे हैं आप हमे!!यहाँ एसे नही चलता है! ये कनाडा नही है!